प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, समझाने वालों से हमेशा सुना है कि मन के विरुद्ध सावधान रहना चाहिए। लोग हमें कहते हैं कि मन के मते ना चालीये, लेकिन इच्छाओं, भावनाओं, और मन की लहरों से ऊपर उठने की कोई संभावना होती भी है? मन के पार जाना या मन से ऊपर उठना, अर्थ क्या है इसका?
आचार्य प्रशांत : पहले, जिसको आप मन कहते हो उसको समझना पड़ेगा, फिर समझ में आएगा कि मन के पार जाना या मन से ऊपर उठना ये बात क्या है, इसमें दम कितना है। ये जो कहा न इच्छाएँ हैं, भावनाएँ हैं, मन की लहरें हैं, यही मन है। और इसमें ये जो इच्छाएँ उठती हैं, ये विचार आते हैं, भावनाएँ आती हैं, ये आपसे पूछ कर नहीं आतीं, आपकी सहमति से भी नहीं आतीं। मन अपने आपमें एक व्यवस्था है जो आपने बनायी नहीं है और जो आपके नियंत्रण में नहीं है। इसमें जो हो रहा है स्वयं ही हो रहा है, आपकी सहमति से नहीं हो रहा, आपकी अनुमति से नहीं हो रहा। मन आपसे पूछ कर नहीं चल रहा। हाँ आप ज़रूर मन के ग़ुलाम बन जाते हैं, जो भी भावना विचार वगैरह उठ रहे हैं आप उनके पीछे-पीछे चलने लग जाते हैं।
अब ये जो व्यवस्था है जिसको मन बोलते हैं ये बहुत पुरानी है, और इसका अपना एक उद्देश्य है। इसका उद्देश्य बस इतना ही है कि चलते रहो, ये एक चलती हुई व्यवस्था है जो बस चलते रहना चाहती है, उसको वास्तव में कहीं पहुँचना नहीं है, इसको बस चलते रहना है, बस गोल-गोल चक्कर में घूमते रहना है। वो चक्र में ना घूम रही होती तो शायद कहीं पहुँच भी जाती, पर उसके पास बस एक चक्र है। इच्छा करना, पाना, भोगना, फिर असंतुष्ट हो जाना, फिर इच्छा करना, फिर पाना, फिर भोगना, फिर असंतुष्ट हो जाना, जैसे अब एक चक्र हो गया न? तो ये एक मानसिक व्यवस्था है। इसी तरह से जन्म लेना, तमाम तरह के बंधनों में बंधे रह कर जीना, और फिर मर जाना और मरने से पहले अपने ही जैसा जीवन जीने के लिए कुछ और लोगों को पैदा करके छोड़ जाना – ये एक मानसिक चक्र है, ये चल रहा है।
इसी से आपके विचार आते हैं, इसी से आपकी भावनाएँ आती हैं, इसी से आपकी चंचलताएँ आती हैं, इसीलिए आपको पता नहीं चलता और आप भावुक हो जाते हो, या क्रोधित हो जाते हो, बहक जाते हो, फिसल जाते हो, सो जाते हो। फिर बाद में कई बार सोचते भी हो कि ‘अरे! उस समय मैंने ऐसी बात कैसे कह दी?’ वो इसीलिए कह दी क्योंकि जो बात कही गयी आपसे पूछ कर नहीं कही गयी।
आपके सामने कोई चीज़ आती है, तुरंत आपको विचार आ जाता है कि इस चीज़ को चुन लेते हैं या इस चीज़ को उठा लेते हैं। अब विचार तो आपको बता रहा है कि क्या चुनो, लेकिन इस विचार को आपने नहीं चुना था। आपके सामने कुछ खाने का रखा है और तुरंत आपको विचार आ गया कि चलो इसे खा लेते हैं। तो विचार ने क्या कह दिया है कि क्या चुनाव करो? खाने का चुनाव करो, विचार आपको बता रहा है कि खाने का चुनाव करो। लेकिन क्या आपने चुना था कि ये आपको विचार आए? देख रहे हो विचार पर आपका चुनाव नहीं चल रहा, लेकिन आपके चुनाव पर विचार का पूरा नियंत्रण, पूरा अधिकार हो गया है।
तो ये ग़ुलामी की हालत है, इसीलिए समझाने वालों ने कहा है कि विचार से सतर्क रहो। वो तुमसे पूछ कर नहीं चलता, उसके अपने चक्कर हैं, अपने इरादे हैं, उसकी अपनी व्यवस्था है। तुम क्यों उसकी व्यवस्था का शिकार हो जाते हो? क्योंकि जहाँ तक तुम्हारी बात है, तुम अपने लिए एक अलग प्रयोजन रखते हो जीवन का। तुम्हारा प्रयोजन है आज़ाद जियूँ, भरपूर जियूँ। और जहाँ तक मन की बात है, उसका प्रयोजन बस ये है कि जैसी आज तक जीवन की व्यवस्था चलती रही है वो तुम भी जी लो।
तुमसे पुछा जाए तो शायद तुम कह दोगे कि ‘भले ही कम जियूँ लेकिन ऊँचा जियूँ या गहरा जियूँ’। मन की जो प्राकृतिक व्यवस्था है उसमें ऊँचाई या गहराई के लिए कोई जगह नहीं है, वहाँ बस ये है कि जिए जाओ जिए जाओ। समझ में आ रही है बात?
