मन की शीतलता का क्या अर्थ है? || (2015)

Acharya Prashant

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मन की शीतलता का क्या अर्थ है? || (2015)

ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे आपहू शीतल होय॥ ~ संत कबीर

आचार्य प्रशांत: तुम इसका अर्थ कर सको, इसके लिए पहले ज़रुरी है कि तुम्हें ‘शीतलता’ का अर्थ पता हो। नहीं तो इसका तुम वही अर्थ कर लोगे, जो सामान्यतया प्रचलित है – कि मीठा-मीठा बोलो, ऐसा बोलो जो किसी को बुरा ना लगे।

‘शीतलता’ का अर्थ क्या है? ‘शीतलता’ का अर्थ ये है कि जो मन होता है न, वो हर समय जल रहा होता है। हमारे भीतर हर समय आग लगी होती है। उसी आग का नाम ‘मन’ है, उसी आग का नाम ‘मैं’ है। हम लगातार तड़प रहे होते हैं, लगातार भीतर कुछ सुलग रहा होता है। कई बार वो दिखाई पड़ता है, कई बार नहीं दिखाई पड़ता, पर भीतर-ही-भीतर आँच, गर्मी, धुआँ, तड़प होती खूब है।

क्या है ये धुआँ, तड़प? जितना ज़्यादा मन इस बात को महत्त्व देगा कि बाहर-बाहर क्या चल रहा है, वो उतना ही ज़्यादा बाहर को खिंचेगा, वो उतना ही ज़्यादा बाहर को खिंचेगा। तुम हो यहाँ, और वो जाएगा वहाँ। बाहर का मतलब ही है – एक ऐसी जगह जहाँ तुम नहीं हो। ठीक? बाहर का मतलब ही है – एक ऐसी छवि जिसमें तुम अभी मौजूद नहीं हो, जो अभी साकार नहीं हुई।

बाहर का मतलब ही है एक ऐसा भविष्य, जो अभी आया नहीं। मन जितना ज़्यादा बाहर को खिंचता है, उतना ज़्यादा वो तड़पता है, तुमसे ही दूर होता जाता है। बाहर का मतलब ही है, वो जो तुम नहीं हो, जहाँ तुम्हारी ग़ैरमौजूदगी है। समझ रहे हो? इसी को कहते हैं – मन का जलते रहना। जितना ज़्यादा दुनिया की ओर देखोगे, उतना ज़्यादा जलोगे।

तो क्या कह रहे हैं कबीर, जब कहते हैं कि, “ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय, औरन को शीतल करे आपहू शीतल होय”? कुछ ऐसा कह दो कि मन बाहर जाने की जगह, दोबारा वापस आए। तुम्हारे पास रहे, भागे नहीं। तुम्हारा मन तुम्हारे पास रहता है? कोई है ऐसा यहाँ पर जिसका मन उसके काबू में रहता हो, या उसके प्यार में रहता हो, उसके पास रहता हो? तुम्हारा मन कहाँ रहता है? इधर-उधर, हर जगह रहता है, बस तुम्हारे पास नहीं रहता।

जितना ज़्यादा तुमसे दूर है, उतना जलेगा। तो शीतलता इसी में है कि, मन तुम्हारे पास रहे। उसी को ‘ध्यान’ कहते हैं, उसी को कहते हैं ‘वर्तमान में जीना’ कि – “मन मेरा मेरे पास है, मन कहीं भागा नहीं हुआ है।”

कुछ ऐसा कह दीजिए जिससे जिसका मन भागा भी हुआ हो, वापस आ जाए। बहुत मिलेंगे तुम्हें जो तुमसे भविष्य की बातें करेंगे, “अरे! तू क्या कर रहा है अपना भविष्य बनाने के लिए? अरे! तुझे पता नहीं उस जगह पर ये काम चल रहा है, चल वहाँ चलते हैं देख कर आते हैं।” ये तुम्हें बाहर की ओर खींच रहे हैं लोग। ये लोग तुम्हें बाहर की ओर खींच रहे हैं।

