क्या मजबूरी है, क्यों इतने लाचार हो? || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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क्या मजबूरी है, क्यों इतने लाचार हो? || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, आपने अतीत से मुक्त होने की बात करी थी, जब मैं देखता हूँ तो लगता है कि अतीत कोई एंटिटी (इकाई) नहीं है – मतलब कि पूरा-का-पूरा ही मैं अतीत हूँ। जैसे जिद्दू कृष्णमूर्ति कहते हैं, यू आर द मेमोरी (आप आपकी याद्दाश्त हैं) समझ आती है बात, लेकिन अतीत अपनेआप आकर हावी हो जाता है।

आचार्य प्रशांत: तो फिर ये बातचीत क्यों कर रहे हो? जो भी कुछ मुझसे जानना चाहते हो वो अपने अतीत से क्यों नहीं पूछ लेते? अगर पूरे-का-पूरा सब अतीत ही है, तो इस सवाल का जवाब भी अतीत से ले लो!

प्र: नहीं, जो मैं हूँ वो अतीत है।

आचार्य: तो अभी कौन बात कर रहा है? अभी भी मैं ही बात कर रहा है न?

प्र: पर मैं दुखी है न!

आचार्य: माने अपनेआप में पूरा नहीं है, सन्तुष्ट नहीं है वो, तभी दुखी है न? तो उसको अच्छे से पता है कि कमी है, ठीक है? जब उसे पता है कि कमी है तो उस कमी वाली चीज़ को क्यों पकड़े हुए है?

अगर तुम सिर्फ़ अतीत का ही एक पिटारा होते, एक बंडल (गठरी) होते, तो अभी मुझसे बात नहीं कर पाते न? अतीत के अलावा भी तुम कुछ हो जो अभी बात कर सकता है। अतीत में कोई चेतना नहीं होती है भाई! तुम एक सचेतन इकाई हो।

प्र: सारा कंटेंट (सामग्री) तो चेतना का अतीत ही है?

आचार्य: कंटेंट होगा, कटोरा क्या है?

प्र: कटोरा तो खाली है।

आचार्य: हाँ, तो खाली होने की सम्भावना है न तुममें? वही जो खालीपन है वो अभी बात कर पा रहा है, उसी खालीपन में ग्राह्यता होती है, रिसेप्टीविटी (ग्राह्यता), नहीं तो तुम कुछ सुन ही नहीं पाते।

प्र: खालीपन क्यों बात करेगा, खालीपन तो मुक्त है – खालीपन को क्या ज़रूरत है बात करने की?

आचार्य: वो खालीपन दुखी है अपने भरे होने से। वो खालीपन अपने अतीत से दुखी है, अतीत ही तो उस खालीपन में व्यर्थ भरा हुआ है। अगर तुम सिर्फ़ खाली होते तो इस बात की कोई ज़रूरत नहीं होती, तुम सिर्फ़ खाली होते तो इस बातचीत की कोई ज़रूरत नहीं होती, पर तुम एक व्यर्थ ही भरा हुआ खालीपन हो।

प्र: वैसे देखा जाए तो दुख भी एक विचार ही है, पर वो इतना हावी है कि उससे मुक्त हुआ ही नहीं जाता, ऐसा लगता है मैं ही हूँ!

आचार्य: अगर वो इतना ही हावी होता तो भी ये बातचीत नहीं हो पाती। जिस क्षण में तुम ध्यान दे रहे होते हो इन शब्दों पर या किसी भी और बात पर, उस क्षण में कोई तुम पर हावी नहीं होता है। हाँ, उसके बाद तुम मौक़ा दे दो उसे हावी होने का; तुम्हारी मर्ज़ी।

प्र: यहाँ पर नहीं हो सकता, यहाँ पर माहौल ऐसा है, आप हो यहाँ पर, हावी नहीं हो सकता।

आचार्य जी: माहौल तुम्हारा चुनाव है!

प्र: मैं जैसे कभी करता हूँ कि जैसे किसी घर के बाहर सिक्योरिटी गार्ड (सुरक्षाकर्मी) खड़ा है वो किसी को आने नहीं देगा, वैसे मैं भी अतीत को आने नहीं दूॅंगा, एकदम गार्ड की तरह खड़ा हो गया तो….

