प्रश्नकर्ता: जब मैं कुछ बोलता हूँ, तो चार-पाँच सेकंड्स में ही मेरी साँस फूल जाती है और जब आँखों में आँखें डाल कर देखता हूँ, सिरदर्द वगैरह होने लगता है। लगातार किसी से आँखों में आँखें डाल कर देखना, बात करना, तो हो नहीं पा रहा है।
आचार्य प्रशांत: किसी चीज़ को लेकर घबराये हुए हो, वो कौन-सी चीज़ है, वो तुम ही बताओगे?
प्र: पता नहीं।
आचार्य: अच्छा, ठीक है। कौन-सी चीज़ें हैं, जो बहुत प्यारी हैं? कौन-सी चीज़ें हैं, जिनको सहेज कर रखना चाहते हो?
प्र: ऐसी कोई चीज़ है नहीं।
आचार्य: नौकरी क्यों करते हो?
प्र: अपना ही बिज़नेस (व्यापार) है।
आचार्य: क्यों करते हो?
प्र: रोज़ की दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए।
आचार्य: जब सामने क्लाइंट (ग्राहक) आता है, उससे घबराते क्यों हो?
प्र: घबराता हूँ, पर पता नहीं क्यों। कॉन्फिडेंस (आत्मसम्मान) कम होने की वज़ह से।
आचार्य: कॉन्फिडेंस चाहिए ही क्यों? जब क्लाइंट आता है तुम्हारे सामने, उसके सामने कॉन्फिडेंस चाहिए ही क्यों?
प्र: अच्छी डील (सौदा) करने के लिए।
आचार्य: अच्छी डील क्यों करनी है? तुम्हें तो पैसा बस अपनी रोज़ की ज़रूरतों के लिए चाहिए, वो तो बुरी डील में भी निकल आएगा। अच्छी डील क्यों करनी है?
प्र: क्योंकि समाज में जाता हूँ, तो मुझे थोड़ा डर सा लगता है।
आचार्य: क्यों? क्या चाहिए लोगों से?
प्र: कुछ नहीं।
आचार्य: अरे! जिससे कुछ नहीं चाहिए, उससे डरोगे क्यों?
प्र: कोई भी काम करने से जैसे यहाँ पर आया, तो थोड़ा सा होता है कि कैसा माहौल होगा?
आचार्य: जो मैं पूछ रहा हूँ, उसमें गहराई में जाओ। क्लाइंट की बात करी थी तुमने। क्लाइंट से क्या चाहिए?
प्र: वो तो बिज़नेस ही होता है।
आचार्य: तो उसके सामने घबराने का कारण क्या है? बिज़नेस छिन गया तो क्या होगा?
प्र: वैसे तो प्रोफ़िट-लॉस (लाभ हानि) का कुछ ज़्यादा होता नहीं। बस इतना है कि एक इम्प्रेशन (प्रभाव) बना रहे। कॉन्फिडेंस से बात होती रहे।
आचार्य: यह दो-तीन बार तुमने इम्प्रेशन और कॉन्फिडेंस की बात करी है।
प्र: हाँ, जी।
आचार्य: क्यों चाहिए कॉन्फिडेंस ? क्यों चाहते हो कि लोग तुम्हें इस तरह से देखें कि बड़ा कॉन्फिडेंट (आत्मविश्वासी) बन्दा है? क्यों तुम्हारा लोगों पर इम्प्रेशन अच्छा पड़े? क्यों
प्र: अच्छी इमेज़ (छवि) बनाने के लिए।
आचार्य: इमेज क्यों बनाना चाहते हो किसी के मन में? किसी के मन में अच्छा, इमेज बुरी हो गयी, तो क्या हो जाएगा?
प्र: डर सा लगता है। मतलब।
आचार्य: जो मैं पूछना चाह रहा हूँ वही तुम छुपाना चाह रहे हो। जितनी बार हम मुद्दे पर आ रहे होते हैं तुम फिर से, सट से फिसल जाते हो। क्यों किसी के मन में अच्छा इम्प्रेशन रखना है?
प्र: मुझे अन्दर से थोड़ा ग्लानि सा महसूस होता है कि मैं बात नहीं कर पा रहा हूँ।
आचार्य: यह हटाओ! क्लाइंट के मन में अच्छा इम्प्रेशन क्यों रखना है? दुनिया के मन में अच्छा इम्प्रेशन क्यों रखना है? वहाँ स्मार्ट, कॉन्फिडेंट बनकर क्यों सामने आना है? अच्छा, अगर नहीं आते कॉन्फिडेंट बनकर सामने, तो क्या नुक़सान होता है?
