माँसाहार सम्पूर्ण पृथ्वी के विरुद्ध एक अपराध है

Acharya Prashant

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माँसाहार सम्पूर्ण पृथ्वी के विरुद्ध एक अपराध है
आज के समय में माँस का भक्षण किसी का निजी मसला नहीं है। आपको इस बात की परवाह करनी होगी कि किसी की थाली में क्या है, क्योंकि दूसरा जो खा रहा है, उसका असर पूरी दुनिया पर, पूरे पर्यावरण पर और हर एक की ज़िंदगी पर पड़ रहा है। माँस-भक्षण इस समय दुनिया की सबसे घातक बीमारी है। पृथ्वी की नदियाँ, पहाड़, पर्यावरण, हवा, तापमान, सब कुछ तबाह हो गए — सिर्फ़ इसलिए क्योंकि आदमी को माँस खाना है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, 'भोजन' और 'अध्यात्म' बहुत बातें होती है इस पर — यह मत खाओ, वह मत खाओ, शरीर शुद्धि इत्यादि। कृपया प्रकाश डालें इस विषय पर।

आचार्य प्रशांत: "जल्दी से खाओ और आगे बढ़ो, बहुत काम करना है" — मेरे देखे तो अध्यात्म और भोजन का यही संबंध है। "जो खाना है जल्दी से खाओ बेटा, काम बहुत करना है, घंटे-भर बैठकर खाते ही ना रहो!" तो मुझसे पूछेंगे अगर, "अध्यात्म में भोजन का क्या महत्त्व है?" तो मैं यही कहूँगा कि भोजन का यही महत्त्व है कि जल्दी-से-जल्दी निपट जाए, ताकि जो करना है उसके लिए समय रहे।

ऐसे भी आध्यात्मिक लोग होते हैं जो दिनभर भोजन का ही प्रबंध करते रहते हैं, जो कहते हैं, "भोजन ऐसे तैयार होना चाहिए, वैसे तैयार होना चाहिए, यह स्वच्छता होनी चाहिए, ऐसे पाक-साफ़ होना चाहिए।" उनसे पूछो, "तुम दिन भर कर क्या रहे हो? देह की तैयारी। यही तुम्हारा अध्यात्म है?"

प्रश्नकर्ता: तो इससे तमोगुण पर कोई असर नहीं पड़ता?

आचार्य प्रशांत:

"रूखी-सूखी खाय के, ठंडा पानी पीव। देख पराई चूपड़ी, मत ललचाए जीव॥"

दबा के खाओगे तो पचाने में समय बहुत लगेगा, बहुत खाओगे तो नींद बहुत आएगी; काम बहुत बाकी है। जब जगना हो रात-भर, तो खाना कम ही खाना चाहिए। अध्यात्म का मतलब ही यही है कि जो तमसा की काली अंधेरी रात है, उसमें हमें जागृत रहना है। जिन्हें जागृत रहना है, वह ज़रा कम खाएँ। कम खाओ, और बहुत भेद मत करो कि यह खाया कि वह खाया — गेंहूँ मिले तो गेंहूँ  खा लो, बाजरा मिले तो बाजरा खा लो। अब मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि मुर्गा मिले तो मुर्गा खा लो। तुम्हारा कुछ भरोसा नहीं है।

प्रश्नकर्ता: जो जिसका खाना है, वह तो वही खाएगा।

आचार्य प्रशांत: नहीं! किसी का जीवन आपका भोजन नहीं हो सकता। यहाँ बात हो रही है कि दूध भी अत्याचार है, और आप बात कर रहे हैं दूध हटाओ, हम तो भैंस ही खा जाएँगे। “जो जिसका भोजन है वह तो वही खाएगा,” क्या बात है!

प्रश्नकर्ता: कई ब्रह्मज्ञानी ऐसे भी थे, ग्रंथों में पढ़ा है, जो बकरा काटते थे।

आचार्य प्रशांत: तो आपको वही याद रखना है?

प्रश्नकर्ता: नहीं, कल हम बात कर रहे थे कि क्या खाने का भी फ़र्क़ पड़ता है?

