क्या सबकुछ भगवान की मर्ज़ी से होता है? || आचार्य प्रशांत (2022)

Acharya Prashant

22 min
334 reads
क्या सबकुछ भगवान की मर्ज़ी से होता है? || आचार्य प्रशांत (2022)

प्रश्नकर्ता: जैसे हम साँस ले रहे हैं, तो हम सोचते हैं कि हम ही कर रहे हैं। जबकि सहज हो रही है ये चीज़ें; हमारा कोई अपना एफर्ट (परिश्रम) नहीं है। अपनेआप बहुत सी चीज़ें हो रही हैं। लेकिन आपके यूट्यूब के कुछ लेक्चर्स में सुना था। हो सकता है वो सिचुएशन अलग ही बता रहे होंगे आप। लेकिन मुझे कंफ्यूजन (भ्रांति) हो रहा है। तो कृपया स्पष्ट कीजिए कि जब हम जीवन में किसी मुश्किल परिस्थिति में फँस जाते हैं तो फिर सोचते हैं भगवान जी करेंगे सबकुछ।

तो उस समय आपने बताया कि हमें ही करना है, भगवान अलग नहीं हैं। और मतलब सिचुएशन-सिचुएशन (परिस्थिति-परिस्थिति) में वही फ़र्क है कि सीता के आँसू हैं तो ठीक है, कैकेयी के आँसू हैं तो ग़लत चीज़ के लिए है।

तो 'मैं' जब सही डायरेक्शन (दिशा) में जा रहा है, जो चीज़ों के लिए काम करने की ज़रूरत है, ख़ुद से स्टेप लेना है, तो लो। वहाँ यह मत सोचो कि मैं कुछ नहीं कर सकता। और जहाँ अपनेआप हो रहा आराम-आराम से, वहाँ ज़्यादा मैं-मैं मत करो। वहाँ मेरी समझ यह है। (प्रश्नकर्ता हँसती हैं)

आचार्य प्रशांत: (मुस्काते हुए) जो सही काम है वो अपनेआप आराम-आराम से कभी नहीं होगा। कभी नहीं होगा!

सही काम तो संघर्ष से ही होता है। अपनेआप आराम-आराम से प्राकृतिक काम हो जाएँगे; नींद आ जाएगी, भूख लग आएगी। आप पानी गिरा देंगे, पानी बह निकलेगा आराम-आराम से अपनेआप; पोछा लगाने में तो मेहनत ही करनी पड़ती है।

सहज का अर्थ प्राकृतिक नहीं होता, सहज का अर्थ आत्मिक होता है। जो आप पढ़ते हैं न इधर-उधर से कि जीवन को सहजता से बहने दो, वो बड़े अर्थ का अनर्थ होता है। सहजता का मतलब यह नहीं होता कि जैसे सहज साँस चलती है। इसको नहीं सहज बोलते। सहज का अर्थ होता है 'आत्मिक'। आत्मा की तरफ़ बढ़ना सहजता है। बाक़ी सब असहज है।

आप बैठे हैं, आप कुछ भी उल्टा-पुल्टा सोच रहे हैं, साँस तो चल ही रही है। तो आप उसको सहज कैसे बोल दोगे? एक आदमी हत्या भी कर रहा होता है, एक आदमी पूरी तरह भ्रम में होता है, एक आदमी नशे में होता है, साँस तो सबकी चल रही है, तो यह सहज कर्म थोड़े ही हो गया। जो कुछ भी असली है वो संघर्ष माँगता है।

तो इससे क्या बात निकल आयी? बिना संघर्ष के कोई सहजता नहीं होती। सहज माने 'आसान' नहीं होता, सहज माने 'मुश्किल' होता है।

मुझे भी थोड़ा सा लगता है कि कितनी सारी चीज़ें मैं तीन दिन के अंदर अलग करके बताऊँ, तोड़ूँ। क्योंकि आप कुछ भी बोलते हैं वो वहीं से आ रहे होते हैं, उसको अलग करना पड़ता है।

