क्या बुद्ध नास्तिक थे? हम ज्ञानियों की बातों का उल्टा अर्थ क्यों करते हैं? || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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क्या बुद्ध नास्तिक थे? हम ज्ञानियों की बातों का उल्टा अर्थ क्यों करते हैं? || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। सभी उपनिषद् और वेदान्त भी इसी मूल प्रश्न पर आते हैं कि आप कौन हो? माने दुख में हो आप और उद्देश्य एक ही है कि दुख से मुक्ति मिले। बुद्ध के भी चार आर्य सत्य इसी की घोषणा करते हैं, दुख है, कारण है, मुक्ति सम्भव है, उसका अष्टांग मार्ग है।

आचार्य: बहुत बढ़िया।

प्रश्नकर्ता: तो जब बुद्ध का पूरा दर्शन इसी पर आधारित है तो उस वक़्त के सभी लोगों ने उनको नास्तिक और ब्राह्मणों ने भी और आज तक भी दर्शन के क्षेत्र में उनके दर्शन को नास्तिक बोलकर ही पढ़ा जाता है, समझना चाहता हूँ क्यों?

आचार्य: कुछ नहीं है, मूर्खता है। बुद्ध को नास्तिक बोलना पागलपन है।

प्रश्नकर्ता: क्योंकि मेरी समझ में मूल और असली वेदान्ती तो वही हैं।

आचार्य: बुद्ध वेदान्त की जितनी गहराई तक पहुँचे थे उतनी गहराई तक उस समय में कोई ऋषि-मुनि नहीं था जिसको वेदान्त समझ में आता हो। चूँकि उनको समझ में नहीं आता था ख़ुद ही वेदान्त, तो जो असली वेदान्ती था उसको घोषित कर दिया ये तो नास्तिक है। इनको लगा कि आस्तिक वो है जो वेद के कर्मकांड को माने और कर्मकांड के नाम पर ये लगे हुए हिंसा करने में, जानवर काटने में। असल में खेल सारा जानवर के ही कटने का था, समझो बात को। मूल बात वही थी, वहीं पर; उनको काटने थे जानवर और लोगों से उगाहने थे पैसे, धन-धान्य और माँस तो है ही है।

बुद्ध ने कहा ये सब नहीं चलेगा। पहली बात इसमें धर्म कहीं नहीं है दूसरी बात तुम सीधे-साधे लोगों को लूट रहे हो और तीसरी बात ये जानवरों को मारना तो मैं बर्दाश्त कर ही नहीं सकता। तो उन्होंने कहा तू नास्तिक है क्योंकि ये तो कर्मकांड है हमारे उसमें लिखा हुआ है वेद में तो हम करेंगे। और अगर तू इसको नहीं मान रहा है तो माने तू वेद को नहीं मान रहा है तो तू नास्तिक हो गया।

एकदम ग़लत बात है न, वेदों का जो मर्म है, रस है वो कर्मकांड थोड़े ही है, वो क्या है? वो तो वेदान्त है और वेदान्त तो सबसे ज़्यादा आगे कौन बढ़ा रहे हैं? स्वयं बुद्ध। तो अगर कोई सबसे बड़ा आस्तिक है तो कौन है?

प्र: बुद्ध ही हैं।

आचार्य: तो ये मत कहो कि बुद्ध को नास्तिक बोला, ये पूछो कि किसने? जो कर्मकांडी हैं उनको तो बुद्ध नास्तिक ही लगेंगे, वो तो नास्तिक लगेंगे। और बुद्ध को नास्तिक जब आप बोलते हैं तो आप एक बहुत ख़तरनाक बात खड़ी कर देते हैं। आप कह देते हैं कि वेद का अर्थ ही है बस कर्मकांड और जैसे ही आप वेद का अर्थ कर्मकांड कर देंगे, जानते हैं उसका असर क्या होगा? असर ये होगा कि वेद धीरे-धीरे खोते जाएँगे।