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल पड़ता है। हमने कहा, "मुक्ति तुम्हें तभी मिलेगी जब अपने साथ सबको मुक्ति दिलाओ।" तुम सबको मुक्ति ऐसे दिलाओगे कि सबकी गर्दन काट दोगे? यहाँ बात हो रही है कि समस्त जीवों के प्रति करुणा रखनी है। करुणा ऐसे रखोगे?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं एक राजपूत परिवार से हूँ और हमारे यहाँ बहुत माँसाहार किया जाता है। मैं अब नहीं खाती, लेकिन मैंने बचपन में तो खाया ही होगा। अब मैं अपने परिवार को कैसे जागरूक करूँ कि माँसाहार गलत है? मेरे सामने बन रहा है, लोग खा रहे हैं तो यह भी तो एक अपराध है।

आचार्य प्रशांत: तभी तो कह रहा हूँ कि बहुत मेहनत करनी पड़ेगी, बड़ी मजदूरी करनी पड़ेगी। समझाते रहिए, समझाते रहिए। परंपरा पर थोड़े ही जीवन जिया जाता है। यहाँ से लगभग सौ किलोमीटर दूर चित्तौड़गढ़ का किला है, मीराबाई का मंदिर है वहाँ पर, वह भी तो राजपूत घराने से थीं। वहाँ परंपरा थोड़े ही थी कि जाकर किसी रैदास की शिष्या बन जाओ जो चर्मकार थे, जूते बनाते थे।

जिसको सत्य की आस होती है वह परंपरा का ख़याल थोड़े ही करता है! तो आप किस परिवार से हैं, किस परिवेश से हैं, यह बहुत छोटी बात है। सत्य इन छोटी बातों से बहुत बड़ा होता है।

प्रश्नकर्ता: हम लोग क्या ऐसा करें?

आचार्य प्रशांत: सबसे पहले तो अपने जीवन में उतारिए। जैसे-जैसे आपके जीवन में उतरेगा, प्रगाढ़ होगा, घर वाले ख़ुद ही पूछेंगे कि ऐसी क्या बात है। फिर बताइए, भरसक प्रयत्न करिए, जितने रास्ते हैं सब आज़माइए — साम-दाम-दंड-भेद सब उपलब्ध है। कह दीजिए, “जिस दिन तुम यह सब बनाओगे, उस दिन मेरा उपवास है। तुम जितना बनाओगे, मैं उतनी भूखी रहूँगी।” भूखे हैं, ठीक है। “भूखी रह लो, एक ही दिन की तो बात है,” तो कहिए, “तुम एक दिन बनाओगे, मैं दो दिन नहीं खाऊँगी। तुम एक दिन मुर्गा खाओ, मैं दो दिन अन्न भी नहीं खाऊँगी।”

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, गलती वह करेंगे और भुगतेंगे हम?

आचार्य प्रशांत: उलझन तुम्हें है, भुगत मैं क्यों रहा हूँ? सवाल तुम्हारे हैं, मैं क्यों बैठकर उनका उत्तर दे रहा हूँ, भाई? तुम्हारा ही सूत्र आजमाता हूँ — जिसकी गलती वही भुगते। उलझनें सब किसके जीवन में हैं?

प्रश्नकर्ता: हमारे जीवन में।

आचार्य प्रशांत: तुम्हारे जीवन में। ठीक है, फिर तुम भुगतो। मैं चलता हूँ, मैं अपना काम देखता हूँ।

प्रश्नकर्ता: वह नहीं समझेंगे इस बात को।

आचार्य प्रशांत: तुम समझते हो? तुम भी तो कुछ नहीं समझते और मैं समझाता जाता हूँ। तीन दिन में तुमने क्या समझा? कुछ नहीं। मैं समझाते ही जा रहा हूँ, समझाते ही जा रहा हूँ। तुमने इतनी जल्दी हार मान ली कि वह नहीं समझेंगे? क्यों नहीं समझेंगे? तुम ही बस समझदार हो? वह समझेंगे नहीं या तुम समझाने की मेहनत नहीं करना चाहते हो?

प्रश्नकर्ता: समझाने के तरीक़ों में ही कमी है।

आचार्य प्रशांत: तरीक़ों में कमी है, संकल्प और मेहनत में कमी है।

आज के समय में माँस का भक्षण किसी का निजी मसला नहीं है, यह कोई व्यक्तिगत बात नहीं है। "हम कुछ भी खाएँ इससे दूसरों को क्या मतलब?" ना! जो आदमी माँस खा रहा है, वह इस पूरे ग्रह का नाश कर रहा है। तो सबसे पहले तो यह तर्क ख़त्म होना चाहिए कि कौन क्या खा रहा है यह उसका व्यक्तिगत मसला है। नहीं!