इस तरह की बहुत सीख है गुरुओं की, "जीवन तो आसान है, हम उसे कठिन बना लेते हैं" और "जीवन को सहजता से बहने दो।" ये गड़बड़ बातें हैं। लेकिन ये सीख सुनने में बहुत मीठी लगती है कि जीवन तो आसान है, सहजता से बह रहा है, नदी की तरह है, हम उसमें बाँध खड़े कर लेते हैं। नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।

जीवन आसान नहीं है। और जिनका जीवन आसान है संघर्ष के बिना ही, वो पशुओं जैसा जीवन जी रहे हैं। क्योंकि पशुओं को कुछ नहीं करना होता संघर्ष। उनका जीवन उनकी पशु वृत्ति के बहाव से बहता रहता है। समय पर उठ जाते हैं, समय पर खाना खा लेते हैं, साँझ ढलते ही सो जाते हैं, फिर सुबह उठते हैं, फिर खाना खा लिया, फिर सो गये। इसको सहजता थोड़े ही बोलते हैं, ये पाशविकता है।

जो लोग कहते हैं कि जीवन आसान है, सहज है, वो ये मान कर चल रहे हैं कि आप ठीक हैं। और जो बात मैं कह रहा हूँ वो शुरू ही यहाँ से होती है कि आप ठीक नहीं हैं। आप जन्म से ही ठीक नहीं हैं। लेकिन उस बात को, जो दूसरी बात है, कि मान लो सब ठीक है और सहज चलने दो जीवन को, उस बात को मानने का आपका मन करेगा। क्यों? क्योंकि उस बात को अगर मान लोगे तो कुछ ठीक करने की ज़िम्मेदारी से बच जाओगे। आपने जब मान लिया कि पहले से ही सब कुछ ठीक है, तो कुछ भी ठीक करने के श्रम से बच गये न आप। तो मन यही करेगा कि उसी बात को मान लो।

मैं जो बात कह रहा हूँ उसको मानने में तकलीफ़ लगेगी। क्योंकि पहली बात तो चोट लगती है यह मानने में कि 'कुछ भी ठीक नहीं है? हम इतने बौराये हैं? हमें कुछ भी नहीं पता? सब ग़लत है?' तो पहली बात तो इस तरह का आंतरिक अपमान झेलो कि सब ग़लत है और फिर मेहनत करो उसको ठीक करने के लिए। अपमान भी और मेहनत भी। तो कौन इस बात को माने! इससे अच्छा यही लगता है यही मान लो कि "बच्चे जैसे हो जाओ," "जीवन को सहज बहने दो।"

ये ख़तरनाक बातें हैं! दूर रहा करिए।

"बच्चे जैसे हो जाओ," माने क्या करो? बिस्तर गंदा करो? सहज तो यही होता है। प्राकृतिक रूप से तो यही होता है सहज।

न प्रेम सहजता से हो जाएगा, न बोध सहजता से हो जाएगा। वास्तविक प्रेम में भी बहुत संघर्ष लगता है; अपने ख़िलाफ़ लड़ना पड़ता है। बोध में भी बहुत संघर्ष लगता है। कुछ भी जो जीवन में ऊँचा है, वो सहज नहीं हो जाएगा, वो संघर्ष माँगेगा। उसी संघर्ष में असली सहजता है।

अपनेआप तो घास-फूस ही उगते हैं। खेत तक में किसान मेहनत करता है तब फसल आती है। यूँही क्या उग आते हैं? झाड़।

प्र२: आचार्य जी, मेरा प्रश्न यह है कि सकाम कर्म जो है उसमें संसार ही साध्य हो जाता है। और निष्काम कर्म के लिए संसार का केवल एक साधन की तरह उपयोग करते हैं। तो निष्काम कर्म कर पाने के लिए क्या योग्यता होती है? और इसमें अनुग्रह या अनुकंपा का क्या स्थान है?

