जब हमारा दमन होता है तब जिस ऊर्जा का दमन हो रहा होता है, वह ऊर्जा हममें सड़ने लगती है। वही ऊर्जा जो एक फूल बन सकती थी, काँटा बन जाती है। जिस ऊर्जा से विकास हो सकता था, वह थम कर बदबू देना शुरू कर देती हैl ऊर्जा को एक बहाव में रहने की ज़रूरत है, दमन जीवन रोक देता है।
~ अज्ञात
आचार्य प्रशांत: ज़रा समझिएगा, क्योंकि ऊर्जा शब्द का भी हम बड़ा इस्तमाल करते हैं, कई बार बिना समझे कि हम क्या कह रहे हैं। ऊर्जा, या शक्ति, तभी तक है जब तक वस्तुएं हैं अन्यथा ऊर्जा जैसा कुछ होता नहीं; ऊर्जा वस्तु है। चूँकि मन वस्तु है, इसी कारण, ऊर्जा भी वहीँ तक है जहाँ तक मन है। ऊर्जा में कुछ विशेष नहीं है। जहाँ कहीं भी आप ऊर्जा शब्द को पढ़ें, तो बस उसको हटाकर मन पढ़ लीजियेगा। क्योंकि ऊर्जा पूरे तरीके से मानसिक होती है और कुछ नहीं होता।
(उदाहरण देते हुए) मैं इसको (पास ही रखी किसी वस्तु को) धक्का दूँ तो यह आगे बढ़ जायेगा। आप कहेंगे थोड़ी-सी ऊर्जा स्थानांतरित हुई, कुछ हुआ। जो कुछ हुआ वो वस्तुओं के साथ हुआ। ऊर्जा के होने के लिए वस्तुओं का होना ज़रूरी है। ऊर्जा पूरे तरीके से मन की पकड़ के भीतर है। ऊर्जा भी एक वस्तु है। जो कुछ भी मन की पकड़ में है, वह वस्तु ही है।
आप लोग अकसर सकारात्मक ऊर्जा और नकारात्मक ऊर्जा की बात करते हैं। कुछ लोग यहाँ तक जाकर बोलने लगते हैं कि भगवान भी ऊर्जा हैं, और इस तरह की बातें, नहीं ऐसा कुछ नहीं है। ‘भगवान ऊर्जा हैं’ कहने का एक ही अर्थ होगा कि भगवान एक वस्तु हैं क्योंकि ऊर्जा वस्तु ही है। कुछ लोग भ्रम-वश बोल जाते हैं कि ‘वह’ क्या है? वह बस एक प्रकार की अदृश्य ऊर्जा है। नहीं, जितनी भी अदृश्य ऊर्जा है, वह सब दृश्यमान की जा सकती है। जो ऊर्जा आपको अदृश्य भी लगती है वह निकली पदार्थ से ही है। हाँ ठीक है, तरंगें आँखों को नहीं दिखाई पड़ती, पर वह निकलती पदार्थ के आघात से ही है। मैं यहाँ पर ताली बजाऊँगा तो आपके कानों पर ध्वनि पड़ेगी। निश्चित रूप से ध्वनि की तरंगें आपको दिखाई नहीं पड़ी हैं, अदृश्य ही हैं। पर वह निकली कहाँ से हैं? वह पदार्थ के आघात से निकली हैं, इसलिए वह भी पदार्थ हैं।
ऊर्जा पदार्थ है।
तो आपने जो लिखा है, अब वहाँ पर मैं ‘ऊर्जा’ की जगह ‘मन’ बोलूँगा और आप देखिएगा कि यहीं की यहीं अनुच्छेद स्पष्ट हो गया कि नहीं हो गया: *“जब हम दमित होते हैं तब जिस मन का दमन हो रहा होता है उसमें खटास पड़ जाती है। वही मन जो फूल बनता, वह काँटा बन जाता है। वही मन जो बढ़ने में मदद करता, वह थम कर बदबू देनी शुरू कर देता है। मन को बहाव में रहने की ज़रुरत है, दमन जीवन के बहाव को रोक देता है।*”
स्पष्ट हो गया?
‘मन बहता रहे’, इसका क्या अर्थ है?