तो ये दो अलग इकाइयाँ हो गयीं – एक मन और एक तुम, एक मन और एक तुम। इसी को थोड़ा और शास्त्रीय भाषा में कह सकते हो प्रकृति और पुरुष, या संसार और 'मैं', माने अहम्। समझ में आ रही है बात? किसी भी नाम से इन दोनों को पुकार लो, एक बात पक्की है ये दोनों अलग-अलग हैं भाई। और ये जितना अलग रखे जाएँ उतना ज़्यादा अच्छा है। किसके लिए? तुम्हारे लिए, माने अहम् के लिए उतना ज़्यादा अच्छा है कि जितने अलग रहेंगे। और जितना ज़्यादा तुम प्रकृति की व्यवस्था से लिप्त रहोगे, उतना ज़्यादा अपूर्ण इच्छाओं के शिकार रहोगे।
लावारिस होती हैं वो इच्छाएँ, तुम्हें कुछ पता नहीं होगा कहाँ से आ रहीं हैं, और गुमनाम होती हैं, अपना पता ठिकाना नहीं बतातीं, बस आ जाती हैं। तुम्हें पता है तुम्हारी इच्छाएँ कहाँ से आती हैं? तुम्हें पता है तुम्हारी इच्छाओं का स्रोत कौन है? तो इच्छाएँ क्या हुईं फिर? लावारिस! बस इच्छा कहीं से आ जाती है एक गुमनाम अजनबी की तरह और हमपर कब्ज़ा करके चली जाती है। और फिर हमारा क्या काम है? एक ग़ुलाम की तरह उस इच्छा को पूरी करने की पूरी कोशिश करते रहना, और उसमें अपनी ऊर्जा लगा देना, समय लगा देना, ज़िन्दगी लगा देना।
तो ग़ुलामी तो ग़ुलामी, ये एक ऐसी ग़ुलामी है जिसमें तुम्हें अपने मालिक का नाम तक नहीं पता। ग़ुलामी तो ग़ुलामी, ये एक ऐसी ग़ुलामी है जिसमें तुम्हें पता भी नहीं होता कि तुम कितने बड़े ग़ुलाम हो। इसलिए समझाने वाले कह गए हैं न कि मन के मते ना चालिये। मन के मते चलने का मतलब है बहुत-बहुत गहरी ग़ुलामी।
अब दूसरी बात तुमने पूछी है कि मन के पार या मन के आगे भी कुछ है क्या? देखो वो बस एक मुहावरा है। समझाने के लिए एक बात कह दी गयी है कि मन के आगे निकलो, मन के पार जाओ। मन के आगे की ज़्यादा बात करोगी तो यही पता चलेगा कि मन के आगे और भी मन है, मन-ही-मन है। जिस चीज़ की बात कर सको वो मन ही है, जिस भी चीज़ की बात कर सको, कल्पना कर सको वो सब मन है। तो मुद्दा ये नहीं है कि मन के आगे क्या है, या पार क्या है, मुद्दा ये है कि तुम्हें सीमाओं का पता होना चाहिए। मन के आगे की जब तुम बात करते हो तो तुम ये कह रहे हो कि मन की सीमा से आगे जाना है। मन की सीमा से आगे जाना कोई ज़रूरी नहीं है, लेकिन इतना तो तुम्हें पता हो न कि अभी जो कुछ चल रहा है वो मन की सीमा के अंदर ही चल रहा है, माने मानसिक ही है – ये पता होना ज़रूरी है। क्या हमें ये पता नहीं होता अक्सर? हाँ, हमें ये पता नहीं होता। जो कुछ मानसिक होता है हम उसको असली समझ बैठते हैं।
एक उदाहरण दिए देता हूँ छोटा-सा, आपको कोई भावना आ रही है, कोई फ़ीलिंग – और हम सबको आती है, ऐसा तो कोई है नहीं जिसे नहीं आती – और जिस क्षण में आपको वो भावना अनुभव हो रही है, उस क्षण में वो भावना आपके लिए सच है। सच है कि नहीं है? समझाने वालों ने बहुत कहा है, मैं भी आपसे अभी कहना चाहता हूँ, आपके अनुभव में वो निश्चित रूप से सच है पर वो सच है नहीं, आपको प्रतीत हो रही है, आपको अनुभव हो रही है कि सच है, पर वो वास्तव में सच है नहीं। समझ रहे हैं?