आचार्य: योग्यता नहीं होती है, स्थिति होती है। इसमें तुमको पात्रता नहीं चाहिए। तुम्हारी स्थिति ही काफ़ी होती है तुम्हें निष्कामता की ओर भेजने के लिए।

प्र२: पूर्णता की स्थिति।

आचार्य: नहीं, पूर्णता नहीं, अपूर्णता की स्थिति। तुम जब अपूर्ण हो तो तुम्हें पूर्णता चाहिए न, तुम्हें दुनिया से क्या काम? यही निष्कामता है।

निष्कामता के लिए तुम्हें कोई पात्रता नहीं चाहिए। तुम्हें ये अभिस्वीकृति चाहिए, ये समझ चाहिए कि यहाँ ठोकरों के अलावा कुछ नहीं मिलना है। नहीं समझ में आया हो तो बोलो। और अनुग्रह वग़ैरा की कोई बात नहीं है इसमें। चुनाव की बात है। अनुग्रह बोल कर के तो टाल दिया, किसी और पर डाल दिया कि उसका अनुग्रह होगा तो हमें फिर निष्कामता होगी, नहीं तो नहीं होगी। कोई अनुग्रह वग़ैरा की बात नहीं है।

देखो, ले-देकर जानते तो सभी हैं कि कटोरा खाली है। मिला तो कुछ है नहीं और ये जानने के लिए किसी धर्मग्रंथ की भी ज़रूरत नहीं। आईने के सामने खड़े हो जाओ, अपना मुँह बता देता है कि ज़िंदगी में क्या मिला है। आँखें बता देती हैं कितनी रिक्तता है। तो पता तो सबको है ही कि मामला यहाँ बन तो रहा नहीं कुछ। बात अटकती है चुनाव पर। कुछ लोग होते हैं जिनमें ये साहस ही नहीं होता कि वो मान लें कि चोट-ही-चोट खा रहे हैं और दुत्कार पा रहे हैं और बदलाव ज़रूरी है। वो लगे ही रहते हैं अपने ढर्रों पर।

और एक दूसरा मन होता है जो चयन करता है, 'चयन'। अनुग्रह की बात नहीं है, तुम्हारे अपने चुनाव की बात है। वो चयन करता है कि अपनेआप को और धोखा अब नहीं दे सकता। और इसमें कोई बाहरी शक्ति सहायक नहीं होने वाली। ये तो देखो तुम्हें ही करना है चुनाव। ठीक है? या तुम दूसरे शब्दों में सुनना चाहते हो तो कह सकते हो कि बाहर से जितनी सहायता मिल सकती है, वो मिल ही रही है। वो सहायता भी तुम्हें लेनी है कि नहीं लेनी है, यह तुम्हारे चुनाव की बात है। तो अनुग्रह कुछ नहीं होता, चुनाव ही सबकुछ होता है।

अनुग्रह इतना सर्वव्यापक है, इतना बेशर्त है कि उसकी बात करना ही व्यर्थ है। कुछ ऐसा हो जो कभी-कभार होता हो तो उसको हम कुछ मूल्य भी दें। अनुग्रह अमूल्य है, क्योंकि अनुग्रह निर्विशेष है। वो सदा है, वो प्रतिपल है। वो हवा की तरह है, वो हर जगह है; चुनाव तुम्हें करना है कि तुम कब साँस लोगे। तुम साँस नहीं ले रहे, तुम कहो जब हवा का अनुग्रह होगा तो साँस लूँगा, ये कोई बात है? तुम कहो जब हवा की अनुकंपा होगी तब हम साँस ले लेंगे। ये तर्क है कोई? और तुमने जबरन अपनेआप को रोक रखा है, नाक पर क्लिप लगा रखा है कि साँस मैं लूँगा नहीं। फिर कह रहे हो, 'अभी हवा की अनुकंपा नहीं हो रही, साँस कैसे लें, मर रहे हैं दम घुटने से। अनुग्रह नहीं है न!' ये कोई बात है?