आचार्य: नहीं, गार्ड की तरह खड़ा नहीं हुआ जाता, अभी तुमने किसी गार्ड को थोड़ी ही खड़ा कर रखा है, अभी तुम संयुक्त हो, अभी तुम एन्गेज्ड हो, अभी तुम एक सार्थक कर्म में सही बातचीत में उपस्थित हो; ये करना होता है।

ये सार्थक काम करे बिना अगर तुम चौकीदारी करोगे कि नहीं-नहीं-नहीं, मैं कोई काम करूॅंगा भी नहीं और जो अतीत की स्मृतियाँ हैं इनको भी आने नहीं दूॅंगा चौकीदार लगा दूॅॅंगा – तो वो नहीं हो पाएगा। इसलिए नहीं हो पाएगा क्योंकि जैसा तुमने कहा, तुम पूरे-के-पूरे अतीत से ही निर्मित हो, तुम उसे चौकीदार लगाकर नहीं रोक पाओगे।

प्र: आचार्य जी, सार्थक कर्म हर वक़्त मिल नहीं पाता मतलब बहुत मुश्किल हो जाता है उस लेवल (स्तर) का काम…. आचार्य जी: कर्म तो तुम लगातार कर ही रहे हो, तो निरर्थक कर्म कैसे हर समय मिल जाता है? उतनी होशियारी है कि खोज निकालते हो (मुस्कराते हुए)

प्र: वो तो डिफॉल्ट (पहले से तय) है, अपनेआप मिल ही जाता है।

आचार्य: हाँ तो मेहनत करो डिफॉल्ट को बदलने के लिए। कर्म लगातार कर रहे हो, कह रहे हो निरर्थक आसानी से मिल जाता है सार्थक नहीं मिलता; ये क्या बात है?

प्र: नहीं आचार्य जी, कर्म करते समय भी बुरी चीज़ें मन में रह जाती हैं जैसे ईर्ष्या वगैरह। जैसे खेल भी रहे होते थे तो ये होता था कि सबसे अच्छा मैं ही परफॉर्म (प्रदर्शन) करूँ, कोई और आगे न निकल जाए, ईर्ष्या रह ही जाती है। कोई अच्छा शॉट मार दे तो एक तरफ़ तो तारीफ़ कर रहे हैं दूसरी तरफ़ मन-ही-मन जल भी रहे हैं कि इसने मुझसे अच्छा कवर ड्राइव कैसे मार लिया..

आचार्य: जो होता है उसका कोई विकल्प है या नहीं है?

प्र: वही कम्पीट (प्रतिस्पर्धा) करें, और अच्छा होने की कोशिश करें।

आचार्य: वही है, उसके अलावा कोई रास्ता नहीं।

प्र: उसमें आचार्य जी बहुत ईर्ष्या भी तो होती है, जलता है इंसान।

आचार्य: उसका कोई विकल्प है या नहीं है?

प्र: और कोशिश करो बस, और क्या?

आचार्य: बस वही है।

प्र: ऐसे तो मुक्त हो ही नहीं पाऍंगे कभी? ऐसे ही लड़ते रह जाऍंगे…

आचार्य: ग़ुलामी का कोई विकल्प है या नहीं है?

प्र: और कम्पीट करेंगे तो किससे करेंगे, इतने सूरमा भरे पड़े हैं दुनिया में,कर-करके थक जाऍंगे?

आचार्य जी: हार मान लेने का कोई विकल्प है या नहीं है? न जाने कितने नितिन (प्रश्नकर्ता) हैं जिनको ऐसे ही सवाल हैं, मैं किस-किस के सवाल शान्त करूॅंगा? अरे,जो सामने है उसका तो करो! उसके आगे की राह वहाँ से निकलेगी।