अब वो चीज़ है मन की सीमा के भीतर की, लेकिन हमने उसको मान लिया है सत्य, अब हम फँसेंगे। हम बहुत फँसेंगे, जैसे कोई धुंएँ को पहाड़ मान ले, जैसे कोई आइने में देखी छवि को या किसी तस्वीर को इंसान मान ले। फँसेगा न? वैसे ही मन की सीमाओं के भीतर जो कुछ भी चल रहा होता है उसको तुमने अगर सच मान लिया तो बहुत बुरा फँसोगे। तो सवाल उठता है, उसको क्या मानें? झूठ माने? नहीं, बड़ा मुश्किल हो जाएगा उसको झूठ मानना, तो बस ये मान लो कि मानसिक है, जो हो रहा है मानसिक है।
भीतर से बड़ी बेचारगी उठ रही है, हाँ उठ तो रही है, अनुभव हो रही है, हम ये नहीं कहेंगे कि ‘नहीं हमें ऐसी कोई बेचारगी अनुभव नहीं हो रही’, हो तो रही है। तो वो सच है बेचारगी या झूठ है जो भावना अनुभव हो रही है? देखो सच तो है नहीं, और झूठ उसे कह नहीं सकते। क्यों नहीं कह सकते झूठ? क्योंकि अनुभव तो हो ही रही है बस इतना कह देंगे कि मानसिक है। समझ में आ रही है बात?
एक बार तुमने कह दी कोई चीज़ मानसिक है, तो तुमने उसे मन की सीमा के भीतर रख दिया। बस यही करना बहुत ज़रूरी है, मन है, मन है, मन है। और होता ये है कि जो व्यक्ति जानने लग जाता है कि क्या-क्या है और कितना कुछ है मन की सीमा के भीतर, वो सीमा तक पहुँच जाता है। सीमा के पार क्या है ये सब मत पूछना, सीमा तक पहुँच जाओ ये ही बड़ी बात है।
क्योंकि मन के पार अगर कुछ है भी तो उसकी ऐसे चर्चा नहीं की जा सकती। क्यों नहीं की जा सकती? क्योंकि मन के भीतर क्या है? मन के भीतर सारा संसार है, और मन के भीतर तुम भी तो बैठे हुए हो जो संसार का अनुभव लेते रहते हो वहीं बैठकर के। तुम पर भी बिलकुल छाप और छाया पड़ी हुई है पूरे संसार की क्योंकि तुमने उम्र भर करा क्या है? संसार के प्रभावों को ही तो सोखा है। अब अगर मन के पार की बात करोगे तो ज़ाहिर-सी बात है वहाँ संसार तो नहीं, क्योंकि संसार कहाँ है? मन के भीतर।
संसार भी नहीं, और तुम भी नहीं। क्योंकि मन के भीतर तुम दोनों ही थे ‘संसार और मैं’, ये जो ‘मैं’ है न ये भी मन के भीतर ही घूमता रहता है। मन के बाहर तो ‘मैं’ भी नहीं, जब ‘मैं’ भी नहीं तो मन के बाहर अगर कुछ है भी तो उसकी बात ही कौन करेगा। इसीलिए मन के पार वगैरह की बात बेईमानी जैसी हो जाती है। लोग कहते हैं मन के पार निकल आए ‘मैं’ को बचाए-बचाए – कैसे संभव है? मन के पार तो पार की बात करने वाला ‘मैं’ भी तो नहीं बचेगा न। तो बात कौन करेगा? तो वो बातचीत हम करना नहीं चाहते।