और इसे बड़े लिबरल तरीक़े से कहा जाता है कि, “मुझे इस बारे में क्यों परेशान होना चाहिए कि किसी की थाली में क्या है?” आपको किसी की थाली में क्या है, इसके बारे में परेशान होना होगा, क्योंकि दूसरा जो खा रहा है उसका असर पूरी दुनिया पर, पूरे पर्यावरण पर, और हर एक की ज़िन्दगी पर पड़ रहा है। भोजन का आपका चुनाव आपका निजी मसला नहीं हो सकता।

माँस-भक्षण इस समय दुनिया की सबसे घातक बीमारी है; प्रकृति बर्बाद हो गई है माँस-भक्षण के कारण। क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) का सबसे बड़ा कारण है माँस-भक्षण। लेकिन हममें इतनी साक्षरता भी तो नहीं है कि हमें यह सब वैज्ञानिक तथ्य पता हों। और मीडिया कभी खुलकर के यह बात सामने लाता नहीं है कि दुनिया तबाह हो रही है तो बस माँस की वजह से।

इसके ऊपर एक-से-एक लिबरल बुद्धिजीवी लोग आ जाते हैं जो कहते हैं, "नहीं, नहीं! खाना-पीना तो पर्सनल बात है — फ्रीडम ऑफ फूड।" वह और अनपढ़ हैं, कहने को तो उनको बुद्धिजीवी कहते हैं, पर बिल्कुल ही निरक्षर हैं। माँस और डेयरी, यह दो उद्योग इस पृथ्वी को मारे डाल रहे हैं। करोड़ों जानें जा रही हैं, मैं इंसानों की बात कर रहा हूँ और जाने वाली हैं सिर्फ़ माँस-भक्षण के कारण। मैं पशुओं की जानों की बात नहीं कर रहा, मैं इंसानों की जानों की बात कर रहा हूँ।

पशु तो हम रोज़ाना कई अरब काटते हैं। आठ अरब लोग हैं, वह मिलकर कई अरब पशु काटते हैं। तो पशुओं के प्रति तुममें संवेदना चलो नहीं भी है, तो भी इंसानों का तो ख़याल कर लो, अपने बच्चों का तो ख़याल कर लो। पृथ्वी, पृथ्वी की नदियाँ, पहाड़, पृथ्वी का पर्यावरण, हवा, तापमान, सब समुद्र तबाह हो गए सिर्फ़ इसलिए क्योंकि आदमी को माँस खाना है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हमारे घर पर भी माँसाहार पर चर्चा हुई तो किसी ने यह तर्क दिया कि अगर लोग माँसाहार नहीं करेंगे, तो जो सात्विक अन्न है वह लोगों के लिए कम पड़ जाएगा।

आचार्य प्रशांत: आपको पता है एक किलो माँस खाने के लिए पहले बीस किलो अन्न चाहिए? आप कह रहे हो, "अगर माँस नहीं खाएँगें तो अन्न की कमी पड़ जाएगी।" जो एक किलो माँस पहुँचता है आप तक, वह एक किलो माँस बना कैसे? बीस किलो अन्न खाकर। और आपका तर्क क्या है कि माँस नहीं खाएँगे तो अन्न की कमी पड़ जाएगी। माँस खाने के कारण अन्न का इतना उत्पादन करना पड़ता है कि अन्न सड़ रहा है और उस अन्न के उत्पादन के लिए जंगल काटने पड़ रहे हैं। गाय का माँस हो कि बकरे का माँस हो, वह माँस पैदा कैसे होता है? सोचो तो सही जब वह बीस किलो अन्न खाता है तो उसका एक किलो माँस बनता है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, माँसाहार के पक्ष में दूसरा तर्क यह है कि अगर माँस नहीं खाएँगे तो यह जंगली जानवर बहुत बढ़ जाएँगे।

