प्रश्नकर्ता: मुझे ईश्वर में विश्वास करना कठिन लगता है। मैं क्यों मानूँ कि कोई महान या संचालक सत्ता कहीं है या सब कुछ चला रही है।
अगर मैं नास्तिक हूँ और ईश्वर में विश्वास नहीं करता, तो क्या मैं आध्यात्मिक नहीं हो सकता?
आचार्य प्रशांत: अच्छा मुद्दा है, सबके काम आएगा, इस पर मैं कुछ बोलता हूँ, फिर आप अपनी बात या जिज्ञासा सामने रखिएगा। देखिए, अध्यात्म किसी दैवीय सत्ता पर विश्वास करने के बारे में बिलकुल भी नहीं है। ठीक है? अध्यात्म बिलकुल नहीं कहता है कि आपको किसी भगवान या ईश्वर पर विश्वास होना चाहिए या करना होगा, बिलकुल भी नहीं। समझिएगा। शुरुआत कहाँ से होती है अध्यात्म की? अध्यात्म का अर्थ होता है; मार्मिक अर्थ भी और शाब्दिक अर्थ भी, स्वयं को जानना, स्वयं को साफ़ जानना, गहराई से जानना।
अधि: आत्म, अधि: आत्म, और ये जो अधि: है, ये वैसा ही है, जैसा अधिक में इस्तेमाल होता है। अधिक में जब आप अधि: का प्रयोग करते हैं तो वो किसका सूचक होता है? बाहुल्य का, आधिक्य का, तो आत्म माने क्या? ‘मैं।’
तो अधि: आत्म क्या हो गया? अधिक मैं, गहरा मैं, असली मैं। ‘मैं कौन हूँ?’ अब इसमें बताइए ईश्वर आ रहा है कहीं पर? इसमें कहीं पर ईश्वर की बात है क्या? ये तो कहा जा रहा है कि मैं-मैं तो पूरी दुनिया करती रहती है। यहाँ कोई ऐसा बैठा है जिसने दिन में आज ही पचास बार मैं न बोला हो? है कोई ऐसा?
मैं-मैं सब करते रहते हैं, पर दुनिया को जानना तो दूर की बात है। हमें यही नहीं पता होता है कि ये मैं कौन है, जिसकी बात करी जा रही है, कौन है जो उस मैं की बात कर रहा है। तो इसलिए है; अध्यात्म। ठीक है? ये अध्यात्म है। अब ये कौन है जो मैं की बात करता रहता है? मैं का विचार ही किसको उठता है?
जिसको मैं का विचार उठता है, उसको कहते हैं, चैतन्य मन। उसी चैतन्य मन को कभी चेतना भी कह देते हैं, कभी सिर्फ़ मन भी कह देते हैं। ठीक है? कभी उसे चेतना माने काॅन्शियसनेस भी कह देते हैं, कभी उसको सिर्फ़ मन या माइंड भी कह देते हैं। वो अलग-अलग सन्दर्भों में प्रयोग का भेद है। किसी संदर्भ में कांशियसनेस या चेतना कहना ज़्यादा उपयुक्त होता है और किसी दूसरे सन्दर्भ में मन या माइंड कहना ज़्यादा उपयुक्त होता है। लेकिन एक बात पक्की है कि मैं और मन चलते साथ-साथ ही हैं। ठीक है?
अब मैं के बारे में जानना क्यों है? जानना इसलिए है क्योंकि मैं ही है जो तड़पता है, परेशान रहता है, जिसको तमाम तरह की समस्याएँ हैं। है न? मैं ही तो परेशान होता है न? कुछ और परेशान हो तो क्या वो बात आपके लिए समस्या बनेगी? कहिए। उस दीवार पर, वहाँ पर पेंट (रंग) थोड़ा सा झड़ रहा है, ये बात आपके लिए बहुत बड़ी समस्या हो सकती है क्या? हो सकती है अगर उस दीवार का मैं से नाता हो। नहीं तो कोई बड़ी समस्या नहीं है, आपकी आज तक जितनी भी समस्याएँ हैं, वो वास्तव में किसके लिए हैं?
