श्रोता: सर एक बात समझ में नहीं आती कि हम हैं क्या? जो हमारी इन्द्रियाँ हमें दिखाती हैं हम वही हैं क्या या कुछ और?
वक्ता: हमें बड़ी आसानी हो जाती है यह मान लेने में कि जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वो सिर्फ द्वैत का एक भ्रम है, ये हम मान लेते हैं। उसके प्रमाण भी हैं। हमें कोई दिक्कत नहीं होती ये मानने में कि अगर यह दीवार है, इसको देखा न जा सके और इसको छुआ न जा सके तो ये दीवार रहेगी ही नहीं। ये दीवार कुछ और नहीं है मेरी इन्द्रियाँ हैं। मेरे पास पांच इन्द्रियाँ हैं और मैं संसार उसी को कहता हूँ जो इन पांच इन्द्रियों से और मन से अनुभव में आ सके।
जो कुछ भी इन पांच इन्द्रियों से और मन से अनुभव में ना आ सके क्या मैं उसे संसार कहूँगा ही नहीं और जो ये पाँचों इन्द्रियाँ हैं, ये भी इसी तरीके से अपने विषयों पर निर्भर हैं। संसार इन्द्रियों पर निर्भर है, इन्द्रियाँ विषयों पर निर्भर हैं। अगर आँख कुछ देख ही न पा रही हों तो उसे आप आँख कहेंगे क्या? तो आँख विषय पर निर्भर है और विषय का होना आँख पर निर्भर है।
इस दीवार का होना मात्र तभी तक है जब तक यह दिखती हो याँ इसे छुआ जा सकता हो। न दिखती हो, न छुई जा सकती हो तो कहाँ है दीवार। इस दीवार का होना पूरी तरह निर्भर करता है आपकी आँखों पर और आपकी त्वचा पर। त्वचा छू न पाए; हाथ छू न पाए और आँख देख न पाए तो कोई दीवार नहीं। थोड़ा आप आगे जा सकते हैं, आप ये भी कह सकते हैं कि मन विश्लेषण न कर पाए; दो के बाद एक तीसरी शर्त और जोड़ दीजिए—आँख देख न पाए, हाथ छू न पाए, और मन विश्लेषण न कर पाए तब भी क्या कोई दीवार शेष है?
नहीं है।
संसार में जो कुछ है वो हमारी इन्द्रियों पर निर्भर है।इन्द्रिय, इन्द्रिय तभी तक है जब तक कि वो संसार का एहसास करातीं है।
जो इन्द्रिय संसार का एहसास न कराए वो इन्द्रिय, इन्द्रिय ही नहीं हैं।
बड़ी सुविधा से हम मान लेते हैं कि ये दीवार मात्र एक द्वैतात्मक प्रक्षेपण है। ठीक? ये दीवार सिर्फ एक प्रक्षेपण है ये मानने में हमें दिक्कत नहीं है। तो फिर इस दीवार की मौत कैसे हो सकती है? जो चीज़ मात्र एक आभास हो उसकी मृत्यु कैसी?
यदि दीवार मात्र एक प्रक्षेपण है तो मेरा हाथ क्या हैं? इस दीवार में और इस हाथ में कोई मूल अन्तर है? ये दीवार यदि एक प्रक्षेपण है तो मेरा हाथ क्या है? वो भी बस भासता है, फिर मेरा पूरा शरीर क्या है? वो भी सिर्फ एक आभास है। जब शरीर मात्र एक आभास है तो फिर मृत्यु कैसी? किसकी मृत्यु? मैं यदि आपको दिखाई न देता, सुनाई न देता तो आप कहेंगे क्या कि मैं हूँ? मेरा होना पूरे तरीके से आपकी इन्द्रियों पर निर्भर करता है, और आपकी इन्द्रियों का होना इस बात पे निर्भर करता है कि वो मुझे देख पा रही है कि नहीं।
जब मैं हूँ ही नहीं तो मेरी मृत्यु कैसी? पर ये बात दीवार के साथ बड़ी सुलभ लगती है, बिलकुल सुविधाजनक है कि दीवार नहीं है। लेकिन ये बात सुनने में खौफनाक हो जाती है जब ये कहा जाता है कि शरीर भी नहीं है, जबकि शरीर और दीवार एक है, दोनों पदार्थ हैं।ये बात हम बड़ी वस्तुनिष्ठ होकर बोल देते हैं कि, “दीवार! अरे कोई दीवार नहीं”, पर दिल दहल जाता है ये बोलने में कि शरीर नहीं है, शरीर कहाँ है? इन्द्रियों का धोखा है! हालत खराब हो जाती है क्योंकि शरीर के साथ पहचान बंधी हुई है। दीवार के साथ पहचान नहीं बंधी हुई है तो बोल लेते हैं।
शरीर का सत्य क्या है?बड़ी आसानी से समझिए।
जानवर और पक्षी आपको वैसे नहीं देखते जैसे आप अपने आप को देखते हैं। किसी दुसरे ग्रह से कोई आ जाए तो वो वैसे नहीं देखेगा आपको जैसे आप अपने आप को देखते हैं। आपको क्या लगता है कि आप आईने में अपने आप को जिस रूप में, जिस रंग में देखते हैं, जिन रंगों में देखते हैं, वो चूज़ा अभी आपको उसी प्रकार देख रहा था (गिल्हेरी की ओर इंगित करते हुए) ? उसके लिए आप बिलकुल अलग हैं और आप कैसे कह पाओगे कि वो गलत देख रहा है क्योंकि आप भी अपनी इन्द्रियों से देख रहे हो और वो भी अपनी इन्द्रियों से देख रहा है। एक की इन्द्रियाँ दुसरे से श्रेष्ठ या ज्यादा सत्य कैसे हो गई।
अब बड़ी दिक्कत हो गई है क्योंकि ये बात सुनते ही हमारा संसार बिलकुल हिल जाता है। हम वो हैं ही नहीं जो हमें लगता है, बिलकुल नहीं हैं। आपका पूरा संसार आपके शरीर पर आधारित है, इस बात को ध्यान से समझिएगा, पूरा संसार हमारा हमारे शरीर से शुरू होता है। संसार और शरीर एक ही हैं—दोनों पदार्थ। जगत के सारे विचारों, जगत में जो कुछ भी है उन सब के अर्थ हमारे मन से शुरू होते हैं। संसार में जो कुछ भी भौतिक है, जो कुछ भी पदार्थ है वो हमारे शरीर से शुरू होता है और संसार भर में जो कुछ भी है और उसके जितने भी अर्थ हैं वो हमने अपनी क्या पहचान बना रखी है इससे शुरू होते हैं।
आपकी अपनी जो छवि है—आत्मछवि, उससे संसार की प्रत्येक वस्तु का अर्थ निकलता है। आप यदि भूखे हैं तो ये क्या है? ये भोजन है, अर्थ आ गया इसमें। आप जो हैं, उससे संसार में अर्थ भरे जाते हैं। ये लड़की बैठी है, यदि मैं इसके घर का हूँ तो अर्थ दूसरा हो गया। ‘मैं क्या हूँ’—उससे इसके अर्थ बदलेंगे। संसार में जो कुछ है उसका अपना कुछ नहीं है, वो आप ही हैं, और आप क्या हैं? आप इन्द्रियों का आभास हैं।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।