मैं दुविधा में क्यों रहती हूँ? || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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मैं दुविधा में क्यों रहती हूँ? || आचार्य प्रशांत (2013)

श्रोता: सर, मैं इतना कन्फ्यूज्ड क्यूँ रहती हूँ?

वक्ता: क्या कंफ्यूज़न है? किन मामलों में कंफ्यूज़न है?

श्रोता: किसी भी चीज़ में।

वक्ता: चलो तो शुरुआत अच्छी हुई है। सबसे पहले तो तुम्हें ये समझ में आया कि जो मन कन्फ्यूज्ड होता है, वो किसी एक मसले पर ही कन्फ्यूज्ड नहीं होता है। अक्सर हम किसी से पूछें कि, ‘’क्या कन्फ्यूज़न है’’ तो तुरतं कोई मुद्दा बता देगा। वो कहेगा “ये फैसला लेना है कि दाएं जाएं या बाएं जाएं और जान नहीं पा रहे हैं कि दाएं कि बाएं।” यही होता है न? तो तुम्हारे साथ ये बात अच्छी है कि तुम समझ रहे हो कि जो मन कन्फ्यूज्ड होता है, वो किसी एक मसले पर नहीं कन्फ्यूज्ड होता। कंफ्यूज़न उसका माहौल होता है। जैसे कि धुँआ भरा हो यहाँ पर तो क्या किसी एक जगह पर ही सांस में धुंआ जाएगा क्या?

इस कमरे में और बगल के कमरे में तमाम धुंआ भरा हो तो जहाँ जाओगे, धुंआ वहीं जाएगा न, माहौल बन गया है धुंआ। तो अच्छा है कि तुम समझते हो कि मन का माहौल ही कंफ्यूज़न का है। तो अब हम इस बात को दर-किनार कर सकते हैं कि कोई एक मुद्दा सामने आ गया था जिसने हमें *कन्फ्यूज़* कर दिया। बात मुद्दे की नहीं है बात हमारी है, हम ऐसे हैं कि कन्फ्यूज्ड रहेंगे ही चाहें मुद्दा कुछ भी हो। ठीक है न?

कन्फ्यूज़न का मतलब क्या होता है?

श्रोता: सर, जो चीज़ हम समझ नहीं पाते।

वक्ता: क्या कंफ्यूज़न कर्म के अभाव में उठ सकता है? अच्छा चलो मतलब समझो। कुछ करना हो, तभी कंफ्यूज़न सामने आता है न? जिस बात से तुम्हें कोई मतलब नहीं, क्या वहाँ भी कन्फ्यूज्ड रहते हो? यूनाइटेड स्टेट्स की ईरान पोलिसी क्या होनी चाहिए इसको लेकर कन्फ्यूज्ड हो? हो? रूस का अगला राष्ट्रपति कौन होना चाहिए इसको लेकर कन्फ्यूज्ड हो? कंफ्यूज़न कहाँ पर है? जहाँ तुम हो और तुम्हें जीना है, तुम्हें कोई निर्णय करना है। जहाँ कर्म शामिल है।

समझ रहे हो न बात को?

अच्छा, विचार को भी ठहरा देना, किसी निष्कर्ष पर आ जाना वो भी एक कर्म है। तो कर्म माने ये ही नहीं कि पांव से चलना है या हाथों से करना है, विचारों के मध्य भी चुनाव करना एक कर्म ही होता है। तो जहाँ कर्म शामिल है, जहाँ तुम्हें कुछ करना है, यानि कि जहाँ तुम मौजूद हो, कंफ्यूज़न वहीं हो सकता है सिर्फ़। और क्या करूँ, इसके लिए ज़रूरी क्या है? जब मेरे सामने ये रखा हुआ है कप, तो क्या मुझे इस बारे में कंफ्यूज़न हो सकता है कि मैं क्या पियूँ? कंफ्यूज़न हो तो उसके लिए क्या ज़रूरी है?

श्रोता: विकल्प।

वक्ता: विकल्प। ठीक है न? बहुत बढ़िया। तो अगर बहुत सारी चीज़ें यहाँ रखी हों। अब यहाँ सात कप रखे हैं, दो में शरबत है, दो में दवाई है, एक में छाछ है, एक में चाय है, एक में कॉफ़ी है, एक में शराब है, एक में ज़हर है, एक में पानी है। और मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या पियूं, तो इससे क्या पता चलता है? जल्दी बोलो इससे क्या पता चलता है?

