प्रश्नकर्ता: जीसस का कथन है, “यह न समझो कि मैं पृथ्वी पर मिलाप कराने आया हूँ, मैं मिलाप कराने नहीं, तलवार चलाने आया हूँ, मैं तो आया हूँ कि मनुष्य को उसके पिता से और बेटी को उसकी माँ से और बहू को उसकी सास से अलग कर दूँ।“ तो जीसस का ऐसा कहने का क्या अर्थ है?
आचार्य प्रशांत: ये जितने भी यहाँ नाम लिये गये, बाप और बेटा, माँ और बेटी, सास और बहू, ये सब समाज द्वारा बनाये गये रिश्तों के नाम हैं। इनमें से कोई भी नाम व्यक्ति का नहीं है। इनमें से कोई भी नाम मौलिक नहीं है। इनमें से कोई भी नाम ऐसा नहीं है जिसको पकड़ लेने से, ग्रहण कर लेने से आदमी की चेतना साफ़ हो जाती हो, बेहतर हो जाती हो या ऊँचाइयों की तरफ़ बढ़ जाती हो। ये सब नाम आदमी द्वारा बनायी गयी सामाजिक व्यवस्था में कुछ व्यावहारिक सुविधा के लिए हैं।
तो यह समझना होगा कि जीसस इंसान को इंसान से लड़वाने की बात नहीं कर रहे हैं। व्यक्ति को तो व्यक्ति के निकट लाना है। उससे भी पहले व्यक्ति को व्यक्ति के ही माने स्वयं के ही निकट लाना है। पहली बात यह कि इंसान अपने ही क़रीब आये। और दूसरी बात यह कि इंसान दूसरे इंसान के क़रीब आये। अब इंसान की चाहे ख़ुद से दूरी हो, चाहे इंसान की दूसरे इंसान से दूरी हो, इसमें बहुत बड़ा कारण वो नाम ही है जो इंसान ने अपने ऊपर डाल रखे हैं।
इंसान का इंसान से शायद कम बैर होगा, लेकिन हिन्दू का मुसलमान से हो जाता है, मुसलमान का हिन्दू से हो जाता है। एक जात का दूसरी जात से हो जाता है। दो लोग साथ जा रहे हों, आपस में सरल, सहज हँसकर बातें कर रहे हों और तभी एक-दूसरे का नाम पूछ लें। पहली बार उन्हें एक-दूसरे का नाम पता चले, अभी-अभी मिले थे। हो सकता है नाम पता चलते ही उनमें दूरी आ जाए। यह भी हो सकता है कि नाम पता चलते ही वो एक-दूसरे से और निकटता अनुभव करने लगें। चाहे दूरी आ जाए, चाहे निकटता आ जाए, वो आध्यात्मिक तो नहीं ही है, प्राकृतिक भी नहीं है। वो पूरे तरीक़े से एक सामाजिक बात है कि आपके दिमाग में दूसरे को देखने के लिए एक स्वतन्त्र चेतना छोड़ी ही नहीं गयी है।
आपको पहले ही बता दिया गया है कि वह जो दूसरा व्यक्ति है, उसको व्यक्ति की तरह नहीं, इंसान की तरह नहीं, एक रिश्ते की तरह देखना है। देखिए, इसमें समस्या यह है कि रिश्ता नहीं तड़पता, इंसान तड़पता है, उसकी चेतना तड़पती है। बहू या बेटी या बाप या बेटा ये नहीं परेशान होते, परेशान तो इन नामों के नीचे जो इंसान है वो हो रहा होता है। और जैसा कि इस कथन से स्पष्ट है, बहुत बार उस परेशानी का कारण ही ये नाम होते हैं।
तो किसी विशेष स्थिति में जीसस ने यह वक्तव्य दिया होगा। लेकिन इस वक्तव्य के पीछे जो भाव है वो यही है कि हमारे सत्य के ऊपर पहले तो एक प्राकृतिक परत चढ़ी हुई है, जिससे वो छुपा रहता है और फिर जो हमारी प्रकृतिगत सच्चाई है, उसके ऊपर भी एक सामाजिक परत चढ़ी हुई है। तो इंसान इन दोनों परतों के नीचे दबा हुआ है। इन दोनों परतों के नीचे दबी हुई उसकी चेतना मुक्ति के लिए फड़फड़ाती है। उसी चेतना की मुक्ति के लिए जीसस कह रहे हैं कि कम-से-कम जो सबसे ऊपर वाला तुम्हारा परत है उसको तो हटाओ! वो सामाजिक है।
तो उसको हटाने के लिए वो कह रहे हैं कि रिश्ते की तरह मत देखो, दूसरे को इंसान की तरह देखो। नामों को थोड़ा अलग हटाकर के देखो। और ख़ुद को देखने में भी यही बात है। ख़ुद को अगर सिद्धान्तों के, नामों के, पहचानों के और पूर्वाग्रहों के और पुराने संस्कारों के चश्मे से देखोगे तो कभी ख़ुद को साफ़ देख नहीं पाओगे। ख़ुद को अगर साफ़ देखना है तो इंसान की तरह देखना होगा। और मैं जब बार-बार इंसान शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ तो भ्रम में मत पड़ जाना। इंसान से एक ही आशय होता है मेरा — इंसान की चेतना। चैतन्य नहीं है इंसान तो उसके बारे में कौन बात करेगा!
