प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, गुरु के शब्द ज्यादा महत्वपूर्ण हैं या फिर गुरु की शरण में होना?
आचार्य प्रशांत: ये दो अलग-अलग चरण होते हैं। आमतौर पर यही आवश्यक है कि ध्यान दो, सवाल पूछो, गौर से सुनो। पर अगर वास्तव में गौर से सुना है, वास्तव में ध्यान दिया है तो फिर मन अगले चरण में प्रवेश कर जाता है। और अगला चरण होता है मात्र संगति का, उपस्थिति का; फिर बातचीत की बहुत जरूरत नहीं रह जाती।
लेकिन उस चरण में भी आप प्रवेश कर सकें, जहाँ बस साथ बैठना काफी है, बोलचाल ज़रा अनावश्यक हो जाती है। उस चरण में भी आप प्रवेश कर सकें, उसके लिए आवश्यक है कि पहले जितनी बातचीत हो, करें। जितनी जिज्ञासा हो उसका समाधान लें।
शब्दों का आदान-प्रदान चलता रहना चाहिए, तब तक चलना चाहिए जब तक आप निःशब्द में प्रवेश न कर जाएँ।
प्रश्नकर्ता: तो जैसे ऐसा लगता है कि जैसे कोई प्रश्न मन में आता है, तो आधे तक आता है और फिर ऐसा लगता है कि गुरु का होना, और उसमें ये प्रश्न, बहुत-बहुत छोटा है, नगण्य है। कोई मतलब इसका महत्व नहीं है।
आचार्य प्रशांत: मिट गया प्रश्न, अच्छा है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं अगर ध्यान से देखूँ तो, *टू बी वेरी फ्रैंक प्रेम भी मुझे आपसे नहीं, मुझे अपने आप से हुआ है; मुझे मजा आ रहा है तभी मैं आ रहा हूँ, ऐसे ही नहीं है। इस मामले में क्या यह स्वार्थी होना है या सचमुच प्रेम है या क्या है?
आचार्य प्रशांत: बाबा! प्रेम तो मन को सदा सत्य से ही होता है न। मन का एक ही तो मूल प्रेम है-आत्मा के प्रति। आत्मस्थ हो जाना है मन को।
और अंततः तो यह बात बिल्कुल ठीक है कि प्रेम तुम्हें अपनेआप से हो जाना है। जब तुम कहते हो कि "मुझे प्रेम मुझसे ही होना है" तो 'मैं' कौन है? तुम्हें तुम्हारे बालों से या विचारों से या मुँह से या मांस से…?
प्रश्नकर्ता: नहीं, वो जो एक स्थिति बन जाती है न मज़े की, जब आपको सुनते हैं उससे। तो उसी में रहें, शायद।
आचार्य प्रशांत: उसी को कहते हैं आत्मस्थ हो गए। मन आत्मस्थ हो गया, मन मज़े में है।
बच्चा कोई चीख़-पुकार नहीं करता, कोई विरोध-विद्रोह नहीं करता, चाहे माँ कहीं भी चली जाए; जब तक कि बच्चा माँ की गोद में है।
समझ रहें हैं बात को?
बच्चा माँ की गोद में है, तो क्या फर्क पड़ता है कि माँ का शरीर कहाँ आ रहा है, कहाँ जा रहा है?
मन बच्चा है, अगर वो आत्मस्थ है, अगर वो वहीं है जहाँ उसे होना चाहिए तो फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि कहाँ आ रहे हो कहाँ जा रहे हो।
स्थितियाँ बदलेंगी तो कहाँ बदलेंगी? बाहर-बाहर बदलेंगी। बच्चे के लिए कोई स्थिति बदली? बच्चा तो अपना नर्म, मुलायम गोद में सो रहा है न। तो मन को वहाँ बैठा दीजिए जहाँ उसे होना है, और उसके बाद आप शारीरिक रूप से कहीं आएँ कहीं जाएँ। बाहरी भौतिक परिस्थितियाँ बदलती रहें, मन को कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कई बार तो यह अवस्था होती है हमारे अंदर कि बुद्ध, महावीर या जितने भी संत रहे हैं, सबकी एक आवाज है। फिर कुछ समय बाद एक ऐसी अवस्था आ जाती है कि एक गुरु हैं। फिर कई बार ऐसी अवस्था आ जाती है कि ठीक है! मतलब *स्पीकर टाइप, मतलब बहुत अलग-अलग लगता है, ऐसा क्यों होता हैं?
