महिला-पुरुष दोनों शोषित, तो शोषक कौन?

Acharya Prashant

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महिला-पुरुष दोनों शोषित, तो शोषक कौन?
अज्ञान का दूसरा नाम शोषण है। जो आज अपनेआप को शोषित कह रहा है, वो भीतर- ही- भीतर तैयारी करके बैठा है कि कल शोषण करूँगा। तो जो आज का शोषित है, वो कल का शोषक बनता है। हमें ये नहीं करना है कि संतुलन ला दिया और संतुलन का मतलब हुआ कि अब दोनों बराबर का शोषण करेंगे। वो कोई संतुलन नहीं होता है। हमें ये करना है कि जो शोषण का मूल कारण ही है उसको मानव मात्र के भीतर से हटा दें। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

मंच संचालक1: हमारे गेस्ट ऑफ़ ऑनर आचार्य प्रशांत जी। बहुत-बहुत स्वागत सर आपका। आपसे रिक्वेस्ट करूँगी हमारे साथ डाइस (मंच) पर जुड़ें और दो शब्द… सर।

आचार्य प्रशांत: इस अवसर पर मुझे आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद। पुरुष आयोग के गठन की बात है और…मुझे आने में थोड़ी देर हुई, तो जब मैं आ रहा था, तो यूट्यूब पर लाइव सुन रहा था, जो बातें हो रही थीं। तो उस तरह से जुड़ा हुआ था।

तो मुद्दे के जो सामाजिक और कानूनी पक्ष हैं, उनकी बात हुई है और उनके बारे में आप लोग मुझसे कहीं बेहतर ही जानते होंगे। मेरी उसमें कोई विशेषज्ञता नहीं है। मैं थोड़ा-सा हटकर के इस चीज़ के आन्तरिक पहलू पर पाँच-सात मिनट चर्चा करना चाहूँगा।

अभी हाल में कईं घटनाएँ घटी हैं जहाँ कहीं पर एक महिला को, कहीं पर एक पुरुष को अपने ही साथी के हाथों, परिवार के लोगों के हाथों, पति या पत्नी के हाथों या प्रेमी के हाथों, क्रूरता का शिकार होना पड़ा है और मौत हुई है, हत्या हुई है। तो उसको लेकर के मुझसे कोई बात कर रहा था, बोले कि,

मैं अपने घर से बहुत दूर रहती हूँ — जो मुझसे बात कर रहे थे — मैं अपने घर से बहुत दूर रहती हूँ। तो ये सब घटनाएँ घट रही हैं, तो मेरे माँ-बाप चिंतित रहते हैं। वो मुझे फ़ोन करके पूछते हैं कि तुम्हारा हाल तो ठीक-ठाक है न?।’

मैंने कहा, ‘कहीं पर कोई घटना घटती है, तो वहाँ पर हम सबको यही लगता है कि कहीं मैं शिकार न बन जाऊँ, कहीं ऐसा कुछ मेरे साथ न हो जाए। है न? अगर सबको यही लग रहा है कि कहीं ऐसा मेरे साथ न हो जाए, कहीं मैं शोषित न हो जाऊँ, तो शोषण करने वाला कौन है?

कहीं कुछ हो रहा होता है तो हम डर जाते हैं। हम डर ये जाते हैं कि कहीं मेरे ऊपर आक्रमण न हो जाए। अगर हर व्यक्ति डर यही रहा है कि उस पर आक्रमण न हो जाए तो वो अपनेआप को तो फिर लगभग दूध का धुला ही घोषित कर रहा है,। कह रहा है, ‘मैं आक्रामक कभी नहीं हो सकता, मैं शोषक कभी नहीं हो सकता। कहीं मेरा शोषण न हो जाए।’

हम सड़क पर जा रहे होते हैं, हम कोई दुर्घटना देखते हैं, तो हमें यही लगता है कि, अरे! कहीं ऐसा मेरे साथ न हो जाए। हम ये नहीं सोच पाते कि कहीं मैं ही तो वो व्यक्ति नहीं जिसने ये दुर्घटना करी है और भाग गया है। जबकि दुर्घटना हुई है तो दो पक्ष होंगे। एक जो सड़क पर गिरा हुआ है और एक जिसने टक्कर मारी है। पर हमें ये खयाल नहीं आता कि टक्कर मारने वाला भी तो कोई है।

