प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सबसे पहले एकदम सीधा सवाल — महिलाओं के लिए घर का काम या ऑफिस का काम, दोनों में से क्या ज़्यादा ज़रूरी है?
आचार्य प्रशांत: तो आप ख़ुद एक कामकाजी महिला हैं, वर्किंग वुमन हैं। तो आप ही बता दीजिए कि आपके लिए जो आपका ऑफिस का काम है, जो आपका प्रोफ़ेशनल वर्क है वो क्या अर्थ रखता है और आपका जो घर का काम है, वो आपके लिए क्या अर्थ रखता है? क्योंकि दोनों ही काम करती होंगी। अकेले रहती हैं तो घर का काम भी करती हैं और बाहर का काम तो करती ही हैं। तो दोनों कामों में आप ख़ुद ही क्या अन्तर पाती हैं? आप बोल दीजिए, उसके बाद मैं बोलूँगा।
प्र: दोनों कामों में जो स्पेशली बाहर का काम होता है, वो काफ़ी चैलेंजिंग होता है। जो घर का काम होता है वो थोड़ा रिपेटिटिव काम होता है; सेम ही चीज़ें होती हैं जो आपको लगभग रोज़ करनी ही होती हैं। और रख-रखाव सम्बन्धित थोड़ा ज़्यादा काम रहता है घर पर।
बाहर काम करने में जो चुनौतियाँ हैं वो सिर्फ़ बॉडी तक सीमित नहीं होते, इंटेलेक्चुअल चैलेंजेज़ होते हैं। आपका विज़्डम (बोध) भी चैलेंज होता है। आपको ख़ुद से बार-बार प्रश्न पूछना पड़ता है, एक तरीक़े से थोड़े हायर ऑर्डर चीज़ें होती हैं।
आचार्य: बाहर के काम में?
प्र: जी, बाहर के काम में।
आचार्य: तो बाहर के काम में दो-तीन बातें बोल दी हैं। एक तो ये कि बाहर के काम में नयी चुनौतियाँ होती हैं, रेपिटिटिव नहीं होता। ये नहीं कि दोहराव है और वही काम बार-बार, बार-बार। उसमें आपने कहा कि इंटलेक्ट (बुद्धि) आपकी चैलेंज होती है। बुद्धि भी चैलेंज होती है और बोध भी, विज़्डम भी चैलेंज होता है। ठीक है।
और घर का काम कहा, बॉडी रिलेटेड होता है। है न! कि कपड़े साफ़ करने हैं, अपने पेट के लिए खाना बनाना है और जिस जगह पर रहते हो उस जगह को ठीक-ठाक रखना है। यही सब है। तो फिर ख़ुद ही बता दो कि बाहर का काम ज़्यादा महत्व का है, ज़्यादा ऊँचा है या घर का काम ज़्यादा ऊँचा है आपके लिए?
प्र: मेरे लिए बाहर का काम।
आचार्य: तो जैसे आपके लिए बाहर का काम ज़्यादा महत्व का है वैसे ही सभी महिलाओं के लिए और सभी पुरुषों के लिए भी, वो जिसको हम बाहर का काम बोलते हैं, वही ज़्यादा महत्व का होता है। और उसके हमारे पास ठोस कारण हैं। बाहर के काम में आपको दुनिया से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। आप दुनिया देखते हो, आपको दुनिया का अनुभव होता है। आप चार दीवारों के भीतर ही सुरक्षित रहकर काम नहीं करते, है न?
घर में आप चार दीवारों के भीतर काम कर रहे हो। आप जो भी कर रहे हो — आप खाना बना रहे हो, कपड़े धो रहे हो, आप घर की साज-सज्जा कर रहे हो। एक बहुत सुरक्षित माहौल है घर का। बाहर तमाम तरह की चुनौतियाँ हैं, अनदेखी चुनौतियाँ हैं। कुछ नहीं पता, कुछ भी नया हो सकता है। और जब आप चुनौतियों का सामना करते हो तो आपके साथ क्या होता है?
प्र: आपको इवॉल्व (विकसित करना) करना पड़ता है, चैलेंज करना पड़ता है।
आचार्य: आपको इवॉल्व करना पड़ता है। है न? आप बेहतर बनते हो, आप मज़बूत बनते हो। लेकिन अगर आप घर की चारदीवारी के भीतर ही कुछ-कुछ कर रहे हो, तो आपमें फिर वो मज़बूती नहीं आती है।
तो अगर हम बाहर के काम को श्रेष्ठ बोल रहे हैं घर के काम से, तो हमारे पास उसके ठोस कारण हैं। दिमाग भी ज़्यादा कहाँ लगाना पड़ता है? बाहर के काम में। क्योंकि घर के काम में आप जानते हो कि बुद्धि का बहुत उपयोग नहीं करना पड़ता। मैं ये नहीं कह रहा कि घर के काम में बुद्धि कोई उपयोगी नहीं है, पर कम है, कम है।
और घर का काम होता सब देह से ही सम्बन्धित है तो आपकी चेतना को भी बिलकुल देह पर ही अटका कर रखता है। है न? खाना, बर्तन, बिस्तर, यही सब चीज़ें तो होती हैं जिनको आप घर का काम बोलते हो, सफ़ाई। तो इसलिए जो बाहर का काम है वो घर के काम की तुलना में ऊँचा माना जाता है। और ख़ुद ही बता रहे हो कि तुम्हारे लिए भी ऐसा ही है।
तो ये चीज़ सभी के लिए ऐसा है। आप किसी भी वर्किंग वुमन से पूछ लो जिसने दोनों तरह के कामों का अनुभव करा हो आपकी तरह, कि घर का काम भी करती हैं और बाहर का काम भी करती हैं। वो यही बोलेंगी कि ऊँचा तो बाहर का ही काम है। और मज़ा और चुनौती भी ज़्यादा बाहर के ही काम में है। ग्रोथ (विकास) भी बाहर के ही काम में है। ग्रोथ दोनों तरीक़े की, सिर्फ़ यही नहीं कि करियर ग्रोथ, इंटरनल ग्रोथ (कैरियर विकास, आन्तरिक विकास) भी। वो भी बाहर के काम में ही ज़्यादा होती है।
तो इसलिए जो मुद्दा उठा रहे हो, वो मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है कि महिलाएँ क्यों भारत में बाहर के कामकाज में नज़र नहीं आतीं? जो हमारे फॉर्मल वर्क प्लेसेज़ (औपचारिक कार्यस्थल) हैं वो महिलाओं से सुनसान क्यों पड़े हुए हैं? और महिलाएँ सब घर में ही क्यों काम करती नज़र आती हैं?
जब ये बहुत साफ़ बात है कि घर के काम में उस तरह की आपकी न आन्तरिक प्रगति होती न भौतिक प्रगति होती, जैसे बाहर के काम में होती है। तो बाहर के काम में निश्चित रूप से कुछ श्रेष्ठताएँ हैं जो घर के काम में नहीं हैं। लेकिन महिलाएँ सारी घर में ही नज़र आ रही हैं। तो ये एक चिन्ता का और विचार का मुद्दा निश्चित रूप से है।
प्र: जी। इसी से सम्बन्धित, स्पेशली वर्किंग वुमन के अराउंड मैं कुछ रिसर्च कर रही थी तो वहाँ पर कुछ आँकड़े मेरे सामने आये थे। वो आँकड़े मैं आपके साथ शेयर करना चाहूँगी।
तो एक टर्म यूज़ होता है, एफ़एलपीआर, आप जानते ही हैं ऐसे फीमेल लेबर पार्टिसिपेशन रेश्यो (महिला श्रम भागीदारी अनुपात) जो कि बताता है कि कितनी महिलाएँ हैं वर्किंग ऐज ग्रुप में, पन्द्रह साल से ऊपर और साठ साल से नीचे। तो कितनी महिलाएँ हैं जो कि अभी काम कर रही हैं।
तो अगर मैं इस आँकड़े को सौ के पैमाने पर देखूँ, तो वो बताता है कि मात्र ऐट प्वाइंट ऐट प्रतिशत महिलाएँ काम कर रही हैं या करना चाहती हैं। भारत की नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा महिलाएँ जो हैं वो काम न तो ढूँढ रही हैं न ही कर रही हैं बाहर, घर में कर रही हैं।
तो आप जो बात कह रहे हैं कि जो बाहर का काम है वो एक इम्पोर्टेंट है जो मुझे ख़ुद भी महसूस होता है करते हुए, पर भारत में महिलाओं के आँकड़े हैं, इस पर आपसे जानना चाहेंगे।
आचार्य: हाँ, तो महिलाएँ नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा काम नहीं कर रही हैं या घर में ही काम कर रही हैं। हाँ, तो ये तो बात चिन्ता की है ही। जो अर्थव्यवस्था है, उसमें भी महिलाओं की आर्थिक भागीदारी इसकी वजह से बहुत सीमित है। और जब आर्थिक भागीदारी नहीं होती तो आर्थिक सशक्तिकरण नहीं होता। आप दुनिया में कमज़ोर रह जाते हो और उसके अलावा जब आप बाहर नहीं निकलते हो तो आपका अन्दरूनी विकास भी नहीं होता क्योंकि आपको दुनियादारी कुछ पता नहीं होती।
आपको पता ही नहीं होता कि सड़क पर निकलना किसको कहते हैं, दफ़्तर की चुनौती और प्रतिस्पर्धा से निपटना किसको कहते हैं, बाज़ार में जाकर के, श्रम करके और चुनौतियाँ झेलकर के अपने माल को बेचना या अपने ब्रैंड को स्थापित करना जूझकर के, ये सब क्या होता है, महिलाओं को ये सब पता ही नहीं चलता। वो एक अपने छोटे से घोंसले में क़ैद रह जाती हैं और इसी वजह से दुर्बल रह जाती हैं।
प्र: जी। पर कई सारी महिलाओं का ये आग्रह रहता है कि वो घर का काम कर रही हैं, जो कि वो असल में करती हैं सुबह से शाम तक।
आचार्य: बिलकुल करती हैं और इस बात का उनको क्रेडिट (श्रेय) मिलना चाहिए कि सुबह से शाम तक घर में काम करती हैं; सात-सात, आठ-आठ घंटे काम करती हैं।
देखिए, इस पूरी बातचीत में, मैं कहीं भी ये नहीं बोल रहा हूँ कि महिलाएँ काम नहीं कर रही हैं। हम बस ये कह रहे हैं कि वो जो काम कर रही हैं वो उससे कहीं बेहतर काम कर सकती हैं। और वो जो काम कर रही हैं उससे उनको उस तरह की आर्थिक और आन्तरिक तरक़्क़ी नहीं मिलेगी जिसकी वो हक़दार हैं। काम तो वो बेचारी कर ही रही हैं, लगी ही तो रहती हैं।
किसी घर में जाओ, जो बिलकुल उच्च वर्ग की महिलाएँ हैं उनको छोड़ दो, जिनको कोई काम नहीं है, नौकर वगैरह लगे हैं, वरना आप एक साधारण मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग के घर में जाएँगे तो वहाँ महिला दिन-रात काम तो कर ही रही है बेचारी।
प्र: जी। ईवन जो आँकड़े हैं वो भी ये बताते हैं कि ऑन एन एवरेज , जो एक औसतन महिला है वो घर में करीबन सात घंटे से ज़्यादा सिर्फ़ काम कर रही है।
आचार्य: बिलकुल। वो काम कर रही है, लेकिन वो ऐसे काम में फँसी हुई है जिससे उसे कुछ मिलना नहीं है। वो ऐसे काम में फँस गयी है जिसमें बस उसको एक सांस्कृतिक तरीक़े से धकेल दिया गया है ये कहकर, कि यही तुम्हारी जगह है और यही जो काम है वो दुनिया में बड़े महत्व का होता है। ये एक कल्चरल (सांस्कृतिक) चीज़ है। तो उसको बता दिया गया है कि यही करो और इसमें बहुत, बहुत महत्व है।
अब महत्व तो पता ही है कि कितना है, कि क्या है। आपको मौक़ा मिले तो आप अपने घर का काम ख़ुद करना चाहोगे या आप किसी और को दे देना चाहते हो?
