मैं कौन हूँ? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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मैं कौन हूँ? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: मेरे मन में ये प्रश्न बहुत बार आता है कि ‘मैं कौन हूँ?’। इसका उत्तर क्या है?

वक्ता: इसको ऐसे समझो कि मेरी उंगली का जो ये सिरा है, जिससे मैं सब कुछ छूता हूँ, ये स्वयं को नहीं छू सकता। कोशिश कर के देख लो। उंगली का कोई भी बिंदु, स्वयं को नहीं छू सकता। तुम्हारी त्वचा का कोई भी स्थान, स्वयं को नहीं स्पर्श कर सकता। किसी और को स्पर्श कर सकता है, लेकिन वो हिस्सा स्वयं को नहीं स्पर्श कर सकता। आँख, पूरी दुनिया को देख सकती है पर स्वयं को नहीं देख सकती। कुछ भी कर ले, स्वयं को नहीं देख सकती। तुम आईने में भी देखोगे तो बाहर का आकार ही दिखाई देगा। वो जो देखने वाली इंद्रिय है, वो नहीं दिखाई देगी। यही इंद्रिय सब को तो देख रही है, पर स्वयं को नहीं देख सकती।

इन बातों का अर्थ समझो। जो कुछ भी तुम देख, सुन या छू सकते हो, वो तुम नहीं हो! देखने वाला, ‘दृष्टा’ और जो देखा जा रहा है, ‘दृश्य’, इन दोनों का अलग-अलग होना पक्का है। ‘दृष्टा’ और ‘दृश्य’ दोनों एक तो नहीं हो सकते ना? जो कुछ भी तुम समझ सकते हो, वो तुम नहीं हो। तुम क्या-क्या समझ सकते हो? क्या-क्या है, जिसके प्रति तुम सिर्फ़ एक दर्शक का भाव रख कर समझ सकते हो कि ऐसा चल रहा है? तुम इस पूरी दुनिया को देख के समझ सकते हो, तो ज़ाहिर सी बात है की तुम वो (इशारा करते हुए) पेड़ नहीं हो। सीधी-सी बात है कि तुम ये दीवार नहीं हो। ये कपड़े भी ऐसे ही हैं। तुम जानते हो कि ये कपड़े हैं अलग हैं और तुम अलग। तो तुम तुम्हारे वस्त्र भी नहीं हो।

थोड़ा और गहराई में जाते हैं। वो बाहर, फिर ये कपड़े, अब ज़रा इस शरीर की बात करते हैं। इस शरीर में भी जो कुछ घटता है, होता है, उसको भी तुम समझो कि शरीर में हो रहा है, और मैं देख रहा हूँ। क्या तुम कहते नहीं हो, ‘मुझे गुस्सा आ रहा है’? मतलब मन में, शरीर में गुस्सा आ रहा है। शायद शरीर कड़ा हो रहा होगा, गाल लाल हो रहें होंगे। निश्चित रूप से गाल स्वयं को तो नहीं देख रहा होगा ना कि मैं लाल हो रहा हूँ। निश्चित रूप से तुम्हारे हाथ फड़क रहा है, तो ये हाथ स्वयं को तो नहीं देख रहा होगा ना कि मैं उत्तेजित हो रहा हूँ? तुम कोई हो, जो इन सब को देख रहा है। तुम इनसे अलग कुछ हो, इनसे पृथक कुछ हो, कोई हो, जो ये सब देख रहा है कि मन में गुस्से का विचार आ रहा है। तो शरीर भी नहीं हो तुम।

अब शायद ये लग रहा होगा कि मैं शायद मन हूँ, जिसमें ये सब विचार आ रहा है। पर अगर तुम ध्यान से देखोगे तो उन विचारों को भी तो तुम देख पाते हो ना? क्या तुम ये नहीं कहते कि मैं ये सब फिर सोचने लगा? इसका अर्थ ये है कि जो सोच उठती है, तुम उसको भी देख सकते हो, तुम उसके भी दर्शक हो। एक-एक विचार जो उठता है, जो तरंग उठती है, तुम उसको भी तो देख पाते हो ना? यानी की तुम उससे भी अलग हो। अलग ना होते तो देख ना पाते!