हम हॉरर (डरावनी) मूवी देखते हैं, हमें डर लगता है। हमें डर ये लगता है कि वहाँ वो जो भूत-प्रेत या जो भी वहाँ पर तिलिस्मी, रहस्यमयी कार्यक्रम चल रहा है, कहीं वो मेरे साथ न हो जाए। किसी को ये नहीं लगता कि वहाँ जो कर रहा है, जो भी क्रूरता, बर्बरता है, कहीं मैं ही तो वो नहीं।

तो अब वेदान्त मेरा क्षेत्र है और अहंता, अहंकार की बात करना मेरा काम। तो अहंकार की — और अहंकार का मतलब गर्व, घमंड नहीं होता, अहंकार माने जो ‘मैं’ भाव है, उसकी बात हो रही है शास्त्रीय तौर पर।

उसकी पहचान ही यही होती है कि वो हमेशा यही मानता रहता है कि उसके साथ कुछ गलत हो रहा है, उसका उत्पीड़न हुआ है, उसके साथ किसी ने धोखा किया है। वो कभी ये नहीं कहता कि मैं ही तो वो हूँ जो धोखा करता भी है। अब नतीजा क्या निकलता है?

हर व्यक्ति यही सोच रहा है कि उसके साथ कुछ गलत हो रहा है। और जैसे ही आप कह देते हो कि आपके साथ कुछ गलत हो रहा है, आप अपनेआप को बिलकुल जता देते हो, अपनेआप को आश्वस्त कर देते हो कि आपके साथ तो इतिहास में, समाज में या जहाँ कहीं भी परिवार में, परिस्थितिवश कुछ गलत हुआ है। आप अपनेआप को फिर छूट दे देते हो, लाइसेंस दे देते हो दूसरे के ऊपर हावी होने का, दूसरे पर हिंसा करने की। नहीं तो नैतिक रूप से आप कैसे इस बात को जायज़ ठहराओगे कि आप दूसरे पर चढ़ बैठ रहे हो?

तो नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन) बनेगा और दूसरी तरफ़ हो जाएगा वॉरसा पैक्ट (नाटो के जवाब में सोवियत संघ के नेतृत्व में पूर्वी यूरोप के देशों के गठबन्धन ने सन् 1955 में वारसा संधि की)। और आप रूस से पूछेंगे कि तुमको क्यों ये एक नया गठन करना पड़ रहा है? तो कहेगा, ‘क्योंकि अमेरिका वहाँ पर साज़िश कर रहा है मेरे खिलाफ़।’ और अमेरिका से पूछो कि तुमने क्यों किया? वो कहेगा, ‘रूस को देखो, इनके इरादे ही नापाक हैं।’

तो कोई भी जब कॉन्फ्लिक्ट (टकराव) होती है, द्वंद्व होता है, उसमें हमेशा दो पक्ष होते हैं और दोनों पक्षों द्वारा अनिवार्य रूप से यही माना जा रहा होता है कि हम तो बेचारे हैं, हमारे ऊपर अत्याचार हुआ है। और खतरनाक है वो आदमी जो कह रहा हो कि उसके ऊपर अत्याचार हुआ है। जो कह रहा है, उसके ऊपर अत्याचार हुआ है, वो किसी और पर अत्याचार करने की तैयारी कर रहा है।

जो कहे कि मेरे साथ कुछ… और दुनिया में जो कुछ भी हुआ है आज तक गलत से गलत, वो करने वालों के पास हमेशा यही दलील थी कि हम तो साहब बस हिसाब बराबर कर रहे हैं। पलड़ा तराज़ू का एक तरफ़ को झुका हुआ है, हम तो संतुलन ला रहे हैं बस।

आप हिटलर से जाकर पूछें कि क्यों किया ये? नाज़ी जर्मनी में जो पूरा चल रहा था। वो कहेगा, ‘यहूदियों ने जर्मनी का बड़ा शोषण कर रखा था।’ उसके पास भी अपने काम को वैध ठहराने के लिए, जस्टिफाई (औचित्य सिद्ध करना) करने के लिए दलील थी। मेरे साथ गलत हुआ, तो अब मैं गलत कर सकता हूँ।

और ये वृत्ति हर एक में पाई जाती है। जो आज शोषित लग रहा है, वो कल का शोषक है। ये पक्का समझ लीजिएगा। जो आज शोषित लग रहा है, वो कल का शोषक है। क्योंकि जो मूल वृत्ति है हमारे भीतर, जो अत्याचार सहती भी है और अत्याचार करती भी है, हम उसकी तो कोई बात ही नहीं करना चाहते।