आचार्य प्रशांत: आप जितने जंगली जानवर नहीं खाते हो, वह बहुत बढ़ गए हैं? जैसे ज़ेब्रा? आप ज़ेब्रा नहीं खाते तो क्या ज़ेब्रा अनियंत्रित तरीके से बढ़ गया है? कितने ही जानवर हैं जंगल में जिन्हें इंसान नहीं खाता, तो क्या वे अनियंत्रित तौर से बढ़ गए हैं? पर यह बहुत ही मूर्खतापूर्ण, ज़लील और अनपढ़ तर्क दिया जाता है कि "अगर हम मुर्गे नहीं खाएँगे तो बहुत मुर्गे हो जाएँगे, अगर हम बकरे नहीं खाएँगे तो बहुत बकरे हो जाएँगे।"

तुम जंगली सूअर नहीं खाते तो क्या जंगली सूअर अनियंत्रित होकर बढ़ गए हैं? ऐसा है क्या? और सच्चाई तुम छुपा ले जाते हो कि तुम्हारे खाने के लिए मुर्ग़ों को और बकरों को कृत्रिम तौर पर पैदा किया जाता है। वह कोई ख़ुद थोड़े ही बढ़ रहे हैं बेचारे, तुम ज़बरदस्ती उनको पैदा कर रहे हो अपने खाने के लिए। वह कैसे बढ़ जाएँगे अगर तुम नहीं खाओगे? तुम ही तो पैदा करते हो उनको।

और इस अशिक्षा के कारण विज्ञान के प्रति इस अज्ञान के कारण दुनिया बिल्कुल तबाही पर आकर खड़ी हो गई है। और अभी मैं करुणा की बात नहीं कर रहा, अभी मैं केवल वैज्ञानिक तथ्यों की बात कर रहा हूँ। करुणा तुम्हें नहीं भी है, तो भी कम-से-कम तथ्यों पर तो ध्यान दो।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक तीसरा तर्क भी देते हैं लोग माँसाहार को लेकर कि माँसाहार में बहुत सारे विटामिन होते हैं, प्रोटीन होते हैं, जो शरीर के संवर्धन के लिए बहुत ज़रूरी होते हैं।

आचार्य प्रशांत: उनसे कहो कि "लिखकर दो कि कितने होते हैं!" चिकित्सकों से पूछो तो वह तुमको बताएँगे कि न जाने कितनी बीमारियों का कारण सिर्फ़ माँसाहार है। जब तुम बीमार होते हो तो किसी चिकित्सक ने कहा है कि तुम बीमार हो तो रोटी-दाल छोड़ दो। कभी कहा? लेकिन तुम बीमार पड़ोगे नहीं कि संभावना यही है कि चिकित्सक तुरन्त कह देगा कि "तुम माँस खाना छोड़ दो।" बात सीधी है, बीमारी का कारण माँस है।

अब तो सिद्ध हो चुका है कि माँस कैंसर का बहुत बड़ा कारण है। और यह जो तर्क है कि माँस से प्रोटीन मिलता है, विटामिन मिलता है, बिल्कुल झूठी बात है। तुम जितने रुपए में माँस से एक ग्राम प्रोटीन पाते हो, वह लिख लो और देखो कि इतने ही रुपए में तुम दाल कितनी खरीद सकते हो, और उसमें कितना प्रोटीन है। तुम पाओगे कि इतने ही रुपए में तुम तीन गुना प्रोटीन पा जाओगे दाल से।

माँस तुम्हें कुछ नहीं देता, बस ज़बान का स्वाद देता है। और वह भी क्यों देता है बताए देता हूँ, क्योंकि माँस वास्तव में बड़ी बेस्वाद चीज़ है। माँस खाने के लिए तुमको मसाले के साथ बहुत ट्रीटमेंट देना पड़ता है। जब तुम माँस खाते हो, तो आमतौर पर तुम माँस के साथ बहुत सारा मसाला खाते हो, ज़बान को उस मसाले की आदत लग जाती है।

माँस-भक्षण का और कोई कारण नहीं है, बस तुम्हें उसका स्वाद लग गया है। कच्चा सेब तो खा सकते हो तुम, कच्चा माँस खा सकते हो? क्योंकि कच्चा माँस तुमसे खाया ही नहीं जाएगा। गाजर खा सकते हो कच्ची, लेकिन क्या हड्डी चबा सकते हो कच्ची? नहीं चबा सकते। तो तुम्हें उसमें क्या लगाना पड़ेगा? मसाला। तो तुम्हें जो स्वाद आता है, वास्तव में वह किसका आता है? मसाले का आता है। तुम्हें उस मसाले की लत लगी हुई है।

ज़बान के स्वाद की ख़ातिर हत्या करते फिरते हो, और कोई बात नहीं है।

प्रश्नकर्ता: आज कल यह जो लड़के जिम वगैरह जाते हैं, जिम वाले उन्हें बताते हैं कि आठ, दस या बारह अंडे खाओ, मुर्गा उबालकर खाओ। उन लड़कों को कैसे समझाएँ?