हमारे बारे में तभी तक बात होती है न जब तक हम क्रियाशील हैं, जब तक हमें कुछ चुनना है, कुछ पाना है, कुछ पकड़ना है, कुछ छोड़ना है, कहीं पहुँचना है। जब तक हमारे सुख हैं, दुख हैं, दर्द हैं, आकांक्षाएँ हैं, अनुभूतियाँ हैं, तब तक हम इंसान कहलाते हैं। और ये जितने शब्द अभी मैंने इस्तेमाल किये सुख-दुख, आकांक्षाएँ, अनुभूतियाँ इत्यादि इन सब का सम्बन्ध हमारी चेतना से है। तो इंसान की चेतना है जिसको बार-बार सम्बोधित किया जाता है किसी भी ज्ञानी द्वारा, विचारक द्वारा, दार्शनिक द्वारा। उसी की बात यहाँ भी हो रही है। आपकी चेतना मुक्त हो सके उसके लिए आवश्यक है कि आप सम्बन्धों की जकड़ से बाहर आयें। सम्बन्धों की जकड़ में आप दूसरे के साथ जकड़े ज़रूर हुए हैं लेकिन दूसरे के साथ कोई सुन्दर या सही रिश्ता थोड़े बना लिया।
जैसे दो लोगों को आप पकड़ लो और उनको आमने-सामने खड़ा करके उनको रस्सी से बाँध दो। चलो आमने-सामने भी छोड़ो, दो लोगों को पकड़ लो, उनको पीठ से पीठ सटा दो बिलकुल। एक पूरब देख रहा है, एक पश्चिम देख रहा है और फिर उनको कमर से रस्सी से बाँध दो। एक साझी रस्सी से दोनों को घेरकर कमर से बाँध दो। तो जीवनभर के लिए साथ तो हो ही गये लेकिन इससे उनमें कोई आत्मीयता या प्रेम नहीं आ गया न!
इस तरह के साथ को पूरे तरीक़े से अस्वीकार करते हैं सब जानने-समझने वाले। वो कह रहे हैं, 'आदमी और आदमी का साथ रहे, पर वो साथ असली हो।' तुम दूसरे के पास इसलिए हो क्योंकि तुम दूसरे को जानते हो, समझते हो और दूसरे के हितैषी हो। यह सच्चा रिश्ता है। और तुम दूसरे के साथ सिर्फ़ इसलिए हो क्योंकि तुम्हारे पास एक नाम है, एक पहचान है, एक पुराना अनुबन्ध है, एक करार है, एक समझौता है या कुछ विवशताएँ हैं या कुछ लालच है तो यह कोई रिश्ता नहीं हुआ।
तो इसीलिए यहाँ पर जीसस का ऐसा वक्तव्य है। पढ़ने में यह वक्तव्य थोड़ा सा अज़ीब लगता है और कई लोग इससे थोड़ा डर भी सकते हैं। कुछ लोग तुरन्त विरोध कर सकते हैं। लेकिन आप कोई प्रतिक्रिया दें, उससे पहले क्या बात कही जा रही है वह समझना ज़रूरी है। उसको समझिए फिर आगे बढ़िए।