हम दुनियाभर की बातें कर लेते हैं, लेकिन आदमी के अन्दर जो जानवर बैठा हुआ है, हम उसकी बात नहीं करते। और वो जानवर पुरुष और स्त्री में एक बराबर बैठा हुआ है। कल स्त्री पर अत्याचार हुआ था सक्रिय रूप से, आज वो पलटकर के वार करेगी।

और उसका समाधान — देखिए, तात्कालिक तौर पर, सतही तौर पर, हम कुछ कानूनी प्रावधान कर दें, उससे राहत मिलती है, निस्संदेह मिलती है, और इस तरह के प्रावधान होने भी चाहिए, लेकिन ये कोई अंतिम समाधान होते नहीं हैं — अन्तिम समाधान तो यही है कि उस चेतना को सम्बोधित किया जाए, जो पुरुष और स्त्री दोनों में होती है और बहुत पाशविक होती है। आदमी हो या औरत, वो देखिए, शरीर से अलग होते हैं, भीतर से एक होते हैं।

जो पुरुष है न, अगर उसी का लिंग परिवर्तन करके उसको स्त्री बना दिया जाए, तो वो वो सारे काम करने लगेगा, जो उसे स्त्रियों में बड़े निन्दनीय लगते थे क्योंकि चेतना वही है। उसके पास उपकरण के तौर पर पहले पुरुष का शरीर था, बाद में स्त्री का मिल गया,। तो वो भी वही सारे काम करेगा।

लेकिन हम उनकी बात नहीं करते। आज मौका है, कर सकते हैं, दो मिनट और लेकर के। नाम हमने दिया है–- मेन्स डे , पुरुष दिवस। तो जिन्होंने जाना है, समझा है, उन्होंने हमसे कहा है कि पुरुष का अर्थ नर नहीं होता, मर्द नहीं होता, मेल (पुरूष) नहीं होता। पुरुष का अर्थ होता है चेतना। तो क्यों न इसे चेतना दिवस के रूप में समझा जाए?

और वो सारी चीज़ें जो चेतना को उग्र, हिंसक बनाती हैं, उसे एक भीतरी अँधेरे में रखती हैं, जिसके कारण वो पूरी दुनिया को अपना दुश्मन समझता है, उसी चीज़ को क्यों न जड़ से हटा दिया जाए। आप उसको अगर नहीं हटाओगे तो ये खेल लगातार चलता रहेगा। आज तुमने मुझे मारा, कल मैं तुम्हें मारूँगी।

अब सड़कों पर भी ये होने लग गया है। बिलकुल होने लग गया है कि महिलाएँ उग्र होकर के पुरुषों पर हाथ उठा रही हैं। ऐसा ही एक वाकया घटा था, वो मीडिया में बहुत छाया रहा था। उस पर मैंने बोला भी था पहले भी। पिछले वर्ष की बात है शायद, लखनऊ में हुआ था। और उसके अलावा भी बहुत कुछ होने लग गया है।

जब नहीं भी होता था सक्रिय रूप से स्त्रियों द्वारा हिंसा का प्रदर्शन, तो भी वहाँ पर पैसिव वॉयलेंस (निष्क्रिय हिंसा) तो रहता ही था। एक दफ़े मैंने पूछा था। मैंने पूछा था, ‘सच-सच बताना, दुशासन को भीम ने मारा था या द्रौपदी ने?’ और दुशासन की बड़े बर्बर तरीके से हत्या करी गयी थी।

एक योद्धा दूसरे को मार दे रणभूमि में, एक बात होती है; पर तुम मारकर के कहो कि, इसकी छाती फोड़नी है, फिर उसका खून लेकर जाना है। करा तो येह भीम ने, आँखें बोलेंगी, ‘भीम ने करा, देखो भीम कितना बर्बर, हिंसक आदमी है’; पर भीम को पीछे से प्रतिज्ञा तो द्रौपदी ने दिलवा रखी थी।

तो ऐसा तो नहीं है कि पुरुष ही हिंसक रहा है और स्त्रियाँ तो हमेशा से करुणा की मूर्ति रही हैं। हाँ, एक की हिंसा प्रकट होती है, दूसरे की अप्रकट होती है। और जब पलड़े ऊपर-नीचे होते हैं, तो इतना ही होता है कि, जिसकी प्रकट थी, अब उसकी अप्रकट हो जाएगी और जिसकी अप्रकट थी, अब प्रकट हो जाएगी। एक्टिव (सक्रिय) वॉयलेंस (सक्रिय), पैसिव वॉयलेंस में बदल जाएगा।

