लुकाछिपी अँधेरे और रोशनी की || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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लुकाछिपी अँधेरे और रोशनी की || आचार्य प्रशांत (2020)

आचार्य प्रशांत: प्रकाश, क्यों कहा परमात्मा को? क्या परमात्मा का सम्बन्ध वास्तव में प्रकाश से है? और हम तो प्रकाश जानते ही हैं क्या है। प्रकाश क्या? जैसे रोशनी आ रही है, तरंगे हैं, विकिरण, रेडिएशन , एक भौतिक चीज़ जिसमें हमारी आँखें जगत को देख पाती हैं। परमात्मा को प्रकाश क्यों बोला गया, बार-बार बोला गया है, बार-बार। सब दुनिया भर के धर्मग्रन्थों में प्रकाश ही बोला गया है। कभी लाइट बोला, कभी नूर बोला, कभी प्रकाश बोला। क्यों?

इसका जो तरीका बताया, जो कुंजी बतायी वो आप लोग भूल जाते हैं। जो कुछ भी बोला है- हमें क्या देखना है?, किससे बोला है? और जिससे बोला है उससे क्यों बोला है? ये कौन कह रहे हैं? ये सब कौन कह रहे हैं? इनके वक्ता कौन हैं? (सत्र के साथियों से पूछते हुए) ऋषि हैं। ठीक है? कह किससे रहें हैं?

श्रोता: अहम् से।

आचार्य: अहम् से कह रहे हैं। अब अहम् से जो कुछ भी कहा जाएगा, वो क्यों कहा जाएगा? अहम् को नकारने के लिए कहा जाएगा। ठीक है न? हम ये जो मूल सिद्धान्त हैं इनको क्यों भुला देते हैं? अहम् को सत्य दिया नहीं जाता, अहम् से झूठ हटाये जाते हैं। हमें लगता है कि सच बताया जा रहा है, सच नहीं बताना होता ह। क्या करना होता है? (साथियों से पूछते हुए)

तो यहाँ पर भी जो बोला है, जो कुछ भी बोला है, देखिए ऋषि अनर्गल बातचीत तो करेंगे नहीं, व्यर्थ मिथ्या इधर-उधर का प्रलाप, गॉसिप (बातचीत), ये सब तो करेंगे नहीं। एक-एक शब्द सार्थक होगा। एक-एक शब्द प्रयोजन युक्त होगा। है न? तो प्रकाश स्वरूप अगर कहा परमात्मा को, सत्य को। तो अहंकार से क्यों कहा प्रकाश स्वरूप? इस पर विचार करना होगा। ऐसे ही नहीं कि हाँ रोशनी तो होती है, फिल्मों में देखा है न कि आसमान से ऐसे रोशनी आ जाती है, बादलों के पीछे से आ जाती है। ऐसे नहीं करना है।

एक बड़ी आन्तरिक सक्रियता चाहिए जब आप इनके साथ बैठें। आपको बड़ा चैतन्य होना पड़ता है। आप उपनिषद् के साथ नहीं हैं, आप ऋषियों के सम्मुख हैं और वो कोई हल्की-फुल्की बात तो बोलते नहीं, वहाँ तो गागर में सागर है न। कोई छोटा सा एक शब्द भी बोला है तो उसमें बहुत बड़े अर्थ निहित हैं। उनको समझना पड़ेगा न। उसके लिए ज़ोर लगाना पड़ता है, आन्तरिक ऊर्जा चाहिए। अन्धकार के विपरीत कहा है प्रकाश।

अहम् को बताया जा रहा है कि तुम हमेशा जीते हो अन्धकार में। और ये बात मानने को अहम् राज़ी भी है इसका प्रमाण ये है कि वो ऋषि के सम्मुख बैठा है। अगर उसको ये ज़रा भी सन्देह न होता कि वो अन्धकार में है, तो वो ऋषि के सामने आता ही नहीं। ऋषि के सामने तो आएगा ही तब न जब उसे कहीं से भनक लग रही है कि कुछ गड़बड़ है मेरे अन्दर। कुछ है जो मैं जानता नहीं। अज्ञान ही तो अन्धकार है न। अन्धेरे में आपकी आँखें जान नहीं पाती, इसलिए अज्ञान और अन्धकार को पर्याय की तरह इस्तेमाल करते हैं। अज्ञान माने पता नहीं है, नहीं जानता। अन्धकार में भी तो यही होता है। अभी कमरा अन्धेरा हो जाए आप नहीं जानेंगे वहाँ क्या रखा है।

समझ में आ रही है बात?