वो दीवार भी समस्या हो सकती है, अगर वो दीवार आप कहें कि मेरी दीवार है। ठीक? उस दीवार के साथ कुछ भी हो रहा हो, वो समस्या बन सकता है, अगर उसके साथ मैं जुड़ गया तो। तो समस्या नहीं होती, मैं के लिए समस्या होती है, तो देखने वालों ने ये देखा, उन्हें ताज्जुब हुआ।
बोले ये अचम्भे की बात है, समस्या बदलती रहती है, जिसको समस्या हो रही है, वो निरन्तर है। किसको है समस्या? ‘मैं’ को। तो उनको थोड़ा सा फिर सन्देह हुआ, वो बोले, ‘फिर समस्या; समस्या है या ‘मैं’ समस्या है।
क्योंकि जो चीज़ आज समस्या थी, वो कल नहीं रहती और जो चीज़ आज बहुत प्यारी है, वो कल समस्या बन सकती है तो ये समस्याएँ तो आती-जाती रहती हैं।
लेकिन जिसको समस्या है, वो अपनी जगह बैठा हुआ है, उसकी करतूतें नहीं खत्म हो रहीं, वही है जो दुखी है, वही है जो दुखी करे जा रहा है।
तो उनको कुछ कौंधा। उन्होंने कहा, ‘फिर असली समस्या कहीं बाहर नहीं है, असली समस्या भीतर ही है, जो समस्याग्रस्त है, वही असली समस्या है।’
“जिसको समस्या है, वो ही समस्या है।”
सबसे बड़ी नहीं, एकमात्र। जिसको समस्या है वो ही समस्या है। द प्रॉब्लम्ड इज़ द प्रॉब्लम। द डिज़ीज़्ड इज़ द डिज़ीज़। ठीक है न? रोगी ही रोग है। वो तो कहा फिर तो, सब उल्टा-पुल्टा हो गया। जैसे ही ये बात समझ में आती है, किसी की भी ज़िन्दगी में, सब उलट-पुलट हो जाता है। उसकी पूरी नज़र बदल जाती है, दृष्टि अन्तर्गामी हो जाती है। आ रही है बात समझ में? और ये मन और मैं साथ-साथ चलते हैं। ये भी देख लिया कि मैं के साथ कुछ भी जोड़ लो, वो उसे धीरे-धीरे समस्या बना ही देगा।
क्योंकि मैं या मन तो है ही समस्या का दूसरा नाम। फ़र्क नहीं पड़ता इनके साथ क्या जोड़ा, जो कुछ भी जोड़ा वही समस्या बन जानी है। तुम ऊँची-से-ऊँची चीज़, शुद्ध से शुद्ध चीज़ मन के साथ जोड़ लो, मैं से उसका नाता कर लो, वो चीज़ भी समस्या बन जाएगी।
कुछ ऐसा हो नहीं सकता जो आज आपको बहुत शुभ लगे, बहुत प्रीतिकर लगे, बहुत आकर्षक लगे और जीवन के किसी-न-किसी मुक़ाम पर आपके लिए वो अरुचिकर समस्या न बन जाए। वास्तव में आप अपनी समस्याओं का अगर थोड़ा सा विश्लेषण करेंगे तो दिखायी देगा कि बहुत सारी समस्याएँ ऐसी ही हैं जो कभी बहुत सुहानी थीं। जो चीज़ आज सुहानी होती है, वो कल समस्या कैसे बन जाती है?
इसका मतलब है कि चीज़ नहीं बदल जाती, चीज़ को दोष मत देना, ये मत कह देना कि लोग मौसमों की तरह होते हैं और फिर बदल जाते हैं। नहीं, लोग नहीं बदल जाते, तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा बैठा है जो इतना हुनरमंद है कि तुम उसको गंगाजल भी दे दो तो वो उसको ज़हर बना देता है।
क्या नाम है उसका? अहम्। उसी को मैं बोलते हैं न, अहम् माने मैं। हमारे भीतर कुछ ऐसा बैठा है जिसके साथ कुछ भी जोड़ दो, वो उसको ख़राब ही कर देता है।
जैसे आपके हाथ में ही गन्दगी लगी हो, इसमें कुछ भी डाल दिया जाए तो क्या हो जाएगा वो? तो हम ही गन्दे हैं, हमसे किसी भी चीज़ का नाता हुआ नहीं कि वो चीज़ गन्दी हो जाएगी। लेकिन अगर गन्दा बना रहना है, तो ये स्वीकार क्यों करें कि हम गन्दे हैं; फिर तो आवश्यक हो जाता है, दोष दूसरे पर डालना।
अध्यात्म वहाँ शुरू होता है, जहाँ आप ये लगायी-बुझायी, दोषारोपण, इन सब चीज़ों में रस लेने से थोड़ा ऊपर उठ जाते हैं। नहीं तो हमें इसी बात में बड़ा मज़ा रहता है, क्या?
समस्या थी, कष्ट भोगा लेकिन इल्ज़ाम किसी और पर लगा दिया। हर व्यक्ति अपनी नज़र में पीड़ित और शोषित ही बना रहना चाहता है। है न? आप जितने बड़े विक्टिम (शोषित) हैं, उतनी ज़्यादा आपको फिर सहानुभूति मिलती है और मुआवज़ा भी मिलता है।
तो मैं क्यों न ऐसे जियूँ, जैसे मैं जीवन के हाथों बहुत प्रताड़ित रहा हूँ। और जहाँ आप ये कहेंगें कि मैं तो प्रताड़ित रहा हूँ, तहाँ आपने ऊॅंगली मैं से विपरीत ही किसी दिशा में उठा दी।
आपने नहीं उठा दी, किसने उठा दिया? ‘मैं’ ने ही उठायी है। और वो बड़ा मुस्करा रहा है। कह रहा है, ‘फिर बच गये।’ असली चोर भीतर बैठा है और दुनियाभर पर इल्ज़ाम।
अध्यात्म वहाँ से शुरू होता है, जहाँ आप ये समझ जाते हो कि जो असली चोर है, इसे तुम कोई भी चीज़ दोगे, इसका रिश्ता किसी भी चीज़ के साथ बनाओगे, इसे तुम कुछ भी खिलाओगे-पिलाओगे, ये उसे गड़बड़ ही कर देगा।
और अगर ये उसे गड़बड़ कर ही देगा तो क्या आएगा इसके हिस्से में? वही पुरानी बैचेनी जो इसे आज तक मिली है। वही सब पुरानी समस्याएँ जिनसे ये आज तक ग्रस्त है। तो क्या करें फिर? करना ये है कि मन की सीमा तक बिलकुल जाना है, करना ये है कि मन में बैठे नहीं रहना है, मन के पार कहाँ जाना है? वो हमें नहीं पता, अब ये बात बहुत सूक्ष्म होती जा रही है, जो ध्यान देंगे, सिर्फ़ उनको ही समझ में आएगा।
मन के पार जाने की बात भी मन की ही एक कल्पना है, तो मन के पार क्या है, हम ये नहीं जानते। लेकिन इतना हमें बिलकुल आश्वस्त होकर रहना है कि मन के भीतर तो कष्ट ही है। ये अध्यात्म का अगला चरण है, मन के भीतर तो कष्ट ही है, मन के बाहर क्या है, ये हमें नहीं सोचना है। मन के भीतर कष्ट है, ये बात अच्छे से जिसको समझ में आ गयी, वो फिर कुछ और चीज़ें भी देखता है।
वो कहता है, ‘मन के भीतर दो तरह की चीज़ें हैं।’ एक वो जिनको आप सीधे-सीधे कह सकते हो, मटीरियल या भौतिक। ठीक है? जैसे कलम (पेन हाथ में लेकर दिखाते हुए)। ये मन में है न कि नहीं है? मेरी कलम, मन में है कि नहीं है? पहले ये। दूसरी वो जिनको आप भौतिक रूप से कहीं नहीं देख सकते, पर वो विचार की तरह, भावना की तरह मौजूद रहते हैं। क्रोध हाथ में लिया जा सकता है? (हाथ से पकड़ने का संकेत करते हुए), मोह हाथ में लिया जा सकता है क्या? निराशा का कोई रंग होता है? नहीं होता है न?