हम सब यही कहते हैं। आप अक्सर भाग्य वग़ैरा की जो बात करते हैं उसका सम्बन्ध इसी अनुग्रह से है। कहते है न, 'अभी किस्मत ठीक नहीं चल रही है।' वो हमेशा ठीक होती है। या ऐसे कह लो, वो हमेशा एक जैसी होती है। किस्मत नहीं बदलती, आदमी का मन बदलता है। जिस दिन तुम्हारा मन बदल जाता है उस दिन किस्मत बदल जाती है।

देने वाले ने लगातार दे रखा है तुमको। जैसे सूरज की रोशनी बरस रही हो, तुम छाते के नीचे छुपे हो। तुम गुफा में घुसे हो। फिर तुम कहो कि अभी अनुग्रह नहीं हो रहा सूरज का। सूरज क्या करेगा? तुम्हारी गुफा में घुसेगा वो? ये चुनाव तुम्हें करना है न बाहर आने का? तुम बाहर आओगे, अनुग्रह पाओगे।

तो इसलिए हम जिन अर्थों में भाग्य और अनुग्रह और प्रार्थना आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं, कृपा भी उसमें सम्मिलित है। कृपा, प्रार्थना, अनुग्रह, प्रारब्ध, भाग्य इन सबमें झूठ छुपा रहता है हमारा। इन सबमें हम इस बात को छुपाने को लालायित रहते हैं कि हम सही चुनाव कर नहीं रहे। ये लगभग किसी दूसरे पर दोष डालने वाली बात है। 'भाग्य ठीक नहीं था न।' 'हमारा तो प्रारब्ध ही ऐसा है।' या 'अभी स्थितियाँ प्रतिकूल हैं।' बात स्थितियों की भी नहीं है। किसी की भी कोई बात नहीं है। तुम मालिक हो, सबकुछ तुम्हारे हाथ में है। तुम बच क्या रहे हो।

अब देखो, जैसे ही बोल दो कि सबकुछ तुम्हारे हाथ में है, वैसे ही घबरा जाते हैं। जैसे ही कहा तुम मालिक हो, हम घबरा गये। अब समझ रहे हो हम सबसे ज़्यादा किस बात से घबराते हैं? अपनी मालकियत से। उसी मालकियत का क्या नाम है? 'आत्मा'। हम आत्मा से सबसे ज़्यादा घबराते हैं।

जैसे ही बोला तुम मालिक हो, एकदम घबरा गये, 'अच्छा! इसका मतलब सारी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ गयी! इतनी ज़िम्मेदारी लेने को तो मैं तैयार भी नहीं हूँ।' अगर मैं मालिक हूँ तो सारी ज़िम्मेदारी किसकी है? मेरी है। हमारी उसी मालकियत, हमारे उसी स्वामित्व का नाम है आत्मा, सत्य। और हम उसको लेने को तैयार नहीं हैं।

जैसे कि कोई बिलकुल वयस्क हो गया हो, पच्चीस साल का हो गया हो, लेकिन वयस्क होने के साथ जो ज़िम्मेदारियाँ आती हैं उनको लेने को तैयार न हो, तो वो हर जगह अपनी उम्र बताता फिरता हो बारह साल, 'बारह साल के हैं अभी।' और जैसे ही उसका राज़ खोल दो कि पच्चीस के हो, एकदम घबरा जाता हो। और पचीस का होने से ज़िम्मेदारी भर ही नहीं होती न, जीवन में एक उत्सव भी आता है उससे। जवान होना कोई छोटी बात तो नहीं। लेकिन हम घबरा जाते हैं क्योंकि उसमें ज़िम्मेदारी आएगी साथ में। तो, 'हम तो छोटू हैं अभी।'

कुछ बुरा हो गया तुम्हारे साथ। "क्यों बुरा हो गया?" "हम तो छोटू हैं न। किसी और ने बुरा कर दिया।"

और एक बड़े-से-बड़ा राज़ है जो हमने छुपा रखा है। क्या? हम छोटू हैं ही नहीं। हम छोटू बने हुए हैं।

आत्मा हमारा सत्य है, अहंकार हमारा पाखंड। बल हमारी सच्चाई है, कमज़ोरी हमारा ढोंग। कितना ढोंग करोगे, कब तक ढोंग करोगे?