आचार्य प्रशांत: यह दो ऐसे लोग हैं जिन्होंने बहुत अत्याचार मचा रखा है एक जिम इंस्ट्रक्टर, और दूसरा डॉक्टर। इनके पास तुम पहुँचे नहीं कि तुरन्त बोलेंगे ‘चिकन सूप’। जाकर के देखो कितने पहलवान हैं जिन्होंने ज़िन्दगी में कभी माँस नहीं खाया, और वह पहलवान इन जिम इंस्ट्रक्टर को उठा-उठाकर फेंक देंगे बिना चिकन सूप और बिना अंडे के ही। पर यह जिम इंस्ट्रक्टर मानते नहीं, तुम इन्हें बता दो कि तुम माँस नहीं खाते, तो यह तुम्हें बड़ी उपेक्षा की नज़र से देखेंगे, कहेंगे कि तुम बड़े गिरे हुए आदमी हो।

थोड़ा तो इंटरनेट पर रिसर्च कर लीजिए, थोड़ा तो देख लीजिए कि कितने बड़े-बड़े नामी-गिनामी एथलीट और पहलवान हैं जिन्होंने ज़िन्दगी में कभी माँस नहीं छुआ। भारत में सबसे ज़्यादा शाकाहारी जानते हैं कहाँ हैं? वहाँ हैं जहाँ से सबसे ज़्यादा पहलवान और मुक्केबाज़ निकलते हैं — हरियाणा, पंजाब। आपको ताज्जुब होगा यह जानकर कि भारत में सबसे ज़्यादा लंबे लोग कहाँ हैं? हरियाणा और पंजाब। भारत में सबसे ज़्यादा तगड़े लोग कहाँ हैं हरियाणा और पंजाब। और सबसे ज़्यादा शाकाहारी भी वहीं हैं। और जहाँ सबसे ज़्यादा माँस खाया जाता है, वहाँ सबसे ज़्यादा दुर्बलता है। सबसे ज़्यादा माँस कहाँ खाया जाता है? बिहार, बंगाल और दक्षिण भारत केरल वगैरह।

इस बात को बिल्कुल मन में बैठा लीजिए कि माँस किसी भी तरह से आपके शरीर के लिए उपयोगी नहीं है।

सिखों का डील-डौल देखा है न, कद देखा है, ताक़त देखी है? और सिख गुरुओं का बड़ा स्पष्ट निर्देश था कि माँसाहार से बचना — मद्यपान और माँस-भक्षण बिल्कुल नहीं। अभी विकीपीडिया खोल लो, गूगल सर्च कर लो, तुम पढ़ते-पढ़ते थक जाओगे इतने एथलीट, इतने पहलवान, खिलाड़ी, अभिनेता, बॉडीबिल्डर हैं, जो माँस छूते तक नहीं।

प्रश्नकर्ता: तो आचार्य जी, समाज में इसके प्रति जागरूकता क्यों नहीं है? आज की युवा पीढ़ी सबसे ज़्यादा माँसाहार कर रही है।

आचार्य प्रशांत: आप करेंगी न! सब कुछ पहले से ही हो रखा होगा, तो हमारे करने के लिए क्या बचेगा? हम बोर हो जाएँगे। इसी बात की चेतना बढ़ाइए। सब तक इस बात को पहुँचाइए।

प्रश्नकर्ता: माँसाहार को लेकर एक और तर्क दिया जाता है कि हमारे कनाइन दाँत इसलिए इतने नुकीले हैं क्योंकि हमारे पूर्वज भी माँसाहार करते थे। वो दाँत माँसाहार के लिए ही हमारे शरीर में है।

आचार्य प्रशांत: अपना हाथ और बंदर का हाथ देखा है? बिल्कुल एक जैसे हैं। देखा है न? तो बंदर तो लिखता नहीं, फिर आप भी मत लिखो। अगर आप यह कह रहे हो कि आपके दाँत थोड़े बहुत भेड़िए के दाँतों जैसे हैं, तो आप वही खाओगे जो भेड़िया खाता है- यही तर्क है न? तो तुम्हारे हाथ किसके हाथों जैसे हैं? बंदर के हाथों जैसे। तो तुम भी अपने हाथ से वही सब करो जो बंदर करता है। मूर्खतापूर्ण तर्क है न? 