पर ये सब मन में होते हैं कि नहीं होते? दिक्क़त तब होती है जब हम सोचते हैं कि भौतिक या मानसिक सिर्फ़ वो चीज़ें हैं जो हमें दिखायी देती हैं, हाथ में पकड़ में आती हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। मन में वो भी है जो स्थूल रूप से भौतिक है जैसे कि ये कलम (पेन हाथ में लेकर दिखाते हुए) और मन में वो भी है जो सूक्ष्म रूप से भौतिक है जैसे कि विचार। दोनों क्या हैं? दोनों मानसिक हैं। पर अपनी सुविधा के लिए हम एक को कह देते हैं मटीरियल और एक को कह देते हैं, मेंटल (मानसिक)। एक को क्या कह दिया? मटीरियल और दूसरे को कह दिया मेंटल। हैं दोनों ही मटीरियल या ये कह दो कि हैं दोनों ही मेंटल। बस अगर दोनों को मटीरियल बोलोगे तो एक को कहना होगा, ग्रॉसली मटीरियल (स्थूल भौतिक) और दूसरे को कहना होगा, सटली मटीरियल (सूक्ष्म भौतिक)। और अगर दोनों को मेंटल बोलोगे तो एक को कहना होगा, ग्रॉसली मेंटल (स्थूल मानसिक) और दूसरे को कहना होगा, सटली मेंटल (सूक्ष्म मानसिक)। बात समझ में आ रही है अच्छे से?
अब हम क्या करते हैं, हम सोचते हैं कि अच्छा साहब, मटीरियल से आगे जाना है क्योंकि ऋषियों ने, सन्तों ने, समझने वालों ने बता दिया कि जो कोई भौतिक जगत में अटक गया, उसको कष्ट मिलता है। और ऐसा आपका अनुभव भी रहा है कि हाँ भई, ये बात तो सही है।
जो मटीरियल के साथ बहुत तादात्म्य कर लेता है या आसक्ति कर लेता है, उसको फिर कष्ट मिलता है। तो हम क्या करते हैं कि हम वस्तुओं से आगे बढ़कर विचारों में फँस जाते हैं और हम सोचते हैं कि देखो हम वस्तुओं से आगे निकल गये।
नहीं, वस्तुओं से आगे नहीं निकलना है। मन मात्र से आगे निकलना है और मन मात्र में दोनों हैं, क्या हैं? स्थूल, ग्रॉस तल पर क्या हैं मन में? वस्तुएँ हैं। और सूक्ष्म, सटल तल पर क्या हैं मन में? विचार हैं।
विचार भी मानसिक ही हैं। विचार में अगर आप फँस गये तो आप मन से आगे नहीं निकल गये। अगर आप किसी विचार में हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि आप मन से आगे निकल गये।
इसीलिए उपनिषद् बहुत ज़ोर दे-देकर, बार-बार आपको बोलते हैं कि जो सत्य है, सच्चाई है वो मनातीत है, मन के आगे है, वो कल्पनातीत है, वो कल्पना के आगे है। वो अचिन्त्य है, उसके बारे में सोचा नहीं जा सकता है, वो अकथ्य है, अकल्प्य है, उसके बारे में कहा नहीं जा सकता, उसकी कोई कहानी नहीं हो सकती, उसका कोई रूप नहीं हो सकता, उसका कोई नाम नहीं हो सकता।
इसीलिए क्योंकि हम जब मटीरियल (भौतिक) से उठते हैं तो मेंटल (मानसिक) में फँस जाते हैं और हम सोचते हैं कि हम मेंटल में आ गये हैं तो हमने जगत के पार का कुछ पा लिया है। क्योंकि भई, आप अपने दिमाग में किसी ऐसी चीज़ की कल्पना कर सकते हैं, आप ऐसे किसी हाथी की कल्पना कर सकते हैं जो उड़ता है। वो एक विचार है, उड़ता हुआ हाथी, अब उड़ता हुआ हाथी ज़मीन पर तो होता नहीं।
तो उड़ते हुए हाथी का विचार करके आप अपनेआप को ये दिलासा दे सकते हैं कि अब आप जगत से आगे निकल गये। आप किसी और लोक में निकल गये। क्योंकि इस लोक में उड़ते हुए हाथी तो पाये नहीं जाते न और फिर आप बहुत खुश हो सकते हैं। आप कह सकते हैं कि अब मैं आध्यात्मिक हो गया, क्योंकि अब मैं इस लोक से सम्बन्ध नहीं रखता, इस लोक में तो चलने वाले हाथी होते हैं। और मेरी कल्पना में क्या हैं? उड़ने वाले हाथी। तो अब मैं आध्यात्मिक हो गया। नहीं, आप आध्यात्मिक नहीं हो गये, आप अभी भी विचारों में ही तो घूम रहे हैं न।
