तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर ।। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष: ।।३.१९।।
इसलिए अनासक्त भाव से सदा शुभ कार्य या कर्तव्य कर्म उत्तम रूप से करते रहो, क्योंकि मनुष्य निष्काम रहकर कर्म का अनुष्ठान करते हुए श्रेष्ठ पद मोक्ष प्राप्त करता है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक १९
आचार्य प्रशांत: हमने समझा कि कृष्ण कह रहे हैं कि मेरी तरह रहो अर्जुन; अनासक्त रहकर व्यक्तिगत रूप से अपने लिए कुछ न चाहते हुए भी सतत-निरंतर घोर कर्म में रत रहो।
कर्मणैव हि सनसिद्धिमास्थित जनकादयः ।। लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।।३.२०।।
राजा जनक आदि केवल कर्म के द्वारा ही उत्तम सिद्धि प्राप्त कर सके थे, इसलिए संसार के कल्याण के प्रति दृष्टि रखकर तुम्हें भी कर्म करना चाहिए।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक २०
बीसवें श्लोक में उदाहरण देते हैं। कहते हैं कि राजा जनक आदि अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जो कि जीवनभर कर्मरत रहे और मुक्ति को पाया। इसलिए, अर्जुन, तुम्हें भी अपने नहीं बल्कि संसार के कल्याण को चाहते हुए कर्म करना चाहिए।
कर्म तो करना ही है। कर्म से पीछे व्यावहारिक रूप से भी नहीं हटा जा सकता और कर्म न करने की बात सोचना अज्ञान भी है और अधर्म भी। अज्ञान इसलिए है क्योंकि कर्म से पीछे हटा जा ही नहीं सकता। भीतर जब तक कर्ता मौजूद है, वो कुछ करे तो भी कर्म होगा, और न करना भी कर्म है। और अधर्म इसलिए है क्योंकि उस कर्ता को शांति तक और मुक्ति तक सिर्फ़ निष्कामकर्म ही ले जा सकता है। तो कर्ता अगर ऐसा विचार कर रहा है कि कर्म नहीं करूँगा तो माने वो मुक्ति तक जाने की इच्छा ही छोड़ रहा है – ये अधर्म हो गया। समझ में आ गई बात?
जो प्रचलित धारणा है दुर्भाग्य से, कि अध्यात्म में आकर तो आदमी उदासीन हो जाता है, कई लोगों को लगता है कि अकर्मण्य हो जाता है, निकम्मा, तो वो धारणा बिलकुल-बिलकुल ग़लत है; सच्चाई उससे बिलकुल उलट है। अध्यात्म तो आलसी को भी कर्मनिष्ठ बना दे। कृष्ण की पूरी सीख ही यही है – रुकना मत, चलते जाना, बढ़ते जाना, लड़ते जाना। तुम्हारा काम है बढ़ते रहना, लड़ते रहना। युद्ध सही रखो और परिणाम की परवाह करो मत। ठीक है?