तो अज्ञान नहीं जानता, शिष्य नहीं जानता। उसको बार-बार ऋषि कहते हैं, ‘तुम नहीं जानते।’ परमात्मा तुमसे बाहर का है, वो प्रकाश है। अपने भीतर तुम जब तक हो तुम्हें अन्धेरा ही मिलना है। अपनी सीमाओं के अन्दर ही अगर तुम्हें घूमते रहना है तो जान पाओगे भी नहीं। क्योंकि प्रकाश तो उधर है परमात्मा में। तुम थोड़े ही परमात्मा हो। तुम कौन हो? तुम अहम् हो, परमात्मा वहाँ है। तुम अगर अपने में ही रहोगे तो अन्धेरे में ही रहोगे। अन्धेरे से अगर मुक्ति पानी है तो फिर किससे मुक्ति पानी होगी? ख़ुद से मुक्ति पानी होगी। इसीलिए कहा कि परमात्मा प्रकाश स्वरूप है। तुम नहीं प्रकाश स्वरूप हो।

और अहम् की ज़िद क्या होती है? साहब हम ही तो हैं, हमसे पूछिए न हम बताएँगे। उसको कहा जा रहा है, तुम जो कुछ भी जानते हो सब व्यर्थ है, सब मिथ्या है। और जब तक इस बात को तुम सविनय स्वीकार नहीं करते, कभी कुछ जान पाओगे भी नहीं। क्योंकि वो एक विशेष ज्ञान है। अगर वो कोई ज्ञान का ऐसा पक्ष होता जो पाना मुश्किल तो है पर है तुम्हारे ही आयाम में। तो तुम उसे मेहनत करके पा भी लेते। परमात्मा तुम्हारे आयाम का ही नहीं है। तुम कितनी भी मेहनत कर लो तुम्हें मिलेगा नहीं। क्योंकि सारी मेहनत तुम ही कर रहे होगे न। वो मेहनत करने में तुम सिर्फ़ बचे ही नहीं रह गये और मजबूत हो गये।

(अहम् का वक्तव्य)- ‘साहब मैंने तो परमात्मा को, सत्य को पाने के लिए अठारह साल मेहनत करी है।’ तुम्हें नहीं मिलेगा।

समझ में आ रही है बात?

प्रकाश तुम्हारे न होने में है, तुम अपना अन्धेरा आप हो। तुम्हें बत्ती नहीं जलानी है, तुम्हारा अन्धेरा है तुम्हारी बन्द पलकें। तुम जब तक तुम जैसे ही रहोगे, बाहर हज़ार सूर्य भी दैदीप्यमान हों, तुम्हें कुछ दिखने का नहीं। क्योंकि तुम्हारा अन्धेरा बाहर का नहीं भीतर का है।

तुम्हारा अन्धेरा तुम्हारा अपना है। कहाँ इधर-उधर तुम ख़ोज रहे हो, पलकें बन्द हैं और ऊपर से चढ़ी हुई है पट्टी। पलकों के बन्द होने को मान लो जो हमारा जैविक अन्धकार है। ठीक है? शारीरिक अन्धकार है, और ऊपर काली पट्टी चढ़ी हो उसको क्या मान लो, सामाजिक।

दो तरह के अन्धकार हैं हमारे पास- एक तो आँखें बन्द हैं और दूसरा बन्द आँखों पर भी सामाजिक पट्टी चढ़ी हुई है। और अपनी इस हालत के साथ हम निकल पड़ते हैं प्रकाश को खोजने। और हमारा दावा ये है कि अभी ख़ोज रहें है, मिल नहीं रहा, रोशनी मिल नहीं रही है। और अपनेआप से हम बहुत खुश हैं, अपनी पीठ थपथपा रहें है बार-बार, क्या कहकर? ‘मेहनत देखो पूरी कर रहें है, हमारे संकल्प, ईमानदारी में कोई कमी नहीं है। देखो हम कितना ख़ोज रहे हैं प्रकाश को।’ प्रकाश को खोज रहे हैं बन्द आँखों के साथ।

समझ में आ रही है बात?