अध्यात्म का बिलकुल कोई उद्देश्य नहीं है मन के पार के किस्से बनाने में। ऐसा प्रकाश होता है, ऐसा अनुभव होता है, ऐसा आनंद होता है, ऐसा रस होता है, ऐसा नाद बजता है मन के पार। इस तरह की बातें अगर कहीं हो रहीं हों तो इतना तो जान लेना कि वो बातें आध्यात्मिक नहीं, वो बातें भी मानसिक ही हैं।
अध्यात्म मन के पार की बातें करने का नाम नहीं है। मन के भीतर जो कुछ है उसको साफ़-साफ़ समझ लेने का नाम है। छोड़ो मन के पार क्या है, मन के भीतर जो कुछ है बस तुम उसको सच का नाम मत दो। दोहरा रहा हूँ, जो कुछ भी है, तुम, तुम्हारी भावनाएँ, तुम्हारे विचार, ये पूरा संसार, ये दिखे, ये अनुभव हो, ये ज़ोर डाले, ये बार-बार अपना एहसास दिलाए – तुम हामी भरो, तुम सर हिला कर कहो, ‘हाँ तुम प्रतीत तो हो रहे हो, अनुभव तो तुम खूब होते हो’, मुस्कुरा दो, ‘लेकिन फिर भी मैं ये नहीं बोलूँगा कि तुम वास्तविक हो। तुम वास्तविक कैसे हो सकते हो?’ कोई चीज़ अगर वास्तव में है तो उस चीज़ से बिलकुल भिन्न कोई इकाई चाहिए न जो उसको सत्यापित कर देगी?
अब ये खम्बा है, हम इसीलिए कह पाते हैं न कि ये खम्बा है क्योंकि यहाँ पर पाँच लोग बैठे हैं और पाँचों उस खम्बे से बिलकुल भिन्न हैं, अलग हैं, और पाँचों कह पाते हैं, सर्टीफ़ाइ कर पाते हैं कि खम्बा है। तो किसी चीज़ के होने के लिए ज़रूरी है कि उससे बिलकुल भिन्न कोई दूसरी चीज़, कोई दूसरी इकाई आकर के उसका सत्यापन, वेरिफ़िकेशन कर दे, फिर ठीक है।
लेकिन अगर मामला कुछ ऐसा हो कि एक जगह है जहाँ पाँच लोग हैं, और पाँचों एक-दूसरे के रिश्तेदार ही हैं, और पाँचों एक-दूसरे को सत्यापित करते हुए, सर्टिफ़ाइ करते हुए कह रहे हैं कि ‘साहब हम तो पाँचों बहुत ईमानदार हैं।‘ तो क्या हम मान सकते हैं कि पाँचों ईमानदार हैं? क्यों नहीं मान सकते? क्योंकि वो सब एक-दूसरे के रिश्तेदार हैं, वो एक दूसरे से बिलकुल भिन्न नहीं हैं, उनमें आपस में रिश्ता है।
जिन दो में आपस में रिश्ता हो वो एक दूसरे को कभी भी सच्चाई से जान नहीं सकते, क्योंकि वो एक दूसरे से ही बने हैं, उनमें से एक के पास ये शक्ति नहीं है कि वो दूसरे को बिलकुल विरक्त हो करके, निरपेक्ष हो करके देख सके। जब देख ही नहीं सकता तो उसकी सच्चाई कैसे पता चलेगी? या पता चल सकती है? नहीं चल सकती न? अब देखो कि संसार में और अहम् में क्या रिश्ता है। ये जो ‘हम’ हैं, ये बने ही किससे हैं? संसार से। जब हम बने ही संसार से हैं तो हम ये कैसे कह पाएँगे कि संसार झूठ है? नहीं कह सकते न?
