क्या शारीरिक दुःख के बीच अध्यात्म संभव है?

Acharya Prashant

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क्या शारीरिक दुःख के बीच अध्यात्म संभव है?
पीड़ा दुख तब बनती है जब आप पीड़ा के साथ जीने से इनकार करते हो। और पीड़ा के साथ जीने से इनकार आप अक्सर इसलिए करते हो क्योंकि अध्यात्मवादियों ने आपको बता दिया है कि जीवन आनंद है। तो आप कहते हो, आनंद तो मिल नहीं रहा, गुरु जी तो बता गए थे फूल बरसेंगे, फुहारें उठेंगी, जीवन नृत्य है, और वो तो कहीं दिख नहीं रहा। यहाँ तो कभी यहाँ (कोहनी में) दर्द होता है, कभी धूप लगती है, कभी कोई बीमारी लग जाती है, कभी कहीं शोर होता है, कभी कहीं कोई मौत देख लेते हैं। यहाँ तो जिधर देखो वहीं मौत का नाच चल रहा है। मृत्यु लोक ही है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या शारीरिक कष्ट के साथ हम अध्यात्म और समाधि की तलाश कर सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: शारीरिक कष्ट के साथ तो जीना ही है। उसके बिना अगर आप हो गए, तो फिर कौन-सी शांति चाहिए। शरीर स्वयं एक कष्ट है, कभी वो कष्ट बहुत बड़ा है, कभी वो कष्ट बहुत छोटा है। कष्ट तो उसी दिन शुरू हो गया था जिस दिन शरीर धारण किया था। जहाँ कष्ट नहीं है, वहाँ जीवन कैसा? वो तो रहेगा-ही-रहेगा। और उसी के साथ जीने की कला को कहते हैं अध्यात्म।

पीड़ा दुख तब बनती है जब आप पीड़ा के साथ जीने से इनकार करते हो। और पीड़ा के साथ जीने से इनकार आप अक्सर इसलिए करते हो क्योंकि अध्यात्मवादियों ने आपको बता दिया है कि जीवन आनंद है। तो आप कहते हो, आनंद तो मिल नहीं रहा, गुरु जी तो बता गए थे फूल बरसेंगे, फुहारें उठेंगी, जीवन नृत्य है, और वो तो कहीं दिख नहीं रहा। यहाँ तो कभी यहाँ (कोहनी में) दर्द होता है, कभी धूप लगती है, कभी कोई बीमारी लग जाती है, कभी कहीं शोर होता है, कभी कहीं कोई मौत देख लेते हैं। यहाँ तो जिधर देखो वहीं मौत का नाच चल रहा है। मृत्यु लोक ही है।

जीवन का तो अर्थ ही है कि? पीड़ा रहेगी-ही-रहेगी। लेकिन अगर आप ये धारणा न रखें कि पीड़ा गलत है, तो पीड़ा सताती नहीं। पीड़ा आई और पीड़ा का टकराव आपकी किस धारणा से होता है कि पीड़ा को नहीं होना चाहिए। और ये धारणा आपको किसने दी है? ये धारणा कुछ आपको तथाकथित अध्यात्म ने दी है, कुछ बाज़ार ने दी है, विज्ञापनदाताओं ने दी है, ये सब आपको सुख ही बेच रहे हैं न।

बाज़ार भी आपको सुख बेचता है। और मंदिर भी अक्सर आपको सुख ही बेच देता है कि आओ यहाँ बच्चा सुख मिलेगा। तो आपके भीतर ये भावना भर दी गयी है, कि सुख ही जीवन का उत्कर्ष है। और सुखी जीवन सम्भव है। आओ-आओ सुख देंगे। तो अब आप इस उम्मीद से, इस उपेक्षा से भरे बैठे हो कि क्या रहेगा जीवन में?

श्रोता: सुख।

आचार्य प्रशांत: सुख। और जीवन में होना क्या है?

