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क्यों अपमान कर रहे हो शिव और शास्त्रों का?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी, अन्यथा समाज में अगर कोई अंधविश्वास फैलता है तो वो जान तो नहीं लेता, आंतरिक रूप से मार देता है पर किसी का शरीर तो नहीं हरता। अगर कोरोना वायरस से उठ रही इस वैश्विक महामारी के समय में कोई अंधविश्वास फैल रहा है तो वो सीधे मार कर ही रुकेगा। ऐसा ही एक अंधविश्वास कल मैंने देखा जो व्हाट्सएप के द्वारा वायरल हो रहा है उसमें ये कहा जा रहा है कि सनातन धर्म में एक ग्रंथ है शिव पुराण उसमें कोरोना वायरस का तोड़ पहले से ही अंकित है। एक रिकॉर्डिंग उसके साथ चल रही है जिसमें एक पंडितजन हैं जो उन श्लोकों का गुणगान कर रहे हैं, उसे गा रहे हैं और एक पोस्ट है जिसमें लगभग छह-सात श्लोकों की श्रृंखला है। क्या ऐसा संभव है?

आचार्य प्रशांत: देखिए, ये सब कुछ इसलिए संभव हो पाता है। अंधविश्वासों का फैलना, लोगों का ऐसी मनगढ़ंत बातों पर विश्वास कर लेना, क्योंकि हम में से निन्यानवे दशमलव नौ-नौ प्रतिशत लोगों ने पुराण कभी पढ़े ही नहीं। पुराणों से हमारा दूर-दूर का कोई नाता ही नहीं रहा। मान लीजिए कि आपने शिव पुराण विशेषकर नहीं भी पढ़ा होता, आपने दूसरे भी दो-चार पुराण पढ़े होते तो भी आपको इतना आभास मिल जाता कि पुराणों में कोरोनावायरस की बातें नहीं होती। लेकिन जो आम जनता है बल्कि जो आम सनातन धर्मी है, हिंदू है, उसकी त्रासदी ये है कि उसे कोई धार्मिक शिक्षा कभी मिली ही नहीं है। आप उससे पूछो अगर कि तुमने अपने धर्म ग्रंथ के नाम पर क्या पढ़ा है, तुम धार्मिक साहित्य के तौर पर किन चीजों की बात कर सकते हो, तो वो आप को अधिक-से-अधिक दो-चार चौपाइयाँ रामचरितमानस की बता देगा, हो सकता है हनुमान चालीसा बता दे, गीता के ढाई श्लोक बता दे, भक्ति काल के संतों के दो-चार दोहे बता दे, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। जबकि विराट अध्यात्मिक साहित्य है सनातन धर्म का।

मैं नहीं कह रहा हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति संपूर्ण धार्मिक साहित्य से ही परिचित हो, पर भाई, इतना तो पता हो न कम-से-कम कि कौन से ग्रंथ किस तरह इशारा करते हैं, किस ग्रन्थ की विषय वस्तु क्या है, कम-से-कम बाहरी रूपरेखा का तो अनुमान हो, उतना भी नहीं है। तो नतीजा ये निकलता है कि इस तरह की मनगढ़ंत लेकिन आज के परिवेश में अत्यंत घातक बातें फैल पाती हैं कि शिव पुराण में तो पहले ही कोरोनावायरस का जिक्र है। और अगर उसी व्हाट्सएप फॉरवर्ड की बात कर रहे हो जो दिखा चुके हो मुझे, तो उसमें तो ये सब भी है कि ये वायरस चीन देश में पैदा होगा और ऐसे फैलेगा और ये होगा-वो होगा और इन सब बातों को शिव पुराण का बता कर के फैलाया जा रहा है। इससे क्या होगा? इससे बस यही होगा कि सनातन धर्म का और मज़ाक बनेगा।

आज के समय में एक बहुत बड़ा तबका है जो अपने आप को कभी बुद्धिजीवी बोलते हैं, कभी लिबरल बोलते हैं, जो पेशेवर तौर से काम ही यही करते हैं कि वो धर्म की और अध्यात्म की खिल्ली उड़ाएँ। जिन लोगों ने ये सब बात करी हैं कि शिव पुराण में कोरोनावायरस का न सिर्फ उल्लेख है बल्कि समाधान भी है; उन्होंने धर्म का मजाक बनाने वालों के हाथ में एक औजार और दे दिया जिससे वो धर्म की अब पिटाई लगाएँगे; उन्होंने उनको एक मुद्दा और दे दिया जिसका उपयोग करके वो धर्म पर ताना मारेंगे, अध्यात्म की खिल्ली उड़ाएँगे और यही वो चाहते थे।

तो धर्म का बड़े-से-बड़ा दुश्मन इस समय वो वर्ग है जो धर्म का दुरुपयोग करके अपने निजी संकीर्ण स्वार्थों के लिए अंधविश्वास फैलाता है। बड़े खेद की बात है कि इस गंदे काम में शिव के पवित्र पावन नाम का बड़ा दुरुपयोग किया जा रहा है। ऋषिकेश में अपना ‘मिथ डिमोलिशन टूर’ होता है प्रति वर्ष, वहाँ जाओ तो वहाँ देखोगे कि वहाँ कई कैफ़े हैं जिसमें चित्र लगे रहेंगे कि शिव एक रॉयल एनफील्ड चलाते हुए घूम रहे हैं। कहीं पर एक चित्र लगा होगा कि शिव बैठे गांजा पी रहे हैं, हुक्का भर रहे हैं। जो जैसा है वो शिव को अपने स्वार्थ अपने झुकाव और अपनी वृत्तियों के अनुसार दुरुपयुक्त कर लेता है।

इसी तरीके से शिव के नाम पर मनगढ़ंत कहानियाँ बनाने की आजकल बड़ी परंपरा चल पड़ी है। कोई कह रहा है कि वो शिव हैं, वो पहाड़ों पर रहा करते थे, बड़े योगी थे, उन्होंने ये किया, वो किया,सत्तर बातें। अरे भाई, शिव क्या हैं, अगर ज़रा सा भी अध्यात्मिक साहित्य पढ़ा होता तो समझ में आता। गौर से सुनिएगा ‘अज्ञेय’ ‘अचिंत्य’ ‘अनिर्वचनीय’, जिनको जाना नहीं जा सकता, जिनके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, ‘निर्गुण’ ‘निराकार’ ‘निर्विकार’, जिनके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता, जिनका कोई गुण ही नहीं है जिसके बारे में कोई बात की जाए, कहानी तो दूर की चीज़ है। जिनका कोई आकार ही नहीं है, उनको तुमने पहाड़ पर बैठा दिया? जिनमें कोई विकार ही नहीं है, उनको तुमने गांजा फूँकता दिखा दिया?