यद्यादाचरित श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: ।। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।३.२१।।
श्रेष्ठ व्यक्ति जैसा कर्म करता है, साधारण मनुष्य भी उसके पीछे-पीछे वैसा ही करते हैं, श्रेष्ठ के प्रमाण का अनुसरण सभी करते हैं।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक २१
अर्जुन को और प्रेरित करने के लिए, जो जगत का एक व्यावहारिक तथ्य है वो सामने रखते हैं। कहते हैं, ‘देखो, श्रेष्ठ व्यक्ति जैसा कर्म करता है, साधारण मनुष्य भी फिर उसके पीछे-पीछे वैसा ही करते हैं। तो श्रेष्ठ के प्रमाण का अनुसरण सभी करते हैं। तो अर्जुन, इससे समझो फिर कि तुम्हें क्या करना है।‘
कर्म का उद्देश्य यदि शांति लाना है, कर्म का उद्देश्य यदि दूसरों का भला करना है – निष्काम कर्म माने अपना तो लाभ सोचना है नहीं, तो दूसरों का ही कल्याण करना है – और दूसरों का कल्याण यदि उद्देश्य है, तो तुम बताओ अगर तुम अभी युद्ध नहीं करते तो तुम दूसरों पर क्या प्रभाव डाल रहे हो? तुम अपने धर्म से तो पीछे हट ही रहे हो, तुम दूसरों के सामने ये उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हो कि सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अगर अपना युद्ध छोड़ सकता है तो हम क्यों नहीं? आप कहेंगे, ‘लेकिन दूसरों की थोड़े ही सोचनी होती है, अपनी सोचनी होती है।‘ अपनी सोच ही तो फिर सकामता हो जाती है न कि अपने ही बारे में सोच रहे हैं, दूसरों के बारे में सोच ही नहीं रहे। जो अपने ही बारे में सोचे, वो तो फिर सकामता हो गई।
तो युद्ध भी करना है या नहीं करना है, इसमें भी ये विचार करना पड़ेगा कि इसका समग्र जनसमुदाय पर क्या असर होने वाला है। अगर जनसमुदाय पर सही असर हो रहा हो तो कई बार वो निर्णय भी करने पड़ते हैं जो व्यक्तिगत रूप से स्पष्टत: पता न चलते हों कि सही हैं कि ग़लत हैं, धर्म है कि अधर्म है। तब निर्णय ऐसे ही कर लिया जाता है कि मेरे लिए पता नहीं सही है कि ग़लत है, धर्म है कि अधर्म है, लेकिन संसार पर इसका अनुकूल प्रभाव पड़ना है, इसी बात से ये धर्म हो गया। मेरे लिए हो सकता है न हो ठीक, पर सबके लिए अगर ठीक है तो करूँगा।
यदि विश्व मात्र मेरे इर्दगिर्द का स्थान होता, यदि मेरे संसार में मुझे बस अपनी भलाई देखनी होती तो फिर कोई बात नहीं होती। मैं देखता कि मेरी व्यक्तिगत मुक्ति किधर है, मैं वही कर डालता। पर अपने से आगे का भी कुछ होता है, जो देखना पड़ता है। ये बात आप समझेंगे तो फिर आपके सामने अध्यात्म की, आध्यात्मिक साहित्य की और आध्यात्मिक कथाओं की कई गुत्थीयाँ खुल जाएँगी। बोधिसत्व का जैसे एक आदर्श होता है। वो कहता है कि ये व्यक्ति स्वयं मुक्त हो सकता था, लेकिन इसने अपनी मुक्ति की बजाय एक बंधन चुन लिया। क्योंकि यदि ये स्वयं मुक्त हो जाएगा, तो फिर ये दूसरों को मुक्त करने के दायित्व से भी मुक्त हो जाएगा। अब अगर आप नहीं समझेंगे कि निष्कामता वास्तव में क्या होती है, तो आप बोधिसत्व को भी नहीं जान पाएँगे।
निष्कामता का अर्थ है – तुम्हारा जो होगा सो होगा; जो सही है वो होना चाहिए। तुम्हारा माने जो तुम्हारी व्यक्तिगत सत्ता है, व्यक्तिगत देह, व्यक्तिगत मन, व्यक्तिगत अस्तित्व, व्यक्तित्व ही तुम्हारा पूरा, उसका जो होगा वो ठीक है। पर हम जब हिसाब करेंगे तो पूरा करेंगे, हम समग्रता को देखेंगे। बोधिसत्व की बात वहीं से उठती है। हाँ, मेरी मुक्ति बहुत ऊँची बात है, पर वो ऊँची बात नीची हो जाती है अगर मुक्ति में 'मेरा' जुड़ जाता है। मुक्ति में भी क्या जोड़ दिया? 'मेरा' जोड़ दिया। 'मम् मुक्ति', 'मैं' मुक्त हुआ। मुक्ति में भी अगर ‘मम्’ और ‘अहम्’ जुड़ा हुआ है तो मुक्त कहाँ हुए फिर?