श्रोता: कंफ्यूज़न।

श्रोता: मैं अपनी मनोदशा में ही उलझा हुआ हूँ। खुद ही निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ।

वक्ता: वो तो ठीक है।

श्रोता: मुझे पता नहीं है। क्लैरिटी नहीं है।

वक्ता: मुझे पता ही नहीं है कि मुझे चाहिए क्या? दो तरीके से इसको देख सकते हो; ये इस पर निर्भर करता है कि तुम आदमी कैसे हो। अभी मैं तुम्हें (प्रश्नकर्ता को इंगित करते हुए) ठीक से जानता नहीं, तो इसीलिए तुम्हें दोनों बातें बताए देता हूँ: अगर तुम वो आदमी हो जो समझदारी पसंद है, तो तुम ऐसे समझो कि तुम्हें पता नहीं है ठीक-ठीक कि तुम्हें क्या चाहिए? और तुम्हें उसका इसलिए नहीं पता क्योंकि तुम्हें अपना नहीं पता है। और अगर तुम ऐसे आदमी हो जो दिल पे ज़्यादा चलता है तो मैं कहूँगा कि तुम्हें ये नहीं पता है कि तुम्हें प्यार किससे है? अगर मुझे पता हो कि मुझे तो जी कॉफ़ी चाहिए। तो बाकि सब मुझे दिखाई भी देंगे क्या? जल्दी बोलो, दिखाई देंगे? दिखाई भी नहीं देंगे न?

श्रोता: जी सर।

वक्ता: याद है जब छोटे थे और टीचर कॉपियाँ चेक करके लाती थी परीक्षा की और वो सारी कॉपियाँ एक बंडल में रखी होती थीं और तुम्हें निकालनी है। अपने आलावा किसी की दिखाई देती थी?

(सब हँसते है)

वक्ता: और वो सारी एक जैसी हैं। सारी एक जैसी हैं कि नहीं है? और तुम जल्दी करके अपनी पर पहुँच जाते थे और निकाल लेते थे। कन्फ्यूज़न होता था कि किसकी देखूं कि “कोई बात नहीं चलो, आज उसकी देख लेते हैं?” ऐसा तो नहीं हुआ कभी? उसको दोनों तरीकों से कह सकते हो, ये भी कह सकते हो कि “पता है, अपनी देखनी है” और ये भी कह सकते हो कि “यार जुड़े तो अपने आप से ही हैं न, प्यार तो अपने आप से ही है सबसे पहले।”

तो जिस आदमी को पता लगना बंद हो जाता है, उसकी ज़िन्दगी में कंफ्यूज़न आ जाता है। आ जाता है न? पता लगना बंद क्यों हो जाता है? एक छोटा बच्चा है, वो जाता है और परीक्षा के कॉपियों के बंडल में से वो अपनी कॉपी निकाल लेता है और तभी कोई आता है टीचर और उससे कहता है “तुम बड़े स्वार्थी हो, तुम बड़े पापी हो। तुमने अपनी कॉपी निकाल ली, तुम्हें तो समाज सेवा करनी चाहिए, तुम्हें पड़ोसियों की कॉपी निकालनी चाहिए। या कम से कम पहले तुम्हें सभी कॉपियाँ बाँट देनी चाहिए फिर अपनी कॉपी देखनी चाहिए। या तुम्हें कम से कम जा के पहले किसी की अनुमति लेनी चाहिए फिर कॉपियों के बंडल को हाथ लगाना चाहिए।” और अभी क्या हुआ था? ये सीधे उठा था, तीर की तरह गया था और अपनी कॉपी निकाल ली थी, कंफ्यूज़न की कोई बात ही नहीं। और अब इसको पाँच बातें पढ़ा दी गई हैं कि “ऐसा करो, ऐसा करो, ऐसा करो!” अब अगली बार जब कॉपियाँ सामने आएंगी तो इसे समझ में नहीं आएगा कि “वो जो पाँच काम थे उनमें से करूँ कौन सा?”