लेकिन ये सब कहानियाँ खूब उड़ाई जा रही हैं शिव को करीब-करीब एक व्यक्ति की तरह प्रदर्शित किया जा रहा है। शिव का संबंध समय और स्थान से जोड़कर बताया जा रहा है कि शिव थे, उन्होंने डेढ़-सौ साल तक तपस्या की। अरे भाई, शिव जब परम सत्य, परम ब्रह्म का नाम है, परम ब्रह्म क्यों तपस्या करने लगा? शिव योगी नहीं हैं, युक्त हैं। योगी वो है जो अभी वियोग में है और योग की तरफ बढ़ना चाहता है। शिव क्यों वियोग में हो गए? अगर शिव भी वियोग में हो गए तो शिव में और दुनिया के द्वैत में फँसे आम आदमी में अन्तर क्या है? शिव कोई व्यक्ति नहीं हैं, शिव दुनिया की कोई चीज़ नहीं हैं, कोई किस्सा कहानी नहीं है; शिव के बारे में कोई भी बात बोलना शिव को अपमानित करना है और शिव अपमानित हो नहीं सकते क्योंकि वो तो परम सत्य हैं, वो तो स्पर्श की क्षमता से ही बाहर के हैं। तो उन्हें कोई क्या अपमानित करेगा? लेकिन शिव का इस तरह से अपमान करके हम अपनी ही मुक्ति और सत्य की संभावना का अपमान खूब कर रहे हैं।

मुझे बड़ा दुख होता है जब मैं शिव के नाम का दुरुपयोग होते देखता हूँ। चाहे वो बड़ी-बड़ी धार्मिक संस्थाएँ हों जो पेशेवर रूप से शिव को लेकर के नई-नई कहानियाँ उड़ा रही हैं और चाहे वो सड़क पर चलते काँवरड़िये हों जो शिव का नाम ले-ले कर के ऐसी-ऐसी हरकतें कर रहे हैं जिनमें शिवत्व कहीं होता ही नहीं; बड़ा अफसोस होता है। उन्हीं सब घटनाओं की श्रृंखला में एक घटना अब ये भी घटी है जिसका अभी तुम जिक्र कर रहे हो, कि सीधे-सीधे शिव पुराण पर ही हाथ रख दिया कि ये देखो, शिव पुराण में अंकित है कि शिव ने स्वयं पार्वती से कहा था कि एक दिन कोरोनावायरस आएगा, चीन देश से उठेगा माँसाहार के कारण और फिर ऐसा करना होगा, वैसा करना होगा, बार-बार अगर तुम बोलोगे कि महादेव रक्षा करो रक्षा करो तो फिर इससे तुम्हारी मुक्ति और उद्धार हो जाएगा।

ये हम किसको पागल बना रहे हैं? मैं चाहता हूँ कि आप भी और जितने लोग उस रिकॉर्डिंग को बाद में देखें वो सब एक क्षण को ठहर कर के सोचें, कि जिन लोगों ने फॉरवर्ड करने के लिए और वायरल करने के लिए ये सामग्री तैयार की होगी वो कितने शातिर साज़िशकर्ता होंगे, वो कितने मंझे हुए षड्यंत्रकारी होंगे। तुम एक बार तो ख्याल करो। वो लोग बैठे हुए हैं और वो सोच रहे हैं कि ऐसा क्या करें कि जनता में किसी तरीके से झूठी सूचना का, झूठी धारणाओं का, झूठी मान्यताओं का प्रचार हो सके। और वो बैठ कर के इस बारे में अपनी कुबुद्धि लगा रहे होंगे और कुबुद्ध लगाते-लगाते अचानक उनको एक बात सूझ गई, एक ‘आइडिया’ आ गया और वो कहते हैं “ये देखो, ये मिला है अभी-अभी एक नया नुस्खा। हम शिव पुराण के नाम का इस्तेमाल करेंगे और हम कहेंगे देखो उसमें ये सब लिखा हुआ है।” फिर कहीं से एक संस्कृत का पंडित ढूँढा गया होगा जिसको पकड़ा गया होगा, कि तुम ये सब लिखो। फिर वो जो श्लोक लिखे गए हैं उनका बकायदा गायन किया गया होगा और रिकॉर्डिंग की गई होगी। अनुमान लगा रहा हूँ मैं ऐसा और ये अनुमान ही बड़ा रोंगटे खड़े कर देने वाला है कि कैसे कोई इस तरह का काम कर सकता है? कितना कोई गिरा हुआ आदमी होगा जो इस तरह के फॉरवर्ड फैलाएगा?

प्र: आप कह रहें हैं कि कोई भी पोस्ट जब हमारे सामने आए तो उस समय बहुत ज़रूरी है कि सतर्क रहें और उसका स्रोत सत्यापित करें। इस हालात में स्रोत सत्यापित करने का यही तरीका था कि आपको पुराणों का ज्ञान पहले से ही होता, आप बेईमान न होते अपने धर्म के प्रति, आपने पढ़े होते कुछ शास्त्र-पुराण। जितना मैं इस समसामयिक समाज को समझ पा रहा हूँ शिव की जो परिभाषा है वो मूलतः दो जगहों से आ रही है। पहला: कुछ धर्मिक संस्थान हैं जो शिव और शिवलिंग को बीच में रख कर कहानियाँ सुना रहें हैं और, दूसरा: उपन्यास भी हैं जैसे शिव ट्रियोलोजी जो कि मिथकों में शिव का वर्णन कर रहें हैं।

आचार्य: ये बड़ा गलत हो रहा है। शिव को लेकर के कहानियाँ लिखी जा रही हैं तो ये अपराध है। देखिए, ‘शंकर भगवान’, जिन्हें हम शंकर ‘भगवान’ कहते हैं, शंकर भगवान एक प्रतीक हैं और वो प्रतीक इसलिए रचा गया था क्योंकि आम जनमानस निर्गुण की आराधना आसानी से नहीं कर सकता। तो लोगों को मूर्त और सजीव प्रतीक चाहिए होते हैं। तो इसलिए शंकर भगवान की रचना करी गई और कहा गया कि वो नंदी के साथ और पार्वती के साथ, और गणेश और कार्तिकेय के साथ कैलाश पर विराजते हैं और उनको लेकर के तमाम तरह की कथाएँ भी बताई गई जो पुराणों में वर्णित है।

प्र: क्या शंकर भगवान एक मिथक चरित्र ही हैं?

