आचार्य प्रशांत: (प्रश्न पढ़ते हुए) सौरभ झांगिड़ हैं, कह रहे हैं कि “सर (महोदय), मुझे अपनी नौकरी में काफ़ी कोशिशों के बाद भी तरक्की नहीं मिल पा रही है। मैं सेल्स -विभाग में हूँ, और मेरे सीनियर्स का कहना है कि मैं क्लाइंट्स का मन नहीं पढ़ पाता हूँ इसलिए सेल्स में विफल रहता हूँ। पिछले कई महीनों से यूट्यूब पर दूसरों के मन को पढ़ने के तरीकों पर वीडियोज़ देख रहा हूँ, कोई सटीक तरीका मिला नहीं। आप बताइए कि क्या वेदांत में दूसरों के मन को पढ़ने की विधि मौजूद है?”
सौरभ, वेदांत के माध्यम से दूसरों का मन पढ़ना चाहते हो। वेदांत सबसे पहले तुमको बताता है कि “जिन्हें तुम दूसरा कह रहे हो, उनमें और तुममें बहुत कम अंतर है।“ और यही मूल भ्रम है, यही मूल अहंकार है, कि तुम सोचते हो कि तुम दूसरों से अलग हो। ‘मैं’ कहने का अधिकार हमें तभी मिल जाता है न, जब हम कहते हैं कि “वो दूसरा है जो एक अलग इकाई है, और मैं हूँ जो उस दूसरे से, तीसरे से, चौथे-पाँचवें से मैं एक अलग इकाई हूँ।“
अपने-आप को किसी और से अलग कहने के लिए तुम्हें ये मानना पड़ेगा कि उसमें और तुममें कुछ मूलभूत भेद है, है न? ठीक है? इसी मूलभूत भेद के आधार पर ‘मैं' की भावना तैयार रहती है। वेदांत बताता है कि “सबसे पहले तो तुममें और दूसरों में जो भेद दिखाई पड़ते हैं वो बड़े सतही हैं, तुम और दूसरे उतने अलग-अलग हो ही नहीं जितना ऊपर-ऊपर से लगता है।“ ऊपर-ऊपर से तो ये लगता है कि — “ये मेरा शरीर है, वो दूसरे का शरीर है, तो हम दोनों अलग हो गए।“
“ये मेरा घर है, वो दूसरे का घर है, दोनों घर अलग-अलग हैं, तो हम दोनों अलग-अलग हो गए।“ “ये मेरा परिवार है, वो उसका परिवार है, दोनों के परिवार अलग-अलग हैं, तो हम दोनों अलग हो गए।“ “ये मेरा अतीत, इतिहास है, वो उसका अतीत है, हम दोनों के अतीत अलग-अलग हैं, तो हम दोनों अलग हो गए।“
तो ये सब चीज़ें एक-दूसरे से जब हम भिन्न पाते हैं तो हम सोचते हैं कि हम एक-दूसरे से अलग हैं, भिन्न हैं। वेदांत कहता है, “नहीं, ये जो भिन्नताएँ हैं, असमानताएँ हैं तुममें और दूसरे में, वो सतही हैं।“
उदाहरण के लिए, तुम्हें ये दिखाई पड़ता है कि तुम्हारा शरीर दूसरे से अलग है, लेकिन तुम दोनों ही मानते अपने-आप को शरीर हो। ठीक है न? उदाहरण के लिए, तुम्हें दिखाई पड़ता है कि तुम्हारा घर दूसरे से अलग है, लेकिन तुम दोनों में ही ज़बरदस्त वृत्ति है घर बनाने की और घर में रहने की, है न? उदाहरण के लिए, तुम दोनों के परिवार अलग हैं, पर तुम दोनों ही अपने-आप को परिवार से ही पैदा हुआ मानते हो, परिवार से ही संबंधित मानते हो, है न? उदाहरण के लिए, तुम दोनों की जन्मतिथियाँ अलग हैं, पर तुम दोनों ही अपने-आप को जन्मा हुआ मानते हो। तुम दोनों की ही मृत्यु की भी तारीखें अलग-अलग होंगी, लेकिन मरोगे तुम दोनों ही। तुम दोनों खाना अलग-अलग खाते हो, लेकिन खाते तुम दोनों ही हो। तो वेदांत तुम्हें समझाता है कि “बेटा, तुम्हें लग रहा है कि तुम दोनों अलग-अलग हो, लेकिन मामले की जितना करीब जा कर के जाँच करोगे, उतना तुम्हें समझ में आएगा कि उतने अलग-अलग हो नहीं। जितना गहरे जाते जाओगे, उतना तुम समानताएँ पाते जाओगे, और बहुत गहरे चले गए तो एकत्व मिल जाएगा।“
समझ में आ रही है बात?
