क्या जीवन सही दिशा जा रहा है? डर कैसे हटाएँ?

Acharya Prashant

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क्या जीवन सही दिशा जा रहा है? डर कैसे हटाएँ?

आचार्य प्रशांत: सुनिकेत जोशी हैं दोहा, कतर (देश) से। कह रहे हैं, ‘पिछले सत्र में मुझे समझ आया कि जीवन ही गवाही देगा अध्यात्म पथ पर सही चलने की। अध्यात्म सही जीवन जीने की कला है। तो आचार्य जी, किससे पूछे या कैसे पता चले कि सही जीवन जी रहे हैं या नहीं। किसको पूछें कि मेरे दुर्गुण क्या हैं, और अगर सिर्फ़ गुरु ही दिशा बता पाएँगे, तो आपसे भी मदद कैसे लें, या सीधी बात कैसे हो? आत्मबोध के श्लोक तो पढ़ लिए, फिर भी रास्ता साफ़ नहीं है। कृपया मार्गदर्शन करें।’

सुनिकेत जीवन सही चल रहा है या नहीं चल रहा है, इसके निर्धाता सिर्फ़ तुम हो। तुम्हें अगर अभी यही प्रतीत हो रहा है कि जीवन सही चल रहा है, तो फिर ठीक है। तुम्हें अगर अभी साफ़-साफ़ अनुभव नहीं हो रहा कि दुख हैं, बन्धन हैं, भ्रम हैं, तो फिर ठीक है। फिर चलने दो जो चल रहा है।

अगर सबकुछ ठीक ही होगा, तो क्यों उसमें व्यर्थ की छेड़छाड़ करनी, और अगर ठीक नहीं होगा, तो कुछ ही समय में विस्फोट होगा, चोट लगेगी। हाँ, ईमानदारी से ये प्रश्न बार-बार करते ज़रूर रहना कि क्या वास्तव में सबकुछ ठीक चल रहा है? क्योंकि कई बार दैवीय अनुकम्पा चाहिए होती है सिर्फ़ तुम्हें ये उद्घाटित करने के लिए, सिर्फ़ तुम्हें ये जताने के लिए कि कुछ गड़बड़ कहीं है ज़रूर।

मैंने कई बार कहाँ है न, आदमी में बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण ताकत होती है समायोजित हो जाने की, स्वभाव विरुद्ध जीवन जीकर भी सन्तुष्ट अनुभव करने की।

उस समय पर तो कोई बाहरी स्पर्श चाहिए होता है, कोई अनुग्रह, कोई चमत्कार जैसा। कोई चाहिए होता है जो आकर के तुम्हें थोड़ा झँझोड़ जाए। लेकिन वो झँझोड़ भी तुम्हें तुम्हारी अनुमति से ही पाएगा।

तो ले-देकर के हम पहली ही बात पर वापस आ गए कि निर्धाता तो तुम ही हो। तुम ही तय करोगे कि सब ठीक चल रहा है या नहीं, क्योंकि बताने वाला भी झँझोड़ सकता है, उससे ज़्यादा तो कुछ नहीं कर सकता।

तुमसे कोई बात कह सकता है, तुम्हारे सामने कुछ प्रमाण रख सकता है, उससे ज़्यादा तो कुछ नहीं कर सकता। अन्तत: उन प्रमाणों को भी स्वीकार या अस्वीकार तुम्हें ही करना है।

तुम्हें कोई नींद से झँझोड़ दे, लेकिन नींद से उठने या न उठने का निर्णय तो फिर भी तुम्हारा है। तुम्हें कोई कितनी बाते बता दे, उन बातों को मानने या न मानने का निर्णय तो फिर भी तुम्हारा है, तो निर्धाता तो तुम ही हो।

हाँ, इतना कर सकते हो कि जीवन को कई तरीकों से परखते रहो, प्रयोग करते रहो, जाँचते रहो। जो लगती हों चीज़ें कि ठीक चल रही हैं, उनका भी परीक्षण करते रहो। अगर वो वास्तव में ठीक चल ही रही होंगी, तो बार-बार परीक्षण पर खरी उतरेंगी, तुम्हारा विश्वास और बढ़ेगा। और अगर कहीं कुछ गड़बड़ होगी, तो वो परीक्षण से सामने आ जाएगी।

(प्रश्नकर्ता) वैभव हैं कलकत्ता से। कह रहे हैं, प्रणाम, आचार्य जी। बचपन से ही बहुत डरपोक रहा हूँ। अन्धेरे में जाने से डर लगता है, और चूहे, बिल्ली, गाय, छिपकली, कुत्ते, और-तो-और खरगोश से भी बहुत डर लगता है मुझे। (श्रोतागण हँसते हैं)

क्या मेरा ये डर समर्पण के साथ कम होगा?