प्र३: प्रणाम आचार्य जी! आचार्य जी, अभी हम सुन रहे हैं तो मन अभी शांत है। अभी मतलब वृत्तियाँ शांत हैं। और जब हम निकलते हैं और चीज़ें देखते हैं, समझते हैं, उस युद्ध में, रण में निकलते हैं, तो कहीं-न-कहीं वृत्तियाँ अपना खेल दिखाना शुरू करती हैं। आप जैसा बताते हैं कि एक तरफ़ तो यह है कि पूरी प्रकृति मुक्ति की तरफ़ ही अग्रसर है। और दूसरी तरफ़ वो एक विरोध भी पैदा करती है जब हम सच्चाई की ओर बढ़ते हैं तो। तो ये ज्ञान जानकारी के रूप में, स्मृति के रूप में तो रहता है, लेकिन वो निरंतर बना नहीं रह पाता। वो चीज़ जीवन में हमेशा निरंतर बनी नहीं रह पाती।

आचार्य: तुमको जो निरंतरता चाहिए, वो बड़े भौतिक रूप में चाहिए। सत्य तो निरंतर ही है लेकिन तुमको सत्य का सामिप्य एक भौतिक तरीक़े से चाहिए। और यह तो सवाल की शुरुआत में ही कह रहे हो कि अभी शांति लग रही है। अभी तुम्हें शांति इसलिए लग रही है क्योंकि तुम्हें एक भौतिक सानिध्य मिला हुआ है।

अभी यहाँ गीता जी बैठी हैं, उनका तुम्हें सान्निध्य मिला हुआ है। दो-चार बातें मैं बोल रहा हूँ, मैं सामने हूँ। यहाँ से बाहर निकलकर के तुम्हें लगता है तुम अकेले हो गये हो। यहाँ से बाहर निकलकर के तुम्हें लगता है कि अब तुम्हें दुनिया ने, प्रकृति ने, समाज-संसार ने घेर रखा है और यहाँ पर जो कुछ तुम्हारे साथ था, अब वो तुम्हारे साथ नहीं रहा। यही भूल है तुम्हारी।

तुम इनको भौतिक मान रहे हो। तुम इनको भौतिक मान रहे हो तो इनसे दूर जा सकते हो, क्योंकि कोई भी भौतिक वस्तु एक जगह पर होती है। वो एक जगह पर होती है, तो दूसरी जगह पर तुम उससे दूर जा सकते हो। जब दूर जाओगे तब तुम कहोगे, 'अरे! मैं तो अकेला पड़ गया, अब मैं क्या करूँ! अब मैं शांत नहीं हूँ। जब तक वहाँ पर था तो शांत था। अब मैं शांत नहीं हूँ।' तो भौतिक मानो ही मत न।

भौतिक मानना इतना ज़रूरी है तो ऐसे मान लो कि वो हर जगह है। इसीलिए तो भारत ने फिर ऐसे कह दिया मुहावरे के तौर पर कि वह सब जगह है, सर्वव्यापी है, अन्तर्यामी है, कण-कण में व्याप्त है। ताकि कभी भी तुम्हें उससे दूरी का अनुभव न हो।