परमात्मा प्रकाश स्वरूप है, तुम अन्धकार हो। तुम्हें खुलना होगा। वो बाहर प्रतीक्षा कर रहा है, तुम्हें खुलना होगा। कोई सूरज ज़बरदस्ती तुम्हारी आँखें नहीं खोल सकता न, कि खोल सकता है? तुम्हारी आँखें अगर अकस्मात बन्द होतीं तो हो सकता था कि सोये पड़े हो, खिड़की से धूप का टुकड़ा आकर के आँखों पर पड़ा और ऐसे आँखें खुल जाती हों, होता है न सुबह? वो तो फिर भी हो सकता था। लेकिन अगर आँखें जानबूझकर बन्द करी हों फिर उसपर पट्टी बाँध ली हो। किसी सूरज में दम है कि तुम्हारी पट्टी ज़बरदस्ती उतरवा दे। तो जिसको हम परमात्मा इत्यादि बोलते हैं, वो भी अहंकार के आगे बेबस होता है। ये अच्छे से समझिएगा।

जब हम कल बात कर रहे थे कि अध्यात्म का मतलब है ज़िम्मेदारी। तो आपको ये स्वीकार करना पड़ेगा कि आप में सामर्थ्य भी है और जो कुछ हो रहा है आपके साथ आप उसके लिए ज़िम्मेदार भी हैं। सच से अगर आप दूर हैं तो आप ज़िम्मेदार हैं। कोई मजबूरी नहीं। अगर सूरज भी आप पर ज़बरदस्ती नहीं कर सकता, अगर परमात्मा को भी आपकी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। तो मजबूर अगर कोई है भी तो कौन? कौन? वो (परमात्मा) मजबूर है, हम काहे के मजबूर हैं। इसीलिए तो मैं बार-बार बोलता हूँ, कोई सामने बैठा होता है तो बोलता हूँ बादशाह हो बेटा तुम।

बादशाह तो हम ही हैं। ये बात आमतौर पर हमें बतायी नहीं जाती। हमें ऐसे बताया जाता है कि तुम प्रतीक्षा करो परमात्मा उतरेगा। जैसे कि परमात्मा सोया पड़ा हो, और हम जगकर के प्रतीक्षा कर रहें हैं कि बस आ नहीं रही है। क्योंकि ड्राईवर सो रहा है। ये कैसी उल्टी बात बतायी जा रही है कि तुम प्रतीक्षा करो परमात्मा उतरेगा। बात उल्टी है। परमात्मा बोलो, सत्य बोलो, आत्मा बोलो, ब्रह्म बोलो, वो प्रतीक्षा कर रहा है। बादशाह हम हैं जो उसकी प्रतीक्षा का उत्तर नहीं दे रहे।

ये एक बहुत बड़ा अन्तर है इसको ज़रा अच्छे से समझिए। आप सबकुछ हैं। आप सबकुछ हैं। अध्यात्म में विशेषकर अद्वैत वेदान्त में जो एक शब्द फूहड़ता की निशानी है वो है- असहायता या मजबूरी। विवशता शब्द ही वर्जित है। यहाँ कोई नहीं बैठा जो मजबूर है। एकदम नहीं। हम अज्ञानी हो सकते हैं पर विवश हम तब भी नहीं है। क्योंकि अज्ञान का चुनाव भी हमने किया है। अरे! जब तुम्हारी चुनी हुई चीज़ है तो तुम मजबूर कैसे हो गये?

ये बात आसानी से गले से उतरेगी ही नहीं, हमें लगेगा नहीं पर मैंने तो चाहा नहीं था देखो मेरे साथ ऐसा हो गया। आपने ऊपर-ऊपर से नहीं चाहा था। थोड़ी देर पहले हम बात कर रहे थे न हमारी चाहतों के भी तल होते हैं। ऊपरी तल पर नहीं चाहा था, अन्दरूनी तल पर वही चाहा था। कुछ भी अनायास नहीं हुआ है। और अगर आपको लगे कि मैंने बिलकुल ही नहीं चाहा था। तो अपने अन्दरूनी तल से पूछिए, 'तू ऐसा क्यों चाह रहा है। क्योंकि ये चीज़ चाहने जैसी है ही नहीं, तू ये क्यों चाह रहा है।’