आचार्य: बिलकुल हैं। वो प्रतीक हैं, मैं कह तो रहा हूँ आपसे, वो प्रतीक हैं; लेकिन वो बहुत महत्वपूर्ण और बहुत सुंदर प्रतीक है जिसका उद्देश्य है लोगों को शिवत्व की ओर ले जाना। शंकर भगवान एक अवधारणा हैं, एक प्रतीक हैं और वो इसीलिए हमें दिए गए ऋषि-मुनियों द्वारा ताकि उन कहानियों को सुनकर, शंकर भगवान से संबंधित जो कहानियाँ है जो अवधारणाएं हैं, उनको सुनकर मन शांत हो सके और मन शिवत्व की ओर, माने सत्य और मौन की ओर जा सके इसलिए शंकर भगवान की हमें अवधारणा दी गई।

ये बात समझ में आ रही है?

तो बताओ फिर शिवत्व माने क्या? शिवत्व माने पूर्ण सत्य, पूर्ण निराकार मौन सत्य, जिसका नाम है शिव। और शंकर भगवान क्या हैं? शंकर भगवान शिव का साकार मूर्त और सजीव प्रतीक हैं। वो प्रतीक इसलिए दिया गया ताकि आम जनमानस उन कहानियों को सुन कर के, उन लीलाओं को सुन कर के शिवत्व की ओर जा सके, जीवन में ऊँचे मूल्यों की ओर जा सके; और उच्च मूल्यों की ओर जाते-जाते अंततः उन कथाओं को सुनने वाला व्यक्ति जीवन के उच्चतम मूल्य तक पहुँच जाए जिसका नाम है मुक्ति। उसी उच्चतम मूल्य, उसी मुक्ति का ही दूसरा नाम है ‘शिव’।

तो शिव और शंकर इसीलिए साथ-साथ चलेंगे। शिव जो हैं, उन्हीं शिव का सगुण प्रतीक हैं शंकर। पर वो जो कहानियाँ हैं वो बड़ी विशिष्ट कहानियाँ हैं; हर कहानी तुम्हें मौन की ओर नहीं ले जा सकती। कुछ खास, चुनिंदा अति विशेष कहानियाँ हैं जो शंकर भगवान के साथ संबंधित हैं और सिर्फ वही कहानियाँ हैं जो आप को ले जा सकती हैं शिवत्व की ओर। आपको अगर नई कहानियाँ गढ़नी है, आपका मन बहुत कर रहा है कि मैं भी कुछ कहानियाँ बनाऊँगा जो मुझे लगता है कि आध्यात्मिक दृष्टि से मूल्यवान हैं। तो आप किसी और नाम से बनाइए न। आप उन कहानियों पर शंकर का नाम क्यों आरोपित करते हैं?

लेकिन ये समय बड़ा संक्रमण का है। ये समय ही बड़े संकुचन का है, बहुत छोटे मन का है। कपोल-कल्पित बातें बिक रही हैं शिव के नाम पर। चाहे वो लेखक हो और चाहे आजकल के धार्मिक गुरु हों सब शिव के नाम पर नई-नई तरह की कहानियाँ बेच रहे हैं; सबकी दुकान चल रही है शिव के नाम पर और इस पूरी चीज़ में नुकसान किसका हो रहा है? नुकसान सच्चे श्रद्धालुओं का हो रहा है जो शिव में वाकई सच्ची आस्था रखते हैं।

बात समझ में आ रही है?

तो जो कहानियाँ पुराणों में अंकित हैं, मैं कह रहा हूँ वो विशेष हैं। लेकिन पुराणों में शंकर भगवान को लेकर के कुछ कहानियाँ हैं इसका मतलब ये नहीं है कि आज का कोई भी लेखक अपनी बुद्धि लगाकर के निजी तौर पर शंकर भगवान के बारे में कोई भी कहानी बता देगा। कहेगा: फिर शंकर ने इससे ये कहा, उससे ये, इससे ये कहा। और ये काम शंकर के नाम के साथ क्या, ये काम तो कृष्ण के नाम के साथ भी किया जा रहा है आजकल; ये काम तो राम के साथ भी किया जा रहा है आजकल।

और ये सब कुछ किया जा रहा है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तभी तक ठीक है जब तक वो दूसरों को हानि न पहुँचाए। अगर आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पूरे समाज को ही गहरी से गहरी हानि पहुँचा रही है तो ऐसे लेखकों को और ऐसे धर्म गुरुओं को प्रतिबंधित करना चाहिए। आप जो बात बोल रहे हो, वो बात अति विनाशकारी है। शंकर का नाम दवाई की तरह था आपने उस दवाई में मिश्रण कर दिया, मिलावट कर दी। दवाई में जो मिलावट करे उसकी क्या सज़ा होती है? शंकर से जुड़ी एक एक पौराणिक कहानी दवा थी, औषधि थी। और आपने उन कहानियों में घपला कर दिया, मिलावट कर दी। दवा में मिलावटखोर जो होता है उसको सीधे भेजते हैं हम कैद में; उसको कड़ी से कड़ी सज़ा मिलती है। वही सज़ा के अधिकारी वो लोग हैं जो शिव के नाम का, शंकर के नाम का, आज दुरुपयोग कर रहे हैं।

ये सब चीजें ऐसी है जिस पर हाथ रखने की इजाज़त नहीं होनी चाहिए। इन बातों में सहिष्णुता नहीं दिखानी चाहिए। एक लेखक को पूरी आजादी है अपनी बात कहने की, तुम कहो, तुम्हें जो कहना है कहो। लेकिन प्राचीन मित्थकों को तोड़ो-मरोड़ो नहीं; वो एक उद्देश्य से रचे गए थे। ये ऐसी-सी बात है कि एक पुराना मंदिर है और कोई जाकर के कहेगा, “मैं तो साहब इस पर अपना हाथ साफ करूँगा, इस पर अपनी निजी शिल्पकारी दिखाऊँगा।” भाई आप बहुत बड़े शिल्पकार होंगे अपनी नजर में, अच्छी बात है, हम सम्मान करते हैं आपके अपने प्रति दृष्टिकोण का। आप हैं बहुत बड़े शिल्पकार; लेकिन आप अपनी सारी कारीगरी, सारा हुनर, इस दो हज़ार साल पुराने मंदिर पर क्यों दिखाना चाहते हैं? आप जाइए कहीं और कोई रचना करिए और इतना दम रखिए कि आप जो नई रचना करें उसमें सौंदर्य हो और मूल्य हो तो लोग आएँगे आपके पास। लेकिन ये तो कोई तरीका नहीं हुआ न कि शंकर का नाम लिया, राम का नाम लिया, कृष्ण का नाम लिया और इन को लेकर के लगे गुब्बारे छोड़ने; लगे कहानियाँ बताने।