कितने लोगों ने वेद पढ़ा है आज? क्योंकि कर्मकांड एक समय की चीज़ थी जो उस समय‌ कुछ लोगों को ठीक लगी उन्हें लगा उस वक़्त न विज्ञान बहुत विकसित था, न सूचनाएँ थीं कुछ नहीं। तो वो एक समय की बात थी कि इस समय पर हमें लगता है कि इसी तरीके से पानी की ताक़त को प्रसन्न करा जा सकता है, कड़कने वाली बिजली को प्रसन्न करा जा सकता है, वो इन्द्र बैठा हुआ है जो सब देवताओं का शिरोमणि है उसको प्रसन्न कर सकते हैं और अग्नि है जो कि तरीक़े-तरीक़े से काम आती है, उसको हम खुश कर सकते हैं।

तो वो एक समय की बात थी जब ज्ञान इसी स्तर पर था‌। वो समय तो बीत गया अब आज की पीढ़ी कैसे उस चीज़ को स्वीकार करेगी? तुम बोलोगे कि ‘हे इंद्र! तू हमारी फसलें ठीक कर दे या बारिश कर दे वरुण या मित्र या कुछ भी।‘ तो आज की पीढ़ी है वो क्या बोलेगी, आज का जो जवान लड़का वो क्या बोलेगा? बोलेगा, ‘भाई अगर पानी ही चाहिए तो उसके लिए नहर है और बाँध है, आर्टिफिशियल रेन (कृत्रिम वर्षा) भी है। बिजली चाहिए तो उसके लिए बोलो न्यूक्लियर रिएक्टर (परमाणु संयंत्र) है, प्रकाश चाहिए तो उसके लिए ये बल्ब लगे हुए हैं।

इसमें देवता लोग कहाँ से आ गये? तुम्हें प्रकृति से सम्बन्धित जो भी चीज़ें चाहिए उसके लिए तो विज्ञान है, उसमें देवताओं की ज़रूरत कहाँ बची? कहते हैं हमारी गायें ज़्यादा दूध दें। गायें भी ज़्यादा दूध दें तो उसके लिए तुमने जेनेटिकली मोडिफाइड (आनुवंशिक रूप से संशोधित प्रजाति की) गाय बना दी है उसके लिए भी तुम्हें देवता नहीं चाहिए।

अगर आप वेद को वही बना दोगे कर्मकांड तो आज की पीढ़ी वेद को बिलकुल भुलाती जाएगी, पीछे छोड़ती जाएगी, वो सबसे बड़ा ख़तरा है। लेकिन अगर आप वेद को वेदान्त मानोगे तो वेद अमर हो जाएँगे। वेदों को बचाना है अगर तो वेद से आशय ‘वेदान्त’ होना चाहिए। फिर आप कहते हो आज की पीढ़ी संस्कारहीन हो रही है, धर्म को भूल रही है। कैसे धर्म को याद रखेंगे? धर्म के नाम पर आप उसे ये सब बातें बताओगे अगर कि फ़लाना यज्ञ करने से वर्षा हो जाती है तो वो साइंस पढ़ा हुआ लड़का हुआ वो आपका मुँह देखेगा हँसेगा और क्या करेगा।

वेद की एक ही चीज़ है जो अमर है, जो कभी भी पुरानी नहीं पड़ेगी, जो हमेशा बहुत (स्पष्टता के लिए वाक्यांश पूरा किया जा सकता है), वो कौनसी चीज़ है? वेदान्त। क्योंकि वेदान्त किसकी बात करता है? आदमी के मूल बन्धन की। जब तक इंसान है उसका वो मूल बन्धन रहेगा और जब तक वो मूल बन्धन रहेगा तब तक वेदान्त सार्थक रहेगा और प्रासंगिक रहेगा और उपयोगी रहेगा।