प्र: आउटसोर्स (बाहरी स्रोत से काम कराना) करना चाहूँगी।
आचार्य: आउटसोर्स करना चाहते हो। अभी भी घर में सफ़ाई के लिए कोई आता होगा?
प्र: जी।
आचार्य: खाना बनाने के लिए कोई लगा रखा है?
प्र: जी।
प्र: खाना बनाने के लिए आपने लगा रखा है। घर का काम अगर इतना ही महान होता और इतना ही आनन्ददायक होता तो घर का काम करने के लिए, सफ़ाई के लिए, बर्तन के लिए, खाने के लिए आपने दूसरे लोगों को क्यों लगा रखा होता?
प्र: जी।
आचार्य: तो महिलाओं ने अपनेआप को ऐसे कामों में फँसा लिया है जो काम मौक़ा मिलते ही कोई आउटसोर्स कर देना चाहता है, किसी और को दे देना चाहता है। और महिलाएँ सोचती हैं कि ये बड़े ऊँचे काम हैं, हमें दिन-रात यही करने हैं तो ये बड़ी दुखद स्थिति है। और ये दुखद और इसलिए हो जाती है क्योंकि बहुत सारी महिलाएँ स्वयं ही इसी स्थिति को पकड़े बैठी हैं। और वो दूसरी महिलाओं को भी घर में ही बाँधकर रखना चाहती हैं।
तो उनकी अपनी बेटी भी बाहर निकलना चाहे तो उसको पकड़ लेंगी, उनकी बहू निकलना चाहे, उसको पकड़ लेंगी। घर-मोहल्ले में, परिवार में कोई और निकलना चाहे तो उसको पकड़ेंगी या ताना मारेंगी, विरोध करेंगी कुछ। तो ये बड़ी गड़बड़ की स्थिति है।
प्र: जी। इसी में, एक तो बात ये है कि काफ़ी ज़्यादा महिलाओं को ऐसा नहीं कि घर के काम को करने में आनन्द आ रहा है — क्योंकि रिपिटेटिव काम करने में किसको ही आनन्द आएगा — लेकिन जो आपने बात महत्व की बोली, उसका एक और पहलू भी रहता है कि अगर ये काम वो नहीं करेंगी तो फिर कौन करेगा?
आचार्य: नहीं, तो उस काम को पहली बात तो सीमित करो, संकुचित करो। घर की व्यवस्था को इतना फैला क्यों रखा है कि रोज़ सात-आठ घंटे उसमें काम करना पड़े। क्यों इतना फैला रखा है? इतनी बड़ी चीज़ नहीं है, वो जो घोंसला है कि उसको तुम इतना फैला दो कि रोज़ आठ घंटे उसमें आपके लग रहे हैं। इतना क्यों फैलाया है?
आप भी रहती हैं, आपको अपने घर के काम में कितना समय लगता है? ख़ुद भी कुल करना पड़े तो कितना लग जाएगा? घंटा, दो-घंटा दिन का। तो ये सात-आठ घंटे का आपने कार्यक्रम, आपने ऐसी व्यवस्था क्यों बना रखी है अपने लिए कि रोज़ उसमें इतना टाइम (समय) आपको देना ही पड़ेगा?
दूसरी बात, ये सवाल कि अगर हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा?
ये सवाल वैसा ही है कि मान लीजिए, आप क्लर्क के पद पर काम कर रही हैं कहीं, और आपका चयन हो जाता है आइएएस में। और आप कहें, ‘नहीं, मैं क्लर्क के पद को नहीं छोडूँगी, क्योंकि अगर मैंने छोड़ दिया तो क्लर्क का काम कौन करेगा?’ आप कहें कि क्लर्क का काम भी किसी को तो करना है न तो मैं कैसे रिज़ाइन (त्यागपत्र देना) कर सकती हूँ क्लर्क के काम से?
अरे भाई! वो काम करने के लिए कोई और आ जाएगा न, बहुत हैं। आप तो अपनेआप को देखिए, आपको ऊँचा उठना है। और हर व्यक्ति की अपने प्रति यही ज़िम्मेदारी है कि वो ऊँचा उठे, ऊँचा उठे, ऊँचा उठे।
तो ये कोई तर्क नहीं है कि अगर ये काम मैं नहीं करूँगी तो कौन करेगा। ये काम आप नहीं करेंगी तो करने वाले बहुत लोग हैं। और वो भारत में बहुत साधारण पैसों पर वो काम कर देते हैं। भारत तो एक लेबर रिच (श्रम धनी) देश है, जहाँ पर अभी भी श्रम बहुत सस्ते में उपलब्ध हो जाता है। तो वो काम तो कोई भी कर देगा। हर आम घर में सफ़ाई के लिए और इन दूसरी चीज़ों के लिए जो डोमेस्टिक (घरेलू) काम होते हैं उनके लिए तो बाहर के लोग लगे ही होते हैं। आप उसमें क्यों खट रहे हैं।
हाँ! लेकिन ये नहीं होना चाहिए कि आपने घर के सारे काम भी छोड़ दिये और बाहर का भी कुछ नहीं किया, और ये करके बस बिस्तर तोड़ दिये, ये होने लगा है। लोग मेरे पास लिखकर के भेजते हैं कि आचार्य जी, आपकी बातें सुनने के बाद हमारे घर की महिला हैं वो घर के काम तो छोड़ चुकी हैं, बाहर का काम उन्हें कोई मिला नहीं तो कुल मिलाकर के वो बिस्तर तोड़ा करती हैं। तो मैं वो चीज़ करने को नहीं बोल रहा हूँ।
मैं कह रहा हूँ कि आप एक स्तर के काम से ऊपर के स्तर के काम पर जाइए, क्योंकि आपके काम का स्तर ही आपके जीवन का स्तर है, आपके काम का स्तर ही आपकी चेतना का स्तर है। आप किस स्तर के इंसान हो — अच्छे से सुनिएगा — आप किस स्तर के इंसान हो, यही इस बात से निर्धारित हो जाता है कि आप किस स्तर का काम कर रहे हो। जो जिस स्तर का काम कर रहा है वो इंसान उसी स्तर का है।
तो अगर आप दिन भर घर में घुसकर के वही-वही-वही काम कर रही हैं तो फिर आपका स्तर भी वही रह जाएगा। अच्छा, एक बात बताओ। आप रोटी बनाना तो जानते ही होगे?
प्र: जी।
आचार्य: कितने साल पहले सीखा था रोटी बनाना?
प्र: कोई सात-आठ साल से।
आचार्य: मान लो दस साल मोटा-मोटा कह दें?
प्र: वो मजबूरी थी, तो।
आचार्य: हाँ, ठीक है। जिस भी वजह से।
प्र: जी।
आचार्य: तो दस साल पहले रोटी बनाना सीखा। दस साल पहले जैसे रोटी बनाते थे और आज जैसी रोटी बनाते हो उसमें कोई इवोल्यूशन (विकास) हुआ है क्या?
प्र: नहीं।
आचार्य: हा! ये तो दस ही साल हैं। अब उस गृहिणी की सोचो जो चालीस-पचास साल से रोटी बना रही है। और बिलकुल वैसे ही रोटी बनाती है जैसे वो चालीस साल पहले बनाती थी। तो इंसान का तो मतलब है वो जो बढ़े, जो तरक़्क़ी करे। जो तरक़्क़ी न करे और हर काम वैसा ही करता रहे जैसे वो पहले करता था, वो तो इंसान भी नहीं रह जाता न बेचारा।
मैं उदाहरण देता हूँ — गौरैया होती है, गौरैया। गौरैया अपना घोंसला बनाती है। आपने देखा होगा। बोधस्थल में भी गौरैया के घोंसले हैं। आज से एक हज़ार साल पहले भी जो गौरैया थीं वो घोंसला कैसा बनाती थीं? कैसा बनाती थीं? ठीक, वैसा ही जैसा आज बना रही हैं। लेकिन इंसान जैसा घर बनाता था एक हज़ार साल पहले, आज उससे कितना अलग घर बना रहा है!
तो गौरैया वो जिसका काम वही रह गया जो हज़ार साल पहले था, इसलिए वो इंसान नहीं है बेचारी। इंसान वो जो हज़ार साल पहले जैसा घर बनाता था आज उससे बहुत अलग, बहुत बेहतर घर बना रहा है। तो अगर आप चालीस साल पहले जैसी रोटी बनाती थीं, आज भी वही रोटी बना रहे हो तो आप बताओ कि आप बेहतर इंसान कैसे बन पाओगे?
लेकिन ये काम घर में ही फँसता है। आप जैसे कपड़े धोते थे चालीस साल पहले, आज भी वैसे ही धो रहे हो। झाडू-पोंछे की बात हो गयी या और भी आप जिसे बोलते हो घरेलू काम।
प्र: बच्चे की परवरिश, पति के प्रति अपना कर्तव्य।
आचार्य: बच्चे की परवरिश। ये सारी वही तो चीज़ें हैं जो आप चालीस साल पहले कर रहे थे। आप आज भी उसी तरह कर रहे हो तो इसमें आपकी कोई ग्रोथ (उन्नति) कहाँ हुई है? आप तो गौरैया बनकर रह गयें। जैसा घोंसला तब बनाती थीं वैसा घोंसला आज बना रहे हो। गौरैया बेचारी! क़ैद।
इंसान वो है जो हर साल पिछले साल से कुछ नया, कुछ बेहतर, कुछ ऊँचा करे, यही मानव जन्म का उद्देश्य है। निरन्तर प्रगति — इसी को मुक्ति की यात्रा बोलते हैं। आप आज जैसे हो, आपको कल वैसा नहीं रहना चाहिए। और मानव माने महिला भी होता है न, या मानव माने बस पुरुष ही होता है?