याद रखिएगा, जो भी पक्ष बाहुबल में कमज़ोर होता है, वो हमेशा पैसिव वॉयलेंस करता है। और वही पक्ष जब बाहुबल या कानूनी ताक़त या धनबल पा जाता है, तो फिर वो एक्टिव वॉयलेंस करता है। लेकिन वॉयलेंट (हिंसक) तो हमेशा दोनों पक्ष होते हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि एक पक्ष शोषण कर रहा है और दूसरा शोषित है।

अज्ञान का दूसरा नाम शोषण है। जो शोषण कर रहा है वही शोषित भी है। जो आज अपनेआप को शोषित कह रहा है, वो भीतर- ही- भीतर तैयारी करके बैठा है कि कल शोषण करूँगा।

तो स्त्री और पुरुष को, माने नर और नारी को, मैं चाहूँगा, पता नहीं कितना व्यावहारिक है, वो आप लोग देखिएगा, पर इस मंच से बोल रहा हूँ, तो मैं चाहूँगा कि नर और नारी को दोनों को चेतना के तल पर देखें। मानव मात्र ही मानें और मानव मात्र के भीतर से हिंसा हटे, इसका कुछ उपाय करें।

एक बड़े जानकार व्यक्ति हुए हैं — मैं बहुत मानता हूँ उनको — जिद्दू कृष्णमूर्ति। आपने पढ़ा हो शायद। वो कहते थे, ‘अगर आप बस यह समझ सकें कि पुरुष और स्त्री, नर और नारी में घर में क्यों झगड़े होते हैं, तो आप जान जाएँगे कि दुनियाभर में यदि कहीं पर भी झगड़ा हो रहा है, तो क्यों हो रहा है।’ क्योंकि बात दो व्यक्तियों की नहीं है, बात दो लिंगों की नहीं है, बात मानव मन की है। आप बस ये समझ लीजिए कि कोई भी आदमी और औरत आपस में क्यों झगड़ रहे हैं, तो आप ये भी जान लेंगे कि अमेरिका और रूस आपस में क्यों झगड़ रहे हैं।

तो इस चीज़ के बहुत दूरगामी प्रभाव होने हैं। और वो प्रभाव तभी आ सकते हैं जब हम पहले समस्या के मूल को, समस्या की जड़ को सम्बोधित करें और वो जड़ है, आध्यात्मिक शिक्षा का अभाव।

हम भीतर से कैसे हैं, हमें अपने बारे में कुछ पता नहीं। जब हमें अपने बारे में कुछ पता नहीं तो जो भीतर हिंसक जानवर गुर्राता रहता है, हम उसको भी कुछ जानते नहीं। और उसका जब तक हम इलाज नहीं करेंगे, तब तक हमें इस तरह का द्वंद्व और स्ट्राइफ़ (संघर्ष) लगातार देखने को मिलेगींगे। आवश्यक नहीं है कि मिले, इलाज किया जा सकता है। बस इतना ही। नमस्कार!

संचालक1: थैंक यू सो मच सर (बहुत धन्यवाद श्रीमान)। आपने एक नये नज़रिए से हम सभी को जागरूक किया। बहुत-बहुत शुक्रिया आपका। यहाँ पर मैं रिक्वेस्ट करूँगी,… आचार्य प्रशांत हमारे गेस्ट ऑफ़ ऑनर हमारे बीच जुड़ें और हमारे गेस्ट ऑफ़ ऑनर को फेलिसिटेट (अभिनन्दन) करते हुए, सम्मानित करते हुए हमारी चीफ़ गेस्ट (मुख्य अतिथि) सोनल मानसिंह जी। आप सभी से तालियों का सहयोग।

आचार्य प्रशांत: (मीडिया को सम्बोधित करते हुए) देखिए, एक तात्कालिक तौर पर ये एक कानूनी समाधान का हिस्सा हो सकता है। पर अन्दरूनी और गहरी आध्यात्मिक बात तो यही है कि इंसान कोई भी हो, नर नारी चाहे पुरुष या स्त्री, जब तक उसके भीतर अज्ञान है, हिंसा है, तो तब तक शोषण करने की उसकी वृत्ति बची ही रहेगी।