तो बोधिसत्व कहता है, ‘वास्तविक मेरी मुक्ति इसी में है कि मेरी व्यक्तिगत मुक्ति भले ही न हो पर सबकी मुक्ति होनी चाहिए।’ ये बात समझने में थोड़ी सूक्ष्म है। एक व्यक्ति है जो अपने-आपको बंधनों में डाले रहने को तैयार है, जिसने जानते-बूझते खाली आकाश की जगह, स्वछंद उड़ान की जगह अपने ऊपर कुछ कर्तव्य ओढ़ लिए हैं; ये बात लगेगी कि अध्यात्म के विरुद्ध है। यदि मुक्ति उच्चतम बात है तो कोई मुक्ति की अपेक्षा बंधनों और कर्तव्यों का चयन क्यों करे? निष्कामता आपको बताएगी कि क्यों करे। क्योंकि वो मुक्ति मुक्ति नहीं है जो बस आपकी हो। और अगर आप ये बात समझेंगे तो अध्यात्म के क्षेत्र में जो बहुत सारे भ्रम हैं, वो कटेंगे आपके।
बहुत सारे ऐसे सज्जन हुए हैं, गुरु लोग हुए हैं, तथाकथित ऋषिमुनि हुए हैं, जिनको लेकर के ये बात प्रचलित रही है कि वो मुक्त हो गए इसीलिए जनता की आँखों से अदृश्य हो गए, कहीं गुफा-कंदरा-जंगल में जाकर बैठ गए; ऐसी मुक्ति मुक्ति नहीं है। क्योंकि वो मुक्ति किसकी हुई? वो तो व्यक्तिगत हो गई। और अगर अभी व्यक्तिगत मामला ही चल रहा है तो मुक्ति कहाँ हो गई? इससे आपको ये भी समझ में आएगा कि ऐसी शांति शांति नहीं है जो बस आपकी है। कि आप घर में किसी जगह पर कोने-कतरे में या कहीं मंदिर में जाकर बैठकर ध्यान आदि कर लें और कहें, ‘यही शांति है’। वो तो आपकी है न? और जो आपकी है सिर्फ़ वो असली कैसे हो सकती है? फिर तो 'मैं' क़ायम रह गया।
ये जो 'मैं' है, ये बड़ा मायावी होता है। ये मेरी अशांति में तो बना ही रहता है, ये मेरी शांति में भी बना रहता है। और मन को भ्रम हो जाएगा कि देखो अशांति शांति में बदल गई, तो लगता है कुछ प्राप्ति हो गई। नहीं। अशांति शांति में नहीं बदली है; ‘मेरी’ अशांति, ‘मेरी’ शांति में बदली है। माया खड़ी मुस्कुरा रही है, वो कह रही है, ‘जो बदलना है बदल लो। 'मैं और मेरा' तो बचा रह गया न, तो कुछ नहीं बदला; बाकी जो बदलना है बदल लो।‘
निष्कामता का मतलब यही है कि तुम और चीज़ों को बदलने पर ज़ोर मत दो, 'मैं और मेरा' को बदलने पर ज़ोर दो। युद्ध को अयुद्ध में नहीं बदल देना है, योद्धा को भिक्षु में नहीं बदल देना है। अर्जुन ने तो कहा था, स्पष्ट शब्दों में, यहाँ पर कह रहे हैं कि ‘मैं भिक्षाटन करना पसंद करूँगा।’ अर्जुन के शब्द हैं कि मुझे भिक्षु बनना है – ये अर्जुन के शब्द हैं। कृष्ण कह रहे हैं, ‘पहले तुम कहते ‘मेरा युद्ध’, अब तुम कहते ‘मेरा भिक्षा पात्र’; पहले तुम कहते ‘मेरा धनुष’, अब तुम कहते ‘मेरी भिक्षा’।’ ऊपर-ऊपर से लगता है सबकुछ बदल गया, योद्धा भिक्षु बन गया। कुछ नहीं बदला, बस ‘मेरा धनुष’ ‘मेरा भिक्षापात्र’ बन गया; 'मेरा' तो क़ायम रहा न। तो युद्ध को सन्यास में मत बदलो, 'मेरा' हटा दो। तुम इस भाव से लड़ने जा रहे थे अर्जुन कि ये मेरा युद्ध है, अब लड़ो धर्मयुद्ध। युद्ध को नहीं हटाओ, 'मेरा' को हटा दो।