कोई तुम्हें भविष्य की ओर खींच रहा है, और कोई तुम्हें किसी दूसरी जगह की ओर खींच रहा है। होता है कि नहीं होता है? लोग आते हैं कि नहीं, कहते हैं कि, “भाई तुझे थोड़ा भविष्य के बारे में भी सोचना चाहिए।” ये आदमी अपनी वाणी का उपयोग कर रहा है तुम्हें तुमसे दूर ले जाने के लिए। अब तुम जलोगे। ये आदमी तुम्हें तुमसे दूर खींच रहा है, भविष्य में खींच रहा है। अब तुम जलोगे।

इसी तरीके से कोई आता है, कहता है, “अरे! तुझे पता है वहाँ ये चल रहा है, यहाँ ये चल रहा है”, ये भी तुम्हें तुमसे दूर ले जा रहा है, तुम जलोगे। दोनों ही वाणी का इस्तेमाल कर रहे हैं, शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं, तुम्हें और जलाने के लिए।

एक इस्तेमाल और होता है शब्दों का, कि कोई तुमसे कुछ ऐसी बात बोल दे कि तुम जो भटके हुए थे, तुम जो ख़ुद से दूर थे, तुम जो जल ही रहे थे, वो वापस आ जाओ। उसको कहते हैं – शीतल हो जाना, कि मन से सारे ख़्याल ही उतर गए इधर-उधर के। मन ना अब भविष्य की ओर भाग रहा है, ना दूसरों की ओर भाग रहा है, मन बस चुपचाप यहाँ आकर बैठ गया है शान्तिपूर्वक, ये ‘शीतलता’ कहलाती है। आ रही है बात समझ में?

‘शीतलता’ का अर्थ ये नहीं है कि किसी से मीठा-मीठा बोल दिया, कि किसी को कुछ ऐसा कह दिया जिसमें वो आहत ना हो जाए। “मन का आपा खोय।” देखो कितने प्यारे तरीके से कहा है, “ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय।” ‘आपा’ माने – ‘मेरा’, ‘मैं’। मन लगातार इस चक्कर में रहता है कि ‘मैं’ हूँ, एक बँटी हुई यूनिट (इकाई), एक आइसोलेटेड (अलग) इकाई, और मुझे अपनी देखभाल ख़ुद करनी है। यही उसका ‘आपा’ कहलाता है। ‘आपा’ – ‘मैं’ होना।

जब भी तुम कहोगे कि, “मुझे अपनी देखभाल ख़ुद करनी है, मुझे अपने हितों की रक्षा ख़ुद करनी है”, तुम तनाव में रहोगे। वही जलन है। तुम जलते हुए रहोगे। “मन का आपा खोय”, माने मन में से ये भावना हट जाना कि उसे अपनी देखभाल ख़ुद करनी है, या उसे अपने लिए ख़ुद कुछ अर्जित करना है।

“मन का आपा खोय”, का मतलब – शान्त रह लो, तुम इस पूरे से एक हो। सूरज अपनी जगह है, तब तुम हो। मिट्टी अपनी जगह है, तब तुम हो। इस पूरी दुनिया की व्यवस्था अपनी जगह है, तब तुम हो। कुछ भी बदल जाता अगर, तो तुम ना होते। हवा में ज़रा-सी ऑक्सीजन कम-ज़्यादा होती, तो तुम ना होते। हवा का दबाव ज़रा-सा कम-ज़्यादा होता, तो तुम ना होते। ये पूरी व्यवस्था जब है, तब तुम हो, यानि कि तुम इससे अलग हो ही नहीं।

तो तुम्हें आपा रखने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। तुम्हारा ‘आपा’ का जो भाव है, ‘मैं’ का जो भाव है, वो झूठा है। वो ऐसी-सी ही बात है कि जैसे मिट्टी से ज़रा-सी घास उगे, और घास बोले, “अरे मुझे अपनी इंडिविजुअलिटी (निजता) की परवाह करनी है।” अरे घास कोई मिट्टी से अलग थोड़े ही है। मिट्टी ने एक रूप धारण किया है, घास का। समझ रहे हो बात को?