श्रोता: सुख और दुख दोनों। दुख।

आचार्य प्रशांत: अभी दुख की नहीं बात हो रही है, अभी पीड़ा की बात हो रही है, समझिए। जीवन में पीड़ा होनी अवश्यंभावी है। जीवन में पीड़ा होनी अवश्यंभावी है। वो होगी-ही-होगी। पीड़ा आती है, और टकरा जाती है सुख की आपकी धारणा से। जब पीड़ा सुख की धारणा से टकराती है तो दुख का जन्म होता है। चूँकि आप सुख चाहते हो इसीलिए आपको दुख मिलता है। अन्यथा पीड़ा आए, और आप पीड़ा पी जाएँ, पीड़ा जी जाएँ, तो कहाँ दुख है?

दुख आपको पीड़ा नहीं देती, दुख आपको आपकी उम्मीदें देती हैं। सुख की उम्मीद ही आपको आनंद से वंचित रखती है। जो सुख माँगेगा वो पीड़ा को दुख बना लेगा। जो सुख नहीं माँग रहा, वो पीड़ा को पी जाएगा, पीड़ा उससे आर-पार गुज़र जाएगी। यही आनंद है कि पीड़ा हमें प्रभावित नहीं करती। हमें पीड़ा से कोई लेना-देना नहीं। पीड़ा हमारे लिए सहज है, साधारण है। दर्द आता है, हम कहते हैं, दर्द ही तो है। दर्द नहीं मिलेगा तो और क्या मिलेगा? दर्द का हमारे भीतर से कोई विरोध नहीं उठता। और जब आपके भीतर से दर्द का विरोध न उठे तब आपकी अवस्था को कहते हैं आनंद। अब आपको दुख प्रतीत नहीं हो रहा क्योंकि सुख आपको चाहिए नहीं। अब आप सुख-दुख दोनों से आज़ाद हैं। सुख-दुख दोनों से जो आज़ादी मिले, उसे आनंद कहते हैं।

बिलकुल पीड़ा का न विरोध करिएगा, न निरोध करिएगा, न उसे नाजायज़ समझिएगा। जिसने भी इंसान का जन्म लिया, उसे दर्द से गुज़रना होगा। और दर्द में जो बात है वो मज़े में, प्रसन्नता में है नहीं। दर्द में जो गहराई है वो कभी आपको खुशी में नहीं मिलेगी। दर्द अगर आपने जाना नहीं है, तो अपने ज़िंदगी ही नहीं जानी। दर्द के बिना कोई काव्य नहीं, दर्द के बिना कोई उपनिषद् नहीं, दर्द के बिना कहीं कोई गहराई, कोई सच्चाई नहीं। जब तक आपको गहरा दर्द नहीं मिला, तब तक आपकी हस्ती में कुछ अधूरा रह जाता है। जिसका दिल सौ दफ़े नहीं टूटा, उसको अभी दिल मिला ही नहीं। दिल चीज़ ऐसी है जो टूट-टूटकर बनती है।

इंसान वृत्तियों का पिंड ही पैदा होता है। ये वृत्तियाँ हमेशा ऐसा कुछ करेंगी ही कि पीड़ा आए, ये बात पक्की है। आपके हाथ की लकीरों पर ही नहीं, आपकी नाक पर, आपकी आँख पर, आपके बालों में, आपके होंठ पर, आपकी छाती पर, हर जगह लिखी हुई है, पीड़ा। हम पैदा ही ऐसे होते हैं, हमारा जन्म ही ऐसा है। माँ को तो पीड़ा देकर आदमी पैदा होता है।

बस ये करना कि ये जो कर्म हो रहे हैं वृत्तिवश, इनका जब फल आए, तो उस फल का विरोध करके नया कर्म मत पैदा कर लेना। सिर झुकाकर के उस फल को स्वीकार कर लेना। जिसने उस फल को स्वीकार कर लिया, वो आगे के लिए दुख तैयार नहीं करता।