और जो भी चीज़ आपके विचार में आ सकती है वो है मानसिक ही। आप कहाँ फँसे हुए हैं, जो भी चीज़ आपके विचार में आ सकती है, जिस भी चीज़ का आप वृहद्वर्णन कर सकते हैं, जिस भी चीज़ की आप कहानियाँ सुना सकते हैं, जिस भी चीज़ की आप कल्पना कर सकते हैं, उसको रूप दे सकते हैं; वो सब आपके मन के भीतर का ही है और भूलना नहीं है कि मन के भीतर का जो कुछ भी है, वही तो हमारे कष्ट का कारण है। समझ में आ रही है बात? गड़बड़ समझिएगा अच्छे से, कहाँ होती है।
मटीरियल है, मेंटल है और बस ऐसे ही काम-चलाऊ तरीक़े से अपनी सुविधा के लिए मैं कहे देता हूँ, मिस्टिकल (रहस्यात्मक) है (हाथ से संकेत करते हुए), चलिए बढ़िया है, तीन एम बन गये। सबसे नीचे क्या? (श्रोताओं से पूछते हुए)।
श्रोता: मटीरियल।
आचार्य: मटीरियल। उससे ऊपर क्या? (हाथ से संकेत करते हुए)
श्रोता: मेंटल।
आचार्य: और उसके ऊपर क्या? (हाथ से पुनः संकेत करते हुए)।
श्रोता: मिस्टिकल।
आचार्य: हम मेंटल को ही मिस्टिकल समझ लेते हैं, ये गड़बड़ हो रही है। हम मेंटल को ही मिस्टिकल समझ लेते हैं, तो हम घूम अभी भी अपने मन के भीतर ही रहे हैं, लेकिन दावा ये है कि साहब, हम मिस्टिकल हो गये हैं।
क्योंकि हम उड़ने वाले हाथी की बात करते हैं न। हम उड़ने वाले हाथी की बात करते हैं। अब समझ में आ रहा है कि धर्म में इस तरह की कहानियाँ खूब क्यों हैं? ऊँट जो सागर में तैर रहा है, हाथी जो हवा में उड़ रहा है, जादुई कालीन और ये सब कहानियाँ धर्म में खूब हैं कि नहीं हैं? वो इसीलिए हैं।
ये ही भूल हो गयी है। मेंटल को क्या मान लिया है? मिस्टिकल। अरे! बाबा, अगर आप किसी कालीन कि कल्पना कर सकते हो जो उड़ रहा है, तो वो सीधे-सीधे भौतिक बात है। उसमें कौनसा अध्यात्म?
अध्यात्म का तो मूल सिद्धान्त है कि जो कुछ भी मन के भीतर है, उस पर अटकना नहीं है, उसे बहुत आदर, सम्मान, महत्व, तव्वजो नहीं देना है।
तो तुमने ये उड़ते हुए हाथी को इतना सम्मान क्यों दे दिया? उसे इतना महत्वपूर्ण क्यों बना दिया? समझ में आ रही है बात? अब आप समझिए कि ये जो ईश्वर, भगवान या जो गॉड की परिकल्पना है वो क्या चीज़ है।
वो मेंटल ही तो है न, मानसिक ही तो है न, वैचारिक ही तो है, एक सोच ही तो है, इसीलिए अध्यात्म में किसी ईश्वर या भगवान का कोई स्थान नहीं होता, बिलकुल भी नहीं, एकदम नहीं। अध्यात्म में सत्य का स्थान होता है, आत्म का होता है, ब्रह्म का होता है।
और इधर-उधर की मायावी, दैवीय कल्पनाओं के लिए वहाँ कोई जगह नहीं है। समझ रहे हैं आप बात को?
दिक्क़त ये है कि सत्य हमें चाहिए नहीं, इसीलिए हम तमाम तरह के पूजास्थल बनाते हैं, लेकिन आपने कभी कोई पूजास्थल नहीं सुना होगा जो सत्य मात्र को समर्पित हो, या ब्रह्म मात्र को समर्पित हो। सुना है?
और आप बहुत कुछ देख सकते हैं, इतने सारे दुनिया में पंथ हैं, मज़हब हैं, धाराएँ हैं, मत-मतान्तर हैं, सब अपना-अपना चला रहे हैं खेल। अपने-अपने खेलों से सबको मतलब है, सत्य से मतलब नहीं है। क्यों?