जो पहली बात थी, उसको भूलना नहीं। दृश्य और दृष्टा दोनो अलग-अलग होते हैं, अलग ना होते, तो देख ना पाते। जो कुछ भी तुम देख सकते हो, तुम वो ‘हो’ नहीं हो सकते। क्योंकि हम अपने विचारों को भी देख सकते हैं, तो स्पष्ट है कि हम हमारा मन भी नहीं हैं। तो ये तो बड़ी अड़चन हो गयी! बचा क्या अब? ना शरीर हैं हम, ना मन हैं, और आप इन दोनो को हटाए दे रहे हैं, तो सब कुछ हट गया! हर प्रकार को अवधारणा हट गयी। अब आप जो कुछ भी बोलेंगे की “मैं ये हूँ”, वो आपके मन का विचार ही है जो आप बोल रहे हैं। तो जो कुछ भी आप बोल रहे हैं, इसका अर्थ है कि आप वो नहीं हो सकते। और समस्त विचार, आपके लिए दृश्य की भाँति है, और आप दृष्टा हैं उनके। इसका अर्थ है कि आप जो कुछ भी बोलें की ‘मैं ये हूँ’, आप वो नहीं हो सकते। वो तो एक मानसिक विचार है, जो आपने बोला।

‘मैं कौन हूँ?’, इसका उत्तर प्राथमिक तौर पर सिर्फ़ निषेध के द्वारा दिया जा सकता है। सिर्फ़ नकारा जा सकता है कि तुम ये नहीं हो, ये भी नहीं हो, कुछ भी नहीं हो। तुम एक शून्य हो, एक रिक्तता! मन इसे मानेगा नहीं, मन को बड़ी अड़चन होती है।कहता है, ‘मैं शून्य कैसे हो सकता हूँ? इतना बड़ा शरीर दिख रहा है, ये मन है, जिसमें दुनिया भर के विचार उठते हैं। संकल्प, कल्पनायें उठती हैं, मैं शून्य कैसे हो सकता हूँ?’ ठीक है, हम शून्य शब्द का प्रयोग नहीं करेंगे। फिर हम कहेंगे कि तुम वो दर्शक हो, जो ये सब देख लेता है। उस दर्शक का नाम है, ‘देख पाने की शक्ति’। वो दर्शक कोई व्यक्ति नहीं है निश्चित रूप से। वो दर्शक कोई चीज़ नहीं है, जो यहाँ कहीं हो। एक ताक़त है, एक शक्ति है, जो देख पाती है- तुम ‘वही’ हो। इस बात के परिणाम बहुत बहुत दूर तक जाते हैं, ध्यान रखना।

तुम्हारी असली पहचान सिर्फ़ ये है कि तुम वो समझ हो, जो समझ सकती है, तुम सिर्फ़ बोध की शक्ति हो, जान पाने की ताक़त हो तुम, उसके अलावा बाकि सब तुम नहीं हो! इसका अर्थ ये है की बाकि सारी पहचानें जो तुमने बना रखी हैं, वो किसी ना किसी स्तर पर झूठी पहचानें हैं।

तुम प्रश्न तो पूछ्ते हो कि ‘मैं कौन हूँ?’, पर देखो तुमने कितनी ढेर सारी पहचान बना रखी हैं! तुम कहते हो, ‘मैं हूँ पुरुष, मैं हूँ हिंदू या मुस्लिम’। तुम कहते हो, ‘मैं हूँ एक छात्र’। तुम कहते हो, ‘मैं हूँ उत्तर प्रदेश का निवासी’। कितने ही तरीकों से तुम रोज़ाना इस प्रश्न का जवाब देते रहते हो, कि ‘मैं कौन हूँ?’ निषेध का अर्थ होता है सर्वप्रथम ये जानना- ‘मैंने ये सब जो उत्तर दे रखे हैं, मैं उनमें से कुछ भी नहीं हूँ! ये सब झूठे हैं। मैं इनमें से कुछ भी नहीं। ये सारी पहचानें तो झूठी हैं। मैं तो सिर्फ़ वो बोध हूँ, वो समझने की शक्ति हूँ जो सब कुछ समझ सकता है’। जीवन तो हमारा ऐसे नहीं बीत रहा है। जीवन हमारा, सिर्फ़ इस बोध में ही तो नहीं बीत रहा ना? जीवन तो हमारा बस प्रभावित हो कर बीत रहा है उन सब से, जो मैं हूँ ही नहीं।

‘जो मैं हूँ, जो मैं वास्तविक में हूँ, ‘समझने की काबिलियत’, उसको तो मैंने जीवन में जगह ही नहीं दे रखी है। समझ को, बोध को, विवेक को, इनको मैंने जीवन में कोई जगह ही नहीं दे रखी है। और जिनसे मैंने जीवन को भर रखा है, वो सब नकली हैं’। नतीजा, ऐसा जीवन जैसा हमारा है! क्योंकि ये तो बड़ा नकली जीवन हुआ। ‘मैं जो हूँ, वो तो गायब है, छुपा बैठा है, दबा दिया।और जो मैं नहीं हूँ, उसको मैंने सिर पर चढ़ा रखा है’।

मूलतः तुम सिर्फ़ एक ‘बोध-शक्ति’ हो। और अगर तुम इस बुद्धत्व के साथ जीवन नहीं बिता पा रहे, तो जीवन व्यर्थ है।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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