जब भी लगे कि समाज या संसार बहुत हावी हो रहा है, तो तुरंत याद कर लो कि जो चीज़ तुमको 'अभी' शांत रखे हुए है, वो तुम्हारे साथ 'हमेशा' रहती है। वो तुमसे कभी भी दूर नहीं हो जाती है। हाँ, तुम्हारी आँखें हैं, वो बड़ी सीमित हैं। उनमें ज़्यादा शक्ति नहीं है। तो उनको कई बार वो चीज़ दिखनी बंद हो जाती है। अभी वो चीज़ तुमको दिख रही है। इस कमरे से बाहर जाओगे वो चीज़ तुमको दिखनी बंद हो जाएगी। दिखनी बंद हो जाएगी, कहीं चली नहीं जाएगी। वो तुम्हारे साथ है, बस दिख नहीं रही है।

अभी मैं यहाँ पर फ्रोजन (जमी हुई) नाइट्रोजन या ऑक्सीजन रख दूँ तो तुमको दिखेगा न? दिखेगा न? अस्सी प्रतिशत नाइट्रोजन है उसमें फ्रोजन और बीस प्रतिशत ऑक्सीजन है। वो क्या है? वो हवा है। पर मैं उसको यहाँ पर जमा करके, फ्रीज़ करके रख दूँ, तो तुम कहोगे देखो वो 'है', यहाँ है, इस कमरे में है। क्योंकि यहाँ तुमको दिखाई पड़ रहा है। यहाँ तुम्हारे सामने वो सगुण रूप में है, प्रकट है, तो तुमको लगता है वो है। और यहाँ से बाहर निकल जाते हो, तो बोलोगे नहीं है।

अगर नहीं है तो साँस कैसे ले रहे हो? जी कैसे रहे हो? तुम जीवित हो इसी से प्रमाणित होता है कि वो हर जगह है। तुम जहाँ, वहाँ वो भी है। तुम अकेले क्यों अपनेआप को अनुभव करते हो? तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि दुनिया तुम पर हावी हो गयी, तुम क्या करो छोटे से हो, तुम्हारा कोई साथ देने वाला नहीं है?

तुम अगर ज़िंदा हो, तो वो है। वो न होता तो तुम में प्राण नहीं होते। चेतना और प्राण एक ही हैं। तुम चैतन्य हो न, तो वो है। उसी के लिए तो तुम ज़िंदा हो। कभी वो तुमको दिखाई देता है, जैसे अभी वो तुमको दिखाई दे रहा है, कभी वो तुमको दिखाई नहीं देगा। समझ में आ रही बात? जब नहीं भी दिख रहा हो तो अपनेआप को क्या बोलना है?

श्रोता: वो है।

आचार्य: अभी यहीं पर है। बिलकुल सामने है। एकदम बगल में है। और और ज़्यादा तुम उससे समीपता अनुभव करना चाहते हो तो कह दो, 'अंदर ही है, जेब में भी नहीं।' इसीलिए फिर बहुत लोग होते हैं जो अपने साथ कोई प्रतीक लेकर चलते हैं। कोई माला पहन लेता है, कोई जेब में कुछ रख लेता है, कोई अपने बटुए में कुछ रखकर चल देता है। वो बस अपनेआप को याद दिलाने के लिए कि वो है। दिख नहीं रहा है पर यहाँ पर है। क्योंकि हमारी ऐसी वृत्ति है न कि कुछ दिखता नहीं तो हम डर जाते हैं। हम कहते हैं, 'कहीं चला गया, कहीं चला गया, हाय! कहीं चला गया।'

तुम्हारे कमरे में ही तुम्हारा मोबाइल होता है तकिये के नीचे। दिख नहीं रहा है, तो कैसी हालत हो जाती है तुम्हारी? तकिये के नीचे मोबाइल है, दिख रहा नहीं है, साइलेंट पर था, बज भी नहीं रहा, तो क्या हालत हो जाती है? यही बात लगभग सत्य के साथ है। जब दिखना बंद हो जाता है, तुम परेशान हो जाते हो। तो कोई प्रतीक अपने लिए निर्धारित कर लो, कुछ रख लो अपने साथ। जब परेशान हो जाओ तो उसकी ओर देख लिया करो और बता दिया करो अपनेआप को कि वो है।