प्र: नुक़सान तो कुछ नहीं होता।
आचार्य: नहीं, नुक़सान तो होता है। बिना नुक़सान के तुम कोई चीज़ चाह नहीं सकते।
प्र: नहीं, डील तो हो ही जाती है। जो मेरी लाइन में बाक़ी सीनियर्स (वरिष्ठ) हैं, वो अच्छे से बात कर पाते हैं। मुझे लगता है कि मेरे से नहीं हो पाती।
आचार्य: जो पूछ रहा हूँ बस वो बताओ, उतना ही बताओ। इम्प्रेशन अच्छा नहीं पड़ता, तो क्या छिनता है? कुछ छिनता तो है ही।
प्र: यही कि रिज़ल्ट (परिणाम) वगैरह अच्छा नहीं होगा।
आचार्य: क्या नहीं होगा? रिज़ल्ट ?
प्र: रिज़ल्ट वगैरह।
आचार्य: जैसे क्या रिज़ल्ट ?
प्र: मतलब कि जो डील वगैरह है।
आचार्य: डील तो तुम्हें चाहिए ही नहीं। तुमने कहा, तुम तो बहुत सन्तोषी आदमी हो। तुम्हें सिर्फ़ अपनी दैनिक ज़रूरतों के लिए ही पैसे चाहिए। तो लालच तुम्हें है ही नहीं।
प्र: नहीं, मैं कह रहा था कि बोलने का मेरा यह डर निकल जाए।
आचार्य: फिर इधर-उधर हो लिये। जो बोल रहा हूँ बस उस पर रहो। लोगों के मन में इम्प्रेशन अच्छा क्यों रखना है? नहीं इम्प्रेशन अच्छा रहता, तो क्या नुक़सान हो जाएगा?
प्र: लॉस (हानि) ही हो जाएगा।
आचार्य: पैसे का न?
प्र: हाँ।
आचार्य: हाँ, तो बस इसलिए। क्या करोगे पैसे का?
प्र: ज़रूरतें पूरी होती हैं।
आचार्य: अरे, किस हद की ज़रूरतें? किस-किस तरह की ज़रूरतें हैं?
प्र: डेली रूटीन की।
आचार्य: डेली रूटीन की कितनी तुम्हारी बड़ी ज़रूरतें हैं कि उसके लिए तुम्हें रोज़ क्लाइंट के सामने नर्वस (घबराया हुआ) होना पड़ता है?
प्र: नया क्लाइंट आता है, तब ही होता है। पुराने वाले से एक बार मिल लो, तो उससे थोड़ा रिलेशन (सम्बन्ध) हो जाता है।
आचार्य: यह जो तुम बता रहे हो सबके साथ होता है। और वो तो बहुत पुराने लक्षण हैं लोभ, मोह। सबके साथ होता है। तुम्हारे बचपन से नहीं है, मानवता के बचपन से है। जिस दिन पहला आदमी पैदा हुआ था, उस दिन से है।
प्र: यह झिझक वगैरह निकल जाए, जो होती है मुझे।
आचार्य: वैसे यहाँ जितने लोग बैठे हैं न, सब देख रहे हैं। दस मिनट से बात कर रहे हो, करे ही जा रहे हो — आँख में आँख डाल के, बिना साँस के फूले। क्यों बुद्धू बना रहे हो सबको? और जो चीज़ तुम कह रहे हो कि तुम्हारे साथ होती है, वो यहाँ कोई नहीं बैठा जिसके साथ न होती हो।
जब सामने तुम्हारा क्लाइंट होगा या कोई भी ऐसा होगा जिससे तुम्हें रुपये-पैसे की उम्मीद है, जिससे किसी भी तरह की कोई अपेक्षा, कोई लालच है, तो उसके सामने धड़कन बढ़ ही जाती है, हाथ-पाँव कँपने ही लगते हैं, पसीने छूटने ही लगते हैं। लालच और डर जितने ज़्यादा गहरे होते हैं, फिर शरीर में जो लक्षण उभरते हैं, वो उतने ज़्यादा तीव्र होते हैं।
तो जो मूल बात है, वो यह है कि अब अध्यात्म की तरफ़ आ ही रहे हो ख़ुद को देखो, मन को देखो, ज़िन्दगी को देखो। लालच चीज़ क्या है, इसको समझो। कौन किसी से क्या पा सकता है, किसका कोई क्या छीन ले जाएगा, इन बातों पर ज़रा ग़ौर करो। उसके बाद यह क्लाइंट-व्लाइंट के सामने परेशान नहीं हुआ करोगे।