सामने गेंहूँ रखा है, तुम कह सकते हो कि गेहूँ झूठा है? जो ज़बान तुम चलाओगे ये कहने के लिए कि गेंहूँ झूठा है, वो ज़बान भी किससे बनी है? गेहूँ से ही बनी है। तो रिश्ता है जैसे उन पाँच लोगों में आपस में रिश्ता था और इसलिए उन पाँचों की एक दूसरे के बारे में कही गयी बात मानी नहीं जा सकती। उस बात की कोई वैलिडिटी , ऑथेंटिसिटी नहीं मानी जाएगी न? ठीक इसी तरीके से इंसान संसार के बारे में जो कुछ कहता है उसमें कोई दम नहीं होगा। क्योंकि हमने अपनी सारी पहचानें ही कहाँ से ली हैं? दुनिया से ली हैं। वो पहचानें हमें दुःख देती हों, दर्द देती हों, जो भी देती हैं, लेकिन अब दुनिया से ले तो ली हैं, और उन्हीं से हम अपनी हस्ती मानते हैं। समझ में आ रही है बात?
इसी चीज़ के ख़िलाफ़ सतर्क रहना है, कि ‘जी, हम दुनिया में रहे हैं, हम, जिसने ये सवाल पूछा है जो सब लोग हम अनुभव लेते हैं, जी हम दुनिया में रहे हैं, लेकिन दुनिया चीज़ क्या है ये पता करने का हमारे पास कोई स्वतंत्र माध्यम नहीं है।‘ हमारे पास कोई रिलाएबल एजेंसी नहीं है जिससे हम दुनिया की सच्चाई पता कर सकें, क्योंकि हम बने ही किससे हैं? दुनिया से। तो दुनिया की सच्चाई पता करना बड़ा मुश्किल हो जाएगा, बहुत मुश्किल है।
दुनिया की सच्चाई इसीलिए कभी भी किसको पता चल सकती है? जो दुनिया से ना बना हो। तुम्हारे भीतर अगर कुछ ऐसा हो जो दुनिया से नहीं बना, सिर्फ़ वही इकाई, वही बिंदु, वही एजेंसी भीतर की दुनिया की सच्चाई का पता भी कर पाएगा, अन्यथा कुछ नहीं।
तो अब देखो, इतना कुछ मन के भीतर ही गड़बड़ चल रहा, और आप पूछ रहे हो कि मन के पार, मन के ऊपर कैसे जाना है – ये कोई पूछने की बात है? मन के भीतर ही इतने खेल चल रहे हैं, गड़बड़ियाँ चल रहीं हैं, बहुत कुछ ऐसा चल रहा है जो बहुत घातक है हमारे लिए, उसका तो पता करें। समझ गए बात को?
एक बात मैं थोड़ा-सा और बोलूँगा, ईमानदारी का तकाज़ा है, देखो, इस मुद्दे पर मैं पहले बहुत बार बोल चुका हूँ। और अभी मैं बोल रहा हूँ तुमसे लेकिन मुझे ये एहसास हो रहा है बोलते हुए, मैंने पहले जब बोला है कुछ ऐसी ही बातें समझाने के लिए तो शायद मैंने और सफ़ाई से बोला है, और ज़ोर से बोला है। ज़ोर से मतलब चिल्ला कर नहीं, और ऊर्जा के साथ बोला है। अभी मैंने आपसे बात करी शायद दस मिनट, पंद्रह मिनट, मैंने कुछ बोला होगा। इस मुद्दे पर पहले मैं शायद आधे घंटे, एक घंटे बोल चुका हूँ। तो इसमें मेरा निवेदन रहेगा कि पहले ही जो बोला जा चुका है उस पर थोड़ा ग़ौर करें। वक्ता भी हर समय एक-सी स्थिति में नहीं होता है, तो कभी लय बिलकुल बन जाती है, कभी कुछ कारणों से, परिस्थितियों से उतनी नहीं बनती है।
कई तरीकों से इस मुद्दे पर, मन के मुद्दे पर बोला जा सकता है, पहले बोला भी है, और अच्छा है कि वो सब रिकार्डेड भी है तो आप उसका फ़ायदा उठाइए। उन सब चीज़ों को देख लीजिएगा।
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