क्यों? क्योंकि आपको पता है इनका नाम लेकर के अगर कोई बात कहो तो आपका धंधा ज़्यादा चलेगा क्योंकि लोगों की इन नामों में आस्था है; इन नामों से उनका बहुत पुराना और घनिष्ट परिचय है; लोगों के लिए ये नाम आदरणीय हैं। तो आप इन नामों को ले लेते हो और इन नामों को लेकर के फिर लगते हो इधर-उधर से कुछ भी अफवाहें उड़ाने, खबरें उड़ाने, लेख लिखने, कुछ भी बोलने।

और फिर कोई पूछे आपसे कि ये जो आप बोल रहे हो ये सब कहाँ लिखा है? तो आप कहते हो “नहीं-नहीं! कहाँ लिखा है ये तो मुझे पता नहीं क्योंकि कोई धार्मिक किताब न तो मैं पढ़ता हूँ, न किसी को पढ़ने की सलाह देता हूँ। ये तो बस मुझे यूँ ही पता है; मेरा अंतर्ज्ञान है।" आपका अंतर्ज्ञान आपको मुबारक हो, लेकिन कृपा करके अपने अंतर्ज्ञान के छींटे शिव पर ना पढ़ने दें। आपका जो भी अंतर्ज्ञान है आप कहें; आपको पूरी आजादी है कि, "ये मेरी व्यक्तिगत राय है।" आप अपनी व्यक्तिगत राय का प्रचार-पसार करिए। कोई आप को रोकने नहीं आ रहा; रोका नहीं जा सकता। आपको आज़ादी है पूरी। लेकिन आप अपनी व्यक्तिगत राय लगाकर के कहें कि नहीं, राम ऐसे थे, कृष्ण ऐसे थे और ये ऐसे थे, वो ऐसे थे, तो ये बात ठीक नहीं है। सनातन धर्म बल्कि धर्म मात्र ही, सभी धर्म इस समय बड़े खतरे के दौर से गुज़र रहें हैं। इस समय में बड़ी सावधानी की ज़रूरत है; इस तरह के लोगों से, अफवाहबाज़ों से बचना होगा।

प्र: हिंदू धर्म में, सनातन धर्म में ऐसी क्या कमी रह गई या उसमें निहित कुछ ऐसा है कि उस पर ही सबसे ज़्यादा हाथ रखा गया?

आचार्य: देखिए, जिनमें ताकत होती है और जिनमें एक घोर अंदरूनी विश्वास होता है अपनी हस्ती के प्रति, वो लोग आमतौर पर प्रतिक्रियात्मक नहीं होते।

क्यों? क्योंकि उनके भीतर एक घोर विश्वास बैठा हुआ है कि बाहर-बाहर तुम कुछ भी कर लो, भीतरी तौर पर हमारी श्रद्धा हिलेगी नहीं। बाहर-बाहर तुम हमारा कुछ भी नुकसान कर लो आंतरिक तौर पर हमारा कुछ भी नुकसान होने का नहीं। एक सनातन धर्मी को अपनी आस्था को लेकर के आमतौर पर बड़ा प्रगाढ़ विश्वास होता है जो कि बहुत अच्छी बात है, बड़ी सुंदर बात है, बड़ी आदरणीय बात है। और इस कारण जब उसकी आस्था पर हमला किया जाता है तो वो जल्दी से प्रतिक्रिया नहीं करता।

ठीक वैसे ही जैसे कि कोई बड़ा हो, वयस्क हो, कोई बच्चा आ करके उसको गाली दे, वो प्रतिक्रिया करेगा नहीं। क्योंकि वो वयस्क है; उसमें एक बड़प्पन है। फिर बच्चा और उद्दंडता दिखाए वो उसको मारने भी लग जाए, तो भी ये जो वयस्क है ये पहले तो उसको प्रेम से समझा जाएगा, फिर बहुत हुआ तो थोड़ा सा धमका देगा; लेकिन मारेगा नहीं क्योंकि उसको पता है कि मैं वयस्क हूँ, बड़ा हूँ, मेरी उम्र बहुत है और ये जो मेरे सामने है, बच्चा है।

सनातन धर्म की उम्र बहुत है, सनातन धर्म बहुत बड़ा है। इसीलिए जो आम हिंदू होता है वो जल्दी से प्रतिक्रिया नहीं करता, वो बर्दाश्त कर लेता है, कुछ भी चल रहा हो उसको झेल जाता है। लेकिन बच्चा अगर ऐसा हो गया हो कि कहीं से तमंचा ही ले कर के आ जाए; या बच्चा अगर ऐसा हो गया हो कि चाकू ही ले कर के आ जाए और लगे उस वयस्क के पाँव में चाकू घोंपने तब उस वयस्क का धर्म हो जाता है कि वो उचित कर्म करे।

श्रीमद्भागवत गीता में कृष्ण और क्या समझा रहे हैं? कि तमाम तरह के शांति के उपायों के बाद एक समय ऐसा आ जाता है अर्जुन, जब गांडीव उठाना पड़ता है। निश्चित रूप से पूरी-पूरी कोशिश करनी चाहिए कि शांति बनी रहे; वो पहला धर्म है हमारा लेकिन उसके बाद एक समय ऐसा आ सकता है जब गांडीव उठाना पड़ेगा।

देखिए ये बच्चा है इसके हाथ में चाकू है, बात समझिएगा। आप कह रहे हैं कि, "मैं तो बड़ा सहिष्णु हूँ, मैं तो सबको अपनी-अपनी करने की आजादी देता हूँ।" आप ये तो बताइए न, बच्चा हो सकता है आपको न चाकू मारे, उसी चाकू से वो अपना हाथ भी काट सकता है। ज़रूरी है इस समय कि उस बच्चे के हाथ से चाकू छुड़ाया जाए; जरूरी है इस समय कि उस बच्चे को थोड़ा अनुशाषित कर के उसको थोड़ी शिक्षा दी जाए, उसको थोड़ा ज्ञान दिया जाए।

और ये सब कुछ इसलिए नहीं किया जाए क्योंकि बच्चे को ले करके हमारे मन में कोई दोष भाव है, कोई विश भाव है। ये इसलिए किया जाए क्योंकि बच्चे से हमें स्नेह है। बच्चे के हाथ में जो चाकू है, हमें पता नहीं लगेगा कि नहीं लगेगा, लेकिन उस चाकू से वो अपना नुकसान ज़रूर करेगा, ये पक्की बात है।