तो वेदान्त अकेला है जो अमर है। आस्तिकता का अर्थ होना चाहिए वेदान्त के प्रति सम्मान। जो वेदान्त को सम्मान देता है वो आस्तिक है यही आस्तिकता की परिभाषा होनी चाहिए। आस्तिकता की और कोई नहीं परिभाषा। आप बैठकर के यज्ञ करते हो लकड़ी जलाते हो, इससे आप आस्तिक नहीं हो गये। आप बाक़ी तमाम तरीक़े के मंत्रोच्चार करते रहते हो बैठे-बिठाए,उससे आप आस्तिक नहीं हो गये। आस्तिक माने वही जो वेदान्त में आस्था रखता है। और अगर आप ये परिभाषा नहीं स्वीकार करोगे, हिन्दू समाज अगर इस परिभाषा को नहीं मानेगा तो नतीज़ा ये होगा कि आने वाली पीढ़ियाँ पूरे तरीक़े से वेद विमुख हो जाएँगी और वो हो चुका है।

मैं फिर पूछ रहा हूँ, बताओ न किसने वेद पढ़े हैं? आप में से ही किसने वेद पढ़ा है, बताओ? हाँ, आप में से कुछ लोगों ने अब वेदान्त जान लिया है। क्योंकि कुछ उपनिषद जान लिए हैं और भगवद्गीता जान ली है, यही हुआ है न। अच्छा ठीक है, मैं आपसे कहूँ कि मैं कर्मकांड का एक कोर्स शुरू कर रहा हूँ, चलिए हाथ खड़े करिए कितने लोग आना चाहते हैं? (कोई हाथ नहीं खड़ा करता) ये का हो गया, कोर्स फ्लॉप हो गया। ये होगा, ये होगा और लगी हुई है पूरी जो हिंदुओं की, पुरोहितों की जमात है कि इनको हम क्या बता दें? वो बता रहे हैं कि देखो अथर्ववेद में जादू-टोना है तुम भी जादू-टोना सीखो। अरे नहीं सीखेगी, ये पीढ़ी नहीं सीखेगी। चारों तरफ़ विज्ञान-ही-विज्ञान है तुम उनको नहीं कनविंस (मना पाओगे) कर पाओगे जादू-टोने के लिए। कुछ समय तक कर भी सकते हो कुछ मूर्खों को पर धीरे-धीरे वो सब इन बातों को पीछे छोड़ देंगे।

अरे, वेद वाला आइडिया तो फ्लॉप हो गया, अब वेदान्त वाले आइडिया पर, हाँ जी वेदान्त पर है कितने लोग आना चाहते हैं? (सभी लोग इच्छा प्रकट करते हैं) अरे! ये सब तो लगता है पहले ही गीता में है। ये अन्तर है वेद और वेदान्त में, वेदान्त हमेशा हमें प्यारा रहेगा क्योंकि वेदान्त मनुष्य मात्र की प्यास है। बाक़ी सब बातें समय की धूल बन जानी है। विश्व के जितने धर्म हैं इनका कोई भविष्य नहीं है।

जैसे विवेकानंद कहा करते थे न भविष्य का धर्म तो वेदान्त मात्र है। जैसे जो बात मैं वैदिक कर्मकाण्ड के लिए बोल रहा हूँ वो मैं विश्व के सब धर्मों के लिए बोल रहा हूँ। जितने तुमने फ़ालतू की रसम, रवायत, परम्परा बाँध रखी है धर्म के नाम पर ये समय की धूल हो जानी है बहुत ज़ल्दी, हो चुकी है।

कितने ईसाई हैं जो ईसाइयत का वैसे ही पालन करते हैं जैसे सौ साल पहले होता था, बताओ? जो चर्च वाली ईसाइयत है, जीसस वाली नहीं; जो चर्च वाली ईसाइयत है उसको तो रेनेसा ने ही ख़त्म कर दिया था, तीन सौ साल पहले ख़त्म हो चुकी है वो। और अगर आप नई ईसाइयत नहीं लेकर आओगे तो वही होगा जो हो रहा है। वो सारे जितने ईसाई हैं वो अपनेआप को अब एथीस्ट (नास्तिक) घोषित करते हैं।