आचार्य प्रशांत: क्या करोगे, क्यों होता है? सबकुछ इसलिए होता है क्योंकि तुमने जन्म लिया। बस, होता है। इसका तुम्हें कारण पता लग भी जाए तो उससे तुम्हें हासिल क्या हो जाएगा? सोच तो दस हज़ार तरह की हो सकती है, सबका कारण पता चलाते रहोगे क्या?
और कारण सबका पता करना है तो मूल कारण एक है- 'अहम वृत्ति', तुम्हारा होना। यह देखो कि बने कैसे रहते हो? मिटना कुछ होता भी है या कि नही होता? या सुनी-सुनाई बात है तुम्हारे लिए? तुम तो हो और बहुत मजबूती से हो। अपने होने के क्या मायने हैं, इनको देखो; काल्पनिक अवस्थाओं की तलाश छोड़ो।
किसी ने बता दिया कि घुल जाओ, मिट जाओ और तुम पूछ रहे हो मिटूंगा कैसे? कौन मिटना चाहता है, यह तो पहले बताओ? यह जो कह रहा है "मुझे मिटना है," यह है कौन? इसकी हस्ती पर तो गौर करो, अपने होने पर गौर करो पहले।
जैसे इसने यह सीख लिया है न कि मुझे मिटना है, वैसे ही इसने होना सीख लिया है। इसका सबकुछ ऐसे ही है, नकली। तो फिर इसके होने की आकांक्षा भी मिटने को ओर बढ़ा देती है। मिटने की बात कर-करके तुम अपनेआपको और मजबूत कर लेते हो।
प्रश्नकर्ता: नहीं, मैं सच्ची में परेशान हूँ अपने आपसे, जो मेरा होना है?
आचार्य प्रशांत: उस परेशानी को ग़ौर से देखो, बस! मैं अपने आपसे परेशान हूँ। कैसा हूँ? मैं अपने आपसे परेशान।
जो मैं हरक़तें कर रहा हूँ, उससे मेरी परेशानी कम हो रही है या बढ़ रही है?
प्रश्नकर्ता: परेशानी है, आचार्य जी। इतनी बढ़ जाती है कि लगता है, कि यार कैसे इससे निवृत्त हो जाएँ?
आचार्य प्रशांत: बेटा! तुम्हें तो कहा है मैंने कि इतनी परेशानी भी उसको ही बढ़ती है जिसको परेशान होने की मौहलत होती है; तुम्हारे पास मौहलत बहुत ज़्यादा है। इतनी मौहलत में परेशानी नहीं उतरेगी तो और कौन उतरेगा? समय काटने के लिए कुछ तो करोगे न। जब कुछ नहीं है सृजनात्मक समय काटने के लिए, तो परेशान होना जरूरी हो जाता है।
जीवन का अर्थ ही है संग्राम।
या तो उसमें धर्मयुद्ध लड़ लो, और तुम्हारे पास सम्यक युद्ध नहीं है लड़ने को तो फिर तुम अपनी परेशानियों से लड़ोगे, क्योंकि युद्धरत तो सबको रहना है। कोई है जो असली लड़ाई लड़ रहा होता है, और जो असली लड़ाई में नही उतरेगा वो फिर नकली लड़ाई लड़ता है। नकली लड़ाई यही होती है,
अरे मैं परेशान हूँ!
अरे मुझे यह दुःख है!
अरे यह आफ़त आ गई!
अरे बिल्ली दूध पी गई!
तुम्हारी लड़ाईयाँ यही हैं। एक बड़ी विकट समस्या जीवन पर छाई हुई है, क्या?