कंफ्यूज़न इसलिए रहता है क्योंकि तुम्हारी जो एक आवाज़ है, उसके ऊपर दस और आवाजें चढ़ के बैठ गई हैं। ये दस आवाजें शोर हैं। ये बाहरी भी हैं और हिंसक भी हैं, ये आपस में भी लड़ती हैं। ऐसा ही नहीं है कि इन्होंने सिर्फ़ तुम्हारी आवाज़ को कुचल दिया है, वो आपस में भी लड़ती रहती हैं। और तुम्हारे मन के भीतर आ कर बैठ गई हैं और तुम्हें समझ में ही नहीं आता कि ‘’करूँ क्या? किसकी सुनूं?’’ अपनी आवाज़ अगर बुलंद हो तो ये बाहरी आवाजें सब भाग जाती हैं। ये सवाल ही नहीं रह जाता “किसकी सुनें?” अपने अलावा किसी की आवाज़ है नहीं, तो सुनें किसकी।

कैसे पता चले कि बाहरी आवाजें आ कर बैठ गई हैं? बहुत सरल है। देखो कि मन में दिन रात विचार किसका चल रहा है। तुम्हारा मन ही तुम्हारी प्रयोगशाला है। देख लो कि किसका विचार चल रहा है लगातार? जिसका विचार तुम्हारे मन में घूम रहा है, उसी ने तुम पर कब्ज़ा कर रखा है। अब वो विचार ध्यान रखना, ये भी हो सकता है कि तुम्हें किसी की मदद करनी है। तुम कहोगे “अरे! मैं उसकी मदद करने जा रहा हूँ। वो मुझ पे हावी कैसे हो सकता है, वो तो बेचारा है?” हो गई न चूक, तुम माया के पैन्थरों को समझते नहीं हो। माया कोई ताकतवर हाथी ही बन के नहीं आती कि तुम्हें कुचल देगी। कोई ताकतवर हाथी हो, तो तुम उससे डरोगे और डर तुम्हारे मन पे हावी हो जाएगा। हम सोचते हैं माया कोई ऐसी चीज़ है, जो हमसे लड़ने आ रही है, हमारी दुश्मन है तो शेर जैसी होनी चाहिए, हाथी जैसी होनी चाहिए। माया एक बेचारा कबूतर भी हो सकती है, एक नन्हा खरगोश भी हो सकती है।

हाथी से तुम बचना चाहते थे और खरगोश को तुम बचाना चाहते थे, लेकिन दोनों ही स्थितियों में हाथी हो चाहें कबूतर ख्याल तो तुम्हारे मन में घूमने लग गया न? बस हो गया काम तुम्हारा। इसी को तो कहते हैं, हावी होना। तुम सोच रहे हो तुम मदद कर रहे हो; तुम मदद नहीं कर रहे हो तुम शिकार हो रहे हो। कोई आकर के ज़बरदस्ती तुम्हारे चित्त पे कब्जा करे तो तुम प्रतिरोध करोगे, पर कोई किसी असहाय बच्चे की शक्ल ले के आए तो तुम कैसे प्रतिरोध करोगे? तुम कहोगे “अरे! ये तो असहाय है, अबला है। मुझे तो इसकी मदद करनी है, मुझे इससे बचना थोड़ी है, ये मुझ पर आक्रमण थोड़ी कर रहा है।”

तुम समझ भी नहीं पा रहे हो आक्रमण ही हो रहा है तुम्हारे ऊपर। पर आक्रमण कई शक्लों में होते हैं, अर्जुन ने तीर शिखंडी के पीछे छुप कर चलाए थे। किसके पीछे छुप कर के माया तीर चला रही है, तुम जान ही नहीं पाते हो। वो कबूतर भी हो सकता है, खरगोश भी हो सकता है, एक छोटा सा प्यारा सा बच्चा भी हो सकता है। फंस गए और अधिकांश स्थितियों में वो कुछ ऐसा ही होता है जो तुम्हें प्यारा लगेगा, अन्यथा तुम उसे अपने मन में घूमने ही क्यों देते? तुमने कब का उसे निष्कासित कर दिया होता। तुमने उसे अपने मन में जगह दी ही इसलिए है क्योंकि तुम्हें लगता है उचित है जगह देना, तुम्हें लगता है कर्तव्य है तुम्हारा, धार्मिकता है जगह देना।