ऐसे-ऐसे देश हैं जिनकी तिहाई आबादी अपनेआप को एथीस्ट घोषित कर चुकी है; एथीस्ट और एग्नॉस्टिक‌ (अज्ञेयवादी)। वो कहते हैं हमें लेना-देना ही नहीं है, क्रिश्चनिटी से हमें कोई मतलब ही नहीं क्योंकि वो कहते हैं क्रिश्चनिटी का यही तो मतलब है कि वहाँ पर जाकर के बोल रहे हो कि ये कर दिया, वो कर दिया, गाने गा दिए और ईस्टर पर और क्रिसमस पर ये कर दिया। कहते हैं ये सब हमें करना ही नहीं, हमें समझ में नहीं आता इसका मतलब क्या है, बेकार की बात है।

एक ही चीज़ है जो इटरनल (शाश्वत) है; मैंस क्वेस्ट फॉर लिबरेशन (व्यक्ति की मुक्ति की चाह)। उसके अलावा कुछ इटरनल नहीं है, बाक़ी सब जैसे एक दिन आया था वैसे ही एक दिन चला जाता है। वेदों को भी बचाना है तो बस एक तरीक़ा है, क्या? वेदान्त। पृथ्वी भर को ही अगर बचना है तो एक ही तरीक़ा है, वेदान्त। क्योंकि हमारी जितनी समस्याएँ हैं, वो सारी समस्याएँ हमारे विक्षिप्त मन से उठ रही हैं और मन का उपचार करता है वेदान्त। तो मैं इसलिए वेदान्त को आगे ला रहा हूँ। और हैं कुछ पागल लोग जो कहते हैं कि बुद्ध नास्तिक हैं। अब क्या बताएँ उनको हम। वो मुझे भी नास्तिक ही बोलते हैं, अभी ये बिलकुल बाज़ार में चीज़ बढ़िया से फैल चुकि है कि ये नास्तिक हैं, चल ठीक है।

प्र: एक और प्रश्न है। आपका भी जो विरोध कर रहे हैं वे बड़ी-बड़ी ताक़तें हैं जो तथाकथित अपनेआप को धार्मिक कहते हैं। क्योंकि ज़्यादा जो भोग है या उनका जो भी धर्म है, जो नक़ली धर्म है। जो लोग जाग रहे हैं उसका विरोध कर रहे हैं तो उनको ज़्यादा नुकसान पहुँचता है। ऐसे ही बुद्ध के समय पर भी हुआ था तो इसलिए जो नाम के उस वक़्त के ऋषि वग़ैरह थे उन लोगों ने उनका विरोध किया और वैसे ही आज के भी जो नाम के पंडित और पुरोहित हैं वे आपका विरोध कर रहे हैं इसीलिए। और वे ही लोग जनता को भी मैनुप्लेट करते हैं।

आचार्य: हाँ, जनता को भड़का रहे हैं, ठीक है। उनका काम उनको करने दो, हमारा काम हमें करने दो। बहुत बुद्ध हुए हैं, उसमें से किसी बुद्ध को कोई अशोक मिल जाता है। नहीं तो बुद्ध तो तब भी आनन्दित ही हैं। अशोक कोई खड़ा हो गया तो जो बात है वो फैल जाएगी चारों ओर, नहीं भी खड़ा होता तो बुद्ध को एक थोड़े ही हुए हैं। आप तो बस उन्हीं बुद्ध को जानते हैं न जो प्रसिद्ध हो गये, हैं न ठीक है। अपना काम करने वाले बाक़ी भी कोई कम नहीं थे अपना वो मस्त रहे।