और अगर लगातार, बेधड़क, दिनभर तुम नहीं जिओगे बिन्दास, तो क्लाइंट के सामने तुम अचानक से ही शेरखान नहीं बन जाओगे। अगर हर जगह ही तुम बिलकुल डरी हालत में और सहमे-लजाये घूम रहे हो, तो क्लाइंट के सामने भी परेशान ही रहोगे।
बेख़ौफ़ जीने को अपना ढर्रा बनाओ। निडरता को जीवन पद्धति बनाओ। उसके बाद चाहे बॉस हो, बाज़ार हो, पुलिस हो, बीवी हो किसी के सामने नहीं थर्राओगे।
डरना एक लाइफ़-स्टाइल है, एक जीवन पद्धति है। जो डरपोक होता है उसको तो डरने के लिए कुछ भी मिल जाए; वो डर लेगा। उसको जब कुछ नहीं मिल रहा होगा तो भी उसकी आँखों में तुम डर देख लोगे। तुम कहोगे, ‘अभी तो कोई बात भी नहीं है डरने की, फिर भी इसकी आँखें ऐसी हैं कि अभी बिलकुल यह भगेगा मूत्रालय की ओर।’ देखें हैं ऐसे लोग? नहीं देखें हैं? कई बार आइने में दिख जाते हैं। तो फिर?
(प्रश्नकर्ता की ओर मुस्कुराहट के साथ लगातार निहारते हुए कहते हैं) खुश हो गए!
यहाँ किसी की इतनी औक़ात तो होती नहीं कि उसके पास जो है, वो उसी को बचा ले जाए। दूसरे का कोई क्या छीनेगा? अपनी लंगोटी तो यहाँ कोई संभाल नहीं पाता है। है कोई जो सम्भाल ले जाता हो? कोई है? अपनी कोई सम्भाल नहीं पाता। यह डरे हुए हैं कि दूसरा इनकी छीन ले जाएगा। जो तुम्हारी छीनने आ रहा है, उसने अपनी बचा ली?
तो यहाँ एक इंसान दूसरे इंसान का क्या नुक़सान कर देगा भई? नुक़सान जो होता है, वो हम अपना करते हैं, ख़ुद ही। अन्दर-ही-अन्दर कर ले जाते हैं। उसके लिए हमें किसी दूसरे इंसान की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। हम अपनी खाट ख़ुद खड़ी कर लेने में बहुत सक्षम है। कोई और बाहर वाला नहीं चाहिए। साँस तो अभी भी नहीं फूली।
प्र: फूल रही है।
आचार्य: (प्रश्नकर्ता को देख कर मुस्कुरा कर कहते हुए) हाँ, फूल रही है! (प्रश्नकर्ता को योग का कपालभाति आसन करके दिखा कर उन्हें करने की सलाह देते हैं) यह भी कर लो!
दौड़ा करो, खेला-कूदा करो, शरीर में थोड़ा माँस भरो। बेख़ौफ़! बिन्दास! क्लाइंट ही तो है। बहुत आते हैं, बहुत जाते हैं। और डर-डर के तुमने कितने प्रोजेक्ट बचा लिये अपने, हाँ भई?
प्र: डील नहीं होती है।
आचार्य: तुमने कभी निडर होकर देखा कि होती है कि नहीं होती है? क्या पता अभी दस में से छः होती हों, डरना छोड़ दो, तो दस में से आठ होने लगें।
कहीं से तो तुमने यह शिक्षा पकड़ ही ली है न कि डरने से काम ज़्यादा बेहतर होते हैं। किसी ने तुमको यह सिखा दिया है कि डरोगे तो मुनाफ़ा है। इस सीख की थोड़ी आज़माइश कर लो न। इसको थोड़ा जाँच कर देखो कि यह सीख सही भी है या नहीं। एक-आध बार जाँच लो। थोड़ा-बहुत नुक़सान झेल लेना।
छोटे-मोटे क्लाइंट के साथ जाँच लो, जो एकदम सबसे आख़िरी वाला हो। उसके साथ ज़रा निडर हो जाओ। फिर देखो यहाँ कोई नुक़सान तो हुआ नहीं। अगर न हो तो, तो जो उससे ऊपर वाला है, उसके साथ भी आज़मा लो। ऐसे ही आज़माते चलो। फिर डरना आदत से बाहर हो जाएगा।