क्योंकि सारे खेल किसके भीतर हैं? मन के भीतर हैं। और अहम् को तो बहुत सच्चा लगता है, मन के भीतर ही घूमना, मन तो अहम् का घर है, मन क्या है? अहम् का घर। मन वो सुरक्षित घेरा है, जिसके भीतर अहम् प्रश्रय पाता है।
मन की सीमा पर कटीली बाड़ लगी हुई है। और मन के भीतर कौन बैठा है? अहम्। और उन कटीली बाड़ के भीतर क्या है? वो सारी वस्तुएँ, वो सब सामग्री जो अहम् को सुरक्षित रखती हैं। हमारे मन में वही सब कुछ होता है; अच्छे से आप लोग जाँच के देख लीजिएगा जो अहम् को सुरक्षित रखने, अहम् को पोषण देने के काम आता है। कल्पना कर पा रहे हैं? एक क्षेत्र है, एक जगह है (हाथ से गोले का संकेत बनाते हुए) जिसको घेरकर रखा गया है कटीली बाड़ से। उसके भीतर कौन है? अहम्। और उसके भीतर क्या चीज़ें हैं?
श्रोता: विचार।
आचार्य: हाँ, विचार, दुनिया, लोग, ये, वो। वो सबकुछ क्या है जो अहम् को पोषण देता है, अब अहम् उस सुरक्षित क्षेत्र में बैठकर के मौज मनाता है। बाड़ क्यों लगायी गई है, किसके ख़िलाफ़?
श्रोता: सत्य के ख़िलाफ़।
हाँ (मुस्कराते हुए), जिसने बाड़ लगायी है, वो सोचता है, वो बाड़ लगाने से सत्य को बाहर रख लेगा। जानते हो, उस बाड़ के भीतर हमारे सब मन्दिर, मस्जिद, गिरजे, सब पूजास्थल, सब ईश्वर, भगवान ये सब भी हैं। वो सब मन के भीतर के ही हैं और अहम् उनके साथ ख़ुश रह लेता है।
सत्य के साथ अहम् ख़ुश नहीं रह सकता। समझ में आ रही है बात? वास्तव में तो अध्यात्म धर्म का ही परिष्कृत रूप है, लेकिन एक अर्थ में दोनों में भेद भी बहुत है। भेद ये है कि बहुत सारे धार्मिक लोग किसी ईश्वरीय सत्ता में, किसी गॉड में विश्वास रखते हैं।
अध्यात्म में किसी ईश्वरीय सत्ता की कोई जगह नहीं है। अध्यात्म किसी और की बात करता ही नहीं। अध्यात्म तो सिर्फ़ किसकी बात करता है? अपनी बात करता है, भई!
अधि: आत्म, मैं, मैं। ईश्वर भी तो दूसरा है न, ईश्वर की भी बात करने वाला कौन है? मैं ही तो हूँ, तो पहले मैं अपनी ही बात क्यों न कर लूँ? इससे पहले मैं बोलूँ, ‘अरे! ईश्वर मेरी मदद कर।’ बेहतर नहीं होगा कि मैं ये तो जान लूँ कि ये है कौन जो मदद को पुकार रहा है।
अध्यात्म ये कहता है। तो अध्यात्म का सरोकार सिर्फ़ और सिर्फ़ किससे है? मैं से है, अहम् से है और मन से है, मन क्या? कभी मैं कहता हूँ मन अहम् की छाया है, आज मैंने कहा मन अहम् के इर्द-गिर्द एक सुरक्षित स्थान है। ठीक है न?
तो अध्यात्म का सम्बन्ध सिर्फ़ इनसे है, ‘मैं, अहम्, मन।’ और इनसे जब सम्बन्ध रखता है अध्यात्म तो जान जाता है कि इनकी परेशानी का कारण है, वो सब सामग्री जो इन्होंने अपनी बाड़ में, अपने घेरे में संचित कर रखी है।
तो क्या करना है, अगर परेशानी से मुक्ति चाहिए तो, क्या करना है? जो कुछ भी करना है वो करने का ख़याल, उस घेरे के भीतर से ही आ रहा है, तो इसीलिए कुछ नया नहीं करना है क्योंकि आप जो भी कहेंगे, आपको करना है, वो विचार कहाँ से आ रहा है?
आपके अनुभवों से आ रहा है, आपकी कल्पनाओं से आ रहा है, आपने जो पढ़ा है, आपको जो चीज़ें आस-पास दिख रही हैं, वहीं से आ रहा है, तो इसीलिए आगे की बात नहीं करनी है क्योंकि आगे की बात आप कर ही नहीं सकते, आप कहाँ बैठे हो?
उस घेरे के भीतर, तो आप जितनी भी बात करोगे कहाँ की करोगे? उस घेरे के भीतर की करोगे, आगे की बात आप कर ही नहीं सकते। तो आगे की बात करनी भी नहीं है। फिर क्या बात करनी है? आगे की नहीं, अभी की। आगे की नहीं, यहाँ की।
देखो कि चल क्या रहा है इस घेरे के भीतर, ये नहीं पूछना है कि इस बाड़ के अतीत क्या है, हम लाँघ जाएँ, आगे क्या मिलेगा? कोई परलोक मिलेगा, कोई स्वर्ग मिलेगा, कोई सुखलोक मिलेगा? नहीं, वो बात ही नहीं करनी है क्योंकि जो भी बात तुम कर सकते हो, वो बात कहाँ की होगी? उस घेरे के भीतर की होगी।
जब नया-नया ट्विटर अकाउंट बनाया था मैंने, होगी आठ-दस साल पहले की बात, तो कुछ शुरूआती ट्वीट्स में से एक ये थी, “व्हॉट लाइज़ बियॉन्ड माइंड? मोर माइंड।” मन के आगे क्या है? और ज़्यादा मन।
तो जितनी बार तुम कहते हो मन के आगे जाना है, तुम कुछ नहीं कर रहे हो, बस कल्पना के घोड़े दौड़ा रहे हो। अब कल्पना के घोड़े दौड़ा-दौड़ाकर तुम कर लो बहुत सारे ईश्वर और भगवानों की रचना उससे क्या होगा?