माया किस रूप में तुम्हारे मन में घुसी है, ये जानने का — मैं दोहरा रहा हूँ — यही तरीका है कि देख लो कि दिन रात किसके बारे में सोच रहे हो? तुम समाज सेवा के बारे में सोच रहे हो, तो माया समाज सेवा बन के आ गई है। तुम धर्म के बारे में सोच रहे हो तो, माया धर्म बन के आ गई है। इसीलिए लाओ त्सू तुमसे कहता है न कि जब प्रेम नहीं होता तो प्रेम के बारे में सोचते हो। जब धर्म नहीं होता तो धर्म के बारे में सोचते हो। जिस धर्म के बारे में सोचा जाए वो धर्म, धर्म नहीं माया है। जिस प्रेम के विषय में सोचना पड़े, और जो मन में उमड़ता-घुमड़ता रहे, वो प्रेम नहीं है माया है। कोई चेहरा तुम्हारी आँखों के सामने नाच रहा है तो प्रसन्न मत हो जाना कि तुम्हें प्यार हो गया है, तुम्हें प्यार नहीं हो गया है। प्यार तो ऐसा सूक्ष्म होता है कि तुम्हें पता भी नहीं चलता। वास्तविक प्रेम तुम्हें कहाँ पता चलेगा, वो निपत्थ में घटता है, जान भी नहीं पाओगे। जिसका चेहरा तुम्हारी आँखों के सामने घूम रहा हो, वो तो माया है।

देखो कि किसका चेहरा तुम्हारी आँखों के सामने घूमता रहता है? देखो कि आज दिन भर किसका विचार किया? वही उत्तरदायी है तुम्हारे कंफ्यूज़न के लिए। उसी ने सारा खेल बिगाड़ रखा है। अब इसमें जो तुम्हारी अड़चन होगी, वो मैं जानता हूँ। ये सारे लोग जो तुम्हारे कंफ्यूज़न के लिए ज़िम्मेदार हैं, ये वहीं हैं जिन्हें तुम अपना प्रिय, बंधु, सखा, परिवारजन, मित्र, यार बोलते हो। क्योंकि तुम्हारे मन की सारी सामग्री की आपूर्ति तो उन्होंने ही की है। इन्होंने ही तुम्हें कहा है कि दाएं जाओ, कि बाएं जाओ, ऊपर जाओ, कि नीचे जाओ, ठहर जाओ। इन्होंने ही कहा है न? तमाम आवाजें हैं, पूरी भीड़ का शोर है, इन्हीं का शोर है। तुम्हारी आवाज़ कहीं है नहीं।

मुक्ति, दुश्मनों से नहीं चाहिए होती है। दुश्मन की तो परिभाषा ही ये है कि कुछ दूर होगा। जो तुम्हारे सर पे चढ़ के बैठा हो वो तो दोस्त होता है। दोस्त को ही तो बिठाते हो सर पे। दुश्मन से मुक्ति मिलनी आसान है अपेक्षतया, दोस्तों से मिलनी मुश्किल है। दोस्तों से मुक्त हो जाओ, दुविधा से भी मुक्त हो जाओगे। सारा कंफ्यूज़न ख़त्म, सारा द्वंद्व ख़त्म। देखो कि कौन दोस्त हैं तुम्हारे? देखो कि कौन प्रिय है तुम्हें? जो तुम्हें प्रिय है, वही नर्क है तुम्हारा। यूँ ही नहीं शास्त्रों ने कहा है कि, ‘जो तुम्हें प्रिय है वही तुम्हें रुलाएगा।’ प्रिया ने ही बनाया था न इस पर पोस्टर? क्या था श्लोक?

श्रोता: प्रियं त्वां रोद्सि।

वक्ता: प्रियं त्वां रोद्सि। जो तुम्हें प्रिय है, वही रुलाएगा तुम्हें। अर्थ समझो इस बात का, जो प्रिय है वही तो तुम्हारे मन पर कब्जा करेगा। जो प्रिय है वही तो तुम्हारे मन को दूषित करेगा। अब बात ज़रा उदास करेगी। करती है न उदास? पर तुम्हें इस उदासी का सामना करना पड़ेगा। और अगर नहीं कर रहे हो इस उदासी का सामना, तो अपने नर्क को और गहरा कर रहे हो। उदासी का सामना करो।

झेल लो ज़रा कष्ट, और चले जाओ उस कष्ट के पार।

मुश्किल लग रहा है?

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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