श्रोतागण: काल्पनिक लड़ाई लड़ रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: गाड़ी में चूहा मिला! तुम्हें भरे तो रहना ही है, या तो वास्तविक युद्ध से भर जाओ या तो दो कौड़ी की लड़ाईयाँ लड़ते रहोगे। और क्या हैं दो कौड़ी की लड़ाइयाँ? यही सब, आलस बहुत आ गया, कोई लड़का कोई लड़की याद आ गई, साली ने जीजा को आहत कर दिया, शादी में फूफ़ा नाराज़ हो गया, कितने गंभीर मसले हैं। छह साल पहले पम्मी के जन्मदिन में क्यों नहीं आए थे तुम? चल रहा है महासंग्राम। लड़ने को कोई ढंग की लड़ाई तो है नहीं, तो यही लड़ाईयाँ चल रही हैं।
प्रश्नकर्ता: जब आप बोलते हो कि बड़े के साथ रहो। बड़ा नहीं है कुछ आपके जीवन में तो ये बड़ा है क्या?
आचार्य प्रशांत: छोटा क्या है, यह समझते हो?
प्रश्नकर्ता: छोटा तो.., मैं ही छोटा हूँ सबसे।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तो जो कुछ तुम्हें पसंद आता है वो छोटा है।
एक तो बेईमानी भरे इतने जवाब देते हो न कि मैं ही छोटा हूँ सबसे; कतार में सबसे आगे चलते हो। कोई ज़रा सा कुछ बोल दे तो तुरंत खड़े हो जाओगे कि हमें ये तुमने क्या बोल दिया? लेकिन लपक के जबान चला दी कि "मैं ही छोटा हूँ सबसे।" तुम्हारी जिंदगी इस बात की गवाही देती है कि तुम अपने आपको सबसे छोटा मानते हो? ईमानदारी से बोलना..।
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: तो क्यों तुरंत बोल देते हो बिना सोचे-समझे?
प्रश्नकर्ता: नहीं, कहीं न कहीं जानता हूँ मैं कि...।
आचार्य प्रशांत: कहीं न कहीं की बात नहीं है, अपनी जिंदगी से प्रमाण दो। मानते हो अपनेआप को सबसे छोटा?
प्रश्नकर्ता: मानता तो नहीं हूँ।
आचार्य प्रशांत: जब नही मानते तो क्यों बोल देते हो कुछ भी?
प्रश्नकर्ता: नहीं, मानता तो हूँ पर जो छोटा होता है वो अपने आपको बड़ा दिखाने की कोशिश करता है।
आचार्य प्रशांत: बेटा! वाकजाल में फंसा रहें हो मुझे ही, कि मैं अपने आपको बड़ा इसलिए दिखाता हूँ क्योंकि मैं छोटा हूँ?
छोटा क्या होता है, ये अभी जो पिछले मिनट भर में जो बातचीत हुई न उससे पता चल जाएगा। > "अपने को ही धोखे में रखना सबसे छोटी बात है।"
प्रश्नकर्ता: चलो आप पूछते हो तो मैं सच-सच बता देता हूँ। मैं वैसे कभी आपके सिवाय किसी के आगे नही झुका हूँ, सच्ची बता रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: और दावा यह है कि हमसे छोटा कौन। हम छोटे होने में सबसे आगे आ गए हैं, हमसे बड़ा छुटपन किसका?
अध्यात्म इधर-उधर के श्लोक और सिद्धांत रट लेने का नाम नहीं होता बेटा! अध्यात्म का मतलब होता है गहरी, निर्मम ईमानदारी।
प्रश्नकर्ता: ईमानदारी से बता दिया आपको।
आचार्य प्रशांत: तो ऐसे ही रहो बस! यही बड़प्पन है और जब ऐसे नहीं रहोगे तो क्षुद्रता है।
प्रश्नकर्ता: तो अब यही बात हो गई कि, मुझे दूसरों के सामने झुकना चाहिए, या वैसे ही रहना चाहिए जैसा हूँ?
आचार्य प्रशांत: सच के सामने झुकना चाहिए।