वो सब होंगे तो उसी वृत्त के भीतर के ही न, क्या मिल जाएगा तुमको? तुम्हारी ही कल्पना का निर्माण तुम्हारी क्या मदद कर पाएगा, हाँ, सच्चाई मदद कर सकती है। सत्य बिलकुल अलग है। समझ में आ रही है बात ये?
तो क्या अध्यात्म नास्तिकता का पक्षधर है? नहीं, बिलकुल भी नहीं। क्योंकि नास्तिकता भी कहाँ की है, उसी (मुस्कराते हुए, ऊँगली से संकेत करते हुए)। मैंने इतना बोल दिया कि हमारे सब भगवान, देवी देवता अहम् के सुरक्षित घेरे के भीतर के हैं।
इस बात से नास्तिकों को प्रसन्न होने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि नास्तिकों की नास्तिकता भी कहाँ है? उसी घेरे के भीतर है। वो भी क्या कर रही है? अहम् को पोषण देने के ही तो काम आ रही है, नास्तिकों का अपना अहंकार होता है।
हम साहब एथीस्ट (नास्तिक) हैं, हम किसी को नहीं मानते, हम तो अपने चलाए चलते हैं। तुम्हारे पास भी विचार ही तो है न ‘नास्तिकता’, तुम किस चीज़ को बोल रहे हो न: अस्ति?
तुम जिस चीज़ को बोल रहे हो न: अस्ति, उसके बारे में जो कुछ भी पता है, तुम्हें कैसे पता है? दूसरी चीज़ को तो बोल रहे हो, न: अस्ति और अपनी हस्ती को लेकर के कब बोलोगे, न: अस्मि, किसी और पर तो ऊँगली उठाकर तुमने बोल दिया, वो नहीं है। अपनेआप को कब बोलोगे कि मैं नहीं हूँ? तो आस्तिकों की आस्तिकता और नास्तिकों की नास्तिकता, ये दोनों मन के घेरे के भीतर ही हैं, दोनों सिर्फ़ मेंटल हैं, मानसिक हैं, इनमें कुछ नहीं रखा।
अध्यात्म को न अस्तिकता से कोई मतलब है, न नास्तिकता से कोई मतलब है, सच्चाई से मतलब है और सच्चाई न आस्तिक के पास है, न नास्तिक के पास है। इन दोनों के पास बस अपने मत हैं, पूर्वाग्रह हैं, धारणाएँ हैं। ये बात समझ में आ रही है अच्छे से? आध्यात्मिक होने का मतलब नास्तिक होना नहीं होता, आध्यात्मिक होने का मतलब आस्तिक होना भी नहीं होता। आध्यात्मिक होने का मतलब होता है जानना, किसको जानना? स्वयं को जानना। तुम ख़ुद को जानते नहीं और एथीस्ट बने बैठे हो।
तुम्हें पता भी नहीं है कि ये जो एथीज़्म (नास्तिकता) का विचार है, तुम्हें आ कहाँ से गया, तुम्हें पता भी नहीं है कि तुम ख़ुद कहाँ से आ गये तो तुम क्या यूँही बकवास कर रहे हो। सब बेकार है। समझ रहे हो?