अर्जुन क्या कह रहे थे? ‘मेरापन तो क़ायम रखूँगा, युद्ध को हटा दूँगा; मुझे भागने दो कृष्ण!’ मेरापन तो क़ायम रहेगा, मैं यहाँ से जाकर के कहीं कह दूँगा, ‘मैं सन्यासी हो गया, मैं भिक्षु हो गया, मैं युद्ध नहीं लड़ रहा।’ पहले क्या बोलते थे? 'मैं' युद्ध लड़ता हूँ, अब बोल देते 'मैं' युद्ध नहीं लड़ रहा। युद्ध को परिवर्तित करने को तैयार थे, 'मैं' को परिवर्तित करने को तैयार नहीं थे। कृष्ण ने बात पलट दी। कृष्ण बोले, ‘युद्ध को युद्ध की जगह पड़ा रहने दो, युद्ध प्रकृति का खेल है, तुम काहे हस्तक्षेप करते हो? युद्ध तो होने दो, युद्ध में से 'मैं' को हटा दो।‘
‘युद्ध में से 'मैं' को हटा दो, और तुम कितने युद्धों से भागोगे? तुम्हें क्या लग रहा है अर्जुन, तुम जहाँ जाओगे वहाँ युद्ध नहीं है? दूसरी तरह का हो सकता है। वहाँ हो सकता है तुमको रथ-सारथी वगैरह न दिखाई दें, न धनुष दिखाई दे, न भाला दिखाई दे, न ही घोड़े-हाथी दिखाई दें। तो युद्ध वहाँ दूसरी तरह का होगा; युद्ध से कैसे भाग लोगे? युद्ध तो है ही सर्वत्र; तुम 'मैं' को हटाओ।‘ ये निष्कामता है, ये कृष्ण की पूरी देशना है। समझ में आ रही है बात?
जीवन संग्राम ही है, संग्राम के अतिरिक्त कुछ नहीं है। और जीवन में यदि संग्राम नहीं है तो जीवन कायरता भरा समर्पण है। आध्यात्मिक समर्पण का अर्थ होता है संग्राम। अब ये बात भी हमारी मान्यताओं के उल्टी जाती है। हम ये सोचते हैं कि आध्यात्मिक आदमी तो समर्पित होता है, वो काहे को युद्ध करेगा? लोग आते हैं, कहते हैं, ‘आप बार-बार कहते हैं युद्ध-युद्ध। अरे! जब सबकुछ कृष्ण को समर्पित कर दिया, तो अब युद्ध क्यों करें?’ अब कृष्ण को समर्पित करने का ही तो मतलब संग्राम होता है। और अगर संग्राम नहीं कर रहे हो तो तुमने माया को समर्पण कर दिया है।
बात उल्टी चल रही है, इसीलिए तो कृष्ण आगे बोलते हैं कि ये जगत जो है, उल्टा पेड़ है जिसकी जड़ें ऊपर होती हैं और पत्ते-टहनियाँ नीचे होते हैं। ये दुनिया वैसी है नहीं जैसी तुमको दिखती है, सारी बातें उल्टी हैं। तभी तो कबीर साहब उलटबाँसी सुनाते हैं। 'बरसे कम्बल भीजे पानी'। समझ में आ रही है बात?
जो लड़ गया, वो समर्पित है; जो लड़ गया, उसने कोई कर्म नहीं करा। और जो पीठ दिखा रहा है, वो घोर कर्ताभाव रखता है; ये कैसी बात है? जो लड़ रहा है, उसमें कर्ताभाव नहीं है? न। जो लड़ रहा है वो तो अकर्ता हो गया, और जो पीठ दिखाकर भागा हुआ है वो कर्ताभाव रखता है। देखिए, जिसने सिर झुका दिया वो सच्चा योद्धा है। अब बात ये है किसके सामने?