तो अब वो समय आ गया है कि देखा जाए कि जिनको हम बच्चा कहकर के झेले जा रहे हैं, वो बच्चे नहीं हैं, उनके हाथ में बड़े खतरनाक हथियार हैं। और मैं जब ये कह रहा हूँ तो मैं बात अन्य पंथों के अनुयायियों की नहीं कर रहा हूँ; मैं बात कर रहा हूँ उन हिंदुओं की ही, जिनको सनातन धर्म ज़हर की तरह लगता है। देखिए बाकी जितने भी पंथ हैं दुनिया में, उनमें अधिकांश लोग, उनका बड़े-से-बड़ा हिस्सा, भारत का भी सम्मान करता है और भारत की सनातन धर्मी परंपरा का भी सम्मान करता है। भारत के सनातन धर्म के सबसे बड़े दुश्मन इस वक्त सनातन धर्मी स्वयं हैं। जो एक वर्ग है उनका, उनके भीतर की एक कोटि है, एक समुदाय है जो बहुत बड़ा नहीं है; लेकिन जिसने ठान रखी है कि वो सब कुछ जिसका सम्बन्ध भारत के धर्म से है, संस्कृति से है, अध्यात्म से है, साहित्य से है; उसको नीचा दिखाना है, उसको मूल्यहीन बताना है।

इन लोगों के प्रति मेरे मन में कोई घृणा या हिंसा नहीं है; मैं जानता हूँ ये कहाँ से आ रहे हैं। ये बेचारे तो खुद अशिक्षा के मारे हुए हैं; ये वो लोग हैं जिनको कभी ठीक से शिक्षा मिली नहीं। इनमें से ज्यादातर अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हुए लोग हैं जिनको किताबों के नाम पर ज़हर पिलाया गया है; खासतौर पर इतिहास के नाम पर। तो कारण जो भी हो जिस वजह से ये इतने ज़हरीले हो गए हैं, लेकिन इन्होंने ये बात अब ठान रखी है कि किसी भी तरीके से ये साबित कर दो कि दुनिया का सबसे गया-गुज़रा धर्म अब सनातन धर्म है। हर वो चीज जो श्रेष्ठ है सनातन धर्म के बारे में उसको नीचा दिखाओ और इन लोगों ने कब्ज़ा कर रखा है शिक्षा व्यवस्था पर, स्कूलों पर, कॉलेजों में और यूनिवर्सिटी पर ये छाए हुए हैं। नतीजा ये निकल रहा है कि जो बिलकुल नई नस्ल निकल रही है, वो इनके प्रभाव में हैं। इसी नए नस्ल से निकलते हुए लोग हैं वो जिनके बारे में कह रहा हूँ कि इन्होंने कोई धार्मिक साहित्य कभी पढ़ा ही नहीं; इसी नई नस्ल से निकलते हुए लोग हैं वो जिनके बारे में कह रहा हूँ कि ये शिव का इस्तेमाल ‘फिक्शन’ के तौर पर कर रहे हैं।

बात समझ में आ रही है?

और ये वो लोग हैं जिनके शब्दकोश में पवित्रता, पावनता जैसा कोई शब्द ही नहीं है; इनके लिए कुछ ऐसा है ही नहीं जो पवित्र है। आप जिस भी चीज़ को पवित्र बोलो, उसको गंदा कर देने में, उसका मज़ाक बना देने में, इनको एक वीभत्स मज़ा मिलता है। ये आंतरिक रूप से बड़े विकृत हो चुके लोग हैं बेचारे। मैं तो ये सोच कर दुखी हो जाता हूँ कई बार कि इनका अपना व्यक्तिगत, निजी जीवन कितने ज़हर में कितने दुख में और कितनी आंतरिक पीड़ा में बीतता होगा। और अपनी उसी आंतरिक पीड़ा, जो इनके अज्ञान से जन्मी हुई है; अपनी उसी आंतरिक पीड़ा को ये फिर दुनिया में फैलाते रहते हैं दुनिया को पीड़ित कर करके। तो ये सब चल रहा है।

प्र: ये बड़ी विडंबना है कि जिसने इस पोस्ट के लिए शिव पुराण को चुना होगा, वो सनातनी होगा और बड़ा भक्त होगा हिंदू धर्म का और उसका उद्देश्य तो शायद ये होगा कि मैं इस पोस्ट के माध्यम से दुनिया को ये बता दूँ कि हिंदू धर्म के पास इसका भी इलाज था।

आचार्य: बिलकुल, और ये कितनी मूर्खतापूर्ण बुद्धि है जिसने भी चलाई है। बिलकुल सही पकड़ा आपने कि किसी अन्य धर्मावलंबी ने ये जो व्हाट्सएप फॉरवर्ड है वो नहीं चलाया है। ये चलाया है किसी सनातनी ने ही और उसने अपनी सीमित बुद्धि बहुत ज़ोर से लगा दी है। उसने कहा “देखो मैं ऐसा करूँगा और ऐसा करने से साबित हो जाएगा कि हिंदू धर्म तो श्रेष्ठ है और हमारे पुराणों में तो पहले ही कोरोनावायरस की भविष्यवाणी लिखी हुई थी।” ये जो भी पागल आदमी है, इसको ये नहीं समझ में आ रहा कि ये कर के तुमने सनातन धर्म को ही और हास्यास्पद बना दिया।

प्र: आचार्य जी, मैं बार-बार इस ग्रंथ के ही चुनाव पर आकर अटक रहा हूँ, क्या पोस्ट बनाने वाला या षड्यंत्रकारी शिव पुराण की जगह गुरु ग्रंथ साहिब को, या बाइबल को, या क़ुरआन को चुन सकता था?

आचार्य: नहीं, नहीं चुन सकता था। और उसकी वजह पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं; बड़प्पन बहुत है सनातन धर्म में। बड़प्पन जब इंतेहा से ज़्यादा बढ़ जाए तो वो ‘वृद्धपन’ हो जाता है (व्यंग करते हुए)। बच्चे से बड़ा जो होता है, वो जवान होता है, जवान से बड़ा जो होता है, मैं उम्र की बात कर रहा हूँ अभी, वो प्रौढ़ होता है; और, और ज़्यादा उम्र हो जाए तो फिर वृद्ध हो जाता है, और ज़्यादा उम्र हो जाए तो वो जर्जर कृशकाय हो जाता है बिलकुल। वो फिर प्रतिक्रिया करने से घबराने भी लगता है।

प्र: क्या आंतरिक मजबूती जब बहुत ज़्यादा हो जाती है तो सांसारिक रूप से कमज़ोरी बन जाती है?