तो जैसे पुरुष के लिए ज़रूरी है कि वो हर साल पिछले साल से एक बेहतर व्यक्ति होता जाए वैसे ही महिला के लिए ज़रूरी है कि वो हर साल पिछले साल से बेहतर व्यक्ति होती जाए। और हमने कहा कि आप किस स्तर के इंसान हो ये निर्धारित ही किस बात से होता है? कि किस स्तर का काम कर रहे हो। तो आपका काम अगर प्रगति नहीं कर रहा है तो आप कैसे प्रगति कर रहे हो फिर ये बताओ न? वही चूल्हा, वही चौका, वही रोटी, ठीक उसी स्वाद की लौकी की सब्ज़ी। आप वही सब काम करे जा रहे हो। ये क्या है?
हाँ, इतना हो सकता है कि पहले आप हाथ से धोते थे, फिर वाशिंग मशीन आयी, फिर ऑटोमेटिक वाशिंग मशीन आ गयी। लेकिन वही कर रहे हो न, ढाक के तीन पात। तो फिर आपकी प्रगति नहीं हो पाती, आप फँसकर रह जाते हो।
प्र: इसी में मुझे तीन कैटेगरीज़ दिख रही हैं वीमेन की, जिनको अगर मैं ब्रॉडली डिवाइड करूँ तो पहली कैटेगरी उन महिलाओं की है जिन्हें पता ही नहीं है।
जिनकी एक बच्ची है छोटी, बचपन से उसके अन्दर वो वैल्यू सिस्टम फीड कर दिया गया है कि तुम्हें बड़ा होना है, अच्छी स्किल होनी चाहिए, फेयर कलर के आप होने चाहिए। और बड़े होकर के थोड़ी बहुत आपकी एज्युकेशन करा दी जाएगी, इतनी कि आप शादी के लिए एक्सेप्टेबल हो जाएँ। और उसके बाद फिर आपकी शादी करा दी जाती है। और वहाँ पर अब आपको अपना जीवन पूरा व्यतीत करना होता है अपना घर छोड़कर के।
ये जो महिला है जो बचपन से इस वैल्यू सिस्टम के साथ बड़ी हो रही है, जिसके सामने जॉब भी सिर्फ़ माध्यम होता है शादी तक पहुँचने के लिए। और वहाँ पर जाकर के वो थम जाता है, रुक जाता है।
गवर्नमेंट की एक स्कीम चलती है — ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’। पर मुझे कभी-कभी उसके आगे मिसिंग एक प्वॉइंट लगता है कि ‘बेटी को जॉब भी करवाओ’।
आचार्य: ठीक है।
प्र: तो ये पहली कैटेगरी हो गयी जहाँ पर पता ही नहीं, इग्नोरेंस (अज्ञान) जिसको आप कह सकते हैं।
दूसरी कैटेगरी उन महिलाओं की हो गयी जिन्हें धीरे-धीरे, जो शायद काफ़ी सारी आपके वीडियो सुनती भी हैं। अब उन्हें धीरे-धीरे पता चलता है, रियलाइज़ होता है कि कुछ गड़बड़ी हो रही है, कुछ गड़बड़ ट्रैक चल रहा है, इसको अब बदलना है। लेकिन उनके आसपास उनका माहौल इस तरीक़े का होता है, या वो ऐसी सराउंडिंग (परिवेश) से आ रही हैं जहाँ पर हज़ार तरीक़े की कठिनाइयाँ होती हैं और वो आगे नहीं उसमें स्टेप-अप (ऊँचा उठना) कर पाती हैं। वो करेज (साहस) ही नहीं आता भीतर से, क्योंकि ऐसा लगता है कि ख़ुद को जड़ से उखाड़ रहे हो, बने-बनाए ढर्रे को तोड़ रहे हो।
फिर तीसरी कैटेगरी उन महिलाओं की आती है जहाँ पर उनको पता है गड़बड़ है, पर अपना भी सेल्फ़ इंटरेस्ट है, अपना भी स्वार्थ है। एंड देन यू रीप द बेनिफिट्स ऑफ पैट्रिआर्की (और तब आप पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मिले लाभ उठाते हो)।
आचार्य: जो ये नब्बे प्रतिशत महिलाएँ हैं जो कहीं काम-वाम नहीं करतीं, इनको आपने तीन श्रेणियों में बाँट दिया।
एक वो जो सो रही हैं। उन बेचारियों को पता ही नहीं है कि वो जैसी ज़िन्दगी बिता रही हैं उसमें कोई सार्थकता नहीं है। है न, कि हीरा जन्म अमोल था और कौड़ी बदले जाए। ये हीरा जन्म जो है उनका वो व्यर्थ जा रहा है। कौड़ी बदले माने ख़राब हो रहा है।
रात गँवाई सोय के, दिवस गँवाया खाय। हीरा जन्म अमोल था, कौड़ी बदले जाए।। ~ कबीर साहब
तो ये तो पहली कोटि की महिलाएँ हो गयीं जो सोयी पड़ी हैं, जिनको अभी उतनी चेतना या उतना ज्ञान ही नहीं है। दूसरी वो हो गयीं जो फँसी हुई हैं। तो पहली हुई सोयी हुई, दूसरी वो हैं जिनको दिख रहा है कि बाहर कुछ करना चाहती हैं, पर समाज की, घर की स्थितियाँ बहुत प्रतिकूल हैं। तो वो बाहर जाकर कुछ कर नहीं पाती हैं। या बाहर अवसर नहीं मिल रहे हैं।
और तीसरी वो हो गयीं जो मज़े मार रही हैं। ये बहुत एक छोटा प्रतिशत होगा, पर ऐसी महिलाएँ भी अब भारत में हैं, काफ़ी हैं कि जिनको अगर आप अवसर दे भी दो बाहर काम करने का तो भी नहीं करेंगी, क्योंकि उनको घर में पूरी सुख-सुविधा, ऐशो आराम है। तो अपना घर में मौज करेंगी।
तो इसमें सबसे जो दो बड़ी कोटियाँ हैं वो तो वही दो पहली वाली ही होंगी। पहली वो जो सोयी पड़ी हैं; मैं समझता हूँ, ये पचास प्रतिशत होंगी। दस प्रतिशत तो वो हैं जो बाहर काम कर ही रही हैं। फिर पचास प्रतिशत या साठ प्रतिशत वो होंगी जो सोयी हुई हैं। ठीक है? बीस-पच्चीस प्रतिशत होंगी जो फँसी हुई हैं। तो दस और साठ, सत्तर और पच्चीस, मान लो पचानवे ये हो गया। फिर पाँच भी नहीं, एक-दो प्रतिशत होंगी जो घर में मौज कर रही हैं। तो इस तरीक़े का होगा।
अब जब आप पहली श्रेणी में होते हो, कि आप सोये पड़े होते हो और आपको जगाया जाता है तो फिर आपकी चुनौतियाँ शुरू होती हैं। जब आप जग जाते हो तो फिर आप दूसरी श्रेणी के हो जाते हो जहाँ आपको पता चलता है कि अगर आप बाहर काम करना भी चाहो, तो कितना मुश्किल है।
मैंने एक बार कहा था न, कि बन्धन का पता ही तब चलता है जब मुक्ति का प्रयास करते हो। जैसे आप सो रहे हो और आपको बेड़ियाँ पहना दी जाएँ तो आपको बिलकुल ऐसा ही लगेगा कि आप आज़ाद हो। क्योंकि आप सो रहे हो, बेड़ियाँ पड़ी भी हुई हैं तो आपको कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता। आप इस गुमान में रहे आओगे कि आप आज़ाद हो। आप कितने मजबूर हो, आपको तब पता चलेगा जब आप आज़ादी की कोशिश करोगे, जब आप कहोगे, ‘मुझे चलना है, उड़ना है, मुझे बाहर जाना है, कुछ करना है।’ तो पता चलेगा, कर नहीं सकते, बेड़ियाँ हैं।
तो महिलाओं को भी अपनी दुर्दशा का कई बार तभी पता चलता है जब वो आज़ादी का प्रयास करती हैं। जो आज़ादी का प्रयास ही नहीं कर रही हैं उनको ये भ्रम बना रह जाता है कि हम तो ठीक हैं, हम आज़ाद हैं। बढ़िया चल रही है ज़िन्दगी।
दो तरह की चीज़ें चाहिए — एक बाहरी, भीतरी। बाहरी चीज़ ये चाहिए कि शिक्षा, कानून और सुरक्षा। शिक्षा नहीं होगी तो बाहर काम करेंगी क्या? कानून व्यवस्था का संरक्षण नहीं होगा, तो बाहर निकलेंगी तो परेशान करी जाएँगी, सतायी जाएँगी, शोषण होगा उनका और तीसरी चीज़ हमने कही थी ‘सुरक्षा’।
तीसरी चीज़ हम कह रहे हैं कि सुरक्षा। तो उसमें लॉ एंड ऑर्डर (कानून व्यवस्था) आ जाता है। जब जो दूसरी बात बोली थी उसमें और लॉ एंड ऑर्डर में ये अन्तर है कि दूसरी बात में हमने कहा था कि उनके हितों की रक्षा के लिए सही नीतियाँ होनी चाहिए।
प्र: पॉलिसीज़ (नीतियाँ)।
आचार्य: पॉलिसीज़ (नीतियाँ)। तो वो वर्कप्लेस (कार्यस्थल) पर जा रही हैं तो वहाँ पर विमेन फ्रेंडली पॉलिसीज़ (महिला हितैषी नीतियाँ) भी होनी चाहिए। और तीसरी चीज़ वही है कि अगर बाहर निकल रही है, तो कम-से-कम ये तो न हो कि सड़क पर निकलते ही वहाँ कोई छेड़ने लग जाएगा या कि घर से दफ़्तर जाना ही अपनेआप में एक शारीरिक जोखिम का काम बन जाता है बहुत महिलाओं के लिए। तो वो सब नहीं होना चाहिए।
तो बाहर उनको इस प्रकार का कुछ सहारा, सपोर्ट चाहिए होता है कि उनको पहले तो एक सही रूप से शिक्षित करो, उनके लिए सही नीतियाँ बनाओ और शहरों, गाँवों की कानून व्यवस्था ऐसी हो कि महिला के साथ कोई अभद्रता या शोषण न कर सके।
ये बात यहाँ तक बिलकुल ठीक है। लेकिन यहाँ पर आकर के बात रुक जाती है, क्योंकि अक्सर ये तीनों ही तत्व मौजूद होते हैं, या तीन नहीं मौजूद हैं तो इनमें से कोई दो तो कम-से-कम मौजूद हैं। लेकिन उसके बाद भी हम पाते हैं कि महिला बाहर नहीं निकल रही है।
तो आपने उसका शैक्षिक सशक्तिकरण कर दिया, आपने उसका नीतिगत सशक्तिकरण कर दिया, आपने उसका आर्थिक सशक्तिकरण भी कर दिया किसी तरीक़े से। ठीक है? पिताजी ने उसको बहुत सारा पैसा दे दिया, विरासत में दे दिया कि लो तुम्हारे बैंक अकाउंट में इतना डलवा दिया। वो जहाँ रहती है वहाँ कानून व्यवस्था भी मान लो ठीक है। तो ऐसा नहीं है कि बाहर निकलेगी तो परेशान होगी, सब कुछ ठीक है, लेकिन उसके बाद भी हम पाते हैं कि वो घर में ही बैठी हुई है। अब क्या करें?