फिर तुम यह भूल जाते हो कि जो शिकारी जानवर है, जो माँस ही खाते हैं, उनके दाँत देखे हैं कैसे होते हैं? तुम्हारे दाँत हैं क्या वैसे? और एक सबसे महत्त्वपूर्ण बात सुनो, जो जानवर बने ही हुए हैं माँस खाने के लिए, उनको फिर शरीर भी वैसा दिया गया है कि वह शिकार कर सकें। यह बात गौर करी है? या तो नाखून हैं या चोंच हैं। तुम्हारे पूरे शरीर में कुछ ऐसा है कि तुम शिकार कर सकते हो? जाओ एक मुर्गा पकड़कर दिखाओ खुले मैदान में। तुम्हारे दाँत हैं ऐसे कि तुम हड्डी से माँस को अलग कर सको? जो जानवर माँसभक्षी ही है, उनके पास दाँत और नाखून ऐसे होते हैं कि वह अपने पंजो से जानवर को पकड़ें और अपने दाँत और नाखूनों से जानवर को फाड़कर उनका माँस खा लें। तुम ऐसा कर सकते हो क्या?

तुम्हारा शरीर प्रकृति द्वारा भी इस तरह से निर्मित नहीं है कि तुम शिकार करके माँस खा सको।

लेकिन ज़बरदस्ती ज़बान का स्वाद, लालच, चटोरापन है, और कुछ भी नहीं है। उस चटोरेपन के पक्ष में हज़ारों तर्क दे रहे हो, असली बात छुपाए जा रहे हो कि "हम चटोरे हैं।" और कोई बात ही नहीं है, 'चटोरे हैं और हिंसा में मजा आता है।'

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कोई एक बिंदु बताइए जिससे मैं इस बात को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचा सकूँ।

आचार्य प्रशांत:  अज्ञान का निवारण क्या है? ज्ञान।

प्रश्नकर्ता: मुझे किसी ने बताया माँसाहार से संवेदनशीलता कम हो जाती है। क्या ऐसा है?

आचार्य प्रशांत: यह बात बिल्कुल ठीक है कि माँसाहार से संवेदनशीलता कम हो जाती है। पर जिसके भीतर संवेदनशीलता कम हो ही गई है, जिसकी करुणा सूख ही गई है, जिसका प्रेम बंजर हो गया है, उसको यदि आप संवेदनशीलता, प्रेम और करुणा के आधार पर समझाएँगी, तो वह तो बिल्कुल नहीं समझेगा। तो उसको समझाने के लिए आपको वैज्ञानिक तथ्यों का ही सहारा लेना पड़ेगा, क्योंकि वैज्ञानिक तथ्यों में स्वार्थ होता है। जब आप किसी को बताओगे कि माँस खाने से कैंसर हो रहा है, तो वह करुणा की वजह से तो माँस नहीं छोड़ेगा, लेकिन हाँ, अपने स्वार्थ की वजह से छोड़ देगा।

विज्ञान की थोड़ी शिक्षा दी जाए लोगों को। यह जो माँसभक्षी हैं, यह बिल्कुल अनपढ़ों जैसा व्यवहार कर रहे हैं।

इनको ज़रा बताया जाए कि "तुम यह जो खा रहे हो, इसको खाकर तुम ख़ुद को भी बर्बाद कर रहे हो, पूरी पृथ्वी को भी बर्बाद कर रहे हो, और अपने बच्चों के भविष्य को भी बर्बाद कर रहे हो। ज़बान के स्वाद के खातिर तुम अपने बच्चों का ही भविष्य बर्बाद कर रहे हो।" उनको बताना पड़ेगा, तब वह चेतेंगे। अपने स्वार्थ के ख़ातिर चेतेंगे। उन्हें बकरे से भले ही न प्रेम हो, लेकिन अपने बच्चे से मोह है न? तो उसे बताइए कि वह माँस खा-खाकर अपने बच्चे की ज़िन्दगी तबाह कर रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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