लगे है, तब है; जब लगे नहीं है, तब भी है

Acharya Prashant

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लगे है, तब है; जब लगे नहीं है, तब भी है

भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित्परमर्थतः।

नास्त्यभावः स्वभावनां भावाभावविभाविनाम्।।

~ अष्टावक्र गीता (अध्याय 18 श्लोक 4)

अनुवाद: यह संसार केवल एक भावना मात्र हैं, परमार्थत: कुछ भी नहीं है। भाव और अभाव के रूप में स्वभावत: स्थित पदार्थों का कभी अभाव नहीं हो सकता।

आचार्य प्रशांत: पहली पंक्ति कह रही है कि हाँ ठीक है यह बात कि जो दिखाई पड़ता है यह पूरा विश्व, यह कल्पना मात्र हैं। लेकिन दूसरी पंक्ति उसके साथ ही बात जोड़ रही है कि जो देख सकता है वह नॉन बींग में भी बींग को ही देखेगा। क्योंकि बींग के अलावा और कुछ है नहीं, स्वभाव एक ही है।

पहली पंक्ति कह रही है कि विश्व खाली है नॉन बींग। दूसरी कह रही है कि नॉन बींग में भी स्वभाव बींग का ही है। तुम्हारे देखने की भूल है अगर तुम देख नहीं पा रहे हो तो। स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यहाँ पर भाषा त्याग की रिजेक्शन की नहीं है; दो बातें एक साथ कहीं जा रही है।

पहला तो ये कि दिखता है जो नकली सा है, दूसरा ये कि नकली भी असली है। मन के लिए किसी दो में से एक सिरे पर चले जाना बड़ा आसान है। एक सिरा ये हो सकता है कि सब नकली है तो सबको छोड़ दो, त्याग दो भरसना कर दो और यह मान लो कि सच कहीं और बैठा हुआ है। जो सामने दिख रहा है वह सब तो झूठा है और सच कहीं और होता है। मन इस सिरे पर जाने के लिए बड़ा उत्सुक रहेगा और जो दूसरा सिरा होता है, मन उसके लिए भी बड़ा उत्सुक रहेगा कि यह सब जो है ना यही तो जीवन है; ये सब असली है। इससे मोह लगा लो इसी को जीवन मान लो, इसी की कामना करो, इसी से बंधे बैठे रहो। और हमारा मन इन्हीं दो सिरों के बीच झूलता रहता है: आसक्ति-अनासक्ति, राग-द्वेष, बहुत अच्छा है-बहुत खराब है।

अष्टावक्र किसी और आयाम में ले जा रहे हैं। वो कह रहे हैं सब नकली है लेकिन अगर आंखें हो तो देख लो इसी नकली में असली दिखेगा। ठीक, नकली है लेकिन असली इसके अलावा कुछ है भी तो नहीं। ज़ेन में इसको इस भाषा में कहते हैं: “It is not what is appears to be but it is also not different from it.” ये वह नहीं है जो ये प्रतीत होता है लेकिन इसके अलावा भी कुछ नहीं है। अब यहां पर हमारे सामने सवाल खड़ा हो जाएगा कि कह देते नकली है तो सुविधा रहती हम ठुकरा देते। कह देते असली है तो भी सुविधा रहती हम अपना लेते। अब अष्टावक्र कह रहे है कि नकली है लेकिन आँखें खोलो और इसी नकली में असली को देखो। क्योंकि और कहीं असली तुम्हें मिलेगा नहीं। तुम्हें इसी में देखना है उसको और ये है नकली।

प्रश्नकर्ता: इसका मतलब क्या जो नकलीपन है वही उसकी असलियत है? ये है?

आचार्य: बहुत जल्दी निष्कर्षों पर मत आओ। वो क्या कह रहे हैं उसको पियो अच्छे से। हम लोग जब पिछले दिनों कैम्प में थे तब हम लोगों ने बात की थी इंद्रियों की। कृष्ण इंद्रियों के विषय में कुछ कह रहे थे। तब हमने कहा था कि इन्हीं आँखों से दिखेगा और इन्हीं कानों से सुनाई देगा। वो ऑंखें हैं जो सिर्फ द्वैत को देख पाती हैं, अद्वैत को भी देखेगी।

वो कान जो सिर्फ शब्द सुन पाते हैं, वो अनहद को भी सुनेंगे। पर तुम देखना सीखो तो सही ना और कोई ओर बोले किसी और तरीके से देख लूंगा, कहीं ओर से उसकी आवाज आ जाएगी तो पागलपन की बात कर रहा है।

अष्टावक्र यही कह रहे हैं कि संसार के पार कुछ है नहीं। संसार ही सब कुछ है, इसी में डूबना है; यही सत्य है। तुम्हारे लिए सत्य सिर्फ एक रूप में प्रकट होता है। वो संसार के रूप में प्रकट होता है। उस रूप में अगर तुम उसे नहीं जान पाए तो तुम किसी और रूप में नहीं जान सकते हो। जो कोई ये सोचता है कि संसार के अलावा भी सत्य कहीं हैं, वह पगला है वह अपने आप को धोखा दे रहा है; संसार में ही सत्य है। इसका मतलब समझते हैं क्या हुआ? इसका मतलब ये हुआ कि आप यहाँ बैठे हो, यह चादर है, यह दीवार है, आप चल रहे हो, आप खा रहे हो, आप पी रहे हो, आप जो रोजमर्रा के काम कर रहे हो ठीक वहीं पर सत्य हैं। ठीक वहीं पर परमात्मा है। और जिसको वहॉं नहीं दिखता उसको कहीं नहीं दिख सकता।

संसार बेशक झूठा है, तब तक झुठा है जब तक संसार में आपको सत्य नहीं दिख रहा। तो जब पहली पंक्ति कह रहे अष्टावक्र वो बिल्कुल ठीक है कि संसार मिथ्या है, कल्पना है, भाव भर हैं। वो इसलिए है क्योंकि आपने संसार को सत्य को अलग अलग-अलग कर रखा है। आपने धारणा बना रखी है कि यह तो दीवाल है और जब तक ये आपके लिए दीवाल मात्र हैं तब तक आप मूढ़ की तरह ही रहेंगे। अष्टावक्र आपको गहरी सांसारिकता का संदेश दे रहे हैं। ये भगोड़ेपन का संदेश नहीं है। वो कह रहे हैं कि तुम जैसे हो तो तुम्हें तो यहीं रहना है, यहीं जीना है, यहीं सब दिखेगा, यहीं सब छुओगे और यहीं सब सुनोगे और अगर तुम्हें इसमें वो नहीं ना मिला तो कहीं और नहीं मिल सकता। तो तुम्हें इसी में पाना है और इसमें डूब के पाया जाता है। इसका त्याग करके नहीं पाया जाता। कबीर का एक दोहा है कि

छाड़न छाड़न सब करै छाड़ कोई न पाए।

जो छाड़न की बात करै बहुत तमाचा खाए।।

चिल्लाते तो ख़ूब हो कि छोड़ना है-छोड़ना है छोड़ देना है, बेकार है पर छोड़ना संभव है नहीं। और जिसने भी छोड़ने की बात की उसको तमाचे ही तमाचे लगे हैं। तुम क्या छोड़ दोगे, कहाँ चले जाओगे? जहाॅं पर विश्व नहीं है, जहाँ पर संसार नहीं है। देह को तो लेकर जाओगे ना। देह ही संसार हैं, छोड़ना नहीं है। ऐसे ध्यान में ऐसे डूब के जीना है कि इसी में से ये सब जो नाचीज़ रोज़मर्रा का जीवन है, इसी में से सत्य उठ के सामने आ जाएं।

कोई और दुनिया नहीं होती; एक ही दुनिया होती है। एक ही सड़क पर दो लोग चल रहे होते हैं; एक बिल्कुल शांत होता है और दूसरा बिल्कुल व्यथित। एक ही दुनिया है, है न? एक ही सड़क है और अगल-बगल चल रहे हैं। किसी और सड़क पर चल जाने की जरूरत नहीं है। उसी सड़क पर चलो शांत होकर चलो। एक ही कमरे में यहाँ इतने लोग बैठे हैं कुछ गहरे ध्यान में चले गए हैं, कुछ हिलडोल रहे हैं। उन्हें कोई और कमरा कुछ नहीं दे पाएगा।

यहीं, यहीं उठ बैठना है। सत्य यहीं है और कहीं नहीं है। किसी दूर-सुदूर कल्पित लोक की तलाश यही तो बीमारी है न हमारी; कहीं कुछ और मिलेगा। अष्टावक्र कह रहे हैं नहीं, कहीं कुछ और नहीं मिलेगा जो सब तुम्हें नकली लगता है उसको ज़रा आँख खोलकर देखना शुरु करो। जो तुम्हारे ईर्दगिर्द है इसी को समझना शुरू करो। नहीं, वो ये नहीं कह रहे कि इसको समझ करके तुम वैसे ही रह आओगे जैसे अभी तक रह आए थे।

सब कुछ बदल जाना है, संसार से संबंध बदल जाना है तुम्हारा पूरी तरीके से। तो वो लाइसेंस नहीं दिए दे रहे हैं कि जो कर रहे हो वैसे ही चलते रहो। जैसा तुम्हारा जीवन है वैसे ही किए जाओ। वो कह रहे हैं नहीं, जीवन तो यही है इसको समझ लो, तुम्हारा मन बदल जाएगा। फिर सब बदल जाना है; तुम्हारे संबंध बदल जाएंगे, तुम्हारी दृष्टि बदल जाएगी।

ये दो बहुत अलग-अलग तरह की दृष्टियाँ हैं। हम वो दृष्टि तो जानते हैं जो या तो मोह करती है या नहीं करती हैं। आपके सामने कोई है या कुछ है तो आपके पास दो नज़र तो हैं जो ख़ुद को अतीत के पैमानों पर तोल ले और सीधे-सीधे कह दे कि मेरा है कि नहीं है, मुझे इससे बंधना है या नहीं बन्धना है। वो सब तो हम खूब अच्छे से जानते हैं। मैं, मेरा पर वो नज़र नहीं है हमारे पास जो कुछ देखे और सीधे-सीधे उसमें कुछ और ही देख ले।

दीवार मेरे घर की है, ये तो हमें दिखाई पड़ता है। ये सारे मेरे घर के हैं पर पत्थर में परमात्मा नहीं दिखाई पड़ेगा। अब प्रश्न यह है कि आपको पत्थर में नहीं दिखाई पड़ता तो आप कहाॅं जाकर ढूंढोगे? इंद्रिया यहीं है आपके पास कोई चौथी पांचवी या दसवीं आंख आपके पास आ नहीं जानी है जो किसी और आयाम में देखती हो। कान यहीं है आपके पास इन्हीं से देखना है, सुनना है। इन्हीं से दिखना चाहिए न या बस कल्पना करें रहनी है कि ये जो संसार जो है ना यह तो झूठा है। ठीक है, और सच्चा क्या है? वो सच्चा कुछ और है। अच्छा वो कैसा होता है, वह दिखता नहीं तो आप

ज़रा देखे कि आपने जीवन को कहाँ बिठाया है। आप कह रही हैं ये सब जो हैं वो तो झूठा है और जो सच्चा है वह दिखता नहीं है तो आप कर क्या रहे हो फिर। आप ज़रा अपनी अवस्था के बारे में थोड़ा विचार करिए। ये सब क्या है, झूठा है चलो कोई बात नहीं। तो सच्चे में चले जाओ। नहीं सच्चे में नहीं जा सकता। यह तो तुमने बड़ी होशियारी की बात करी। ये सब झूठा है और सच्चे को पाया नहीं जा सकता। फिर जी काहे के लिए रहे हो। वो जो झूठा संसार है ना उसी में एक झुठी नहर भी हैं, उसी में जा के झूठे ही मर जाओ। ये सब तो झूठा है और सच्चा जो है, पाया जा नहीं सकता। वो तो औकात पर हैं, अज्ञेय हैं उस तक तो हमारे हाथ कभी पहुंच सकते नहीं।

तो तुम यहां कर क्या रहे हो फिर। ये वैसा ही है जैसा आप एक एयरपोर्ट पर बैठे हैं। वहां जितनी फ्लाइट्स है पूछे कि किसमें जाना है बोले ना-ना-ना, ये सब फ्लाइट्स झूठी। ये सब जहाँ ले जा रही हमें वहाॅं जाना नहीं। बोले, ठीक है तो तुम्हें कहाॅं जाना है? बोले हमें जहाॅं जाना है वहां कोई फ्लाइट्स जाती नहीं। तो एयरपोर्ट पर क्या कर रहे हो फिर? संसार में फिर तुम कर क्या रहे हो, क्या कर रहे हो? हम सब ऐसे ही हैं और ज़ोर से हंसिये और अपने ऊपर हंसिये, हम सब ऐसे ही हैं। हम सब ने कहीं ना कहीं यही मान रखा है।

अष्टावक्र कह रहे हैं बंद करो बेवकूफी! यहीं दिखेगा, सामने है और कहीं कुछ नहीं है यहीं पर है सामने। संसार और सत्य दो नहीं है। आँखें खोलो एक दिखाई देंगे। ठीक अभी तुम वहॉं बैठे हो जहाॅं पर बैठा जा सकता है, अगर तुम समझ सको तो। तो संसार नकली हैं कब तक, जब तक उसमें असली ना दिखने लगे। हमसे बहुत कहा गया है ना कि जगत मिथ्या है तो मैं कह रहा हूँ जगत बेशक मिथ्या हैं पर कब तक मिथ्या हैं? जब तुम्हें वो मिथ्या लगे। माया बेशक धोखा देती हैं पर कब तक? जब तक माया ब्रम्ह ही ना लगने लगे।

क्या कह रहे थे कृष्ण: मम् माया (मेरी माया)। जब ये दिखने लग जाए कि माया वही हैं तब माया, माया नहीं रही तब माया धोखा नहीं है। जगत मिथ्या है बात बिल्कुल ठीक है पर इसका अर्थ हमें ये नहीं कर लेना है कि कोई और जगत है। इससे इतना ही पता चलता है कि मिथ्या है यदि तुमने जगत में सत्य को ना देख लिया। इस दृष्टि से बड़ा नुकसान हुआ है अभी तक। सन्यासी को वह व्यक्ति माना गया है जो जगत को मिथ्या बोल करके जगत का त्याग कर देता है। जबकि बात बिल्कुल उल्टी है, ये तो संसारी आदमी है जो जगत को मिथ्या बोलके जगत का त्याग कर देता है और किसी और जगह को पाने निकल पड़ता है। ये तो जो तुम्हारा आम संसारी हैं ये उसके लक्षण हैं। वो यही तो करता है ना दिन-रात। जगत मिथ्या हैं कोई और जगत चाहिए तो चलो एक नया जगत बनाएंगे। रुपया जोड़ो, पैसा जोड़ो मकान बनाएंगे और क्या कर रहा है, वो यही तो कर रहा है।

सन्यासी वो है जिसको जगत अब जगत रूप दिखाई ही ना दे। जो जगत को पूरी तरीके से पा ले, डूब जाए उसमें और उसका सत्व निकाल ले। जीवन में कटा-कटा सा, उदास, रुठा-रुठा सा ना रहे तो जगत मिथ्या है बिल्कुल। कौनसा जगत मिथ्या है? जिसको हमने जगत मान रखा है, वो मिथ्या है। और यही जगत सत्य हो करके प्रकाश देगा।

थोड़ा मन साफ रखो। ठीक यही जगत हैं। कहीं भागना नहीं पड़ेगा, कण-कण में सत्य दिखाई देगा, जर्रे-जर्रे में परमात्मा दिखाई देगा। और वह भूलना नहीं एक ही सड़क पर दो आदमी है, एक मौज में है मस्त हैं कुछ गुनगुना रहा है हल्का है और दूसरा जीवन से इतना उदास है आक्रांत हैं कि आत्महत्या करने जा रहा है। एक ही सड़क पर है और बिल्कुल अगल-बगल चल रहे हैं। सड़क बदलनी है क्या? वह सड़क एक नदी की तरफ जाती हैं और जो पहला आदमी है वह उस नदी में जाकर खेलेगा, कूदेगा; नदी दोस्त है उसकी मौज के क्षण होंगे। और दूसरे व्यक्ति के लिए नदी क्या है? डूब मरने का साधन। तो जगत मिथ्या है नहीं बदल देना है। तुमने जगत को जो समझ रखा है, वह मिथ्या है। दुनिया यही है और जब तक यह शरीर है, दुनिया ऐसी ही हैं। अपनी धारणाओं पर गौर करो अपनी मान्यताओं पर। किन धारणाओं पर जी रहे हो उनको देखो। जो नकली है सब में फिर असली दिखाई देने लगेगा। वही तो चमक रहा है। जो भी कुछ झुठा है दिखाई देने लगेगा कि सच के अलावा और कहीं से ये आ नहीं सकता था। ये सब जो नकली-नकली सा है, इसका उद्भव भी है सत्य से ही।

इस बारे में हमने घंटों-घंटों बात करी। अष्टावक्र ने कहा जब तुम्हें कष्ट भी होता है जब सब नकली प्रतीत होता है तो वो और क्या है? वो सत्य की पुकार है, वही सुन रहे थे क्या अभी?

यूँ कल्पना कर लो कि तुम्हारे चारों ओर मात्र सत्य खड़ा है, मात्र परमात्मा खड़ा है और कुछ है ही नहीं, बिल्कुल वही है। जितनी दिशाएं हो सकती है उन सब में वही है। पास-दूर यहाँ-वहाँ बिल्कुल वही है। एक बार को आँख बंद करो और देखो वही है। एक रोशनी का पिण्ड है जिसके केंद्र में तुम हो। तो चारों तरफ मात्र वही है, वही है, वही है। पर तुमने यूं बंद कर रखी है ऑंखें कि तुम्हें रोशनी दिखाई ही नहीं दे रही। तुम्हें कुछ और सा दिखाई दे रहा है जिसकी तुम कल्पना भर करते हो। तुम्हें लग रहा है ये पत्थर है, पर्वत है, पहाड़ है, ये है और वो है। नहीं, कुछ नहीं है; सिर्फ एक सत्ता है। तुम्हारे दुख किस लिए हैं क्योंकि तुम्हें वो सत्ता दिखाई नहीं देती। तुम्हें संसार में उसका प्रकाश दिखाई नहीं देता। तुम सोचते हो संसार तो संसार है। कहाँ से आ गया संसार और क्या है संसार। उसी का तो है ना संसार। यह कहना भी उचित नहीं कि उसका है संसार। वही तो है ना संसार। वो स्वयं संसार रूप में प्रकट हैं। तुम्हारा दुख यह है कि तुम उसे देखते नहीं। बड़े से बड़ा प्रकाश पुंज है और केंद्र में तुम हो और उसके अलावा कुछ है नहीं। फिर ये न दरवाजा दरवाजा है, न पत्थर पत्थर है, न कुर्सी कुर्सी है, न कपड़ा कपड़ा है, न जानवर जानवर है, न पेड़ पेड़ है। मात्र एक प्रकाश हैं।

प्र: इस वक़्त जब ये बात सोंचूं तब ये समझ में आता है पर कल जब मैं दूसरी जगह पर थी तब ये सब समझ पाना मुश्किल हो रहा था। तो क्या कुछ और सोचें ही न और मान लें कि यही सत्य है और इसी को समर्पित होना है।