आपके अन्दरूनी तल पर कोई ऐसा बैठा है जो आपसे बिलकुल अलग है, एकदम अलग। बहुत भयानक है वो। लाल-लाल उसकी आँखें, वो कुपित भी है- क्रोधित, डरा हुआ भी है और बहुत प्यासा है। वो छटपटा रहा है। वो हम सबके भीतर बैठा है। हम उसे जानते नहीं तो हम भद्र पुरुष और भले मानस बनकर जीते रहते हैं। कोई नहीं भद्र पुरुष है यहाँ पर, और अध्यात्म सत्य को जानने की बात नहीं है। अध्यात्म अपने भीतर के उस राक्षस को जानने की बात है। स्त्रीलिंग में उसको माया बोल देते हैं।

कोई सत्य नहीं है जिसको आप जानने निकाल जाएँगे और कहेंगे कि मैं फ़लाने पहाड़ पर चढ़ गया और वहाँ मुझे सत्य का पता चल गया। पहाड़ पर जाकर सत्य का क्या पता कर रहे हो, कमरे में अन्दर ही बैठे रहो वहाँ तुम्हें अपने राक्षस का पता चल जाएगा। और पहाड़ की चोटी तक अगर तुम जा भी रहे हो, तो भीतर के राक्षस को ढोते हुए ही जा रहे हो। वो तो तुम्हारे साथ तुम्हारे कमरे से ही चल रहा है। तुम्हारे ही भीतर बैठा है सहयात्री बनकर।

हाँ, पहाड़ की चोटी पर जाकर के वो अपना नाम बदल कर बोलेगा कि मैं ही तो सत्य हूँ और तुम बोलोगे पहाड़ की चोटी पर मुझे सत्य मिल गया। वो सत्य नहीं है, वो तुम्हारा ही अपना राक्षस है जो तुम अपने कमरे से लेकर गये हो चोटी पर। तो बहुत मूर्खतापूर्ण लगती है वो सब बातें, जब कोई बताता है, मैं गया फ़लाने समुंदर मे घुस गया, फ़लाने पहाड़ पर चढ़ गया, फ़लाने लोक में पहुँच गया, फ़लाने गृह में चला गया और वहाँ फिर मुझे सत्य के दर्शन हो गये। तुम ही तो वहाँ चढ़ गये न। वो तो माया तुम्हारे भीतर ही बैठी हुई है, उसको लेके ही तो चढ़े हो।

वहाँ तुम्हें जो कुछ भी दिखाई देगा वो वही है जो तुम अपने साथ ऊपर तक लेकर आये हो। कोई माउंटएवरेस्ट पर, गौरीशंकर पर बैठकर चिप्स खा रहा हो, इसका क्या मतलब है? वहाँ फ़ैक्टरी लगी है चिप्स की। कि यहीं अभी ताज़े-ताज़े मिले हैं। क्या मतलब है इसका? क्या मतलब है?

अरे! तुम यहीं से तो लेकर गये हो। और फिर वहाँ तुम अपनी फोटो खिंचवाओ और कहो ये देखो ये अलौकिक चिप्स हैं क्योंकि यहाँ खा रहा हूँ। तो मूर्खतापूर्ण बात है न। कहीं भी खाओ, हैं तो तुम्हारे ही। वो जो भीतर है उससे बहुत सावधान रहिए। आपकी चाहत कुछ और है, उसकी कुछ और है।

आपकी चाहत वो है जो कुछ समाज ने आपको शिक्षा दे दी है, अभी आप उपनिषद् सुन रहे हैं, इन्होंने भी आपको ऊपरी तौर पर कुछ समझा दिया, कुछ संस्कारित कर दिया। लेकिन ये सब ज्ञान रह जाता है ऊपर-ऊपर और राक्षस बैठा है बहुत अन्दर। तो ऊपर-ऊपर हम करते हैं ज्ञान की बातें और अन्दर-अन्दर बैठा हुआ है राक्षस। बहुत सावधान रहना है। ऊपर-ऊपर रहता है प्रकाश और भीतर रहता है अन्धेरा। बहुत सतर्क रहना है उससे।

समझ में आ रही है बात?

और अन्धेरा बहुत खतरनाक हो जाता है जब उस पर प्रकाश का आवरण चढ़ा होता है। बहुत खतरनाक हो जाता है। इसीलिए फिर ऋषि समझा रहें हैं कि अपने अन्धेरे को रोशनी से ढकना छोड़ो। कुछ नहीं पाओगे ख़ुद को धोखा देकर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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