आचार्य: नहीं, आंतरिक मज़बूती की ये निशानी नहीं है कि आप जानें ही न कि कब आपको किसी मुद्दे पर प्रतिक्रिया करनी है या नहीं करनी है। आंतरिक मज़बूती से तो विवेक आता है, आतंरिक मज़बूती से तो धर्म जागृत होता है। जहाँ पर आपको कुकृत्य करने वाले के, विधर्मी के हाथ पकड़ लेने चाहिए थे, आप वहाँ भी न पकड़ें तो ये मज़बूती का तो लक्षण नहीं है, ये कमज़ोरी का ही लक्षण है।

ये कमज़ोरी कहाँ से आ रही है? ये कमज़ोरी वहीं से आ रही है कि भाई, तुम्हारे पास दुनिया का ऊँचे-से-ऊँचा साहित्य है; उपनिषद क्यों नहीं पढ़ते? धर्म के नाम पर अधिक से अधिक कोई आम हिन्दू कुछ जानता है तो वो है संस्कृति। उससे पूछो कि, "तुम हिन्दू हो, हिन्दू होने का मतलब क्या है?" तो वो कहेगा, "होली-दिवाली मनाना।" तुम उससे पूछो कि, "तुम हिन्दू हो, हिन्दू होने का लक्षण क्या है?"

तो वो कहेगा “हम गंगा मइया को मानते हैं, हम गाय की पूजा करते हैं, हम इस तरह के दो-चार काम करते हैं।”

उससे पूछो “भाई, कोई केंद्रीय दर्शन है तुम्हरा? कोई केंद्रीय आस्था है तुम्हारी?”

कहेगा “हम भगवन को मानते हैं।”

“भगवान क्या है?” वो बता नहीं पाएगा।

तो धर्म के प्रति ये जो अन्धकार है, धर्म के प्रति ये जो अशिक्षा है, इसने आम हिन्दू को कहीं का नहीं छोड़ा। उपनिषद् हैं और उपनिषदों से ज़्यादा लघु और रसपूर्ण वक्तव्य पूरे विश्व में नहीं है। जैसे कोई छोटा सा फल हो रसीला, रस से भरा हुआ; एकदम छोटा है लेकिन उसके भीतर रस ही रस है। कुछ उपनिषद् तो ऐसे हैं जिसमें बमुश्किल बीस से तीस श्लोक होंगे। कोई भी उपनिषद ऐसा नहीं है कि वो आपके सामने एक भरी किताब की तरह आए। लेकिन औसत हिन्दू को तो छोड़ दो, जो बिलकुल पढ़े-लिखे और अपने आप को बुद्धिजीवी कहने वाले हिन्दू होते हैं, वो भी उपनिषदों को आम तौर पर हाथ नहीं लगाते।

मैं कह रहा हूँ, भई धर्म समझ के नहीं पढ़ना है तो दर्शन समझ के ही पढ़ लो। मैं समझता हूँ कि कुछ लोगों के मन में धर्म अभी एक ज़हरीला शब्द हो चुका है, धर्म हो चुका होगा ज़हरीला शब्द आपकी ज़बान में, क्या दर्शन भी ज़हरीली है? उपनिषद मूलतः दार्शनिक वक्तव्य हैं; उन्हें पढ़ तो लो भई।

पुराणों की ओर जाओ उनमें जो कथाएँ लिखी है उनको अगर दैवीय बात न मान कर, या मनोरंजन का मसाला न मान कर, दो अलग सिरे हैं, हम दोनों की ही बात कर लेते हैं, कभी तो हम उनको बिलकुल मनोरंजन की वस्तु बना लेते हैं और कभी हम कह देते हैं कि ये भगवान का शब्द है। नहीं, अगर तुम उनको संकेत समझो, इशारा समझो और उनके भीतर छुपे हुए सत्य को खोजने की कोशिश करो, ज़रा बुद्धि लगाओ उनके साथ, तो अमूल्य रत्न मिलेंगे। न जाने जीवन के बारे में कितनी बातें समझ में आ जाएँगी। और इसी का नाम तो धार्मिकता है, जीवन को समझना ताकि आप एक सुंदर, आनंदप्रद ,और मुक्त जीवन जी सकें, यही तो धार्मिकता है, इसके अलावा और क्या है? लेकिन नहीं, बड़े विपदा का समय है ये दुनिया के सभी धर्मों के लिए और विशेषकर सनातन धर्म के लिए।

प्र: जो ये नस्ल है, जो आज की पीढ़ी है वो पुराणों तक, उपनिषदों तक नहीं जा पा रही है; इसमें आप ऐसे लोगों को ज़्यादा दोषी मानते हैं जो ये अफवाह फैला रहे हैं हिंदू धर्म के नाम पर या वैसों को ज़्यादा दोषी मानते हैं जिन्होनें हिन्दू धर्म की एक बड़ी काली छवि रंग दी है कि इसका मतलब तो सिर्फ जाति व्यवस्था ही है?

आचार्य: देखिए, दोषी तो कोई व्यक्ति कभी नहीं होता, दोषी तो हमारी जो शारीरिक वृत्तियाँ होती हैं, दोषी तो हमारी जो मानसिक वृत्तियाँ होती हैं वही हैं। इसीलिए दोष किसी एक व्यक्ति को देना ठीक होगा नहीं। आप पूछेंगे दोष किसका है, तो मैं कह दूँगा ‘हमारा’। माने कह दीजिए माया का; हम हैं ही सब मायावी लोग। तो ये कहना किसका दोष है ये बात बड़ी नहीं, बात ये है कि इसका निदान कैसे हो।

और उसका निदान है दो तरह की शिक्षा, जो बात मैं पहले भी कर चुका हूँ; विज्ञान की गहरी शिक्षा और अध्यात्म की भी बराबर की गहरी शिक्षा। आदमी की बुद्धि भी चलनी चाहिए और आदमी में आस्था करने का दम भी होना चाहिए। जिसकी गहरी बुद्धि चलती हो और जो गहराई से आस्थावान हो, ऐसे आदमी की बात निराली होती है; ये चाहिए हमें।

प्र: आचार्य जी, आज तीसरा अवसर है जब इस श्रृंखला में आपके समक्ष बैठने का अवसर मिला है। बहुत लोग पिछले दो वीडियोस को सुन कर लगातार संस्था में संपर्क कर कह रहे हैं कि उन्हें बहुत लाभ हो रहा है घर पर बैठे-बैठे। इस वक्त आप क्या संदेश देना चाहेंगे देशवासियों को और विश्व भर में जो भी आपको सुन रहें हैं कि आने वाला समय कैसा होने वाला है?