तो जो एक बड़ा और मैं समझता हूँ सबसे बड़ा सशक्तिकरण चाहिए और सहारा चाहिए एक महिला को, वो है आन्तरिक सशक्तिकरण। जहाँ कोई हो उसको बताने वाला कि तुम महिला बाद में हो, मनुष्य पहले हो, और तुम्हारे भी जन्म और जीवन का उद्देश्य सीखना है, उड़ान है, मुक्ति है। तुम इसलिए नहीं पैदा हुई हो कि एक देह बनकर जीवन काट दो। और देह बनकर जीवन काटना बहुत आसान है। पत्नी बनकर जीवन काट दो। पत्नी और पति का रिश्ता आधारभूत रूप से तो देह का ही होता है। आधारभूत रूप से देह का रिश्ता न हो तो अदालत भी कह देती है कि भई, तुम दोनों तो अलग हो।
माँ बन जाओ, दो-तीन बच्चे हो जाएँगे, वो भी देह की बात है। तो एक महिला के लिए बहुत आसान होता है ये न पहचान पाना कि वो कौन है। उसके लिए बहुत आसान होता है ये मान लेना प्राकृतिक रूप से कि वो तो देह ही है। क्योंकि पूरा समाज ही उसको देह की तरह ही देखता है न, पूरी संस्कृति उसको देह की तरह देखती है।
पुराने समय से लेकर के आज तक तुम बिलकुल जो संस्कृति का एकदम पुराना तत्व है उसको पकड़ो, मनु स्मृति। तो वो कहती है कि महिला को पहले पिता पर आश्रित होना चाहिए, फिर पति पर आश्रित होना चाहिए, फिर पुत्र पर आश्रित होना चाहिए और स्वतन्त्र उसको कभी नहीं होना चाहिए। तो देह बना दिया न! क्योंकि चेतना का तो स्वभाव है स्वतन्त्रता। देह ही है जिसको जकड़कर रखा जा सकता है। तो देह बना दिया।
और उस समय से लेकर आज के समय में आ जाओ, तो फ़िल्मों में देख लो क्या हो रहा है — वहाँ भी महिला को देह ही बना देते हैं। विज्ञापनों में देख लो क्या हो रहा है, टीवी पर देखो, सोशल मीडिया पर देखो, वहाँ भी महिला देह ही है। तो एक लड़की के लिए बहुत आसान होता है अपनेआप को देह मान लेना क्योंकि अतीत से लेकर आज तक उसको देह ही माना जा रहा है।
जब मैं आन्तरिक सशक्तिकरण की बात कर रहा हूँ तो उसका अर्थ है लड़की को बताना कि तू चेतना है और तेरा पहला काम है सोचना, समझना। ये शरीर की लीपा-पोती बाद में कर लेना, पुरुषों के लिए आकर्षक बाद में बन लेना। शरीर स्वस्थ रहे इतना काफ़ी है। तुम ध्यान ज्ञान पर दो, तुम कौशल पर ध्यान दो। तुम दुनिया में देखो कि क्या चल रहा है और तमाम तरह के अनुभव लो।
घर की चारदीवारी से बाहर निकलो, जगत को जानो, समझो, स्वयं को देखो, अपनी वृत्तियों को पहचानो, जगत के तौर-तरीक़ों को जानो, ये बात उसको बतानी बहुत ज़रूरी है। इसी से उसका आन्तरिक सशक्तिकरण होगा। और अगर आन्तरिक सशक्तिकरण, इंटरनल एम्पावरमेंट जिसको आप स्पिरिचुअल एम्पावरमेंट (आध्यात्मिक सशक्तिकरण) भी बोल सकते हो, अगर वो नहीं हुआ है तो आप उसके पक्ष में कानून बना दो, चाहे आप उसको शिक्षित कर दो, चाहे आप उसको आरक्षण दे दो, रहेगी वो फिर भी परतन्त्र ही।
आप कर दो ये, जैसे आपने कहा न कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’। बिलकुल पढ़-लिख लेगी। और पढ़-लिखकर के वो क्या बन जाएगी? एक गृहिणी बन जाएगी, माँ बन जाएगी। यही बन गयी वो।
प्र: पढ़ी-लिखी गृहिणी।
आचार्य: एक पढ़ी-लिखी गृहिणी बन जाएगी वो। और उसका नाम बदल दिया जाएगा, उसको हाउसवाइफ़ (गृहिणी) की जगह बस होम-मेकर (घर बनाने वाली) बोल दिया जाएगा। जैसे इस बात से कोई फ़र्क पड़ता हो। हम बिलकुल भी ये नहीं कह रहे हैं कि गृहिणी के काम में कोई अर्थ नहीं होता है। लेकिन देखिए, जो बात सीधी है, सच्ची है वो स्वीकारनी तो पड़ेगी न।
आप एक मैनेजर हो, आप एक सीईओ हो, आप एक सांसद हो, आप एक एथलीट हो, आप एक आर्टिस्ट हो, आप एक राइटर हो, आप एक इंजीनियर हो, आप एक डॉक्टर हो, आप भारत की प्रधानमन्त्री हो, आप कुछ भी हो सकती हो। है न! उन सब कामों की तुलना चूल्हे-चौके से तो नहीं करी जा सकती है न।
और मुझे मालूम है कि अभी जब मैं ये बोल रहा हूँ, तो मेरी ये बात बहुत सारी गृहिणियों को आहत करेगी। और मुझे दुख भी होता है कि मैं जो बोलता हूँ उससे कई लोगों को चोट लगती है। लेकिन मेरी उम्मीद बस इतनी है कि ये मेरी बात सुनने के बाद वो कम-से-कम अपनी बेटियों को उड़ान देंगी, पिंजड़ा देने की जगह। क्योंकि अक्सर बेटियों को जो पिंजड़ा मिलता है न, बेटियों को, बहुओं को, वो उनकी माँओं और सासों से ही मिलता है। पुरुष वर्ग तो इसमें है ही गुनहगार, लेकिन महिलाएँ भी महिलाओं का शोषण करने में कोई पीछे थोड़े ही हैं।
तो आपको अगर मैं बोल रहा हूँ कि ये चूल्हे-चौके में कुछ बहुत सार नहीं है तो इसको ऐसे मत लीजिए जैसे मैं आपका अपमान कर रहा हूँ, ऐसे लीजिए जैसे कि मैं आपसे विनती कर रहा हूँ कि अपनी बेटी को एक बेहतर भविष्य दो भई। उसको वही मत दे दो जो तुमको मिला जीवन भर। या आपके घर में बहू आयी है तो उसको बेटी की तरह ही मानो और उसको भी थोड़ा विकास का, और तरक़्क़ी का, ज़िन्दगी में कुछ जानने का, सीखने का अनुभव का मौक़ा दो।
प्र: इसी बात में आचार्य जी, आपने बताया कि जो पैट्रिआर्की (पितृसत्ता) के बेनिफिट्स रीप (लाभ उठाने) करने वाली जो कैटेगरी है, एक प्रतिशत जिसको आप कह रहे थे।
आचार्य: एक-आध, दो-तीन प्रतिशत कुछ होगी।
प्र: पर क्या होता है कि अक्सर जो आपके रोल मॉडल्स होते हैं वो इसी कैटेगरी के होते हैं। वो प्रतिशत बड़ा छोटा है, पर वो बहुत प्रभावित करता है।
आचार्य: आप उनकी बात कर रही हैं कि जैसे जो घर पर बैठी हैं और जिनके पतिदेव किसी ऊँचे पद पर हैं।
प्र: जी।
आचार्य: और वो घर पर बैठकर भी एकदम सेठानी बनी हुई हैं। कि या पतिदेव कलेक्टर हैं तो वो घर पर बैठी हुई हैं मिसेज़ कलेक्टर बनकर। और उनके आसपास के, पड़ोस के, परिवार के सब लोग उनको देख रहे हैं और कह रहे हैं, ‘वाह! क्या क़िस्मत पायी है। वाह! क्या बात है। वाह! क्या बात है।‘
हाँ, ऐसी महिलाएँ हैं। बहुत कम उनकी संख्या है अभी, लेकिन ऐसी हैं ज़रूर।
प्र: संख्या कम है, लेकिन उनका इन्फ्लुएंस (प्रभाव) है बाक़ी महिलाओं के ऊपर।
आचार्य: हाँ, तो बहुत सारी लड़कियाँ जब उनको देखती हैं तो कहती हैं कि काश! मैं भी ऐसी क़िस्मत पाती। काश! मुझे भी एक बहुत अच्छा दूल्हा मिल जाए, बस।
प्र: असल में ये बात बोली जाती है बचपन से ही महिलाओं को कि जिसकी भी शादी हो जाती है और अगर वैसे मटेरियली (धन-सुविधाओं से युक्त) अच्छे परिवार में होती है, तो बात ये कही जाती है कि क़िस्मत बहुत अच्छी है।
आचार्य: हाँ, तो बहुत सारी लड़कियाँ सोचने लगती हैं कि मेरी क़िस्मत इसी में खुल जाएगी कि अच्छा डॉक्टर मिल जाए, आइएएस मिल जाए या कोई अमेरिका का वहाँ पर इंजीनियर बैठा है वो मिल जाए। हाँ, ऐसे सोचने लग जाती हैं। और ये कितनी मतलब छिछोरी बात है। ये क्या कर रही हो? कोई क्यों तुमको अपने घर में बैठाकर के ऐशो-आराम की ज़िन्दगी देगा? सोचो तो सही न। और जैसे ही सोचोगे तो बड़ा गन्दा निष्कर्ष सामने आएगा।
आपने ठीक से अपनी शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। आप ज़िन्दगी में ऊँचा नहीं उठना चाहती हैं। मेहनत करने का, चुनौतियाँ स्वयं झेलने का आपका कोई इरादा नहीं है। हो सकता है, आपको रूप-रंग थोड़ा ठीक मिल गया हो, तो उसके दम पर आप ये चाहती हैं कि आपकी किसी ऊँचे घर में या ऊँची तनख़्वाह वाले लड़के से शादी हो जाए। उसकी तनख़्वाह अच्छी हो या बिज़नेस अच्छा हो या अमेरिका में बैठा हो, कुछ ऐसा। तो आप ये तो सोचिए न कि वो अगर आपको ऐश कराएगा तो क्यों कराएगा।