वो तुम्हारे ऊपर है तुम कैसा प्रतीक बनाना चाहते हो। भारत को इसमें तो विशेषज्ञता है, प्रतीकों को बनाना। हर तरीक़े के प्रतीक बना लेते हैं। कोई तिलक लगा लेता है, वो भी प्रतीक है। कोई कुछ कर लेता है, कोई मंत्र जप लेता है, तमाम तरीक़े की बातें हैं, वो सब इन पागल आँखों को और इस मूर्ख मन को ये बार-बार याद दिलाने के लिए है कि भले ही वो अभी दिख नहीं रहा, सुनाई नहीं दे रहा, अनुभव नहीं हो रहा, लेकिन है। ठीक है? तो कुछ बना लो अपने लिए।

या तो ज्ञानी हो जाओ बिलकुल, जिसको प्रतीकों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। और नहीं हो पा रहे उतने ज्ञानी, तो कुछ कर लो, रिंग टोन सेट कर लो फ़ोन पर, कुछ भी कर लो।

इनका नाम राघव काहे को रखा गया है? (एक श्रोता को इंगित करते हुए) ताकि जब इधर-उधर परेशान हो रहे हो तो याद आ जाए अरे! ये है तो, रघु के वंशज, राम से दूर कैसे हो सकते हैं हम। तुम्हारे सबके नाम ऐसे ही होंगे जो याद दिलाने के लिए हैं। सबके नाम हैं। वो देवेश। ये देखो, यहाँ गीता चल रही है, संजय सामने बैठे हैं। काहे को इनका ये नाम रखा गया है? ताकि तुम्हें याद रहे कि कृष्ण दूर नहीं। समझ में आ रही है बात?

प्र३: धन्यवाद आचार्य जी!

प्र४: प्रणाम आचार्य जी! पशुओं में बुद्धि कम होती है। और हम यह भी देखते हैं कि मनुष्यों में भी बुद्धि की जो तीक्ष्णता है वो प्रकृतिगत रूप से अलग-अलग होती है। जिसे हम आईक्यू कहते हैं। किसी की आईक्यू कम होती है, किसी की आईक्यू ज़्यादा होती है। तो जो बुद्धि की तीक्ष्णता है, यह तो प्राकृतिक बात हुई। माने ये नैचुरल बातें बॉडी के साथ या ब्रेन के साथ आती हैं। कई बच्चे बिलकुल मंदबुद्धि पैदा होते हैं। तो क्या उनके लिए भी कोई संभावना होती है मुक्ति की?

और जैसे मैं आपकी ओर देखता हूँ, तो आपका बचपन पूरा ग्रंथों के साथ बीता। और बचपन से आप ग्रंथों के संपर्क में थे। आपने ग्रंथ पढ़े। आपने उनको एक अलग तरीक़े से समझा। मैंने भी अपने बचपन में ग्रंथों को पढ़ा। गीता को भी पढ़ा। दूसरे भी उपनिषद् घर में थे। उनको पढ़ने की कोशिश की तो एक बिलकुल ही अलग अर्थ मेरे दिमाग में, मेरी बुद्धि में, मेरे बचपन ने उनका निकाला। तो क्या कुछ प्राकृतिक विशेषताएँ भी किसी मनुष्य में होती हैं जो उसके चांसेज को बढ़ाती हैं? या ऐसे कुछ प्राकृतिक कृपा भी होती है?

जो चीज़ें आप बताते हैं वो बिलकुल ऐसा लगता है जैसे पहली बार समझ आ रहा है। आज पहली बार ही सुन रहे हैं। पर इसमें आईक्यू का फ़र्क होता है क्या? यह चीज़ मायने रखती है?