और किसी एक पल में इतिहास के, किसी एक लिंग का पलड़ा भारी हो जाता है, तो वो शोषक बन जाता है और फिर पहिया घूमता है, आगे बढ़ती है बात, तो दूसरा पक्ष शोषक बन जाता है। ये चलता रहेगा, शोषण का और शोषक-शोषित वाला खेल। उसको अगर हटाना है, समस्या का अगर जड़ से निवारण करना है तो बच्चा, लड़का हो, चाहे लड़की हो, जब वो स्कूल में हो, तभी से उसको आध्यात्मिक शिक्षा शुरू कर देनी चाहिए।

जब तक हमारे भीतर हिंसा का मूल कारण जो है नहीं हटाया जाएगा, तब तक हम सबके लिए हिंसक रहेंगे। आपके जीवन में एक स्त्री आएगी, आप उसके लिए हिंसक रहोगे। आपके जीवन में एक कोई पुरुष आ जाएगा, उसके लिए भी हिंसक रहोगे।

स्त्री-पुरुष नहीं आए आपके जीवन में, बच्चों के लिए हिंसक रहोगे, बूढ़ों के लिए हिंसक रहोगे, जानवरों के लिए हिंसक रहोगे। एक देश दूसरे के लिए हिंसक रहेगा। एक समुदाय दूसरे के लिए हिंसक रहेगा। हम अपने ही प्रति तो कितने हिंसक होते हैं न?

तो जो पुरुष की स्त्री के प्रति हिंसा है या स्त्री की पुरूष के प्रति हिंसा है, हमें उसको थोड़ा व्यापक परिपेक्ष्य में देखना पड़ेगा। और व्यापक बात ये है कि हम भीतर से लोग ऐसे हैं कि हम जिसके भी सम्पर्क में आते हैं, हम जिसको भी स्पर्श करते हैं, हम उसको नोचना-खसोटना शुरू कर देते हैं, क्योंकि हमारे भीतर बड़ा अँधेरा है, और ये अँधेरा जो है, यही हिंसा बनता है। भीतर हमें लगता है एक बेचैनी है, अपूर्णता है, तो हम सोचते हैं, दूसरे को नोचकर के, दूसरे से छीनकर के कुछ हासिल कर लेंगे।

पुरुष इसीलिए फिर स्त्री पर हिंसक होता है और स्त्रियाँ भी बराबर की हिंसा दिखाती हैं पुरुषों पर। हाँ, इतना होता है कि जिसके पास दम ज़्यादा है, बाहुबल या धनबल ज़्यादा है, वो पक्ष हावी होता दिखाई देता है। कहीं एक्टिव वॉयलेंस (सक्रिय हिंसा) हो रहा है, कहीं पैसिव वॉयलेंस (निष्क्रिय हिंसा) होता है।

जो पक्ष दब रहा होता है वो तैयारी कर रहा होता है कि आज तुमने हमें दबाया है, कल हम भी हिंसा करेंगे। तो जो आज का शोषित है, वो कल का शोषक बनता है। तो इस खेल में नहीं पड़ना है। हमें ये नहीं करना है कि संतुलन ला दिया और संतुलन का मतलब हुआ कि अब दोनों बराबर का शोषण करेंगे। वो कोई संतुलन नहीं होता है।

हमें ये करना है कि जो शोषण का मूल कारण ही है उसको मानव मात्र के भीतर से हटा दें। उसको नहीं हटाएँगे तो हो सकता है नर-नारी आपस में दिखाई दे कि हिंसा नहीं कर रहे हैं लेकिन फिर पूरी पृथ्वी के प्रति तो हिंसा करते ही रहेंगे न।

ये क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) का समय है, ये बायोडायवर्सिटी इक्सटिंक्शन (जैव विविधता विलुप्ति) का समय है। एक घर ऐसा हो सकता है, जिसमें नर-नारी एक दूसरे पर हिंसा नहीं कर रहे हैं क्योंकि दोनों डरते हैं।

एक डरता है कि वो महिला आयोग में चली जाएगी, दूसरी डरती है, पुरुष आयोग में चला जाएगा। लेकिन दोनों मिलकर के पूरी पृथ्वी पर हिंसा कर रहे हैं। सारे पशुओं पर, जंगलों पर, नदियों, पहाड़ों पर हिंसा कर रहे हैं, तो वो हिंसा क्या हमें स्वीकार है? वो हिंसा क्या हमें स्वीकार है?

तो हमें हिंसा के बीज को ही हटाना होगा। उसकी एक छोटी-सी बात करने से, एक बहुत, एक छोटे दायरे में उसको सम्बोधित करने से कोई हमें दूरगामी लाभ नहीं होगाै।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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