और ये कितनी अपमान की बात है। किसी से इस आधार पर पैसे लेना और ऐश करना उसके घर में बैठकर के, ये कितनी गन्दी बात है। मैं लड़कियों से कह रहा हूँ जो इस प्रकार के अरमान रखकर बैठी हैं कि हमें भी जल्दी से कोई बढ़िया मोटा मुर्गा मिल जाए और उससे शादी हो जाए, मैं उनसे कह रहा हूँ कि अपनेआप को इतना मत गिराओ। इस प्रकार के अरमान रखना, ऐसे इरादे रखना बड़ी लानत की बात है। और ये खूब चलता है।
लड़कियों के माँ-बाप लगे रहते हैं कि भाई ऊँचे घर में रिश्ता चाहिए। जैसे ही यूपीएससी, सिविल सर्विसेज़ की वो…
प्र: लिस्ट आती है।
आचार्य: हाँ, सिलेक्शन लिस्ट जारी होती है, वो वहाँ से निकाल-निकालकर, कि ये सब लड़के हैं और इनके घरों पर पहुँचो। उनके एड्रेसेस निकलवा लेते हैं वहाँ जाकर। उनके घरों पर धावा बोलते हैं कि इससे शादी करनी है। ऊँचा दहेज, मोटा देने को तैयार रहते हैं बिलकुल।
और बस इसके लिए जो शब्द है, मैं उसको ज़बान पर नहीं लाना चाहता। पर आप समझ ही रहे होगे कि ये सब किस तरीक़े का काम है कि जहाँ पर आप किसी मोटी आसामी के घर में घुस जाना चाहती हो। और फिर जीवन भर आप कह रहे हो कि मुझे वहाँ पर ऐश करनी है। मत करो ऐसा, कृपया मत करो ऐसा।
आपकी बहुत बेहतर सम्भावना है। यू कैन डू फार बेटर दैन बिकम ए रिच मैन्स वाइफ़ (आप एक धनी व्यक्ति की पत्नी बनने से बहुत अच्छा कर सकती हैं)। आप अपने दम पर बहुत ऊँचा उठ सकती हैं। वही जो मेरा प्यारा प्रतीक है कि आप स्वयं अपने पंख पसारकर आसमान में उड़ सकती हैं। किसी सरकारी ऑफिसर की बीवी बनना या सॉफ्टवेयर मैनेजमेंट, यही सब खोजा जाता है, डॉक्टर। ये करके अपना अपमान मत करिए।
प्र: इसी में आचार्य जी, जैसे आपने अपने पंख पसारने की बात कही, क्या होता है, मैं कैटेगरी टू के बारे में बात कर रही हूँ, उन महिलाओं के बारे में जो निकलना चाहती हैं, पर जो चुनौतियों से फिर परेशान हो जाती हैं।
तो क्या होता है कि बचपन से परवरिश आपकी इस तरीक़े की होती है कि वो पर बचपन से ही कतरे जाते हैं, लगातार बार-बार, हर एक तरीक़े से। मैं जैसे थोड़े बहुत उदाहरण आपके साथ शेयर करूँगी।
एक लड़का और एक लड़की है तो उनको कई बार सेम एज्युकेशन नहीं दी जाती। लड़के को आप बाहर पढ़ाने के लिए भेज देंगे। लड़की को आप नहीं भेजते हैं बाहर पढ़ाने के लिए। वो पैसा बचाकर के रखते हैं उसके दहेज के लिए, बजाय कि उसकी एज्युकेशन के लिए।
या बहुत छोटी-छोटी सी चीज़ें होती हैं। आप रात को बाहर नहीं जा सकते। आप बाहर ज़्यादा अकेले नहीं जा सकते। आप किसी दूसरे शहर नहीं जा सकते, जाना है तो तब जाओ जब शादी हो जाए, तो उसके बाद आप ये सारी चीज़ें करो। आप खेलने जा रहे हो तो ये भी होता है कि आप ज़्यादा खेलकूद मत करो, ज़्यादा फ़िज़िकल एक्सरसाइज़ मत करो क्योंकि ये आपके शरीर को नुक़सान पहुँचा सकता है। और हाँ, मुझे नहीं समझ में आता उसमें क्या है एग्ज़ैक्टली।
आचार्य: वो वर्जिनिटी (कौमार्य) वाला खेल है कि ज़्यादा खेलो मत, नहीं तो वर्जिनिटी वाली समस्या आ जाएगी।
प्र: तो इस तरीक़े की बहुत छोटी-छोटी बन्दिशें बचपन से ही लगा दी जाती हैं। फिर वो महिला जब आगे जाकर के देखती है कि चीज़ें गड़बड़ चल रही हैं और अब मैं उनको बदलना चाहती हूँ, पर पहले से ही इतना बैकलॉग (बोझ) है आपका जिसको आप ढोकर के अपने साथ चल रहे हो, कि वो जो एक आन्तरिक सशक्तिकरण की हम बात कर रहे हैं वो बहुत ज़्यादा चैलेंजिंग हो जाता है।
आचार्य: देखो, ज़िन्दगी अपनी है। और कितनी भी समस्याएँ आयी हों और अतीत में कितना भी वो बैकलॉग या बोझ रहा हो, उसको हटाना तो पड़ेगा ही, कोई विकल्प नहीं है। हम उसकी बात करके कुछ नहीं पा सकते।
उसको तो ऐसे ही देखना पड़ेगा कि हाँ, ये है। ये है, लेकिन इसे होना नहीं चाहिए, क्योंकि अगर ये रहेगा तो मेरी ज़िन्दगी ख़राब करेगा। मेरी ब्रेन वाशिंग कर दी गयी, मेरी एक कल्चरल कंडीशनिंग (सांस्कृतिक रूप से संस्कारित) कर दी गयी बचपन से, लेकिन अब मैं बड़ी हो गयी हूँ, और मैं देख पा रही हूँ कि वो सब जो मुझे बता दिया गया और मुझे जो मूल्य थमा दिये गए वो बहुत काम के नहीं हैं।
तो अब मैं शिक्षित हूँ और मैं वयस्क हूँ और मैं मैच्योर हूँ तो मैं अपने लिए सोच सकती हूँ न। और अगर मैं अपने लिए सोच सकती हूँ तो मुझे अतीत का बन्धक बनकर रहने की, जीने की कोई विवशता नहीं है। ठीक है?
मैं कठोर नहीं होना चाहता, मैं बिलकुल समझ रहा हूँ, मुझे इसमें है सहानुभूति कि लड़कियों के लिए बड़ा मुश्किल होता है क्योंकि बचपन से ही उनको एक ज़बरदस्त सांस्कृतिक घुट्टी पिला दी गयी होती है।
प्र: और चैलेंज दोतरफ़ा है। भीतर भी है, और बाहर।
आचार्य: और समाज में भी है। हाँ, ठीक है। तो समाज भी ऐसा है जो उनके, उनकी ग्रोथ के अनुकूल नहीं है। और उनके भीतर भी ये बात डाल दी गयी है कि तुम्हारा जो नीड़ है, जो घोंसला है, जो नेस्ट है, वही तुम्हारी नियति है। तो ये दोतरफ़ा चैलेंज है, मैं मानता हूँ।
प्र: बिलकुल ऐसा सा है कि जैसे आपको ख़ुद को किसी एक मिट्टी से उखाड़ना हो।
आचार्य: कि आप बचपन से, आपको जो जो बात बतायी गयी आपको फिर उसको हटाना पड़ेगा। और एक नयी शुरुआत करनी पड़ेगी।
तो करो न! विकल्प क्या है? और नयी शुरुआत आपको करनी है तो उसमें बिलकुल हज़ार चुनौतियाँ हैं, पर कुछ सहारे भी उपलब्ध हैं। ऐसा नहीं है कि पूरा ज़माना आपका दुश्मन ही बनकर खड़ा है। ये हम बातचीत क्यों कर रहे हैं? ये यहाँ पर चार कैमरे काहे के लिए लगे हुए हैं? ये इसीलिए हो रही है न बातचीत कि इसको सुनकर के बहुतों को सहारा मिले, रोशनी मिले, प्रेरणा मिले, और वो कुछ कर पायें।
तो ठीक है, बहुत लोगों ने उनको उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ा दी होगी बचपन से। लेकिन अब आप जब बड़ी हो गयी हैं और आप समझ सकती हैं चीज़ों को, अपनी दृष्टि से साफ़ देख सकती हैं, तो आपको और तरह की बातें भी तो उपलब्ध हैं न सुनने और जानने के लिए। तो आप उनको सुनिए, जानिए और अपनी ज़िन्दगी का फ़ैसला लीजिए। अतीत की दुहाई देकर के कोई लाभ नहीं है। भले ही जो अतीत में हुआ हो, वो एक तथ्य हो। तो उसका क्या करें अब?
बार-बार, अगर मैं एक महिला हूँ, मैं बार-बार यही बोलती रहूँ कि मेरे साथ अतीत में ऐसा हुआ, बाप ने ठीक से पढ़ाया नहीं और पति ने भी कोई मुझे सहारा नहीं दिया। पति ने भी यही कह दिया कि आ गयी हो, अब चलो घर का काम करो। न बाप ने पढ़ाया, न पति ने कोई प्रेरणा, न कोई एनकरेजमेंट (प्रोत्साहन) दिया, तो इसलिए मैं ऐसी बनी बैठी हूँ। मुझे कुछ आता-जाता नहीं, मैं घर में रहती हूँ, पराठा और कद्दू की सब्ज़ी बना देती हूँ और कपड़े धो देती हूँ। और यही मेरा काम है। टीवी देख लेती हूँ।
तो आप ये तर्क देकर के नुक़सान किसका कर रही हैं? ये तर्क देकर आप अपना ही तो नुक़सान कर रही हैं न?