तो फिर आख़िरी चीज़ पूछी क्या मैं नास्तिक हूँ? ईश्वर में विश्वास नहीं करता तो आध्यात्मिक नहीं हो सकता। न तो ईश्वर में विश्वास करके आध्यात्मिक हो सकते हो और न ही ईश्वर में अविश्वास करके आध्यात्मिक हो सकते हो। अध्यात्म में विश्वास के लिए जगह नहीं है।
अध्यात्म का मतलब है, ज़बरदस्त, ठोस, पैनी जिज्ञासा। रिगरस एंड शार्प इन्क्वायरी। ये मान लिया, वो मान लिया, इस चीज़ पर यक़ीन कर लिया, उस चीज़ पर विश्वास कर लिया। जी, साहब हमारा तो ऐसा मानना है कि सातवें आसमान पर वो फ़लानी परियाँ घूम रही हैं।
या हिमालय के बगल में उधर और चोटियाँ हैं पीछे, तिब्बत की तरफ, वहाँ आज भी कुछ विशेष साधुओं की आत्माएँ घूम रही हैं, ये इस तरह की बातें जो करने वाले लोग हैं; छोटे बच्चों की कहानियाँ लिखो। तुम्हारा बहुत अच्छा भविष्य है मनोरंजन के क्षेत्र में, खूब दिल बहलाओगे लोगों का इस तरह की बातें करके। फ़लानी छोटी पर ये मिल गया, फ़लाने समुद्र में फ़लानी दैवीय मछली है। और उसके पेट में अमृत रहता है और जो उस अमृत की चख लेगा फिर वो पाँच हज़ार साल जिएगा।
ये सारी बातें कहाँ से आ रही हैं? ये मन के भीतर से आ रही हैं, भूल क्यों रहे हो कि ऐसी ही बातें कर-करके तो तुमने अपने लिए इतनी समस्या, इतना कष्ट इकट्ठा कर लिया। मन से जो सामग्री आ रही हो अन्तर मत करना, मानसिक माने मानसिक, ये मत कह देना कि अरे साहब! सत्य भी तो मन में ही रहता है न।
सत्य मन में नहीं रहता, सत्य मन का आधार है और सत्य मन से अतीत है। मन के भीतर नहीं है, मन की सामग्री में नहीं निहित है। मन की सामग्री तो विचार कहलाती है, मन की सामग्री तो पूरे तरीक़े से कंडीशंड , संस्कारित होती है। आप समझ रहे हैं? तो ऐसा नहीं है कि मन का सच्चाई से कोई सम्बन्ध है नहीं, बिलकुल है, पर वो सम्बन्ध बहुत अनूठा है, मन की सामग्री में सच्चाई नहीं है, मन के विलोप में सच्चाई है, ये सम्बन्ध है। मन का और सच्चाई का सम्बन्ध क्या है? क्या मन के भीतर कहीं सच्चाई है, जहाँ तुमको ऐसे जाकर के उसे खोज निकालना है? (हाथ से निकालने का संकेत करते हुए) कि अपने भीतर पैठो वहाँ तुम्हें हीरे-मोती मिलेंगें।
तो तुमने अपने ही मन में विचार करना शुरू कर दिया, कुछ हीरे-मोती मिल गये सत्य के, ऐसा हुआ, नहीं, कुछ नहीं। या तो मन को शून्य कर दो, मन का विलोप हो जाए या मन में विस्फोट हो जाए कि मन अनन्त तक पहुँच गया और अनन्त तक पहुँचकर मन बना नहीं रह गया, अनन्त तक पहुँचना माने मन का अन्त हो जाना। मन नहीं अनन्त हो जाएगा, मन का तो अन्त ही हो जाएगा, तो बस ये सम्बन्ध हो सकता है मन का और सच्चाई का।
जब तुम हो, जब मन है, तब सच नहीं है। जब तुम हो तब सच नहीं है। यही रिश्ता है हमारा और सच का। अध्यात्म जाता तो है अहंकार की खोज करने, पर जितना वो अहंकार की खोज करता है न, उतनी ज़्यादा वो अहंकार को चोट करता है। ये बात समझिएगा। अहंकार चीज़ ऐसी है।
आप कह रहे हैं, ‘हम आध्यात्मिक हो गये’, तो आध्यात्मिक हो गये तो क्या करना है? ‘जी, असली आत्म का पता करना है, अधि: आत्म, जो गहरा वाला मैं है, मेरे ख़याल क्या हैं, मेरे विचार, भावनाएँ, ये सब क्या हैं, ये सब पता करना है। तो वो खोज भर नहीं है, वो चोट है।
ये चीज़ ऐसी है अहंकार कि इसके बारे में अगर तुमने जान लिया तो इसको चोट लग जाती है। पता नहीं कैसी चीज़ है। कोई असली चीज़ होती तो उसके बारे में जब ज्ञान बढ़ता, उसके बारे में जब पता चलता तो उस चीज़ को नुक़सान थोड़े ही हो जाता। ये चीज़ कैसी है, जिसके बारे में जितना जानते जाते हो वो चीज़ उतनी मिटती जाती है, ये चीज़ कैसी होगी? मुझे उदाहरण दीजिए किसी ऐसी चीज़ का जिसके बारे में जितना जानते जाओगे, उतनी मिटती जाएगी। अहंकार ऐसी ही चीज़ है।
उदाहरण दीजिए। इसलिए तो अहंकार किस चीज़ से डरता है? खोजबीन से, जाँच-पड़ताल से, सच्ची जिज्ञासा से। झूठ-मूठ और दन्द-फन्द में उसको बड़ा सुख रहता है, इधर-उधर की बातें कर लो। फ़लानी कहानी उड़ा दो, पच्चीसियाँ उड़ा दो, ये सब सपना चलता रहता है उसका । सच्ची खोजबीन से वो बहुत घबराता है।