कल मैं कह रहा था न कि सच के सामने सिर झुकाना सीखो। दुनिया की सबसे बड़ी कमज़ोरी होती है जब तुम्हारा सिर नहीं झुकता सच्चाई के सामने। सामने सच्चाई है और तुम अड़े खड़े हो, इससे ज़्यादा कमज़ोर आदमी नहीं हो सकता। अब दिखने में लगेगा मज़बूत है, क्यों? ‘अजी! लोग तो छोटी-मोटी चीज़ से ही लड़ते हैं, हम तो सीधा सत्य से ही लड़ गए; हम कितने मज़बूत हैं।‘ नहीं, ये मज़बूती नहीं है; ये परम दुर्बलता है कि सामने सच्चाई भी हो तो भी अकड़ नहीं छूटती, सिर नहीं झुकता।
सच्चाई के सामने झुकना मज़बूती का द्योतक है; लड़ जाना अकर्ता भाव है।
बातें सारी थोड़ी उल्टी लग रही हैं न? पर ऐसे ही है। उल्टी इसलिए लग रही हैं क्योंकि हमारे जीने का तरीका ही उल्टा है, हम सीधे होते तो हमें ये बातें सीधी लगतीं। आप शीर्षासन कर लीजिए, आपको लगेगा मैं उल्टा खड़ा हूँ; आप सीधे हो जाएँगे तो मैं भी सीधा लगूँगा। हम ऐसे ही हैं। समझ में आ रही है बात कुछ?
आध्यात्मिक आदमी आपको हमेशा चुनौतियों से जूझता हुआ मिलेगा, और जो आपको मिले कि एकदम शांत होकर कुर्सी पर बैठ गया है, और कह रहा है, ‘जगत तो मिथ्या है, यहाँ उलझना क्या!’ उसको जान लीजिए कि ये भगोड़ा है, इसने कृष्ण को पीठ दिखा रखी है।
सारा अध्यात्म इसी एक शब्द में सिमटकर आ जाता है – निष्कामता। और निष्कामता माने इतना ही नहीं होता कि माँगा नहीं या चाहा नहीं, निष्कामता माने होता है जान लगा दी बिना चाहे।
क्या बात है! चाहिए कुछ नहीं लेकिन जान लगा दी है। किस बात के लिए? वो तुम नहीं समझोगे। वो समझने की बात नहीं है, जीने की बात है; जो जीता है वो समझता है। सबकुछ दाँव पर लगा रखा है, जैसे उसका कुछ महत्व ही न हो। तो किसका महत्व है? वो तुम नहीं समझोगे, उसके लिए दाँव पर लगाओ पहले।
‘अरे! दाँव पर लगाया जाता है तो कुछ पाने के लिए न, कि इतना दाँव पर लगाया है, जीत गए तो इतना मिलेगा।‘ न! दाँव पर लगाना ज़रूरी है, पाने की बात नहीं है। बल्कि पाने की बात कर दी तो जितना कुछ दाँव पर लगाया था वो सब हार गए; व्यर्थ ही चला गया। जैसे यज्ञ अपवित्र हो गया हो, जैसे यज्ञ के बीचों-बीच आहुति से कुछ चुराकर खा लिया हो। कि कुछ डालने वाले थे और डालते-डालते लगा, ‘यार! (और मुँह में डाल लिया) अब स्वाहा क्या बोलें, आहा बोलो!’ (श्रोतागण हँसते हैं)
अपवित्र हो गया, भंग हो गया। समझ में आ रही है बात?