ज़िन्दगी आपकी है तो उसको ठीक करने की ज़िम्मेदारी भी आपकी है न। और पचास ज़िन्दगियाँ होती हैं नहीं, आपका तो यही एक जन्म है और वो तेज़ी से बीता जा रहा है। कुछ पता नहीं है कि मौत कब आ जाए। तो मौत से पहले ज़िन्दगी को सार्थक करने की, जीवन को थोड़ा सँवारने की, स्वयं को थोड़ा ऊँचाई देने की ज़िम्मेदारी हमारी अपनी ही होती है।
दुनिया ने हमारे साथ क्या कर दिया अतीत में? करा होगा भई, क्या करें? अब अतीत को तो नहीं बदल सकते न। जो करा होगा, करा होगा। अब आज तो एक नयी शुरुआत करें। और नयी शुरुआत करोगे तो उसमें चुनौती तो आएगी ही, दर्द होगा, पचास तरह के बन्धन पता चलेंगे, कठिनाई आएगी।
प्र: ताने सुनने पड़ेंगे।
आचार्य: ताने सुनने पड़ेंगे। और अपनी कुछ सुविधाएँ छोड़नी पड़ेंगी। इसी सब में तो मज़ा है। चुनौतियों से जूझने में ही तो जीवन में मज़ा है न। और यही सब करके तो फिर अपनी आन्तरिक माँसपेशियाँ विकसित होती हैं। चुनौती नहीं उठाओगे तो मज़बूत कैसे बनोगे? और आपके भीतर कितना दम है, ये आपको पता कैसे चलेगा जब तक आप बाहर किसी कठिनाई का सामना नहीं करोगे?
कठिनाई का सामना करने से ही अपने भीतर का जो दम है, बल है वो बाहर आता है। नहीं तो आप यही सोचते रह जाओगे कि मैं तो कमज़ोर हूँ, मैं तो कमज़ोर हूँ। “अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।” तो भारतीय अबला की तो यही कहानी रही है। अबला, अबला, अब वो अपनेआप को ही फिर अबला मान लेगी। तो अबला, अबला ही है फिर।
तुममें कितना बल है — अबला नहीं हो तुम — तुममें कितना बल है उसको जाग्रत करना है तो चुनौतियों से जूझना पड़ेगा। और वो एक-दो दिन की बात नहीं होती है। क्योंकि मैं ऐसी महिलाओं को जानता हूँ जो मुझे सुनती हैं या मुझे पढ़ती हैं और पढ़ने के बाद उनमें जोश जाग्रत हो जाता है। और वो फिर जल्दी से कहती हैं कि हम बाहर निकलकर के कुछ करें। और वो बाहर निकलो तो पहले-पहल तो उसमें चोट ही मिलती है और असफलता ही मिलती है। तो जब असफलता मिलती है तो कहती हैं, ‘हमारे बस का नहीं है।’ और घर में बैठ जाती हैं।
तो चुनौतियों से जूझने में सिर्फ़ जोश नहीं, धीरज भी चाहिए। एन्थुज़ियाज़्म (उत्साह) के साथ-साथ परसिवेरेन्स (दृढ़ता), पेशन्स (धैर्य) भी चाहिए। वो आप जब दिखाते हो, दो साल, पाँच साल आप लगे रहते हो, तब फिर कुछ आपको सफलता मिलती है।
प्र: आचार्य जी, अभी आपने उन महिलाओं की बात की जो आपको पढ़ती हैं। तो एक पुस्तक है जो महिलाएँ बहुत ज़्यादा पसन्द करती हैं, ‘स्त्री’। मैं सभी को ये भी बताना चाहूँगी कि ये स्त्रियों द्वारा आपकी सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली पुस्तक है। और अब तक करीबन दस हज़ार से ज़्यादा प्रतियाँ इसकी लोगों तक पहुँच चुकी हैं, सिर्फ़ महिलाओं तक नहीं, पुरुषों तक भी पहुँच चुकी हैं।
इसी पुस्तक में से एक अंश है, कुछ लाइनें हैं जो मैंने चिह्नित करी थीं, मैं एक बार वो पढ़ना चाहूँगी। काफ़ी महिलाओं का उससे एक सवाल है जो मैं फिर आपके सामने रखूँगी।
चौदहवाँ इसका पेज है और यहाँ पर आपने ये बात कही है — “कम कमाओ लेकिन इतना तो ज़रूर कमाओ कि रोटी अपनी खाओ। कोई हो घर में, तुम्हारा पिता हो, पति हो, वो हो सकता है एक लाख कमाता हो, पाँच लाख कमाता हो, उससे तुलना मत करो अपनी। अगर तुम बहुत नहीं कमा पा रहीं तो दस ही हज़ार कमाओ, पर इतना तो रहे कि मुँह में जो टुकड़ा जा रहा है वो अपना है।”
तो इसी से सम्बन्धित सवाल जो आता है वो ये है कि आमतौर पर हमेशा से आपको बताया गया बचपन से ही कि जब घर में होते हो तो पिता का पैसा आपका होता है। और जब शादी हो जाती है तो पति का पैसा आपका होता है। पर यहाँ पर आप बात कर रहे हैं कि महिलाओं को अपना ख़ुद कमाना चाहिए और अपनी रोटी तो कम-से-कम ख़ुद खानी चाहिए।
आचार्य: देखो, हम कितना अपनेआप को बहला सकते हैं और झूठ बोल सकते हैं ख़ुद से? एकदम बच्चों वाली बातें हैं न कि पति का पैसा मेरा पैसा है। कैसे, आपका पैसा कैसे हो जाएगा? आपका पति कौन है? देवदूत है? फ़रिश्ता है? निस्वार्थ निष्काम कर्मयोगी है? कौन है वो? एक इंसान है। और हर इंसान स्वार्थी होता है। आप ये अच्छे तरीक़े से जानती हैं।
आप अपने पति को भी जानती हैं कि वो अपनी दुकान में स्वार्थी है। अपने दफ़्तर में स्वार्थी है। दुकान में वो बिना मुनाफ़े के कुछ बेचता नहीं है। दफ़्तर में वो बिना घूस के या कम-से-कम बिना तनख़्वाह के तो कोई काम करेगा नहीं। अपने हर काम में वो स्वार्थी है। स्वार्थ थोड़ा कम-ज़्यादा हो सकता है, लेकिन स्वार्थ तो है ही है। तो कोई भी इंसान किसी दूसरे इंसान को मुफ़्त का पैसा क्यों दे देगा?
आप जब बोलती हैं, ‘पति का पैसा मेरा पैसा है’, तो थोड़ा तो विचार करिए, कैसे? क्यों? अंग्रेजी में एक कहावत है, ‘देयर आर नो फ्री लंचेज़‘ (मुफ़्त में कुछ नहीं मिलता)। तो सबसे अच्छा तब होता है जब बिलकुल मामला पारदर्शी हो, साफ़ हो। कि भाई! अगर मैं तुमसे पैसा ले रहा हूँ तो बदले में मैं तुमको ये (कप उठाकर) दे रहा हूँ।
ये न बड़ी ईमानदारी का, बड़ा साफ़, बड़ा ट्रान्सपैरेंट (पारदर्शी) लेन-देन होता है। लेकिन जहाँ पर मामला ऐसा है कि मैं तुमसे पैसा ले रहा हूँ, लेकिन दिखाई कुछ नहीं दे रहा कि क्या दे रहा हूँ। तो वहाँ समझ लो कि तुम अपनेआप को ही दे रहे हो। वहाँ समझ लो कि जो तुम दे रहे हो वो बड़ी लुकी-छुपी चीज़ है और बड़ी गन्दी चीज़ भी हो सकती है।
दुकान पर जो लेन-देन, जो व्यापार होता है वो फिर भी ईमानदारी का और सफ़ाई का होता है न। आपने हमें पैसा दिया, हमने आपको ये (कप उठाकर) दे दिया। आप ये घर ले जाइए। लेकिन अगर हम आपसे पैसा ले रहे हैं — मैं एक महिला हूँ, मैं आपसे पैसा ले रही हूँ और मैं कहूँ कि मुझे तो यूँही दे दिया है, तो यूँही कोई किसी को कुछ नहीं दे देता, आप फिर न जाने क्या दे रही हैं उसको। और ये भी हो सकता है कि आप जो उसको दिये दे रही हों उसकी क़ीमत उन चन्द रुपयों से बहुत ज़्यादा हो जो आप उससे ले रही हैं।
तो मेरी सब महिलाओं से विनती है कि कृपा करके इस मुग़ालते, इस ग़लतफ़हमी से तो बाहर आयें कि किसी और का पैसा आपका पैसा हो सकता है। यहाँ कोई देवदूत नहीं घूम रहा है। यहाँ हर आदमी स्वार्थ का पुतला है। और कोई किसी को एक रुपया भी बिना मतलब के, बिना स्वार्थ के नहीं दे देता। तो अगर आपको कुछ मिल रहा है तो आप ये भी देखिए कि आप दे क्या रही हैं बदले में। बहुत ज़्यादा दे रही होंगी।
देखो, जब ये दिया जाता है न (चाय का कप उठाते हुए) तो गिनती कर ली जाती है, कि ये मान लो सौ रुपये का है तो सौ रुपया, सौ रुपये में एक ही दिया जाएगा। ये सौ रुपये का है। लेकिन जब कोई छुपी चीज़ दी जाती है, तो उस चीज़ की तो गिनती भी नहीं हो पाती। वहाँ तो पता भी नहीं चलता कि आपने जो दे दिया वो कितना ज़्यादा था। कहीं आपने अपना पूरा जीवन ही तो नहीं दे दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपसे आपकी देह ख़रीदी जा रही है कुछ पैसों की एवज में? सुनने में बुरा लगता है। पर अब सच्चाई अगर बयान करनी है तो बोलना पड़ेगा।
प्र: बहुत महिलाओं को बहुत बुरा लगेगा।
आचार्य: बहुत बुरा लगेगा, पर मैं क्या करूँ? और मैं अभी से उनसे क्षमा माँग लेता हूँ, आपको बुरा लग रहा है सुनने में तो। लेकिन मेरा धर्म है आपको सच बताना, तो वो तो मैं बताऊँगा न। आपसे आपके पति को जिस-जिस प्रकार के सुख मिल रहे होते हैं, सुविधाएँ मिल रही होती हैं, उनमें आप थोड़ी कटौती करके देखिए कि आपको पैसा मिलना निरन्तर जारी रहेगा क्या?