‘अजी, टेस्ट मैच खेल रहें हैं, ओवरों पर कोई पाबन्दी नहीं है, मैं कितनी गेंदें खेलूॅंगा?’ ये बल्लेबाज हैं। ये पिच पर उतरे और कह रहें हैं— ‘देखो साहब, यहाँ न टी-२० है, न ओ.डी.आइ है; क्या पता ये दो दिन तक गेंदें ही डालते रहें; अजी, मैं कितनी गेंदें खेलूॅंगा!’ ‘अरे, जो एक गेंद आ रही है पहले वो खेल ले बालक!’ उधर वो आ रहा है रनअप में, इधर आपने भी रनअप लेना शुरू कर दिया पवेलियन की ओर, दोनों अपना-अपना रनअप ले रहे हैं। मैंने कहा क्या हुआ? बोले, ‘कितनी खेलूॅंगा? अभी-अभी अचानक अस्तित्व का पूरा राज़ खुल गया है। ये तो अन्तहीन श्रृंखला है, एक के बाद एक ये गेंदबाज़ आते ही जाऍंगे छोर बदल-बदलकर।’

प्र: आचार्य जी, खेलने का मज़ा तब आता है जब बॉल (गेंद) मिडल हो रही हो बीचोंबीच, पता चला कोई आ गया हेलमेट पर लग रही है…

आचार्य: बॉल ने बोला है क्या कि मैं मिडल नहीं होऊॅंगी? बल्ला तो तुम्हारे हाथ में है न या गेंद ने बल्ले को घूस दी है? या बल्ले के मिडल में छेद है कि मिडल हो ही नहीं सकती गेंद?

प्र२: आचार्य जी प्रणाम, आचार्य जी लेकिन इसी में आपके द्वारा ही कई बार सुना है कि मुक्ति अकेले भी तो सम्भव नहीं है, मुक्ति के लिए सबको साथ लेकर चलना पड़ता है?

आचार्य: तो दूसरों की मुक्ति उद्देश्य हो न, दूसरों की भुक्ति को बचाये-बचाये न आपकी मुक्ति है, न दूसरों की मुक्ति है। दूसरों की मुक्ति इसमें थोड़ी ही है कि दूसरे जिस तरीक़े के हैं, उनको वैसे ही रहने दिया या उनको उसी रूप में मान लिया कि वो ठीक-ठाक हैं। हम क्या कर रहें हैं? हम अपना ही टूटा हुआ बर्तन और सड़ा हुआ खाना छोड़ने को तैयार नहीं हैं!

सड़े हुए खाने को मुक्ति थोड़ी ही मिल जाएगी अगर आप उसे खा लेंगे, या मिल जानी है? दूसरे को मुक्ति दिलाने में और दूसरे के साथ ख़ुद ही युक्त हो जाने में कुछ अन्तर होगा या नहीं होगा? बोलिए?

जब आप ही अभी ऐसे नहीं हैं कि जिससे मुक्त होना है उससे मुक्त हो सकें, तो कोई दूसरा आपके प्रभाव से, आपके प्रकाश से प्रेरित होकर के कैसे मुक्त हो जाएगा? उसको तो दिख ही रहा है कि ख़ुद यही मुक्त नहीं हो पा रहे।

और याद रखिएगा जब आप किसी के प्रभाव से मुक्त होने में असफल होते हैं न, तो आप ज़ोर-ज़ोर से घोषणा कर रहें होते हैं कि सच हार गया! कि सच में इतनी भी दम नहीं है कि वो मुझे अपनी ओर खींच सके तुझसे छुड़ाकर के। ये घोषणा करके आपने दूसरे को क्या सन्देश दे दिया? बोलिए?

आप कहें कि मैं एक बहुत-बहुत बढ़िया नाटक देखने जा रहा हूँ, एकदम उच्च कोटि का, ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’! ठीक है? उच्च कोटि का नाटक देखने जा रहा हूँ; और आपका बेटा है घर में, वो कहे नहीं, ‘मैं तुझे अपना नाटक दिखाऊँगा!’

और वो नाटक क्या दिखा रहा है? उसने अपना बनियान फाड़ दिया है, वो दीवार पर थूक रहा है, वो कह रहा है, अरे! तुम कहाँ जा रहे हो कालिदास का नाटक देखने? हम तुम्हें अपना नाटक दिखाऍंगे न!’

और नाटक छः बजे से है शाम के और उसका समय बिलकुल निकट आता जा रहा है और वो जो घर में आपका छोकरा है, वो मचाये जा रहा है उधम, मचाये जा रहा है, कह रहा है, ‘कहीं नहीं जाना है, हम नाटक दिखा रहे हैं!’