बौद्ध धर्म में जब द बुद्धा बोलते हैं तो उससे आशय होता है; ‘बोधमात्र’, उससे आशय गौतम द बुद्धा नहीं होता। गौतम तो एक बुद्ध हैं और द बुद्ध माने रिलाइजेशन इटसेल्फ। तो कई बुद्ध हैं और इस पर हमारा कोई बस है नहीं कि अशोक मिलेगा कि नहीं मिलेगा। हमारा जिस पर अधिकार है हम वो काम अपना पूरे से करेंगे, उसके बाद ठीक है, खेल है।

‘शाक्यमुनि बुद्ध’ बोलते हैं उनको, तो शाक्यमुनि के अलावा और भी कितने मुनि हुए हैं सबको अशोक नहीं मिले तो ठीक है, काम तो उन्होंने तब भी अपना करा।

प्र: धन्यवाद।

प्र: प्रणाम आचार्य जी, जैसे कि पिछले प्रश्न से ही सम्बंधित है कि हम आज से कई सौ वर्षों पुरानी बात कर रहे हैं जब बुद्ध का समय था। आज समय दूसरा है, तकनीक है, तकनीक का युग है तो आज के समय का अशोक कैसा होगा जो उसको समर्थन देगा?

आचार्य: जिस किसी को भी बात समझ में आती हो और बात दूसरों तक पहुँचाने का दम रखता हो। अशोक कोई व्यक्ति नहीं है, अशोक एक भाव है उसको अशोक्तव बोल दो। वो एक भाव है, वो एक व्यक्ति भी हो सकता है, वो एक संस्था भी हो सकता है, वो व्यक्तियों का एक समूह भी हो सकता है, वो कुछ भी हो सकता है, अशोक तो कुछ भी हो सकता है।

तो अशोक का मतलब है कि कोई ऐसा जिसको समझ में भी आ गयी बात और आगे उसको समझानी भी है, वो हुआ अशोक। तो वो कोई भी हो सकता है, सामर्थ्य और समझ जिसमें हो, समझ है और सामर्थ्य है।

प्र: प्रणाम आचार्य जी, मैं आपसे ये पूछना चाहूँगा कि असली अर्थ क्या है? आप ये जो संतों की वाणियाँ सिखा रहे हैं सर ये हम स्कूल में, कॉलेज में, इंटरनेट में बचपन से पढ़ते हुए आ रहे हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते रहते हैं, अर्थ चेंज होते रहते हैं हमारे लिए। बचपन में किसी चीज़ का अर्थ और था अभी अलग है और हो सकता है आने वाले समय के बाद कुछ अर्थ अलग होगा और ये हमारे एक्सपीरियंस (अनुभव) के ऊपर भी डिपेंड निर्भर करता है। और आप बोलते हैं कि एक्सपीरियंस और एक्सपीरियंसर (अनुभोक्ता) दोनों झूठे हैं और संतों ने जो लिखा है सर ये अपने ऊँचे स्तर के हिसाब से लिखा है। तो हम इसका असली अर्थ कैसे अनुमान लगा सकते हैं? असली अर्थ कैसे समझ सकते हैं? कैसे समझ में आएगा ये?

आचार्य: जैसे-जैसे आपका दुख असली होता जाता है, वैसे-वैसे इसका अर्थ असली होता जाता है। नक़ली दुख क्या होता है? सेल लगी थी, पहुँचने में देर हो गयी, सेल हट गयी।

प्र: भौतिक चीज़ों का दुख।

आचार्य: भौतिक में भी कई तरह के दुख होते हैं। तीन तरह के दुख तो हमको वेदान्त ने ही बता दिये हैं, याद हैं न?