प्रश्नकर्ता: एक पॉइंट था, मैं आचार्य जी ऐड (जोड़ना) करना चाहूँगा यहाँ पर। एक्सट्रीम पेन (बहुत सारा कष्ट) के बारे में मुझे लगता है कि सही टाइम है। जब मैं इस बात को बोलूँ। तो फॉर एग्ज़ाम्पल, सीरिया में बहुत ही बुरा हाल है इस समय, करेंटली सिविल वॉर चल रही है, पता नहीं कितने हज़ार लोग मर चुके हैं। और सिविलियंस की बहुत ही बुरी हालत है, मतलब। वो भी हमारे प्लेनेट पर, हमारे भाई-बहन हैं, जो भी हैं। तो कुछ लोग हैं उनकी सिचुएशन, मतलब डिस्क्राइब नहीं की जा सकती, मतलब उनकी फैमिली के बहुत सारे लोग मर गए हैं, और उनको अथाह पेन, अथाह दुख इस समय है। और उनके पास कोई रास्ता भी नहीं है, साधन भी नहीं है। तो इस बारे में कुछ कहना चाहेंगे आप? इस तरह के एक्सट्रीम पेन, जो इंसान के कंट्रोल में ही नहीं है। उसे समझ में ही नहीं आ रहा है कि क्या हो रहा है, और ऐसा क्यों हो रहा है, मतलब।

आचार्य प्रशांत: इस पूरी कहानी से आपका क्या लेना-देना है?

प्रश्नकर्ता: पेन (कष्ट) को डिस्कस करने के बारे में।

आचार्य प्रशांत: आप अपने पेन की बात करिए न।

प्रश्नकर्ता: नहीं, मेरे पास तो ऐसा पेन नहीं है। लेकिन मैं सोचता हूँ, कभी-कभी मेरी व्यथा उनके साथ होती है। कि कभी-कभी लाइफ़ ऐसी हो जाती है कि आपको पता ही नहीं चलता कि

आचार्य प्रशांत: आपको कुछ नहीं पता कि कहाँ क्या हो रहा है। जो जग गये हैं वो तो ये भी कहते हैं कि कहीं कुछ हो ही नहीं रहा। जिसकी आँखें साफ़ न हो उसे ये समस्या लेकर नहीं आना चाहिए कि मैंने देखा कि उड़ती चील गिर पड़ी। आँखें साफ़ नहीं हैं, और तुम समस्या क्या लेकर आ रहे हो कि मैंने देखा कि उड़ती चील गिर पड़ी। तुम्हें क्या समस्या लेकर आना चाहिए? कि आँखें साफ़ हों। अपनी समस्या बताइए। आपको क्या पता कहाँ क्या हो रहा है?

प्रश्नकर्ता: नहीं, तो उसी सिचुएशन में, जैसे मेरा एक।

आचार्य प्रशांत: मैंने जो बात बोली, समझ में आ गई?

प्रश्नकर्ता: जी, जी, जी।

आचार्य प्रशांत: आप पहले उस स्थिति में तो आइए जहाँ आप जान सकें कि घटनाओं का अर्थ क्या होता है। अपना परिष्कार करिए, अपने जीवन से संबंधित प्रश्न पूछिए, आपकी क्या दिनचर्या है, कैसे जीते हैं, किससे डरते हैं, क्या व्यथा है, अपनी बात करिए। जब आपकी दृष्टि निर्मल होगी तो आपको समझ में आएगा कि जिसको आप संसार कह रहे हैं वो चीज़ क्या है। फिर संसार के बारे में जो सवाल है वो अपने आप मिट जाएँगे।

सीरिया में कुछ हो भी रहा हो, तो इसीलिए हो रहा है क्योंकि लोग वैसे ही हैं जैसे हम सब हैं। कि अपने से हमें मतलब नहीं है, दूसरे से ज़्यादा मतलब है। तो इसलिए लड़ रहे हैं वहाँ पर। इंसान की फ़ितरत एक है। अगर अपने मन के शोधन से मतलब होता तो दूसरे पर हथियार चलाने की फुर्सत क्यों मिलती। जिस भावना के चलते आप यहाँ बैठे-बैठे वहाँ की बात कर रहे हैं, उसी भावना के चलते वो आपस में लड़ रहे हैं, यही उत्तर है। आप यदि अपने मन को समझ जाएँ, तो ये भी समझ जाएँगे कि वो क्यों लड़ रहे हैं। तो अपने मन को समझिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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