आचार्य: देखिए, आने वाले दिन अच्छे तो नहीं ही होने वाले हैं; दुनिया भर में मृतकों की संख्या करीब-करीब पच्चीस हज़ार पहुँच ही चुकी है। आधिराकीक तौर पर जितने मामले कोरोनावायरस के अभी तक पुष्ट हुए हैं वो पाँच लाख से थोड़े से ज़्यादा है, उनमें से पच्चीस हज़ार लोग मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। ये करीब-करीब पाँच प्रतिशत की मृत्यु दर की बात हो गई। शायद हम लाखों मौतों की तरफ बढ़ रहे हैं और हो सकता है कि जब मैं कह रहा हूँ लाख तो वो एक छोटा आँकड़ा हो।

कम-से-कम इतना कर लीजिए कि मन अस्वस्थ ना हो। तन को अस्वस्थ होने से हम कितना बचा पाएँगे और कितने लोग बचा पाएँगे ये अभी निश्चित नहीं है, लेकिन मन अस्वस्थ न हो इतना तो कर लीजिए। और मन की रुग्णता में, मन की बीमारी में बड़ा हाथ अफवाहों का होने वाला है, गलत मान्यताओं का होने वाला है; उनसे बच कर रहिए। आपको आने वाले समय में बात अगर माननी है तो, जैसा मैंने कहा, विशेषज्ञों की माननी है, चिकित्सकों की माननी है, वैज्ञानिकों की, शोधकर्ताओं की माननी है।

दुनिया का कोई धर्म ग्रंथ नहीं है, कोई धर्म ग्रन्थ नहीं है, मैं सभी धर्मों की बात कर रहा हूँ, जिसमें कोरोनावायरस को लेकर के एक शब्द भी कहा गया हो; चाहे वो सनातन धर्म हो, इस्लाम हो, ईसाइयत, यहूदी धर्म हो, दुनिया का कोई पंथ हो, किसी पुरानी किताब में कोरोनावायरस का कोई उल्लेख नहीं है और ना ही उसकी चिकित्सा या उपचार का कोई मंत्र बता दिया गया है।

तो आम आदमी के पास एक ही सहारा है और वो है चिकित्सकों की सलाह। धर्म ग्रंथ इसमें काम नहीं आने वाले क्योंकि धर्म ग्रंथों का ये काम ही नहीं है कि वो भविष्यवाणियाँ करते फिरे कि आने वाले समय में ये होगा, वो होगा; ये कबूतरबाज़ी थोड़े ही करते हैं धर्म ग्रंथ कि आगे के लिए कुछ भी बोल दिया ऐसा वैसा। बुद्धि का इस्तेमाल करें, विवेक पर चलें, यही धार्मिकता है।

बात समझ में आ रही है? यही धार्मिकता है!

अगर कोई सच्चा धार्मिक नेता होगा, चाहे वो जिस भी धर्म से हो; तो वो इस वक्त वो अपने सुनने वालों को, अपने अनुयायियों को यही सलाह देगा कि विवेक का इस्तेमाल करो, तुम्हारा भगवान, तुम्हारा गॉड, तुम्हारा अल्लाह यही चाहता है तुमसे; वो इस वक्त चिकित्सक बन कर बात कर रहा है तुमसे, उसकी बात सुनो। सामने वो चिकित्सक है और तुम्हारे भीतर वो तुम्हारा विवेक है जो तुम्हें उस चिकित्सक की बात सुनने के लिए प्रेरित कर रहा है। यही भगवत्ता है, यही धार्मिकता है, यही आप करें।

क्योंकि देखिए जैसे-जैसे डर, और दहशत और असुरक्षा का माहौल बढ़ेगा, जैसे-जैसे शहरों में, मोहल्लों में, लाशें गिरना शुरू होंगी दुर्भाग्यवश; वैसे-वैसे अफरा-तफरी मचेगी, लोग त्राहिमाम करेंगे। और जब उस तरह की अफरा-तफरी और अव्यवस्था फैलती है तब जो समाज विरुद्ध लोग होते हैं उनकी चांदी हो जाती है। अतीत में भी जब महामारी फैली है, भारत में और दुनिया के अन्य देशों में भी या अकाल फैले हैं, जब भी कभी ऐसा हुआ है कि सामाजिक व्यवस्था एक बड़े व्यापक पैमाने पर चरमराई है तो गिरहकटों के, जेबकतरों के, डाकुओं के, चोरों के, लुटेरों के, इनके मज़े आ जाते हैं। क्योंकि अब सब कुछ उलट-पुलट हो चुका है; पुलिस बल में इतनी ताकत नहीं कि हर आदमी के सर पर खड़ा हो जाएगा। और ये जो अफवाहबाज़ लोग हैं, जो धर्म को लेकर के अफवाहें उड़ाते हैं, जो कहते हैं कि यहाँ ये लिखा है, वो लिखा है, कोई कहते हैं मुझे सपना आया था और सपने में मुझे फलाने ने दर्शन दे कर के कहा कि ऐसा हो जाएगा; ये जितने भी अफवाहबाज़ लोग हैं मैं इनको जेबकतरों, डाकुओं और चोर-लुटेरों की ही श्रेणी में रखना चाहूँगा।

इनमें से कई ऐसे होंगे जिनके मुँह से लार टपक रही होगी, इनमें से कई ऐसे होंगे जो अब अपेक्षा और उम्मीद में बिलकुल हाथ मल रहे होंगे कि समाज में दहशत फैले, लोगों का मन बिलकुल बहके, विचलित हो जाए, लोग डर के काँपने लगें और फिर हम उनको कुछ भी पट्टी पढ़ा कर के, उनहें झूठी उम्मीद दिखा कर के उनको किसी भी तरीके से लूट सकें, अपना उल्लू सीधा कर सकें। ऐसो से बच कर रहिएगा।

मैंने कहा, जो कुछ भी हो जाए शरीर के साथ, मन संतुलित रहना चाहिए, मन खराब मत होने दीजिएगा। आपके पास और कोई विकल्प नहीं है, इस बीमारी के विरुद्ध मन की ताकत ही आपकी सहायता करेगी। क्योंकि तन की वैक्सीन आप स्वयं तो बनाएँगे नहीं, तन की दवाई बनने में तो हो सकता है अभी छह महीने, साल भर, डेढ़ साल लग जाए। तब तक बताइए कौन है आपके साथ? शरीर तो अभी आपका बिलकुल अरक्षित है; शरीर पर तो वायरस कभी भी हमला कर सकता है। शरीर को तो इसीलिए आप समेटे बैठे हैं, छुपाए बैठे हैं कि वायरस आकर कहीं हमला न कर दे।