घास बिना अपनी इच्छा के पैदा हुई है, और घास हमारी तरह पागल भी नहीं होती कि फिर वो सोचे कि, “अब मैं अपना निर्वाह कैसे करुँगी?” घास को पता है कि – जैसे आ गए, वैसे ही हमारा काम चल जाएगा। हमारा भरण-पोषण हो जाएगा। तो आपा यानी ‘मैं’, यानी अहंकार, ये अस्तित्व में होता ही नहीं है, इंसान के मन के अलावा। “मन का आपा खोय”, और वही तुम्हारी तड़प है, वही तुम्हारी जलन है।

“औरन को शीतल करे आपहू शीतल होय।” शब्द ऐसे बोलो जिससे सामने वाले का अहंकार और जागृत ना हो। उसका अकेले होने का भाव, ये जो ‘मैं’ है न, बड़ा अकेला होता है, वो घिरा दूसरों से रहता है, उनके बीच में बड़ा अकेला रहता है, इसीलिए तो इतना डरा-सहमा रहता है, इसीलिए तो ये हमेशा अपने लिए कुछ करना चाहता है। अपनी सुरक्षा का कुछ-न-कुछ इंतज़ाम करना चाहता है।

कुछ ऐसा मत बोलो किसी से, जिससे उसके डरों को हवा मिले। वो वैसे ही जल रहा है, वो वैसे ही डरा हुआ है, उसे और ना डराओ। उससे मत बातें करो कि, “तेरा क्या होगा?” उसे ये भी मत बताओ कि आने वाले खतरों से निपटने के लिए तू ये सब कुछ कर सकता है। अगर बता सकते हो तो इतना ही बताओ कि, “तुझे कोई खतरा है ही नहीं। सब ठीक है। तेरी कितनी भी बुरी-से-बुरी स्थिति हो जाए, तब भी सब ठीक रहेगा। कोई परेशान होने की बात नहीं है। तू इस पूरे से एक है, ये तेरा घर है। यहाँ तुझे क्या नुकसान हो सकता है? तू क्यों लगातार इस कोशिश में लगा है कि 'अपना कुछ प्रबंध कर लूँ', 'अपना कुछ हित कर लूँ'? तेरा हित देखने वाला कोई और है। तू अपना हित जब भी करना चाहेगा, उल्टे अपना अहित कर लेगा।”

ये जो ‘आपा’ है न, इसी को और संतों ने ऐसा भी कहा है, “आपुइ गयी हिराए।” ‘आप’ ‘मैं’ होने का भाव, ‘हिराए’ – खो गया। हम सब इसी डर में जीते हैं कि – "मेरा क्या होगा?" ये डर है कि नहीं सबको? क्या? “मेरा क्या होगा?” जब तक तुम अपनेआप को एक कटा हुआ हिस्सा समझोगे, दुनिया का, तब तक तुम्हारे मन में छवि हमेशा यही बनती रहेगी कि, जैसे दुनिया तुम्हारी दुश्मन है, और सब तरीके से तुम पर हमला करने चली आ रही है। और तुम्हें लगातार यही चिंता रहेगी कि – "मेरा क्या होगा? मेरा क्या होगा?"

“मैं कुछ अपना इंतज़ाम कर लूँ, सुरक्षा का कुछ आयोजन कर लूँ। कुछ रुपया-पैसा जोड़ लूँ। मेरा क्या होगा?” और जो लोग इस ‘मैं’ के भाव में जीते हैं, यही उनकी सज़ा है। तो ‘मैं’ को पकड़ो, और ‘मैं’ के साथ आएँगी हज़ार चिंताएँ, तनाव, आँसू।

‘शीतलता’ क्या हुई? भटकाव छोड़ो, अपने में वापस आओ। भटकना छोड़ो, अपने में वापस आओ, नहीं तो भटकने का कोई अंत नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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