प्रश्नकर्ता: वेदांत में बताया गया है कि जगत मिथ्या। यदि जगत मिथ्या है, तो जगत में किया हुआ कर्म भी मिथ्या ही होगा। फिर हम सही कर्म और गलत कर्म की इतनी चिंता क्यों करें?
आचार्य प्रशांत: जब कहा गया है “जगत मिथ्या,” तो उसके साथ ही कहा गया है कि “ब्रह्म सत्य।“
और सत्य दो-चार तो होते नहीं! अगर ब्रह्म सत्य है, तो ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ सत्य नहीं हो सकता न? फिर तो जो कह रहा है “जगत मिथ्या,” वो भी सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्म को तो कुछ कहने-सुनने से कोई मतलब ही नहीं है। तो जो कह रहा है, “ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या,” वो स्वयं भी मिथ्या हुआ। और अगर जगत मिथ्या है, तो जो व्यक्ति कह रहा है “जगत मिथ्या,” वो स्वयं भी मिथ्या हुआ। तो “जगत मिथ्या” कहने का अधिकार सिर्फ़ उसको है जो स्वयं को भी मिथ्या जान ले, जो कहे कि “ब्रह्म मात्र सत्य है, मैं भी मिथ्या हूँ।“
प्रश्नकर्ता, जो ये प्रश्न पूछ रहे हैं, उनके लिए तो ये प्रश्न भी मिथ्या नहीं है; अगर ये प्रश्न मिथ्या होता तो क्यों पूछते? तो जगत कहाँ से मिथ्या हो गया? तो जब तक तुम्हारे लिए जगत मिथ्या नहीं हो गया, तब तक निःसंदेह तुम्हारे लिए कोई कर्म उचित है और कोई कर्म अनुचित भी है। जो तर्क तुमने दिया है, कि “यदि जगत मिथ्या है, तो सब प्रकार के कर्म और चुनाव भी मिथ्या हुए। तो फिर हम सही कर्म के चुनाव की इतना चिंता क्यों करें?” तुम सही कर्म के चुनाव की इतनी चिंता इसीलिए करो क्योंकि तुम्हारे लिए अभी जगत मिथ्या नहीं हो पा रहा है। जगत मिथ्या तभी होगा न, जब अहंकार मिथ्या होगा? तुम्हारे लिए अहंकार मिथ्या नहीं हो पा रहा है, इसीलिए तुम सही कर्म की चिंता करो।
जब जगत मिथ्या हो जाएगा तो ये प्रश्न भी मिथ्या हो जाएगा, तुम भी मिथ्या हो जाओगे, मैं भी मिथ्या हो जाऊँगा; फिर कुछ नहीं बचेगा, इस बात-चीत का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा फिर! पर इस बात-चीत का अभी तुम्हारे लिए बहुत अर्थ है न! अभी तो तुम्हारे लिए ये भी आवश्यक है कि तुम सही प्रश्न पूछो, तुम्हारे लिए ये भी आवश्यक है कि मैं सही उत्तर दूँ, और फिर तुम उसे सही तरीके से सुन कर आत्मसात भी करो, कार्यान्वित भी करो। अभी कहाँ कुछ मिथ्या हो गया! अभी तो बहुत चीज़ों में बहुत प्राण बाकी हैं, बहुत कुछ है जो शेष है अभी। मिथ्यत्व तो तब आएगा न, जब सब-कुछ जो होना था वो हो गया, कुछ शेष नहीं बचा, सब पूर्ण, सब खतम।
पूर्णता एक अंत भी होती है, एक खात्मा भी होती है। तुम्हें खात्मे की ओर बढ़ना होगा, तुम्हें अंत की ओर बढ़ना होगा, तुम्हें पूर्णता की ओर बढ़ना होगा; और उसकी ओर बढ़ो, ये एक चुनाव है, इसीलिए तुम्हें सही चुनाव करना होगा, अन्यथा अधूरेपन का ही चुनाव करते रह जाओगे। जब अधूरेपन का चुनाव करोगे तो कुछ मिथ्या नहीं रह जाएगा, फिर तो बहुत चीज़ों में बहुत सार्थकता दिखाई देगी, यही लगेगा कि “अभी ये भी कर लें तो ठीक है। अभी ऐसा कर लें तो कुछ फ़ायदा हो जाएगा।“ अधूरेपन की यही निशानी है न? बहुत चीज़ें आकर्षित करतीं हैं अधूरेपन में और बहुत चीज़ें डरातीं हैं।
तो “जगत मिथ्या” वास्तव में कहने का अधिकार सिर्फ़ उनको है जो ब्रह्मविद हो गए, जिनके लिए ब्रह्म एकमात्र सत्य है, जो ब्रह्म ही हो गए। बाकी लोग अगर “जगत मिथ्या” बोलेंगे, तो ये एक प्रकार का आडम्बर हो गया, कि अपने-आप को तो मिथ्या बोलते नहीं, अपने हाथ को मिथ्या बोलते नहीं, अपने विचारों को मिथ्या बोलते नहीं; अपने घर को, अपनी देह को, अपने परिवार को, अपने अतीत, अपने भविष्य को तो मिथ्या बोलते नहीं, अपने अस्तित्व को तो मिथ्या बोलते नहीं; जगत को मिथ्या बोल रहे हैं। ये बात कुछ जमेगी नहीं! लेकिन जब तुम अपने-आप को मिथ्या नहीं बोलते हो, तो तुम अपने लिए दुःख खड़ा कर लेते हो न? जो भी कोई कहता है कि वो है, वास्तव में यही कह रहा है कि अहंकार है। जब तुम कहते हो, “मैं हूँ,” तो तुम कह रहे हो, “अहं है;” और अगर अहं है तो दुःख है। अगर दुःख है तो दुःख को मिटाना होगा न? तो दुःख को मिटाने का मतलब है अहंकार को मिटाना, और अहंकार को ही मिटाने का फिर मतलब हुआ जगत मिथ्या।
तो जब तक तुम हो, तब तक तुम्हारे लिए ज़रूरी है कि तुम सही कर्मों का चुनाव करो; और सही कर्म वो है जो तुम्हें तुम्हारी पूर्णता तक ले जा सके, जो तुम्हारी वर्तमान स्थिति को मिटा सके। तुम्हारी वर्तमान स्थिति तुम्हारे लिए कुछ अच्छी तो नहीं है! देखो न, वर्तमान स्थिति में तुम्हें ये सवाल पूछना पड़ रहा है, इसका मतलब उलझन है, बेचैनी है, बहुत कुछ अनुत्तरित है; उसी के पार जाना है। उसके पार जाओ, इसके लिए सही जीवन जियो, सही प्रश्न पूछो, सही कर्म करो। निशानी ही यही है सही कर्म की, कि वो तुम्हें सुलझाता चलेगा, वो तुम्हें पूर्णता की ओर ले जाएगा, वो तुम्हारे भीतर से ये भाव हटाता चलेगा कि छोटे हो तुम और तुम्हें डरने की और बचने की ज़रूरत है।
जब पूर्ण हो जाना, तब कहना, “जगत मिथ्या।“
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