अब तुम कह रहे हो कि तुम दूसरों का मन नहीं पढ़ पाते हो। सबसे पहले तो ये जो ‘दूसरे’ हैं, ये दूसरे हैं कहाँ! और दूसरों का मन तुम्हारे मन से अलग है कहाँ! अपने मन को अगर पढ़ लो गहराई में जा कर के, तो दूसरों का मन भी पढ़ लोगे। और अगर अपने मन को जाने बिना दूसरों का मन पढ़ने की कोशिश करोगे तो क्या समझ में आएगा! मूलतः सबके मन एक हैं न भई!
किसके मन में डर नहीं, किसके मन में लालच नहीं, किसका मन अपनी सुरक्षा के लिए लालायित नहीं; किसके मन को लाभ नहीं चाहिए, किसका मन प्रेम के लिए नहीं तड़प रहा; किसका मन पुराने घावों के निशान ले कर नहीं बैठा, किसके मन में भविष्य के लिए कोई उम्मीद नहीं है? मन सबके एक जैसे ही हैं गहराई में; हाँ, ऊपर-ऊपर उनमें अंतर दिखाई देंगे। कोई अपने अतीत की ओर देखेगा, उसे बहुत ज़्यादा घाव दिखाई देंगे, कोई अपने अतीत की ओर देखेगा, उसको बड़ी सुनहरी यादें दिखाई देंगी, लेकिन हैं ये दोनों ही व्यक्ति संबंधित अपने अतीत से ही। तो मन तो सबका एक ही है, तुमने अपने मन को पढ़ लिया होता तो तुम दुनिया के मन को जान जाते। तो अपने मन को पढ़ने की कोशिश करो। खुद को जाने बिना दूसरे को जानने की कोशिश करना बिल्कुल व्यर्थ है, बेवकूफ़ी है, सफलता नहीं मिलेगी।
लेकिन अब उसमें एक खतरा बताए देता हूँ। अगर अपने मन को तुम जानने लग गए, तो बड़ी संभावना है कि तुम ये भी जान जाओगे कि तुम इस तरह की नौकरी कर क्यों रहे हो। कुछ बातें पर्दे में ही रहें, राज़ ही रहें, तो हमारे जीवन की व्यवस्थाओं के लिए अच्छा रहता है। वो राज़ जब खुलने लगते हैं तो हमारे लिए फिर बड़ी तकलीफ़ें खड़ी हो जातीं हैं। तुम्हें ये पता लग गया अगर कि तुमने अपने जीवन में जो नौकरी चुनी है वो क्यों चुनी है, तो हो सकता है कि तुम अगले दिन उस नौकरी में पाए ही न जाओ! जब नौकरी में ही नहीं पाए जाओगे तो कौन पढ़ेगा फिर कस्टमर और क्लाइंट का मन? फिर सीनियर कहेंगे, “ये तो हमने बड़ी गलत सलाह दे दी इसको, कि मन पढ़ना चाहिए।
इसने मन पढ़ लिया अपना भी, हमारा भी, क्लाइंट का, सबका मन पढ़ लिया, और अपना मन पढ़ कर बोलता है कि अब इस नौकरी में मन नहीं है।“
खुद को जानो। जो खुद को जान गया, वो पूरी दुनिया को जान जाएगा; और ये कोई मुहावरा-मात्र नहीं है, ये एक तथ्य है, हकीकत है। ठीक है?