शीशे तोड़ दिये, जो कुछ भी वो कर रहा था सब कर रहा है। और आप क्या कहती हैं; आप कहती हैं, ‘देखो, मुक्ति अकेले तो मिल नहीं सकती, नाटक अकेले तो देखा नहीं जा सकता बढ़िया वाला, मैं तो इसी के साथ देखती, अब ये घर में ही नाटक कर रहा है तो मैं जा नहीं रही।’

आप मत जाइए, आपने छोकरे को क्या सबक पढ़ा दिया बताइए? कि उसका नाटक कालिदास के नाटक से बेहतर है तभी तो माता ने मेरा नाटक देखा! और वो कहेगा, ‘अगर मेरा नाटक कालिदास के नाटक से बेहतर ही है तो मुझे बेहतर होने की ज़रूरत क्या है? मैं तो पहले ही बेहतर हूँ।

छोकरे को बेहतर करने का तरीक़ा क्या था? छोकरे को उसके नाटक से मुक्ति दिलाने का क्या तरीक़ा था? उसके नाटक से मुक्त होकर के असली नाटक की तरफ़ चली जाइए। जब आप ही उसके नाटक से मुक्त नहीं हो रहीं तो वो अपने नाटक से क्यों मुक्त हो? और दूसरा उसको अपनी ताक़त का एहसास, अपनी जीत का एहसास हो गया।

वो कह रहा है, ‘ये जो मेरा ये नाटक है न; दीवार पर थूकने वाला और कच्छा फाड़कर उछालने वाला; इससे बढ़िया तो कोई नाटक हो ही नहीं सकता! शेक्सपियर हों कि कालिदास हों, मैंने सबको हरा दिया! मेरा नाटक सब पर भारी!’

क्या यही सन्देश हम अपनी ज़िन्दगी में जितने नाटकबाज़ हैं सबको नहीं देते हैं? दिन-रात आप उनकी जीत करा रहे हैं जबकि वो ग़लत जगह पर बैठे हुए हैं फिर भी आप उनकी जीत करा रहे हैं।

ग़लत जग़ह पर बैठे-बैठे जब उनकी जीत हो रही है तो वो सही जग़ह की ओर क्यों बढ़ें? बताओ! वो कहेंगे, ‘ये मेरी माताजी, ये बड़ी साहित्य प्रेमी बनतीं थीं, कहती थीं, अरे! ‘उपमा कालिदासस्य।’ और जब नाटक देखने की बारी आयी तो किसका चुनाव किया? इन्होंने कालिदास के नाटक का चुनाव नहीं किया।’ आपने उसको क्या सिखा दिया? कि तेरा नाटक जीतेगा, तेरा नाटक सब पर भारी पड़ेगा। अब वो ज़िन्दगी भर वही नाटक करेगा, जब कोई निचली कोटि का नाटक कर रहा हो तो उसे मुक्ति दिलाने का यही तरीक़ा है कि तुम उससे मुक्त हो जाओ। आप उससे कहिए, ‘तू अपना करता रह, मैं जा रही हूँ थियेटर (नाट्यगृह) की ओर!’ आप उससे मुक्त हो जाइए, उसे उसके नाटक से मुक्ति मिल जाएगी – अगली बार जब आप जाऍंगी तो वो आपके साथ चलेगा, अपना नाटक नहीं करेगा। समझ में आ रही है बात?

आप जिसको सहानुभूति कहते हैं, वो अक्सर हिंसा, क्रूरता होती है। बस वो आप अन्जाने में करते हैं तो इसीलिए आप उसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेते। किसी को ग़लत सन्देश दे देना, किसी की ज़िन्दगी ख़राब करना, क्रूरता है या नहीं है?

अब आप उसको ये सन्देश दे दें कि तेरा नाटक बहुत बढ़िया! तो ये आपने हिंसा करी कि नहीं करी? लेकिन ये हिंसा आपने कैसे करी? माँ की ममता के माध्यम से करी, तो आप कहेंगे, ‘हिंसा नहीं ममता है।’ अरे, वो ममता के माध्यम से की गयी हिंसा है!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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