श्रोता १: किसी गतिविधि में रहे।
वक्ता: कहीं न कहीं व्यस्त रहे अन्यथा मन सड़ने लग जाता है।
श्रोता २: नहीं, अगर मन व्यस्त न रहे तो शांत रहता है।
वक्ता : यहाँ लिखा है: “*मन को बहाव में रहने की ज़रुरत है*, दमन जीवन को रोक देता है।” आप बोल रहे हो कि मन के बहाव में रहने का अर्थ है कि ‘विचार चलता रहे’, कैसी बात कर रहे हो आप? मन के बहते रहने का अर्थ ये है कि मन धारणाओं में जकड़ा हुआ न रहे। तथ्य समय है। मन तथ्यों में जिए। मन के बहते रहने का अर्थ ये है कि अभी जो सामने है — किसके सामने? इन्द्रियों के ही सामने — मन को वह स्पष्ट रहे, मन के बहते रहने का यही अर्थ है।
मन केन्द्रित रहे उसपर जो कभी बह नहीं सकता, और मन पूरी तरह बहता रहे उसके साथ जो मन का पदार्थ ही है, समय।
समझ रहे हैं बात को? तो जब सुबह है तो मन के लिए सुबह ही रहे, और जब शाम है तो मन के लिए शाम ही रहे। शाम के समय मन सुबह में न रहे और सुबह के समय मन शाम में न रहे; मन बहता रहे। मन जब राम के सामने है तो राम के सामने रहे और जब मन श्याम के सामने है तब मन श्याम के सामने रहे। ये न हो कि सामने है राम और मन कहाँ बैठा है?
श्रोता ३: श्याम के पास। मन को अटकना नहीं चाहिए।
वक्ता: बस इसका इतना ही अर्थ है कि मन को दबाओ मत, जो तथ्य सामने प्रकट हो रहे हैं उनको होने दो। हमने कुछ देर पहले बात करी थी न कि कुछ सवाल हैं जिनको हम पूछते ही नहीं हैं। जिनको हम कभी पूछना ही नहीं चाहते। जो सवाल उठने के लिए तैयार खड़े हों उन्हें उठने दो। उसी को कह रहें हैं कि अगर नहीं उठने दोगे, तो वो सड़ेंगे। उन्हीं सवालों का यदि समाधान हो जाता तो कह रहें हैं कि जीवन फूल बन जाता पर उन्हीं सवालों को यदि दबाते रहोगे डर के मारे कि पता नहीं क्या हो जायेगा अगर ये मुद्दा छेड़ दिया, उन्हीं सवालों को अगर दबाते रहोगे तो जीवन काँटों से भर जायेगा। तो बात कैसी भी लगे, कड़वी से कड़वी, उसमें सुविधा न जान पड़े, डर लगता हो उसका सामना करने में, पर उसको आने दो। मन ऊर्जा है, उसकी अपनी ऊर्जा है उसको बहने दो। यही जो मानसिक ऊर्जा है जब वह अपनी केंद्र की तरफ़ बहने लगती है, लगातार अपने ही केंद्र की तरफ, तो फिर वही परम उपलब्धि का क्षण होता है, उसी को चाहे समाधि बोल लो, चाहे जो बोलना है बोल लो। और मन की ऊर्जा का अपने केंद्र की तरफ़ बढ़ने का सीधी-साधी भाषा में यही अर्थ होता है कि मन अपने आपको देख रहा है कि ‘मैं कौन हूँ’। मन नहीं बार-बार पूछ रहा कि जो मेरे विषय हैं वो कौनसे हैं, मन नहीं पूछ रहा कि ‘ये कार किसकी है? ये दीवाल क्या है? ब्रह्माण्ड कितना बड़ा है?’, मन ये सारे सवाल नहीं कर रहा। मन की सारी ऊर्जा अपने ही केंद्र की तरफ़ जा रही है। मन सर्वप्रथम अपनेआप से सम्बंधित है। मन की जो मुख्य चिंता है कि ‘मैं कहाँ से आया? मैं कौन हूँ? उसके पास ही रहना है जहां से आया हूँ। उससे दूर नहीं हो जाना है।
मन की ऊर्जा केंद्र की तरफ़ ही जा रही है, इसका मतलब है कि मन की सारी गतिविधियाँ उसी केंद्र को समर्पित हैं। मन कह रहा है कि ‘जो कर रहा हूँ तेरे हेतु कर रहा हूँ, जो किया तुझे दे दिया’।
दमन में इतना ही होगा कि जितना आप उसकी ऊर्जा को दबाओगे, वो उतना ही ज़्यादा और बहिरगामी हो जाएगी, और जितना ज़्यादा आप उसको मुक्तभाव से बहने दोगे, वह उतनी ही ज़्यादा केंद्र की दिशा पकड़ेगी।
शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।
सत्र देखें: आचार्य प्रशांत: मन का दमन व्यर्थ है
इस विषय पर और लेख पढ़ें:
लेख ३: Acharya Prashant on Kabir : मन – दुश्मन भी, दोस्त भी(Mind – The worst enemy, the best friend)
सम्पादकीय टिप्पणी :
आचार्य प्रशांत द्वारा दिए गये बहुमूल्य व्याख्यान इन पुस्तकों में मौजूद हैं:
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