अचौर्य – चोरी नहीं करने का, यही निष्कामता है। ‘तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर’ – यही निष्कामता है।
तुम कहाँ बीच में अजीब-सी दलाली कर रहे हो और चोरी करने बैठ गए? चोरी का माल जो खाए उसको ही तो अहंकार बोलते हैं। उसका है नहीं और खाए बैठा है, तभी तो डरा रहता है। हमारी ये जो सारी असुरक्षा रहती है, कँपे रहते हैं, एंग्जाइटी (व्यग्रता), इनसिक्योरिटी (असुरक्षा), वो इसीलिए तो रहती है। चोरी का माल धरे बैठे हैं, अब नींद कैसे आएगी? ऐसे माल को अपना बना लिया है जो किसी और का है, फिर डर लगता रहता है कि कहीं छिन न जाए; यही बात है न? आपका होता तो छिन कैसे जाता? सोचकर देखिए!
आपका होता तो चैन की नींद सोते न। पर हमारे रिश्ते हमारे नहीं हैं, हमारा माल हमारा नहीं है, हमारी प्रतिष्ठा हमारी नहीं है, हमारी तो देह भी हमारी नहीं है, तभी तो डर लगा रहता है कि कहीं छिन न जाए। इज़्ज़त दूसरों ने दे दी है, वापिस भी ले सकते हैं। जिससे रिश्ता बनाया है उसका कोई भरोसा नहीं, गायब हो सकता है। तो नींद नहीं आती, असुरक्षा बहुत रहती है – ये चोर का लक्षण है। दूसरे का माल लेकर काहे बैठे हो?
जिस भी चीज़ की आपको बड़ी रक्षा करनी पड़े और रक्षा के कारण आप पसीने छोड़ते रहते हों, चिंतित रहते हों, तो जान लीजिए कि वो चोरी का माल है। चोरी का माल छोड़ने के लिए बड़ा संघर्ष करना पड़ता है स्वयं के खिलाफ़; उसको ही कहते हैं महाभारत का युद्ध।
महाभारत का युद्ध है अपने ही चोर के खिलाफ़ लड़ना; आप हो और आपके सामने आपका चोर है। आपका चोर जीत गया तो आपको भी चोर बना देगा। उससे संघर्षरत रहना है, वो बीच-बीच में जीतता रहेगा। लज्जा की बात नहीं है, घबराइएगा भी नहीं, वो जीत जाए तो बस वही हुआ है जो प्राकृतिक है। और प्रकृति कोई छोटी-मोटी चीज़ तो है नहीं कि आप सोचें कि आपको वॉकओवर (आसान जीत) मिल जाएगा, एक ही झटके में आप नॉकआउट कर देंगे; ऐसा नहीं है।
बहुत जीतेगी, बार-बार जीतेगी। आपका काम है फिर से अपने-आपको समेटिए, धूल झाड़िए, ख़ून पोंछिए, खड़े हो जाइए। कहिए, ‘अभी तो अगला राउंड है; आ जाओ, फिर आ जाओ। क्या हुआ बीती रात; वो रात के साथ बीत गया, आज नया राउंड है।’ पिछले राउंड की सोचकर ये नहीं हारना है आज का, आज फिर खड़े हो जाओ। कहो, ‘कल ग़लती हो गई, कोई बात नहीं, पैदा किसलिए हुए हैं? ग़लती करने के लिए ही ग़लती से पैदा हुए हैं। ग़लती कर दी तो कौनसा आश्चर्य? ग़लती नहीं करेंगे तो क्या करेंगे? हमारा तो अस्तित्व में होना ही एक बड़ी भारी ग़लती है। कर दी ग़लती तो कर दी, लेकिन अब आज फिर; आज फिर जूझेंगे।’
और कल की ग़लती बहुत सताए, लज्जा-सी आए, क्रोध आए तो बस उससे सीखेंगे, इतना कर लेंगे। कहो, ‘ठीक है, अब सीखते हैं।’ यही कुरुक्षेत्र है; आप जहाँ बैठे हो वही कुरुक्षेत्र है। ये जो कुर्सी है, ये रथ है आपका। देख पा रहे हो? कहीं नहीं जाना पड़ता और। आप जिस भी जगह, जब भी मौजूद हो, आप कुरुक्षेत्र में ही हो; इसलिए गीता अमर है।