आचार्य: जहाँ बुद्धि काम नहीं कर पाती, वहाँ मोक्ष की कामना काम कर जाती है। बुद्धि, आपने बिलकुल ठीक कहा, सब प्रजातियों में और मनुष्यों के मध्य भी अलग-अलग स्तर की होती है। लेकिन मनुष्यों में अगर कहीं किसी की बुद्धि थोड़ी ऊपर है, किसी की थोड़ी नीची है, वो बात उतनी बड़ी नहीं होती जितनी बड़ी होती है यह बात कि आपकी इच्छा की दिशा क्या है। आपकी इच्छा मोक्ष की तरफ़ है क्या? मुमुक्षु हैं क्या आप? यदि हैं, तो बुद्धि की थोड़ी ऊँचाई-निचाई से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता।

आपने अभी यही कहा न कि आपने कुछ श्लोकों के कुछ अर्थ पहले कभी नहीं पढ़े थे, या जाने थे, जबकि आप शायद बचपन से पढ़ रहे हैं। फिर आपने कहा, लेकिन अब जान गये।

तो अब जान गये न! बस हो गया काम! कैसे जाना, इससे क्या करना है। वो एक जगह है जहाँ पहुँचना होता है। कोई कैसे पहुँचता है, कोई कैसे पहुँचता है।

मुझे प्रकृति ने हो सकता है, निश्चित कुछ नहीं है, हो सकता है बुद्धि दे दी हो। आपको प्रकृति ने 'मुझे' दे दिया! मिला तो सबको कुछ-न-कुछ है ही न! जिसको जो कुछ मिला है उसके सहारे उधर पहुँचना है। जिसको जो मिला है उसके सहारे पहुँचना है।

कृष्ण सबको मिले हुए थे। अर्जुन को भी यदि हम देखें, तो श्रीकृष्ण की तुलना में वो कोई विशेष प्रतिभाशाली तो नहीं लगेंगे। पर श्रीकृष्ण के सहारे पहुँच गये। और कृष्ण बाक़ी जिनको मिले हुए थे, उनकी नीयत नहीं थी, इच्छा नहीं थी, इरादा नहीं था, मुमुक्षा नहीं थी, तो वो नहीं पहुँचे।

तो चेतना के भीतर एक आग होनी चाहिए, एक विरह का भाव होना चाहिए । बुद्धि के तल पर भले ही न समझ में आ रहा हो कि कहाँ चूक हो रही है, कहाँ कमी है, क्या करें; लेकिन फिर भी एक पुकार और एक प्रार्थना होनी चाहिए। नहीं जान रहे हैं क्या ग़लत हो रहा है, पर जो कुछ भी ग़लत हो रहा है उसको ठीक करेंगे और उसके लिए जो भी श्रम इत्यादि करना होगा, करेंगे। बताइए कितना श्रम करना है, बताइए क्या त्यागना है, बताइए मूल्य क्या है, हम करेंगे।

तो ये भावना भी यदि हो, तो काम हो जाता है। और अपना-पराया कुछ नहीं होता, देखिए। प्रकृति ही परायी है। तो कोई व्यक्ति अपनी बुद्धि को ‘अपनी’ कैसे बोल सकता है? अपना माने तो आत्मा होता है न! आत्म माने अपना, ‘मैं’। तो यदि आप कहे कि किसी एक व्यक्ति को बुद्धि ज़्यादा मिली है, तो वो उसकी बुद्धि थोड़ी है, वो तो एक प्राकृतिक संसाधन है जो उसे उपलब्ध है। उसे प्राकृतिक संसाधन एक रूप में उपलब्ध है, बुद्धि के रूप में उपलब्ध है। किसी दूसरे को वो प्राकृतिक संसाधन किसी और रूप में उपलब्ध हो जाएगा।

प्रश्न यह है कि आपको जीवन ने जो भी संसाधन दिये हैं, उनका किस दिशा में उपयोग करने की आपकी भावना है।

लगभग सभी मनुष्य इतनी बुद्धि तो रखते ही हैं कि यदि उनकी इच्छा सही दिशा में हो, तो मोक्ष के अधिकारी सब होते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories