प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, भारतीय दर्शन में वेदों के आधार पर आस्तिक और नास्तिक का विभाजन किया गया। उसमें बौद्ध, जैन और चार्वाक दर्शन को नास्तिक बोल दिया गया; जिसमें से मुख्यत: बौद्ध और जैन धर्म ने वेदों की सत्ता को माना नहीं, इस वजह से उसमें वर्गीकरण किया गया।
तो मेरा प्रश्न ये है कि बुद्ध हुए, महावीर हुए, तो उस समय के जो तात्कालिक कारण थे कि कर्मकांड की प्रधानता हो गयी थी इस वजह से उन्होंने उसको अस्वीकार कर दिया। तो जैसे कि आप वेदों-उपनिषदों की व्याख्या करते हैं, समझाते हैं, ये चीज़ वो लोग भी कर सकते थे लेकिन उन्होंने कुछ नयी बातें कहीं और उनकी सत्ता को इनकार कर दिया। जबकि बाद में ये भी हुआ कि बुद्धिज़्म में या जैनिज़्म मे फिर पाखंड को बढ़ावा मिला, उनके जाने के बाद। तो काम तो वही हो गया फिर से। तो बुद्ध और महावीर ने वेद-वेदान्त की ही व्याख्या क्यों नहीं करी?
आचार्य प्रशांत: करा होगा, करा होगा, उन्होंने भी करा होगा, और उन्होंने अपने से पूर्ववृत्ति कई सुधारकों को ऐसा करते देखा भी होगा। इस बात को समझना — कोई सन्त, कोई मुक्त पुरुष व्यर्थ के विद्रोह में विश्वास नहीं रखता। चीज़ अगर इतनी ही नहीं बिगड़ गयी है कि उसको फेंकना पड़े, तो वो उसको सुधारने में ज़्यादा यक़ीन रखता है। उसका नाम समाज विध्वंसक नहीं होता न? उसका नाम होता है समाज सुधारक।
तो पहली कोशिश तो यही की होगी कि सुधार आ जाए, या तो स्वयं की होगी या अपने से पहले कई औरों को देखा होगा, उदाहरण के तौर पर, जिन्होंने कोशिश की कि सुधार आ जाए। लेकिन समय-समय की बात है — कई बार स्थितियाँ इतनी प्रतिकूल हो जाती हैं कि सुधार की सम्भावना बिलकुल ख़त्म हो जाती है। तब फिर नये शब्द, नयी मिथ (पुराण कथा) और नये सिद्धान्त इस्तेमाल करके सत्य का एक नवीन प्रस्तुतिकरण करना पड़ता है। नहीं तो जो सुधार सकते हैं वो पहली कोशिश यही करते हैं कि सुधार ही दें। समझ रहे हो?
अब आप तो चले हो सुधारने लेकिन आप जिनको सुधार रहे हो वो सुधरने को राज़ी ही नहीं हैं। आप उनको एक नयी व्याख्या देना चाहते हो, आप उनके सामने एक नयी विवेचना रखना चाहते हो, उनको एक नयी दृष्टि देना चाहते हो। आप उपनिषदों को उनके मूल के अनुसार प्रतिपादित करना चाहते हो, लेकिन अब उस समय का सत्तासीन ब्राह्मण वर्ग आपकी बात सुनने को राज़ी ही नहीं है, क्योंकि आपकी बात सुन ली तो उसकी सुख-सुविधा, प्रतिष्ठा पर ऑंच आती है।
मैं नहीं कह रहा कि बिलकुल ऐसी ही स्थिति बनी थी, मैं सिर्फ़ उदाहरण के तौर पर बता रहा हूँ कि अगर ऐसी स्थिति बन जाए तो फिर जो सुधारक है उसको न चाहते हुए भी विध्वंसक बनना पड़ता है। विध्वंस कभी उसकी चाहत नहीं होती, विध्वंस कभी उसका पहला चुनाव नहीं होता, पर इतिहास में कभी-कभार ऐसा होता है कि विध्वंस भी करना पड़ता है।
प्र: आचार्य जी, जब हम बुद्ध और महावीर के जीवन को देखते हैं, उन्होंने प्राप्त किया सत्य को। और यहीं पर कुछ ऐसे भी सन्त हुए जैसे कबीर साहब हुए, या श्रीकृष्ण हुए, इन्होंने भी प्राप्त किया — तो इनका जो प्रकट करने का तरीक़ा था काफ़ी साफ़ था, मतलब एक उत्सव जैसा था, जबकि वही चीज़ उनको भी प्राप्त हुई लेकिन हम उनको बड़ा गम्भीर देखते हैं।
चीज़ तो सभी को एक ही प्राप्त हुई लेकिन उनमें गम्भीरता क्यों आ गयी और इनमें इतना उत्साह और उत्सव क्यों है?
आचार्य: न तो जो मुक्तजन है, उत्साही होता है और न ही वो गम्भीर होता है। उसके बारे में ये छवि रखना कि वो तुम्हें नृत्य मग्न ही दिखेगा, ग़लत है। और उसके बारे में ये छवि रखना कि वो तुम्हें ध्यान मग्न ही दिखेगा, वो भी भ्रम की ही बात है। मुक्त होने का मतलब ही होता है कि तुम समस्त प्रकार के आग्रहों से, समस्त प्रकार की छवियों से, समस्त प्रकार के व्यक्तित्वों से मुक्त हो गये।
अब तुम ये नहीं कह सकते कि बुद्ध गम्भीर व्यक्तित्व के थे। बुद्ध अगर मुक्त थे तो फिर तो वो गम्भीरता से भी और सब तरह के व्यक्तित्व से भी मुक्त थे। इसी तरह से तुम ये नहीं कह सकते कि मीरा तो स्त्रैण थीं और गीत मग्न रहती थीं और नृत्य मग्न रहती थीं। मीरा को अगर वाक़ई मुक्ति मिली है तो उनको तो फिर हर तरह के लिखने, नाचने, गाने, मनोदशाओं, मनोभावों से भी मुक्ति मिली होगी न?
तो ये बात समझनी ज़रूरी है कि मुक्तजन का अपना कोई पसन्दीदा, या निजी या व्यक्तिगत ख़ास मनोभाव नहीं होता। लेकिन फिर भी जो तुम कह रहे हो, देखा तो वैसे ही गया है। तुम कहते हो कि बुद्ध, महावीर मौन और गम्भीर नज़र आते हैं; हाँ आते है, ठीक है। तुम कहते हो कि बुल्लेशाह नाचते नज़र आते हैं; वो तो आते भी हैं, नज़र तो ऐसा ही आता है।
तो ऐसा कैसे हो जाता है? जब उनका अपना कोई निजी, व्यक्तिगत, पसन्दीदा भाव नहीं होता तो फिर ऐसा कैसे हो जाता है कि सन्तों में भी कोई एक प्रकार के व्यक्तित्व का नज़र आता है और कोई दूसरे प्रकार के व्यक्तित्व का नज़र आता है, ऐसा कैसे हो जाता है? ऐसा उस समय की दशा पर निर्भर करता है, ऐसा उस समय के समाज पर निर्भर करता है।
अब चारों तरफ़ अगर पोंगा-पंडित शोर ही मचा रहे हों; कभी हवन का, कभी यज्ञ का, कभी फ़लाने उत्सव का, कभी फ़लाने त्योहार का, कभी फ़लानी रूढ़ि का, कभी फ़लानी मान्यता का, तो फिर उस शोर की पृष्टभूमि में बुद्ध के लिए आवश्यक हो जाएगा कि बुद्ध बिलकुल मौन हो जाऍं। बुद्ध का मौन ये संदेश दे रहा है कि चारों तरफ़ जो शोर प्रचलित है वो शोर व्यर्थ है। बात समझ में आ रही है?
अगर समाज में हिंसा न हो तो क्या कबीर साहब को ये संदेश देना पड़ेगा कि तुम ये जो इतने पशुओं को मारते हो, इतनी हिंसा करते हो, सब नर्क में सड़ोगे? वो कुछ न बोलें। वो तो चुप रहें न? सन्त जो भी बोलता है, जैसा भी व्यक्तित्व धारण करता है, इसे तुम उसकी निजी पसन्द मत समझ लेना। ये उसकी करुणा है, ये उसके द्वारा दी जा रही दवा है, ठीक वैसे जैसे चिकित्सक दवा देता है। तुम चिकित्सक के पास जाते हो, और वो तुम्हारे लिए पाँच गोलियाँ लिख देता है, इसका मतलब ये है कि वो उसकी पसन्दीदा गोलियाँ हैं और उसे इनका स्वाद बहुत पसन्द है?
और तुम आये, तुमसे कह रहा है, ‘देखो बेटा! मुझे इन पाँच गोलियों का स्वाद बहुत मज़ेदार लगता है, ख़ासतौर पर जो तीसरे नम्बर का चूर्ण है, आहा! क्या चटकार है! तो मुझे ये बहुत पसन्द है इसीलिए तुम भी ये लो!’ ऐसा होता है क्या? और तुम कहो, ‘देखो! ये डॉक्टर साहब हैं, इनको न ये गोलियाँ बहुत पसन्द हैं, इसीलिए हमको दे दीं।’
नहीं, उन्हें नहीं पसन्द है, तुम्हारे काम की हैं। अन्तर समझना — बुद्ध का मौन बुद्ध की पसन्द नहीं है, तुम्हारे लिए उपयोगी है। किसी और समाज का, किसी और समय का बुद्ध हो सकता है तुम्हें न दिखायी दे बोधि वृक्ष के नीचे ध्यान में, मौन में बैठा हुआ क्योंकि मौन तो वास्तव में आन्तरिक घटना होती है, कोई आवश्यक थोड़े ही है कि वो बाहर भी प्रदर्शित हो। किसी दूसरे समय में, किसी दूसरी स्थिति, किसी दूसरे परिप्रेक्ष्य में जो बुद्ध होगा, हो सकता है वो तुमको निरन्तर बोलता दिखायी दे, या चलता दिखायी दे, या कुछ भी और। समझ में आ रही है बात?
तो ये सोचना कि गुरु का भी कोई व्यक्तित्व होता है, उसकी भी अपनी निजी पसन्द-नापसन्द होती है, ये भूल है। वो तुम्हें जो भी व्यक्तित्व दिखा रहा है वो तुम्हारी ख़ातिर है, तुम्हारे सुधार के लिए है, उसकी अपनी पसन्द नहीं है। वो एक तरह से बहुरूपिया है, वो अपने ऊपर कुछ भी धारण कर सकता है। वो वही धारण करता है जो तुम्हारे काम आये।
प्र२: आचार्य जी, जैसे ओशो और जिद्दु कृष्णमूर्ति; वो दोनों ही बहुत अलग व्यक्तित्व के थे। कृष्णमूर्ति जी को मैं कभी नहीं सुनता हूँ, पर उनके अनुयायी थे, उनको भी लोग सुनते थे। और ओशो जी को मैं बहुत सुनता हूँ और दोनों ही जाग्रत पुरुष थे, ऐसा माना जाता है। और इन दोनों में समय का भी बहुत अन्तर नहीं है…
आचार्य: तो दोनों दो अलग-अलग वर्गों से बात कर रहे हैं न? दोनों दो अलग-अलग वर्गों से बात कर रहे हैं, और इन दोनों वर्गों में साझापन, ओवरलैप बहुत कम है। ओशो जिनसे बात कर रहे हैं और कृष्णमूर्ति जिनसे बात कर रहे हैं, वो वर्ग ही अलग-अलग हैं। तो दोनों ने अपने-अपने वर्ग को ख़याल में रखते हुए, अपने वर्ग के अनुरूप, अपने वर्ग की ज़रूरतों के अनुरूप व्यक्तित्व धारण किया हुआ है।
इसीलिए ये बहुत होता है कि ओशो के लोग कृष्णमूर्ति को नहीं सुन पाते; कृष्णमूर्ति के लोग ओशो को नहीं सुन पाते। ऐसे भी होते हैं जो दोनों को सुन लेते हैं, पर ऐसों की संख्या ज़रा कम है। देखिए, जितना कम मानें कि गुरु की भी पर्सनैलिटी (व्यक्तित्व) होती है, हमारे लिए उतना अच्छा है।
प्र३: आचार्य जी, जैसे एक उदाहरण है कि किसी पोएट (कवि) के सामने कोई साइंटिस्ट (वैज्ञानिक) बैठता है, तो वैज्ञानिक और कवि दोनों का अपना-अपना तरीक़ा तो होता ही है सोचने का।
आचार्य: पर आप मान रहे हैं न कि पोएट व्यक्तित्व से पोएट है, और वो पोएट के व्यक्तित्व में जी रहा है। जब आप गुरु की बात करते हैं तो वो पोएट या साइंटिस्ट नहीं है न। जब आप गुरु की बात करते हैं तो वो विशुद्ध आत्मा है, उसका बाहरी जो व्यक्तित्व है उससे उसका तादात्म्य बहुत-बहुत कम है।
किसी दिन उसको अगर बन्दर की तरह पेड़ पर कूद-कूदकर चढ़कर सिखाना पड़ा तो वैसे भी सिखाएगा। वो ये नहीं कहेगा कि मेरा व्यक्तित्व तो एक धीर-गम्भीर गुरु का है, मैं बन्दर की तरह पेड़ पर कैसे चढ़ जाऊँ। गुरु वही है जो अपने व्यक्तित्व से निजात पा चुका। वो अब अगर जी रहा है तो सिखाने के लिए, और अगर सिखाने के लिए उसे बन्दर जैसा आचरण करना पड़े, तो वो करेगा। और अगर सिखाने के लिए उसे अजगर की तरह स्थिर होकर बैठ जाना पड़े, तो वो अजगर की तरह स्थिर भी होकर बैठ जाएगा।
हम ऐसे देखते हैं कि अगर कोई सिखाने वाला एक ख़ास अंदाज़ में बोलता है तो वो अंदाज़ उसको प्रिय होगा। वो अंदाज़ उसको नहीं प्रिय है, उसने उस अंदाज़ को धारण किया है ताकि वो अधिक-से-अधिक समझा सके, अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँच सके। लेकिन लोगों में बड़ी विभिन्नता होती है न, इसीलिए गुरु कैसा भी व्यक्तित्व धारण कर ले, वो सब तक नहीं पहुँच सकता, सब तक नहीं पहुँच सकता। कोई गुरु ऐसा नहीं है जिसे दुनिया के सब लोग पसन्द करते हों। इसका कारण ये है कि लोगों के चित्त में बड़ी भिन्नता होती है। एक ही दवाई सब पर नहीं चलती, मर्ज़ भले एक हो लेकिन दवाई अलग-अलग देनी पड़ेगी।
प्र४: आचार्य जी, डॉक्टर भी तो अलग-अलग होते हैं, कोई होम्योपैथी होता है, कोई एलोपैथी होता है…
आचार्य: हाँ, पर चिकित्सक में और गुरु में अन्तर है। डॉक्टर अपने ज्ञान के अनुसार दवाई देता है, गुरु ज्ञान से दवाई नहीं देता; अन्तर है। कभी भी आप कृष्णमूर्ति को देखें तो इसको उनका आप व्यक्तिगत आग्रह मत समझ लीजिएगा। ये बड़ा मुश्किल है क्योंकि हम हर चीज़ में व्यक्तिगत आग्रह रखते हैं तो हमें लगता है कि कृष्णमूर्ति अगर ग्रन्थों की उपेक्षा कर रहे हैं, या कुछ अन्य मुद्दों पर एक राय दे रहे हैं तो ये उनकी व्यक्तिगत राय है। ये उनकी व्यक्तिगत राय नहीं है, ये उन्होंने समाज की हालत देखी है और उस हालत के सन्दर्भ में एक बात कह रहे हैं।
श्रोता: व्यक्तिगत राय नहीं बल्कि उनका अपना एक ढंग है…
आचार्य: अपना ढंग नहीं है वो। वो, वो ढंग है जो आपके काम आएगा। आपके काम अगर कोई और ढंग आने लगे तो वो तत्काल दूसरा ढंग पकड़ लेंगे।
श्रोता: ये बड़ा मुश्किल है कल्पना कर पाना कि कृष्णमूर्ति जी दोहा गा रहे हैं।
आचार्य: बहुत मुश्किल है, लेकिन अभी आपको मैं यूट्यूब पर विडियो दिखा दूँ जिसमें वो भजन गा रहे हैं फिर। आप तो दोहे पर ही अटक गये, वो तो पूरे-पूरे भजन गा रहे हैं।
श्रोता: कृष्णमूर्ति?
आचार्य: बिलकुल। है, आज देखिएगा; मज़ा आ जाएगा। ये बात जानकारी की नहीं है, ये तो संयोग की बात है कि ऐसा कुछ मिल गया यूट्यूब पर। नहीं भी मिले, तो ये मानकर रखिए कि गुरु अगर असली है, वास्तविक है तो वो अपना कोई व्यक्तिगत आग्रह नहीं रखेगा। वो आपके सामने किसी भी रूप में आ सकता है, अगर वो रूप आपके लिए हितकारी हो। जो भी रूप आपके लिए हितकारी होगा, वो रूप बदल लेगा, उस रूप में आ जाएगा।
ओशो एक धोती में जीते थे, एक धोती। ठीक? इन ओशो ने अपनी ये दुर्गति क्यों कर ली कि वो बिलकुल जोकर जैसे कपड़े और वैसी टोपी, और ये गज़ब घड़ी? आपको क्या लगता है कि जितना वो बुढ़ा रहे थे, उतना उनमें लोभ जाग्रत हो रहा था? तो निश्चित रूप से ये लोभ की ख़ातिर तो नहीं कर रहे थे कि रॉल्स रॉयस खड़ी कर लीं और वो अपना डिज़ाइनर चोगा धारण कर लिया, और वो चश्मा?
आप भी घबराते हो इस तरह के कपड़े पहनने से, आप कहते हो कि अपना मज़ाक कौन बनवाएगा। ओशो में कम-से-कम आपके जितनी अक़्ल तो रही होगी? कम-से-कम? जब आप भी जानते हो कि इस तरीक़े के कपड़े धारण करने योग्य नहीं होते तो ओशो ने क्यों धारण किये? इसलिए तो नहीं किये न कि अचानक उनका दिमाग फिर गया था, पगला गये थे, ऐसा तो नहीं हुआ था? इसलिए किया क्योंकि वक़्त की माँग थी।
इसी से आपको समझ में आ जाना चाहिए कि गुरु का अपना कोई व्यक्तित्व नहीं होता, वक़्त की जो माँग होती है उसके अनुसार वो व्यक्तित्व धारण कर लेता है।
प्र५: आचार्य जी, जिस सत्र में हम रमे होते हैं उसमें लगता है कि आसान चल रहा है। कई बार ऐसा होता है कि जिस सत्र में हम रमे नहीं होते हैं, तो लगता है मन अशान्त है।
आचार्य: इसी से समझ लो कि कुछ चल नहीं रहा होता, हम जैसे होते हैं हमें लगता है वैसा ही चल रहा है। इतनी अन्तर्दृष्टि हम रखते नहीं कि मानें कि जो हो रहा है वो भीतर ही हो रहा है; हमें लगता है मामला बाहर का है। अगर कोई गुरु ऐसा हो जो पॉंच-सात सौ साल जी पाये, तो यक़ीन मानना कि तुम उसके व्यक्तित्व के कम-से-कम आठ-दस अलग-अलग तरीक़े के रंग देख लोगे।
अब होता क्या है कि ये बेचारे लोग सक्रिय रूप से गुरु का जीवन बीस-चालीस साल बिता पाते हैं, और बीस-चालीस-पचास साल बहुत कम हैं अलग-अलग तरह के व्यक्तित्व धारण करने के लिए। तो वो एक प्रकार का या दो ही प्रकार का व्यक्तित्व धारण कर पाते हैं, इतने में शारीरिक मौत आ जाती है।
तो देखने वालों को लगता है कि जैसे यही इनका पसन्दीदा व्यक्तित्व था। नहीं, वो उनका पसन्दीदा व्यक्तित्व नहीं था उन्हें अगर पाँच सौ साल मिले होते तो तुम देखते कि वो कितने रंग बदलते। और वो भी वक़्त की माँग होती, कोई अपने मज़े के लिए नहीं बदल रहे होते।
प्र६: आचार्य जी, श्रीकृष्ण का जो व्यक्तित्व है, वो तो जितना उनका जीवन काल रहा होगा उसमें उनके व्यक्तित्व का वर्णन है। उनके कई सारे व्यक्तित्व थे।
आचार्य: तभी उन्हें पूर्णावतार कहते है न वो इस मामले में अव्वल नम्बर, सबसे आगे। उनका अपना कोई एक व्यक्तित्व है ही नहीं। रुक्मिणी के आगे एक हैं, राधा के आगे दूसरे हैं। बलराम के आगे एक हैं, अर्जुन के सामने दूसरे हैं। कोई समझ ही न पाये कि असली कृष्ण कौनसे हैं।
गुरु के साथ यही है, तुम समझ ही नहीं पाओगे कि असली गुरु कौनसा है। तुम्हारे आगे एक होगा, दूसरे के आगे दूसरा होगा। जैसी तुम्हारी ज़रूरत होगी, वैसा वो तुम्हारे सामने होगा। जैसी उसकी ज़रूरत होगी, वैसा वो उसके सामने होगा। उसका अपना कुछ नहीं है, वो तुम्हारी ज़रूरतों की पूर्ति कर रहा है। कौनसी ज़रूरत? वो वाली ज़रूरत, आख़िरी ज़रूरत।
प्र७: वो तो सबकी एक है न?
आचार्य: हाँ, वो सबकी है पर सब खड़े अलग-अलग जगह पर हैं न। जैसे पहाड़ की चोटी एक हो, पर खड़े सब अलग-अलग जगह पर हों, तो सबको अलग-अलग तरीक़े से ले जाना पड़ेगा न?
प्र८: आचार्य जी, कई बार ऐसा होता है कि गुरु के अलग-अलग रूप लगते हैं। तो एक रूप से प्रेम होता है और एक रूप से डर भी लगता है, और एक रूप से बहुत ज़्यादा डर लगता है। मतलब अपना ही अनुभव है कि एक रुप से अभी बैठे हैं, प्रेम है। फिर एक रूप में लगेगा कि बहुत पास मत जाओ, रहने दो! डर सा लगता है। कोई रूप ऐसा देखा है जिसमें लगता है कि ये बहुत भयानक मामला है। (श्रोता हॅंसते हुए)
आचार्य: अभी और भी हैं रूप (श्रोता हॅंसते हुए)। पहाड़ है, नीचे बहुत खड़े हैं, ठीक है? एक बूढ़ी माई खड़ी है, वो चल ही नहीं सकती, उसके गठिया है। उसको लेकर जाना है शिखर तक। गुरु उसके सामने क्या बनकर जाएगा? खच्चर। किसका व्यक्तित्व धारण कर लिया?
श्रोता: खच्चर का।
आचार्य: क्योंकि और कोई तरीक़ा ही नहीं है उसको उपर तक ले जाने का। तो खच्चर बनकर कहेगा, ‘आ ऊपर बैठ जा!’ वो उसको ले जाएगा।
एक जवान लड़की खड़ी है जो पूरे तरीक़े से देह में जी रही है, बिलकुल जवानी के शिखर पर हैं, देह में ही जीती है दिन-रात। उसको ऊपर तक ले जाने का क्या तरीक़ा है गुरु के पास? वो उसके सामने एक आकर्षक प्रेमी बनकर आएगा। क्योंकि वो आकर्षक न बनकर आये, पुरुष न बनकर आये तो लड़की उसका हाथ ही नहीं थामेगी। वो उसका हाथ थामेगा, उसको ऊपर तक ले जाएगा।
तुम्हें जो चीज़ रुचती हो, हो सकता है गुरु तुम्हें उसी के माध्यम से ले जाए। तुम्हें जो चीज़ सताती हो, हो सकता है गुरु तुम्हें उसके माध्यम से ले जाए। तुम एक अपराधी हो और नीचे खड़े हो, पहाड़ के, हो सकता है गुरु तुमसे आकर कहे, ‘तू भाग! यहाँ नीचे तो पुलिस आने वाली है।’ हो सकता है गुरु तुम्हें भय का प्रयोग करके शिखर तक पहुँचा दे।
और तुम पूछो कि कहाँ भागें? गुरु तुमसे कहे, ‘अरे! नीचे तो पूरा पुलिस घेर ही लेगी, भागकर जा एक ही जगह सकते हैं जहाँ पुलिस नहीं पहुँच सकती, शिखर! ऊपर चढ़ जाओ, वहाँ पुलिस नहीं आती। तो भय का प्रयोग करके गुरु ने तुमको ऊपर तक पहुँचा दिया।
बूढ़ी माई के सामने वो पशु बन गया, पशुता का प्रयोग करके उसने उसको ऊपर पहुँचा दिया। जवान लड़की के सामने वो पुरुष बन गया, कामवासना का उपयोग करके उसने उसको ऊपर तक पहुँचा दिया। कोई खड़ा हुआ है ज्ञान पिपासु — बोले, ‘मैं तो साधक हूँ ज्ञान का, नीचे खड़े साधना कर रहा हूँ मैं।’ तो गुरु आएगा; कहेगा, ‘अरे! नीचे कोई साधना होती है? असली ज्ञान ऊपर मिलेगा, आजा! देता हूँ; चल ऊपर चल!’
रंग बदलने पड़ते हैं क्योंकि तुम्हारे कई रंग हैं। और गुरु जितना सच्चा होगा उतना ज़्यादा वो तुम्हारी ही ख़ातिर रंग बदलेगा, अपनी ख़ातिर नहीं।
प्र९: आचार्य जी, जो साधक होता है, उसे गुरु के प्रेम वाले रूप से बहुत प्रेम होता है, लेकिन दंड से बहुत डर लगता है।
आचार्य: अच्छा है न, कुछ तो मिला तुम्हें पकड़ने को। तुम्हें डरा-डराकर मुक्ति दी जाएगी।
प्र१०: आचार्य जी, इसीलिए कई सारी उक्तियाँ; कई सारी बातें विपरीत हो जाती हैं?
आचार्य: हाँ, क्योंकि तुम सोच रहे हो कि सत्य कोई एक चीज़ है। वो एक ‘चीज़’ नहीं है, वो जो भी ‘चीज़’ है उसको मिटाने की चीज़ है। जो भी चीज़ है उसको मिटाने की चीज़ है। कोई सन्त ऐसा नहीं होगा जिसने जो बात कही, उसी के ख़िलाफ़ कोई दूसरी बात न बोली हो। भले प्रत्यक्ष, भले परोक्ष, बोली ज़रूर होगी।
इसीलिए एक गड़बड़ कभी मत कर देना, सन्तों का कोई एक उद्धरण उठाकर के उसे सिद्धान्त मत बना लेना। बात वो उठाओ जो तुम्हारे लिए उपयोगी हो। उपयोगी किस अर्थ में हो? इस अर्थ में नहीं कि तुमने उसको पकड़ लिया, उपयोगी इस अर्थ में हो कि वो तुम्हें ज़रा मिटाती हो, तुम्हें ज़रा काटती हो। सन्त की वो बात उठाओ जो तुमको काटती हो, ख़त्म करती हो। वो बात मत उठाओ जो तुमको और फुलाती हो, जो तुमको और चौड़ा करती हो, जो तुम्हारे अहंकार को बढ़ाती हो।