प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मीडिया में जो गुरुजन आते हैं, मुझे ये समझ में नहीं आता कि आध्यात्मिक जागृति होने के बाद भी वृतियाँ उनसे ऐसे काम कैसे करवा लेती हैं, जो न्याय के अनुसार ग़लत मानी जाती है?
आचार्य प्रशांत: दो बातें हैं इसमें। पहली तो ये कि अगर कोई इस तरह के कर्म कर रहा है, तो उसमें अगर जागृति होगी भी तो बहुत थोड़ी, बहुत आंशिक। जैसे कि कोई जग ना गया हो, बस ऊँघ रहा हो। उसकी क्या जागृति है, बस यूँही। उसको अभी मुक्ति मिली नहीं है।
और दूसरी बात और ज़रा याद रखनी होगी कि ये सब जो तमाम बाबा लोग पकड़े जा रहे हैं, उनसे थोड़ी सद्भावना भी रखनी होगी। माया, अविद्या ये हल्की ताक़तें नहीं होतीं, ये किसी को भी नचा देती हैं। अच्छे-अच्छों को इन्होंने नचा दिया, तो फिर बाबा लोग क्या चीज़ हैं।
दोनों बातें याद रखना। पहली तो ये कि जो इन चक्करों में पड़ जाए, वो या तो अभी सोया हुआ ही इंसान है या फिर उसकी जागृति है भी तो बहुत आंशिक, बहुत हल्की। ये पहली बात।
प्र: अहंकार अभी भी क़ायम है।
आचार्य: क़ायम है। हो सकता है हटना शुरू हो गया हो, हो सकता है उसका अहंकार आम लोगों की अपेक्षा कम हो गया हो। पर है, अभी भी बहुत घना है। ये पहली बात।
और दूसरी बात, अहंकार को पूर्णता से हटाना आसान ही नहीं होता। “माया महाठगिनी हम जानि”, तो सब गुरुजन, स्वामी लोग, बाबा लोग मानकर बैठे रहते हैं कि हमने तो माया को जीत लिया है और वो जब दाँव फेंकती है तो चारों खाने चित्त।
फिर समझ में आता है कि 'माया तो ठगिनी भई, ठगत फिरत सब देश' । ख़ैर बहुत तो इसमें ऐसे हैं जो ख़ुद ही माया के एजेंट (प्रतिनिधि) हैं। वो तो ये मानते भी नहीं कि उन्होंने माया को जीत लिया है, वो तो सीधे-सीधे माया के ग़ुलाम ही हैं।
पर कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने शायद एक गंभीर, ईमानदार, कोशिश की भी हो, कि अध्यात्म में उतरें, दूसरों को भी रास्ता दिखाएँ, पर वो भी माया देवी की भेंट चढ़ गये।
प्र२: आचार्य जी, क्या इसमें प्रारब्ध कर्म का भी हाथ होता है?
आचार्य: प्रारब्ध तो एक ही है सबका, प्रारब्ध क्या अलग-अलग है? सब जीव हैं, सबकी यात्रा चल रही है। अब ये (नदी की ओर इशारा करते हुए) नदी बह रही है छोटी, इसकी अलग-अलग बूँदें हैं। तुम्हें लगता है कि अलग-अलग यात्राएँ कर रही हैं, तुम कहोगे सबका अलग-अलग प्रारब्ध है। पर क्या प्रारब्ध! सबका एक है।
वो अल्पकाल के लिए देखो, थोड़ा सा देखो तो ऐसा लगता है कि सब बूँदों की यात्रा अलग-अलग है, कोई इधर को बह रही है थोड़ा, कोई उधर को बह रही है, कोई चट्टान से टकराकर के छिटक गयी है। तो अगर दृष्टि सीमित रखोगे तो लगेगा कि सबकी यात्रा अलग है, सबका प्रारब्ध अलग है। थोड़ा सा व्यापक करके देखोगे तो सबकी एक ही तो यात्रा है, क्या अलग है!
कौनसा इंसान है जो पैदा नहीं हुआ, कौनसा इंसान है जो मरेगा नहीं और अगर पैदा होना और मरना समान है, तो फिर जिसे तुम प्रारब्ध कहते हो उसमें अलग क्या है?
बुद्ध से पूछोगे, वो कहेंगे कि इंसान जन्म लेता है, दुख पाता है; जवान होता है, दुख पाता है; बूढ़ा होता है, दुख पाता है, फिर मर जाता है। ये तो सभी की कहानी है, इसमें अलग-अलग क्या है?
बहुत पास से देखो तो अब ये (हाथ से इशारा करते हुए) थोड़ी सी यहाँ पर हरियाली है, ज़रा सी घास है, उसका तुमको पत्ता-पत्ता अलग दिखाई देगा, क्योंकि बहुत ज़्यादा करीब जाकर के, बहुत संकुचित तरीक़े से देख रहे हो। और थोड़ा हट कर देखो, दूर हो कर देखो तो सब एक हैं। बताना वो (हाथ से दूर पहाड़ की हरियाली की तरफ़ इशारा करते हुए) जो हरियाली है उसमें कुछ अलग-अलग दिख रहा है क्या? सब एक ही हैं, क्या अलग-अलग है!
इंसान और दूसरे इंसान मे कोई फ़र्क नहीं होता। सब मिट्टी है, सब मिट्टी है। भेद ये नहीं है कि एक घट दूसरे घट से अलग है, सब घट एक बराबर हैं। अंतर उसमें होता है जो घटातीत है, जो अघट है। तुम कहो, आदमी-औरत में अंतर होता है, कोई अंतर नहीं होता, सब प्रकृति हैं। तुम कहो आदमी-बच्चे में अंतर होता है, हटाओ। तुम कहो राजा-रंक में अंतर होता है, ये सब, कोई अंतर है ही नहीं।
तुम कहो हज़ार साल पहले के आदमी में और आज के आदमी में अंतर है, कोई अंतर नहीं है। यहाँ तक कि तुम ये भी कह दो कि आदमी और जानवर मे अंतर है, तो वो भी कोई अंतर नहीं है। वहाँ वास्तव में कोई भेद नहीं है। भेद तो एक ही है।