आ जाओ वैभव तुम अब। तुम इतना ही समर्पण कर लोगे, हफ्ते की छुट्टी लेकर के आ जाओ। चूहा, बिल्ली, गाय, छिपकली, कुत्ता, खरगोश सबसे मिलवा देंगे।

जिनसे डरने लग जाते हो, उनसे दूरी बना लेते हो। जिनसे दूरी बना लेते हो, उनके बारे में तथ्य जानने का तुम्हारे पास अब कोई तरीका नहीं बचता, क्योंकि उनसे तुमने दूरी बना ली। तो दूरी बनाने के साथ ही डर को ये सुविधा हो जाती है कि जिनसे दूरी बनायी है अब उनके बारे में कहानी बना ले।

कोई जीव, कोई वस्तु तुम्हारे सामने ही हो, साक्षात हो, तो तुम उसके विषय में किस्से नहीं गढ़ पाओगे, कल्पना नहीं कर पाओगे, क्योंकि वो तुम्हारे सामने ही है। पर डर के मारे दूर हो जाते हो और जब दूर हो जाओगे, तो वो चीज़ तो तुम्हारे सामने है नहीं। तो अब तुम्हें सुविधा हो गयी कहानी गढ़ने की। और चूँकि डरे हुए हो, तो इसीलिए डर के विषय के बारे में कहानी कैसी गढ़ोगे? डरावनी।

श्रोतागण: डरावनी।

आचार्य प्रशांत: अब जो आदमी खरगोश से डरता हो, उससे अगर तुम कहो कि खरगोश कैसा होता है इसके बारे में कुछ बताना। तो कहेगा कि खरगोश! नरभक्षी होता है।

अभी बीते दिनों बगल के जिले में छह पहलवान मारकर के खा गए दो खरगोश। अब वो ऐसा क्यों कह रहा है, वो ऐसा इसलिए कह रहा है क्योंकि उसने खरगोशों से इतनी दूरी बना ली है कि खरगोश वास्तव में क्या है इसको वो बिलकुल भूल चुका है।

उसकी कल्पना का खरगोश कैसा होता है? उसकी कल्पना के खरगोश के सींग है, उसकी कल्पना के खरगोश के बड़े-बड़े दाँत है, उसकी कल्पना के खरगोश के मुँह से खून रिस रहा है। उसकी कल्पना का खरगोश ये बड़े पन्जे और तीखे नाखूनों वाला है। और वो ये कल्पना सुविधापूर्वक कर सकता है क्योंकि?

श्रोतागण: दूर है।

आचार्य प्रशांत: खरगोशों से दूर है। खरगोशों से उसे कोई वास्ता ही नहीं। छिपकली देखते ही इतना डर लगता है कि भागे ज़ोर से। ज़रा थमकर के दो पल उसे देखा भी नहीं। तो अब जब भाग ही रहे हो, तो तुम्हारे चित्त में छिपकली क्या, अब छिपकली नहीं है वो डायनासोर (भयानक छिपकली) है। जो छत से लटक रहा है, तुम्हारे ऊपर अब धावा ही बोलने वाला है। कुत्ते, बिल्ली... वो कुत्ते, बिल्ली नहीं हैं, वो चीते हैं, शेर हैं।

ये दूरी बनाने से होता है। ये अहंकार की बड़ी पुरानी, बड़ी घिनौनी लेकिन बड़ी सफल चाल है। उसको जिससे घृणा करनी होती है उससे वो दूरी बना लेता है। और तुम्हें ये बात बड़ी स्वाभाविक सी लगती है न कि भई! जिससे नफ़रत है उसके पास क्यों जाएँ।

वास्तव में जिससे नफ़रत होती है उसके पास तुम इसीलिए नहीं जाते ताकि तुम उससे नफ़रत करते रह सको। क्योंकि पास चले गए, तो घृणा कर नहीं पाओगे। घृणा तथ्यों पर कहाँ आधारित होती है। घृणा तो कहानियों पर आधारित होती है, और कहानियाँ बची ही तब तक रहेंगी जब तक तुमने दूरी बनायी है।

तो जहाँ तुम अपनेआप को पाओ कि किसी से बहुत दूर रहने का मन है, किसी की शक्ल नहीं देखनी है, बात नहीं करनी है, तहाँ समझ जाना कि तुम भीतर के झूठ को प्रोत्साहन दे रहे हो। सामने जाओगे, मिलोगे, बैठोगे, समय बिताओगे झूठ का पर्दाफ़ाश हो जाएगा।

इसलिए तुम सामने जाना ही नहीं चाहते। या अगर तुम सामने जाओगे भी, तो पल भर को जाओगे, और विशेष स्तिथियाँ निर्मित करके जाओगे। तुम स्तिथियाँ ही ऐसी निर्मित करके जाओगे जिसमें तुम्हारी कहानी बची रह सके।

जैसे एक कुत्ते से तुम्हें डर लगता हो, तो तुम कुत्ते के सामने जाओगे ही डण्डा लेकर के, और जहाँ कुत्ते ने डण्डा देखा, तहाँ वो तुम पर भौंकेगा, और तुम्हें दौड़ाएगा। और तुम्हें तुरन्त प्रमाण मिल गया कि तुम्हारी कहानी ठीक थी। तुमने कहा देखा, ‘मैं तो पहले ही कहता था कि नरभक्षी कुत्ते हैं, कुत्ता है ही नहीं आदमखोर है।’

तुम ये नहीं देख रहे कि तुम उस कुत्ते के सामने खासतौर पर योजना बनाकर गये ही इस तरीके से कि वो कुत्ता तुम पर आक्रमण करे, भौंके। समझ में आ रही है बात?

ये अहंकार की घिनौनी, लेकिन दुर्भाग्यवश सफल चाल होती है। तुम जिसको जैसा देखना चाहते हो, वैसा देख सकते हो। और देख ही नहीं सकते, तुम प्रमाण भी इकट्ठा कर सकते हो कि तुम जिसको जैसा देख रहे हो, वो वैसा ही है। कितनी खतरनाक बात है ये।

जो दुनिया को जैसा देखता है उसे अपनी दृष्टि के पक्ष में प्रमाण भी उपलब्ध है कि दुनिया वैसी ही है। फँस गए। कितनी बुरी तरह फँसे हुए हैं हम अपने ही बीच में। हम अपनी ही दृष्टि के कारागार में बन्द हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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