पुरुष होने के नाते मैं पुरुषों की मानसिकता को थोड़ा समझता हूँ। पुरुष भी अच्छे से जानते हैं, घर में चाहे वो प्रियतमा हो, पत्नी हो, कोई हो, अगर उससे किसी प्रकार का सुख चाहिए तो उसके लिए कोई गहना लेकर चले जाओ या कपड़ा लेकर चले जाओ। ख़ासतौर पर देह-सुख अगर चाहिए हो तो। ये किस प्रकार की ख़रीद-फ़रोख़्त है? ये क्या कारोबार है? और ऊपर से आप अपनेआप को ये दिलासा दे रहे हो कि पति का पैसा तो मेरा पैसा है। ऐसा कैसे हो जाएगा?
प्रेम बहुत अलग चीज़ होती है। प्रेम में दूसरे को पैसा नहीं दिया जाता, प्रेम में दूसरे को पंख दिये जाते हैं। हाँ, पंख देने के उद्देश्य से अगर पैसे की ज़रूरत हो तो हम दे देंगे। उदाहरण के लिए कि अपनी पत्नी को पढ़ाने-लिखाने के लिए ज़रूरी है कि उसकी फ़ीस भरी जाए।
किसी वजह से आपकी शादी हो गयी है। पत्नी बारहवीं पास ही है। आप पति हैं, आप देखते हैं कि ज़रूरी है कि ये पढ़े-लिखे, आगे बढ़े। तो आप पैसे खर्च करते हैं उसके ऊपर। उसकी आप स्कूल की, कॉलेज की फ़ीस देते हैं, आगे का जो भी कोर्स वगैरह करायें। वो अलग बात है कि आपने उस पर वो पैसा लगाया है। वो बिलकुल दूसरी बात है। वो पैसा आपने उस पर लगाया है उसको मुक्ति देने के उद्देश्य से, उसको तरक़्क़ी देने के उद्देश्य से।
प्र: एक तरीक़े से आगे चलकर उसे पैसा किसी और से लेने की ज़रूरत ही न पड़े।
आचार्य: आगे उसे पैसा लेने की अब ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। आपने उसे इस तरह से पैसा दिया है कि अब आगे उसे ज़रूरत नहीं पड़ेगी किसी से पैसा लेने की। लेकिन जब आप घर में पत्नी का खर्च बाँध देते हैं। और कहते हैं कि इतना पैसा मैं तुझे हर महीने देता हूँ या कि मेरा तो जितना पैसा है मेरे बैंक में, उसको तू अपना ही मान। तो ये बड़ी गड़बड़ बात है, बहुत गड़बड़ बात है। इसके पीछे न जाने क्या चल रहा है और इससे बहुत सावधान रहने की ज़रूरत है।
यहाँ पर मैं बिलकुल नहीं बोल रहा हूँ कि दूसरे पर पैसा मत खर्च करो। मैं यहाँ कह रहा हूँ कि स्वार्थ से सावधान! प्रेम में भी दूसरे पर खर्चा करा जाता है, पर प्रेम में दूसरे पर खर्चा ऐसा करा जाता है कि आगे कभी उसे किसी के सामने हाथ फैलाने की ज़रूरत न रहे। पर आप घर में अपनी पत्नी को लेकर आते हैं और आप, पच्चीस की थी वो जब लेकर आये थे और अब वो पचपन की हो रही है और अभी भी आपको ज़रूरत पड़ती है उसको पैसा देने की, तो ये आपने क्या कर डाला?
प्र: तो यहाँ ज़िम्मेदारी सबसे पहले तो महिलाओं की ही है, क्योंकि बात उनकी है।
आचार्य: आत्म-सम्मान की बात है, ये अपनी गरिमा की बात है, ये अपनी डिग्निटी (गरिमा) की बात है न! कि मैं ऐसे कैसे पैसे लिये चली जाऊँगी भई? तुम्हारी मेरी उम्र लगभग एक बराबर है, पति-पत्नी की उम्र एक जैसी ही होती है। शिक्षित भी हूँ मैं, आजकल महिलाएँ ज़्यादा शिक्षित भी हैं। और फिर भी मैं तुमसे पैसा लेती रहूँगी, ये तो भिखारी वाली हालत हो गयी।
और फिर कहें, ‘नहीं, मैं घर का काम करती हूँ।’ तो आप भी जानती हैं कि उस घर के काम का मूल्य क्या है। और आप पैसा कितना ले रही हैं और घर के काम का मूल्य क्या है। तो आप भी जानती हैं कि वो जो पैसा मिल रहा है वो घर के काम का तो नहीं मिल रहा है। मत करिए ये सब।
प्र: तो एक तरफ़ तो जो ज़िम्मेदारी है वो महिलाओं की ही है, क्योंकि वो उनकी अपनी ही बात है, अपना ही जीवन है। और दूसरी तरफ़ यदि आप किसी से प्रेम करते हैं — और पुरुषों की भी बात कर रही हूँ — और अगर आप किसी को सहयोग कर सकते हैं तो आपको वो आर्थिक रूप से…
आचार्य: बिलकुल करना चाहिए। मैं कह रहा हूँ, ‘प्रेम में तो तुम सारा पैसा लुटा दो, सर्वस्व लुटा दो।’ वो बिलकुल लेकिन एक दूसरे तल की बात होती है न। लोगों को लगता है, मैं ये सब बातें कर रहा हूँ, कहते हैं, ‘अरे! इससे परिवार टूट जाएगा।’ मैं परिवार को तोड़ने की नहीं प्रेम को बढ़ाने की बात कर रहा हूँ।
और कैसा परिवार है आपका जो सच्चाई की दस्तक पर ही टूट जाता है? क्या आपने परिवार बना रखा है, घर खड़ा कर रखा है, और सच्चाई आकर के ऐसे करती है — ‘ठक-ठक-ठक, खोलो ज़रा’। और आपका पूरा घर काँपने लगता है, गिर जाता है। ये कैसा आपका परिवार है?
मैं कह रहा हूँ, ‘परिवार हो और उसकी बुनियाद प्रेम हो।’ प्रेम आवश्यक है, सत्य आवश्यक है न, उस पर परिवार खड़ा हो। तो मैं परिवार थोड़े ही ख़राब कर रहा हूँ, मैं प्रेम लाना चाह रहा हूँ। वो बहुत एक ज़रूरी चीज़ है।
प्र: फिर एक जो सशक्त माँ होगी, भीतरी तौर पर भी और बाहरी तौर पर भी, उसका जो रिश्ता अपने पति के साथ होगा या अपने बच्चे के साथ होगा वो बिलकुल अलग होगा, उस महिला की तुलना में जो आश्रित रही है।
आचार्य: जो आश्रित रही है, बिलकुल। देखो, आप एक पूर्ण इंसान ही नहीं बन पाये तो आप एक अच्छी माँ क्या बनोगे? आप कभी एक स्वतन्त्र, अनाश्रित, मुक्त इंसान ही नहीं बन पायीं, तो आप एक अच्छी माँ कैसे बन पाएँगी?
आपका अपना ही एक इंसान के रूप में कभी जन्म नहीं हुआ पूरा, तो आप अपने बच्चे को भी पूरा जन्म क्या देंगी? आप बच्चे के नाम पर भी बस एक देह को जन्म दे देंगी। उसको आप एक अच्छा इंसान थोड़े ही बना पाएँगी। बच्चे को आप एक मुक्त, स्वतन्त्र और पूरे तरीक़े से पुष्पित, पल्लवित, विकसित व्यक्तित्व बना पाओ, इसके लिए पहले आपको तो एक स्वतन्त्र और विकसित व्यक्तित्व होना पड़ेगा न! और वो विकसित व्यक्तित्व आश्रित रहकर नहीं बन सकता।
प्र: इसी में आचार्य जी, थोड़ा सा इससे अलग सवाल है, कि जो महिलाएँ काम करती हैं और उसमें भी जो आँकड़े हैं कि मैनेजीरियल पोज़ीशन (प्रबन्धकीय पद) पर जितनी महिलाएँ काम करती हैं वो एक बार और दोबारा रीचेक हो जाएगा, पर करीबन बीस प्रतिशत के आसपास हैं जो उतनी ही महिलाएँ हैं। कि सौ में से अस्सी मैनेजर पुरुष होते हैं। और बाक़ी जो बीस प्रतिशत हैं वो मात्र महिलाएँ होती हैं।
आचार्य: इतनी भी हैं। मुझे इस पर भी ताज्जुब है, शायद इससे कम ही होंगी।
प्र: जी। क्योंकि एक ब्रैकेट बना दिया है कि विशेषकर इस उम्र की, इक्कीस से पच्चीस साल की लड़की अच्छी होती है शादी के लिए, तो एक दबाव होता है कि जैसे ही आप कॉलेज अपना पूरा करते हो, शिक्षा पूरी करते हैं, हो सकता है आपने एक-आध साल जॉब करी और उसके बाद तुरन्त आपकी शादी करा दी जाती है या आप ख़ुद ही कर लेते हैं।
तो उसकी वजह से करियर में उतना अभी ग्रो आपने किया ही नहीं होता, तो आप थोड़ा सा सब-ऑप्टिमल जॉब पोज़ीशन पर काम कर रहे होते हो; इनीशियल जॉब पोजीशन पर बेसिकली आप काम कर रहे होते हो। और उसमें काफ़ी बड़ा रोल ये भी होता है कि आपकी शिक्षा ही बचपन से इतनी अच्छी नहीं होती है।
तो अभी जब से एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) आया है, तो एक नया आँकड़ा सामने आया है कि २०३० तक एआई की वजह से लोगों की जॉब्स चली जाएँगी, उसमें महिलाओं का अनुपात कहीं ज़्यादा है पुरुषों के मुक़ाबले।
आचार्य: देखो, अगर महिला बिना राइट वैल्यू सिस्टम के काम करने वर्कप्लेस पर पहुँच भी जाती है, तो वो वर्कप्लेस को अपने कभी वो महत्व नहीं दे पाती जो उसको देना चाहिए। वो काम को ऐसे लेती है कि ये तो एक दोयम दर्जे की, सेकेंडरी चीज़ है।
वो बिलकुल तैयार रहती है कि कोई कारण पैदा हो और मैं नौकरी छोड़ दूँ। एकदम वो तैयार बैठी है कि कोई कारण पैदा हो, नौकरी छोड़ दूँ। तो पहली बात तो उसको जो काम दिया जाता है फिर बहुत रिस्पोंसिबिलिटी का दिया ही नहीं जाता, क्योंकि पता होता है कि कोई वजह होगी और ये नौकरी छोड़ देगी। पति का ट्रांसफर हो गया, वो लड़की तुरन्त नौकरी छोड़ देगी।