फ़र्क नहीं पड़ता आप विश्व में कहाँ से हैं, कौनसे पंथ से हैं, क्या उम्र है आपकी, क्या स्थितियाँ हैं आपकी, क्या लिंग है आपका, किसी भी बात से कोई अंतर नहीं पड़ता। आप अर्जुन हैं, ये रथ है आपका। कहें, ‘कभी तो कुर्सी पर होते नहीं’, तो आपकी टाँगें रथ हैं आपका। नहीं, कई बार तो टाँगें भी नहीं होतीं, तो पृथ्वी रथ है आपका। पृथ्वी पर तो होते ही हो? अरे! जहाँ भी होते हो वही रथ है आपका; कुरुक्षेत्र तो है ही है। ये कुरुक्षेत्र है और हम क्या हैं? भगोड़े; सही लड़ाई नहीं लड़नी है।
सही लड़ाई न लड़ने के लिए हम धर्म का वास्ता देते हैं। कहते हैं, ‘भिक्षुक बन जाएँगे, भिक्षा माँग लेंगे पर अपनों से कैसे लड़ लें?’ गीता तो फिर भी बताती है कि अपनों से लड़ना है। वास्तव में अपनों से भी नहीं लड़ना है, अपने से लड़ना है। अपने से लड़ना है, स्वयं से ही लड़ना है; उसके अतिरिक्त कोई लड़ाई होती नहीं। अभी आप यहाँ कुर्सी पर बैठे हो, यहाँ कोई दुर्योधन थोड़े ही दिख रहा है। या दिख रहे हैं हाथी-घोड़े या कि टैंक, बॉम्बर्स, मिसाइल्स ? कुछ भी नहीं दिख रहा होगा, पर फिर भी जिससे लड़ना है वो मौजूद है। आप जहाँ हैं वो वहीं मौजूद है। कहाँ है वो? वो भीतर बैठा हुआ है, वो दुर्योधन भीतर है और उसी से लड़ना है। बात आ रही है समझ में?
आप गाड़ी में बैठे हैं, वो गाड़ी क्या है? वो रथ है। आप कहीं काम करते हैं – आप स्कूल में काम करते हैं, आप शॉपिंग मॉल में हैं, आप पर्यटक बनकर गए हैं कहीं, आप घर में हैं अपने, आप सिनेमा हॉल में हैं – आप जहाँ हैं, कुरुक्षेत्र ठीक वहीं है। एक पल को भी आप कहीं और नहीं हो सकते। भले ही कहीं पर आप पर्यटन के लिए गए हों, चाहे तीर्थाटन के लिए गए हों; कुरुक्षेत्र है ही है। प्रश्न ये है कि गीता है कि नहीं है? कुरुक्षेत्र का होना तो अनिवार्य है, गीता वैकल्पिक है। गीता आप चाहेंगे तो होगी, नहीं चाहेंगे तो नहीं होगी। ये भी हो सकता है कि कृष्ण ठीक आपके सामने हों, गीता फिर भी न हो।
दुर्योधन के साथ क्या हो रहा था? कृष्ण तो सामने थे, गीता नहीं थी। इससे बड़ा अभाग हो सकता है? कि कृष्ण आपके सामने रहते हों, आपके साथ रहते हों, गीता से आप फिर भी वंचित रह जाते हों, क्यों? क्योंकि सत्य के सामने झुकना नहीं सीखा। कृष्ण भी सामने हैं तो कृष्ण से भी संघर्ष करने की कोशिश कर रहे हैं। जिससे करना चाहिए उससे तो कर नहीं पाते, तो किससे लड़ जाते हैं? कृष्ण से। जैसे कोई छोटा-सा बच्चा हो चार साल का, वो बॉक्सिंग गलव्ज़ (मुक्केबाज़ी के दस्ताने) पहन ले, और बाप हो उसका हैवी वेट चैंपियन (सबसे बड़ा विजेता), बच्चा उसको घूँसा-ही-घूँसा मारे। छोटा बच्चा बाप को मार रहा है घूँसे।
समझ में आ रही है बात कुछ?