मन है आपका जिस तक आप रोक सकते हैं किसी भी वायरस को पहुँचने से। किसी भी वायरस की औकात नहीं कि एक सच्चे आदमी के, एक आध्यात्मिक आदमी के मन को संक्रमित कर सके। हाँ, आप धार्मिक हों, आप कुछ भी हों, तन तो आपका ये वायरस पकड़ ही सकता है। कोई ये न कहे कि साहब, मैं तो बड़ा पूजा-पाठ वाला आदमी हूँ, या मैं तो बड़ा नमाज़ी हूँ तो मुझे तो ये वायरस पकड़ेगा नहीं। ये पागल है; जो भी आदमी ये कह रहा है उसने ना कभी पूजा को समझा ना नमाज़ को समझा। उसको कहाँ से नमाज़ का फल मिलेगा जब उसने आज तक नमाज़ को समझा ही नहीं? जो आदमी कहे कि मैं नमाज़ी हूँ और इसलिए मुझे वायरस नहीं लगेगा, ये आदमी नमाज़ी भी नहीं है। क्योंकि अगर पूजा सच्ची हो तो पूजा का फल होता है विवेक और सद्बुद्धि, जब सद्बुद्धि आई ही नहीं तो मतलब तुमने पूजा करी ही नहीं, तुम्हारी पूजा ही झूठी थी।

तो शरीर तो हमारा अभी इस वक्त बड़ी असुरक्षा की हालत में है और रहेगा भी, हम कुछ कर नहीं सकते। मन को बचाइए, मन को तगड़ा करिए। ये जो खाली समय मिला है अभी लोगों को, मैं कह रहा हूँ, उसमें भीतर की तरफ मुड़िए, अपने हाल को देखिए, एकांत में समय बताइए, जीवन के उन पहलुओं पर गौर करिए जिनपर आप आम तौर पर ध्यान नहीं देते, उपेक्षा कर देते हैं। उच्चतम आध्यात्मिक साहित्य पढ़िए; हो सकता है कि ये मौका आपको जीवन में दोबारा न मिले। ऊँचे-से-ऊँचा साहित्य पढ़ने का ये आपको मौका मिला है ये मौका आप न गवाएँ। हो सकता है कि ये बीमारी आपके लिए आशीर्वाद बन कर आई हो। तो इस समय का पूरा-पूरा सदुपयोग करें।

प्र: आचार्य जी, इस वक्त लो घर से बाहर नहीं निकल सकते, संस्था के द्वारा आयोजित शिविरों में शिरकत नहीं ले सकते। संस्था की ओर से क्या कदम उठाए जा रहे हैं कि लोग अब घर बैठे लाभ ले सकें?

आचार्य: ये हम बात कर तो रहे हैं न? देखिए, संस्था का उद्देश्य क्या है? ये संस्था हमारी अस्तित्व में ही क्यों है? संस्था का उद्देश्य यही है न की सच को घर-घर तक पहुँचाया जाए। और जन-जन के भीतर सच्चाई की रौशनी जगे, जले। तो लोगों को अभी समय मिला है, उस समय में उनको क्या करना चाहिए उसके लिए भी हमने सलाह दे दी, किन बातों से बचना चाहिए हम उसकी भी बात कर रहे हैं। ये काम हो तो रहा है संस्था का।

प्र: एक प्रश्न है, आचार्य जी, जो श्रोतागण हैं उनसे आया है। उन्होंने अपने जीवन से ही ये प्रश्न पूछा है और कह रहे हैं कि मुझसे ही मिलते जुलते और भी व्यक्ति हैं जो इस समस्या से इस वक्त जूझ रहे हैं और अगर आचार्य जी इस पर कुछ बोल पाएँ तो कृपा होगी। बैंगलोर से अट्ठाइस वर्षीय युवक हैं। पूछ रहे हैं कि जो मानसिक रूप से रोगी हैं, खास तौर पर जिन्हें पैनिक अटैक आते हैं या ओ. सी. डी. है; उनकी इस वक्त इस बीमारी के समय बड़ी हालत खराब हो रही है क्योंकि दो तरीके से वायरस फैलता है, एक तो छींकने खाँसने इत्यादि से और दूसरा छूने से। वो छूने का जो भय है वो किसी भी वस्तु में हो सकता है। तो वो अपना अनुभव बता रहे थे कि मुझे दिखता है कि यहाँ वायरस है वहाँ वायरस है। मैं बिस्तर पर लेटने जाता हूँ तो मुझे लगता है कि पूरी चादर पर वायरस है मैं लेट भी नहीं पा रहा हूँ। इस विक्षिप्तता की ओर लोग ना बढ़ जाएँ उसके लिए क्या कदम उठाया जा सकता है?

आचार्य: एक ही चीज है, हो सकता है मेरी बात आपको उबाऊ लगे, हो सकता है आपको लगे कि मैं अपनी पुरानी ही बात दोहरा रहा हूँ, लेकिन सब तरह के मनोविकारों का इलाज तो एक ही है; उसका नाम है आत्म-ज्ञान। उस मन को जानो जो परेशान है, उस मन को जानो जो इस तरह के विचलन में है, दुविधा में है, जो इतना डरा हुआ है। डर को मिटाना है तो उस मन को समझना पड़ेगा जो डरा जाता है। तो उसके अलावा कोई तरीका नहीं है। ऊँचे-से-ऊँचे ग्रंथ हैं, उनकी सूची संस्था से उपलब्ध है, संस्था के वीडियो में उनका बार-बार उल्लेख हुआ है, उनको पढ़िए। एक बार आपने उन बातों पर, वक्तव्यों पर, श्लोकों पर मन लगा दिया तो मन को फिर डरने में रुचि आएगी ही नहीं। मन डरता भी इसलिए है क्योंकि मन के पास डर से बड़ी कोई दूसरी चीज होती नहीं। जो बातें, जो वचन, जो श्लोक ले जाते हैं सच्चाई की ओर, जीवन की हकीकत की ओर, मन के केंद्र की ओर, वो डर से बहुत ज़्यादा बड़ी चीज़ हैं; उनके सामने डर टिक नहीं पाता।

तो डर तभी तक बड़ा है जब तक आप उससे दूर हैं जो वास्तव में बड़ा है। जो वास्तव में बड़ा है उसकी ओर जाइए, डर अपने आप छोटी चीज़ हो जाएगा।

प्र: धन्यवाद आचार्य जी, आज आपने आपको सुनने का अवसर सभी को दिया। हमने शिव पुराण से संबंधित एक अंधविश्वास का जिक्र किया और आपने बताया कि इस अंधविश्वास में तुम इसीलिए फँसे हो क्योंकि तुमने शिव पुराण पढ़ा ही नहीं था और आज का सत्र खत्म भी ऐसे ही हुआ कि समय का सदुपयोग आप सुंदर-से-सुंदर साहित्य को और ग्रंथों को पढ़ने में करें।

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