आचार्य: मैंने तो सिर्फ इतना बोला था कि संसार सत्य हैं। उसके आगे की तो कहानी आपने सुनाई कि समर्पण करना है, कुछ नहीं करना है, भाग के नहीं जाना है। बाकी आपकी धारणाएँ है न। इन्हीं के कारण तो आपको कुछ दिखाई नहीं देता। कि अगर सत्य मांग लिया तो इसका मतलब है कुछ करना नहीं है। क्या ये मैंने बोला? मैं आधे घंटे से बोल रहा होऊँगा, एक बार भी मैंने ये कहा था क्या? पर आप ये देखिए आपने सत्य के बारे में कितनी कल्पनाएं इक़ट्ठी की है। मैंने कहा जहाँ वो प्रतीत नहीं होता वहॉं भी वो हैं। मैंने कहा सारे अंधेरे भी उसी के हैं। मैंने कहा सारी रोशनी भी उसी की है। मैंने तो इतना ही कहा कि वो वहॉं भी चमक रहा है जहाॅं वो चमकता प्रतीत नहीं होता। पर उसके आगे तो कुछ नहीं कहा, लेकिन हम अपनी पूरी ऊर्जा इस पर नहीं लगाते हैं कि इस बात को जाने। हमारा त्वरित प्रश्न यह होता है कि अगर हमने ये जान लिया तो फिर हम क्या करेंगे। तुरंत कर्म पर आ जाते हैं कि क्या करेंगे। कर्म पर जानते हैं कौन आना चाहते हैं? कर्म पर कर्ता आना चाहता है। कर्ता अपने आप को बचाए रखने के लिए तुरंत कर्म संबंधी सवाल पूछेगा कि करूंगा क्या? ठीक है आपकी बात समझ आ गई कि करेे क्या। पर ये कौन पूछ रहा है, कर्म के विषय में उत्सुकता किसकी होती है? कर्ता की होती है, अहंकार की होती है। ज्यों ज्ञान की जरा रोशनी पड़ती है कर्ता विचलित होना शुरू हो जाता है। या यूं कह लो कि जो ज्ञान की जरा रोशनी पड़ती है अहंकार हिलना शुरू हो जाता है। तो इसलिए तुरंत वो कर्म संबंधी सवाल पूछेगा।

आपने पहले जान लिया क्या, आप समझ भी रहे हो कि क्या कहा जा रहा है? उसका इतना भी अनुभव हो रहा है कि ज़र्रे-ज़र्रे में वो दिखाई दे पर एक प्रत्येक परिस्थिति सत्य से उठती दिखाई दे। उसके बाद ये प्रश्न ही निर्मूल हो जाएगा कि करे क्या? पर बोध की तरफ हमारी उर्जा नहीं जा रही है। हमारी उर्जा कर्म की तरफ जा रही हैं। आपका प्रश्न बोध संबंधित नहीं था, कर्म विषयक था। कैसे खोल दे उस आँख को जो सर्वत्र उसी की सत्ता देखें। यह नहीं पूछा आपने। आपने पूछा यदि उसकी सत्ता दिखने लग गई फिर हम करेंगे क्या। ये यदि आपको क्या लगता है छोटा-मोटा यदि हैं। ये कितना बड़ा यदि हैं आप समझ रहे हैं। पर आपने तो कह रखा है मान लो दिख गई तो फिर क्या करेंगे। जैसे कोई ज़रा सी बात हो, यदि दिख गया तो फिर क्या करेंगे।

जैसे कोई जन्म का अंधा कहता हो कि ठीक है अगर सूरज दिख गया तो क्या करना है? अगर सूरज दिख भी गया तो इसका क्या यह मतलब है कि मुझे अपनी छड़ी छोड़नी पड़ेगी चलने वाली। अभी सूरज ही तो दिखा है ना, छड़ी तो तब भी चाहिए होगी। उसे कैसे समझाए कि सूरज दिख जाए तब कर्म कैसे करना है। उसे कैसे समझाए कि एक बार दिख गया तो तुम्हें कोई सहारा कोई छड़ी नहीं चाहिए। पर वैसा ही है कि अगर मेरी आंखें हो गई यदि मेरी आंखें खुल गई, ठीक है-ठीक है दिख जाएगा सूरज कोई बात नहीं। सूरज कुछ होता होगा ना सु…..र…..ज….। यही तो सूरज है सु…..र…..ज…. ये सूरज है। जब दिख गया तब बताइए तब कैसे चलना है? कैसे बताएं, कैसे चलना है? पर आपने अपने आप को तो उससे भी बड़ा मान रखा है ना। अहंकार की निशानी ही यही है कि सब कुछ उससे छोटा होता है। सत्य चीज ही क्या है नाचीज है। सत्य क्या है कुछ नहीं है, लाओ जेब में रखता हूंँ। मैं बड़ा हूँ सत्य मेरी जेब से भी छोटा है। मैं अक्षुण रहूंगा, कोई सत्य मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मैं अक्षुण रहूंगा। सब बदल जाएगा, वही नीग्रो बनकर आया है वही व्हाइट वूमेन बनकर आया है। वो आपस में खेल रहे हैं आपको पता नहीं चल रहा है। और अगर उन्हें आपस में खेलने का हक है तो आपको भी हक है कि आप भी उनके साथ खेलना शुरू कर दो। ले तेरी कर दी पिटाई, किसी ने रोका है क्या? पर पिटते समय भी यह पता रहेगा कि आपस में ही तो खेल रहे हैं। कोई दूसरा होता ही नहीं, लो खेल लिए।

कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं मार और साथ में ये भी कह रहे हैं कि किसी को मारा जा सकता नहीं। बड़े पागल हैं तो फिर मारने को क्यों कह रहे हो। एक बार तो उसे बार-बार समझा रहे हैं मारा ही नहीं जा सकता। अरे अर्जुन! हम तुम सदा से हैं और सदा से रहेंगे। ना कभी कुछ नष्ट हुआ ना कभी कुछ हो सकता है। और साथ में कह रहे हैं मार, ये तो बड़े पागल हैं। पर आपके पास कहानियाँ खूब है। आपके पास धारणाएँ खूब है। आपने पहले ही दो शब्द उछाल दिए; एक्सेप्टेंस हो जाएगी, समर्पण हो जाएगा। किसने कहा ये सब हो जाएगा। ये क्या मतलब होता है एक्सेप्टेंस का? ये जो आप अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी में करती हैं ये नहीं करा जाता सत्य के साथ एक्सेप्टेंस! कि मैं बड़ी प्रताड़ित हुँ परिस्थितियों के नीचे दबी हुई हूँ। एक्सेप्टेड सत्य के साथ ये थोड़ी किया जा सकता है। अरे ये आपके रोज़मर्रा के गृहस्थ में होता है। ये सत्य की मांग नहीं है एक्सेप्टेड! कि सामने शोषण चल रहा है एक्सेप्टेड। पर तुरंत आपके मन में वही उठता है क्योंकि आपका अपना अनुभव वही हैं। क्योंकि आप वैसा जीवन जीते हो तो उसमें आपको दिखाई देता है कि कोई बड़ी ताकत है जो आपको दबाए हुए हैं। आपको बस एक्सेप्ट करना है और आप कर क्या सकते हैं। तो आपको लगता है सत्य और बड़ी ताकत है तो वो आपको और दबाएगी, उसको तो और एक्सेप्ट ही करना पड़ेगा। अभी तो छोटी मोटी ताकत है। छोटा वाला पिया ही बहुत दबा देता है। बस एक्सेप्टेंस के अलावा और कुछ कर नहीं सकते। तो वो तो परम पिया है।

उसको तो बस एक्सेप्ट करना पड़ेगा नहीं? वो दूसरा वाला पिया है। वो मुक्ति देता है। वो खुली छूट देता है। वो नहीं कहता है कि एक्सेप्ट करो मुझे। वो कहता है खेलों जैसे खेलना है खेलो। बंदूक से खेलना है खेलो। गोली चलानी है चलाओ। दो-चार को उड़ाना है उड़ा दो। वो नहीं कहेगा कि इतने से इतने बजे तक ही तुम खेल सकते हो और यही भर कर सकते हो। पर आपने सत्य को संसार की वस्तु बना दिया है। सत्य को आधार बनाने की जगह आपने सत्य को संसार के भीतर की कोई वस्तु बना दिया है, कि बहुत सारी वस्तुएँ होती हैं संसार में, परमात्मा भी उनमें से एक वस्तु है। किसी-किसी दुकान पर मिला करता है। परमात्मा संसार की वस्तु नहीं है। संसार का आधार है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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