प्र: मेटरनिटी लीव।
आचार्य: मेटरनिटी लीव लेगी। सास की तबीयत ख़राब हो गयी, उधर ये नौकरी छोड़ देगी। कुछ भी हो जाएगा, नौकरी छोड़ेगी तुरन्त।
प्र: या कई बार ये भी होता है कि ज़्यादा लम्बे घंटों के लिए आपको ऑफिस में रुकना पड़ता है।
आचार्य: हाँ, बिलकुल। अगर घर से ऑफिस की दूरी बहुत है, छोड़ देगी।
प्र: ट्रांसफर हो गया आपका।
आचार्य: कुछ पचास चीज़ें हैं। तो जो एम्प्लॉयर होता है उसको तो भई, अपना धन्धा चलाना है। उसको अपना व्यापार, बिज़नेस, ऑर्गनाइजेशन देखना है, तो वो कहता है कि मैं एक ऐसे एम्प्लॉई को रिस्पोंसिबिलिटी का जॉब कैसे दे सकता हूँ जो इतना अनरिलायबल (अविश्वसनीय) है।
जिस पर विश्वास नहीं कर सकते, जिसका कुछ भरोसा नहीं है कि कल टिकेगा नहीं टिकेगा। जो कि बस यूँही एक हॉबी की तरह आ जाता है बस यहाँ पर काम करने कि अभी करने को कुछ नहीं है, तो हम आ गये। उससे पूछो काम क्यों कर रहे हो? तो बोलेंगी कि वो कहते हैं कि जब तक बेबी नहीं आता, तब तक काम कर लो। ये क्या जवाब है, जब तक बेबी नहीं आता तब तक वर्क कर लो? तो मैं इसलिए आयी हूँ। अब आप ऐसे अगर जाओगे कहीं काम करने तो कौनसा एम्प्लॉयर आपको रिस्पोंसिबल पोज़ीशन देगा? तो उनको फिर बहुत रूटीन जॉब दे दिये जाते हैं।
और जो ये एआई का क्या काम है? कि सारे रूटीन जॉब ख़त्म कर देना। सारे रूटीन जॉब, जो भी जॉब ऑटोमेबल (स्वचालित) है जिसको भी आप कर सकते हो एक सिस्टमिक (प्रणालीगत) तरीक़े से अल्गोरिदम में बाँध सकते हो जिस भी काम को, वो काम तो चला जाना है। तो वो काम सब अगर महिलाएँ वही काम कर रही हैं, तो सारे काम चले जाएँगे।
और मुझे अफ़सोस इस बात का है कि जब वो काम चले जाएँगे तो बहुत सारी महिलाओं को दुख भी नहीं होगा। वो कहेंगी, ‘चलो अच्छा! बेकार ही जाते थे ऑफिस, अब आराम से घर में बैठेंगे।
भगवान करें कि ऐसी महिलाओं का अनुपात कम-से-कम हो जिनको ये बात हादसे की तरह न लगे। लेकिन सच्चाई यही है कि बहुत सारी महिलाएँ काम को वो महत्व, वो आदर, वो सेक्रेडनेस (पवित्रता) देती ही नहीं है जो उन्हें देनी चाहिए। उनको लगता है कि हमारी पहली चीज़ तो घर है। पहली प्रायोरिटी घर है। ऑफिस तो बस ऐसा है कि जल्दी...
प्र: साइड थिंग।
आचार्य: हाँ, एक साइड की चीज़ है। ऑफिस ऐसा है, जल्दी-जल्दी निपटाकर बस जल्दी से घर भागो। तो उन्हें काम को छोड़ते हुए बहुत तकलीफ़ नहीं होती है। जबकि काम आपकी पहचान होता है। काम आपकी ज़िन्दगी में आपकी पहली वरीयता होना चाहिए।
प्र: पर ये कैसे हो सकता है किसी भी एक व्यक्ति के लिए? क्योंकि अगर आपको अपने खर्चे ख़ुद उठाने हैं, आपको अपने किराये ख़ुद चुकाने हैं, आप काम कैसे छोड़ पाओगे?
आचार्य: नहीं, क्योंकि उन्हें अपने बिल्स, रेंट्स ख़ुद पे करने नहीं हैं न, पति के रूप में एक गार्जियन पा जा रही हैं। और यही चीज़ उनको पैट्रिआर्की ने, जो ये पितृसत्तात्मक व्यवस्था है, उसने सिखायी है कि पति तुम्हारा स्वामी है, स्वामी। तो वो आपका एक तरह से डिफैक्टो (असल में) अभिभावक, गार्जियन बन गया है।
वो उसकी गोद में जाकर बैठी हुई हैं। कितनी अपमान की बात है! होना नहीं चाहिए ऐसा, पर दुर्भाग्य से ऐसा है। तो अगर नौकरी छूट भी गयी तो क्या हुआ, कोई बात नहीं। नौकरी को कितना महत्व देना है? बहुत कम। ऐसी नौकरी लो जो बिलकुल समय से बँधी हुई हो, पाँच बजे जहाँ पर छोड़ देते हों। और वहाँ भी बाहर खड़ी रहती हो ऑफिस की ही कैब या बस जो कि सीधे घर में उतार देगी। तो बिलकुल साढ़े पाँच बजते-बजते हम घर भी आ जाएँगे।
वो ऑफिस से घर आयें, इससे पहले मैं घर आ जाती हूँ और मैं सारी तैयारी कर देती हूँ, चाय बना देती हूँ। ये क्या है?
प्र: इस सबके चलते न एक ग्लास सीलिंग (अदृश्य छत) निर्मित हो गयी है।
आचार्य: हाँ, बिलकुल ग्लास सीलिंग रहती है। मैनेजर लेवल पर तो आपने फिर भी बोल दिया कि बीस प्रतिशत वीमेन मैनेजर्स हैं, लेकिन जब आप और ऊपर जाओगे, सीनियर मैनेजर लेवल पर जाओगे और जनरल मैनेजर आप देखोगे, या कि उधर से देखो तो वाइस प्रेसिडेंट वगैरह, और फिर सीईओज़ को देखो, तो वो तो और कम होते जाते हैं।
ग्लास सीलिंग यही है कि महिलाएँ एक तल के ऊपर तरक़्क़ी नहीं कर पाती हैं, वो अटक जाती हैं। जैसे कि कोई एक अदृश्य सीलिंग हो, ग्लास सीलिंग है जिसके ऊपर वो जा नहीं पाती हैं।
कुछ तो ये है कि समाज उनके विरुद्ध पूर्वाग्रह ग्रस्त है, बायस्ड है, पैट्रीआर्किकल माइंडसेट है पुरुषों का, तो वो उनको तरक़्क़ी करने नहीं देते। बहुत बार ईर्ष्या की बात होती है, या वो औरत को देखते हैं तो उनके भीतर एक तरह का पुरुष जग जाता है जो कहता है, ‘क्या औरत के नीचे काम करूँगा?’
तो कुछ तो ये है कि पुरुष महिलाओं को ऊपर नहीं उठने देते और उसमें पुरुषों का पूरा दोष है ही। लेकिन पुरुषों को आप क्या कर लोगे? वो तो बाहर जैसे हैं तो हैं। आपको तो ये देखना है न कि आपके भीतर ऐसा क्या है जो आपको ऊपर नहीं उठने देता। क्योंकि दुनिया की समस्याओं को झेलना तो आपको अपने दम पर है। अब पुरुषों की जैसी मानसिकता है वो पुरुष जानें, उनको मुबारक़ हो।
लेकिन अगर मैं ऐसी हूँ कि मैं वर्कप्लेस पर ज़िम्मेदारी, रिस्पांसिबिलिटी लेने लायक़ ही नहीं हूँ, मैं लेना ही नहीं चाहती। मैं ख़ुद चाहती हूँ कि मुझे कोई हल्का, सस्ता काम दे दो, ताकि उसे निपटाकर मैं जल्दी से घर भाग जाऊँ। तो फिर मेरी कोई तरक़्क़ी नहीं होगी, वो ग्लास सीलिंग तो रहेगी-ही-रहेगी।
प्र: इसी में बचपन से स्पेशली ये बिजनेस फैमलीज़ में बहुत ज़्यादा होता है, ये बात कही जाती है कि उन्हीं घरों की महिलाएँ बाहर काम करने जाती हैं जिनको इकॉनमिक प्रॉब्लम होती है। जो समृद्ध घर की महिलाएँ हैं वो तो घर में ही रहती हैं।
आचार्य: ये कितना बेकार क़िस्म का विचार है कि अगर आप बाहर काम कर रहे हो, तो इसका मतलब ये है कि आपका परिवार ग़रीब होगा और पति की आय से काम नहीं चलता तो इसलिए बीवी को भी काम करना पड़ता है। ये कितना बेकार विचार है।
ये जो पूरा विचार है, इसके पीछे जो मान्यता है वो समझिए। इसके पीछे मान्यता ये है कि काम मजबूरी होता है। तो अगर किसी को मुफ़्त में घर बैठे मिल रहा है तो वो काम क्यों करे? इसके पीछे मान्यता ये है कि पुरुष भी इसीलिए काम करता है क्योंकि वो मजबूर है। उस पुरुष की भी अगर लॉटरी लग जाए किसी वजह से तो वो भी काम न करे।
इसमें समस्या ये नहीं है कि ये विचार महिलाओं के प्रति विषैला है। इसमें ज़्यादा बड़ी समस्या है। इसमें ज़्यादा बड़ी समस्या ये है कि इस विचार में मनुष्य-मात्र के प्रति कोई समझ नहीं है। आप जान ही नहीं रहे हो कि हम कौन हैं और हमारा कर्म से क्या रिश्ता होता है। उसकी बहुत बड़ी वजह ये है कि हमारा कोई आध्यात्मिक आज तक शिक्षण हुआ नहीं है।
कर्मयोग अगर पढ़ा होता, गीता के तीसरे-चौथे-पाँचवें अध्याय का कुछ आपको पता होता, तो आप ये भी जानते होते न कि इंसान और उसके काम का रिश्ता क्या होता है। और अगर काम ठीक नहीं है तो ज़िन्दगी ठीक नहीं हो सकती।
तो हम ऐसा मानकर चलते हैं कि काम तो एक मजबूरी है। और सबसे बड़ी क़िस्मत उनकी होती है जिन्हें बिना काम के मौज मारने को मिल जाती है। काम तो मजबूरी है। तो हम सोचते हैं कि कोई लड़की बाहर काम कर रही है तो ग़रीब होगी इसलिए कर रही है। अरे! वो ग़रीब नहीं है, वो दमदार है इसलिए बाहर काम कर रही है।
प्र: जी, धन्यवाद आचार्य जी।