मैं उदाहरण माँग रहा हूँ, ऐसी चीज़ का उदाहरण बताओ, जिसके बारे में जितना जानोगे वो चीज़ उतनी मिटती जाएगी। क्या कहते हैं ऐसी चीज़ को? क्या कहते है? क्या कहते हैं? क्या कहते हैं? जाड़े चल रहे हैं कोहरा होने लग गया है, धुंध है बाहर, धुंध बाहर है, ठीक है? और बाहर वो सड़क पर बत्ती जल रही है, स्ट्रीट लाइट और धुंध हो, और धुंध के बीच में स्ट्रीट लाइट हो, और आस-पास कुछ पेड़ हों, ये बड़ा ज़बरदस्त मेल होता है। तरह-तरह की आकृतियाँ उभरने लग जाती हैं।
धुंध क्या बन जाती है? धुंध पृष्ठभूमि बन जाती है, पर्दे जैसी बन जाती है, उस पर्दे पर बहुत कुछ तैरने लग जाता है, अब उस पर्दे पर तैर रहा है भूत। क्या तैर रहा है? भूत। भूत है न, अभी तो दिख रहा है, है न, है कि नहीं है? दिख रहा है, साफ़-साफ़ दिख रहा है। वो देखो वहाँ पर, कुछ अजीब सा है और उसको आप साफ़-साफ़ देख सकते हैं, ऑंखें हैं, नाक है। वो आकृति बन ही ऐसी गयी है कि आपको स्पष्ट दिखाई दे रहा है और जो धुंध है वो थोड़ा-बहुत हिलती-डुलती रहती है। उस गति में आपको ऐसा भी दिख रहा है कि भूत हाथ-पाँव चला रहा है।
वो सब दिख रहा है कि भूत के हाथ हैं, पाँव हैं और वो गति भी कर रहा है। फिर किसी वजह से आप थोड़ा बाहर निकलते हैं, जैसे-जैसे आप क़दम बढ़ाते जाते हैं, उस भूत के साथ क्या होता है? जल्दी बोलिए।
जितना उसके क़रीब आते, जाते हैं। जितना अधिक आप उसके निकट आते, जाते हैं उतना ज्यादा भूत के साथ क्या होता जाता है? क्या होता जाता है? तुम्हारे हर क़दम के साथ वो भूत, क्या हो रहा है उसका, मिट रहा है। अहंकार ऐसी ही शय है। उसकी तरफ़ जितने क़दम बढ़ाओगे, उसको उतना ज़्यादा मिटाओगे।
वो क़ायम ही रहता है, जब तक तुम उसके बारे में जानते नहीं। जितना उसके बारे में जानते जाओगे, वो उतना मिटता जाएगा। उस भूत से इतनी दूरी बना लोगे, तो लगेगा नाच रहा है। पास जाओ और पास जाओ, वो मिटता जा रहा है, मिटता जा रहा है। अब समझ में आया कि अध्यात्म को पसन्द क्यों नहीं करता अहंकार? क्यों नहीं पसन्द करता? मिटना पड़ेगा। क्यों मिटना पड़ेगा? क्योंकि झूठा है, है ही नहीं। भूत था क्या? जब भूत था नहीं तो उस बेचारे की तुम खोजबीन करोगे तो उसे अच्छा थोड़े ही लगेगा। अच्छा लगेगा?
वो अज्ञान में ही ज़िन्दा रहता है। वो सिर्फ़ अन्धेरे में, अज्ञान में, नासमझी में ही ज़िन्दा रहता है। समझ बढ़ी नहीं कि वो मिटने लगता है, इसीलिए तो समझदारों को फिर ज़माना पसन्द नहीं करता है। क्योंकि समझ तुम्हें आ गयी, तो न जाने क्या-क्या मिट जाएगा।
बहुत लोग जो बहुत बड़ी हस्तियाँ लेकर तुम्हारे सामने खड़े थे, वो तुम्हारी नज़रों से मिट जाऍंगे, अगर तुम समझदार हो गये। तो वो लोग पसन्द करेंगे क्या कि तुम आध्यात्मिक हो जाओ? अरे! उनको छोड़ो न। हम भी ग़लती कर रहे हैं। दूसरों की क्यों बात कर रहे हैं।
अध्यात्म का क्या मतलब होता है? अपनी बात करना न। हम ख़ुद जो अपनी ही नज़रों में न जाने क्या-क्या बने हुए हैं, वो सबकुछ मिट जाएगा न, अगर हम आध्यात्मिक हो गये? तो हम फिर स्वयं भी अध्यात्म के विरोध में रहते हैं।
सौ बहाने बनाऍंगे, ‘नहीं आज उपनिषद् इसलिए नहीं पढ़ पाये, वो ऐसा हो गया, वैसा हो गया।’ सब थोड़े ही पढ़कर आये होंगे। ये क्यों नहीं किया? बाक़ी सब काम ज़रूरी हैं और हो भी जाते हैं ज़िन्दगी में। इस काम के ख़िलाफ़ हमारे पास बहुत कारण रहते हैं।
उन सब कारणों में मूल कारण यही है, मिट जाने का भय। हम भूत हैं, भूत माने कौन? जो है ही नहीं, या जो सिर्फ़ समय में है, अतीत में है, अतीत को ही तो भूत कहते हैं। उसे मिट जाने का भय है। हमें भी मिट जाने का भय है। मिट तो जाओगे, पर वो तो बचा रहेगा न, जो मिट नहीं सकता, वो होकर जीने में क्या आपत्ति है? या भूत ही होकर के जीना अच्छा लगता है?
संसार आपको भूत बनाता है, अध्यात्म आपको अमर बना देता है, जो मिट ही नहीं सकता। बात आ रही है समझ में?
तो ये आस्तिकता-नास्तिकता एकदम दो कौड़ी की बातें हैं, इनका अध्यात्म से कोई सम्बन्ध नहीं। ये जो दक्षिणपंथ, वामपंथ चलता है न, राइट और लेफ्ट , लिबरल्स वर्सस कंज़र्वेटिव्स। ये सब बहुत छोटे तल की, बहुत टुच्ची बहसें हैं, ये नासमझों के लिए हैं।
न सीधे हाथ वालों को कुछ पता है, न उल्टे हाथ वालों को कुछ पता है। दोनों बस अपनी-अपनी धारणाओं में, कल्पनाओं में जी रहे हैं। आध्यात्मिक दोनों में से कोई भी नहीं है, सच्चा दोनों में से कोई भी नहीं है।
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