प्र: जी।

आचार्य: आदिभौतिक, आदिदैविक और आध्यात्मिक। तो इन तीन जो दुखों, ये जो तीन दुख बताये हैं इनके भी आप कई और तल बना सकते हैं बीच में। कि भौतिक सबसे नीचे का दुख होता है भौतिक में भी दो-चार और तल बना लीजिये ख़ुद ही। वैसे आदिदैविक में भी, ऐसे ही आध्यात्मिक में भी। तो जैसे-जैसे आपके दुख का तल बढ़ता जाता है वैसे-वैसे इनके शब्दों का अर्थ खुलता जाता है।

कोई बड़ी बात नहीं कि जिसका सबसे बड़ा दुख यही हो कि उसके सजना उसको शॉपिंग नहीं कराते। होते हैं बहुत सारे उनको यही दुख है, उसके लिए इसका यही अर्थ हो कि अमरपुर जो है वो कोई नई शॉपिंग मॉल है। अमरपुर ले चलो सजना, बिलकुल हो सकता है। अब दुख ही आपका जब एकदम निम्न तल का है तो इसमें से जो अर्थ आयेगा वो भी निम्न तल का होगा।

साहब की बातों का अर्थ वही जान पायेगा जिसका दुख अब न भौतिक है, न दैविक है बल्कि आध्यात्मिक है। भौतिक दुख क्या होता है? भौतिक दुख होता है जहाँ आपको साफ़-साफ़ पता है कि किस पदार्थ से आपको दुख हो रहा है। पाँव में काँटा लगा है, एक पदार्थ आ गया अतिरिक्त, ज़बरदस्ती पाँव में घुस गया उसे ये भौतिक दुख है। ठीक है?

बाज़ार में हीरा आया है, ख़रीद नहीं पा रहा हूँ। ये भी आदिभौतिक दुख है, पाँव में काँटा अधिक हो गया था और हीरा जेब में कम है। तो एक के होने से दुख था एक के न होने से दुख है, ये आदिभौतिक ही है।

आदिदैविक दुख होता है जो होता तो भौतिक ही है पर जिसका कारण पता नहीं है तो आप कारण कह देते है सांयोगिक है, दैविक है, ठीक है। बारिश ज़्यादा हो गयी, फसलें चौपट हो गयीं तो इसको कह देते हैं आधिदैविक दुख है। बारिश ज़्यादा हो गयी ग़लत समय पर बारिश हो गयी, फसल चौपट हो गयी ये आदिदैविक दुख हो गया। बाहर घूमने निकले थे धूप ज़्यादा मिल गयी या टिकट कटा कर कहीं गए थे हनीमून मनाने वहाँ पाँच दिन तक बारिश ही बारिश होती रही, कहीं घूमने को नहीं मिला। ये सब, इनको बोलेंगे आदिदैविक तो ये देव प्रकोप है। ये सब भौतिक ही बातें हैं।

टेक्नोलॉजी आगे बढ़ जाएगी तो ठीक-ठीक किसी जगह का भी जो मौसम है वो फोरकास्ट कर पाओगे सब पता रहेगा सब भौतिक बातें हैं।

आप अभी अगर उसी हालत में हो कि आपके लिए कहीं सेल लगी है, कहीं का आप मौसम बहुत मायने रखता है, कहीं व्यापार में घाटा हो गया, नुकसान-फ़ायदा देख रहे हो तो इन बातों के भी, ये जो सब साखियाँ हैं, भजन हैं इनके भी अर्थ आपके लिए बहुत निचले रहते हैं।

आध्यात्मिक दुख क्या होता है? आध्यात्मिक दुख होता है जब आप कहते हो भौतिक तो जो पाया जा सकता था सब मिला ही हुआ है लगभग लेकिन तब भी कुछ है जो कचोट रहा है। ऐसे लोगों के लिए सचमुच फिर वरदान होते हैं संतों के शब्द। आध्यात्मिक दुख वो है जिसका कोई भौतिक कारण नहीं है। समझ में आ गया है कि रुपये से, पैसे से, नई इमारत से, पाँच गाड़ियाँ और खरीद लीं या कुछ भी और जो भी भौतिक प्रपंच हो सकता है करने से दुख जा नहीं रहा है। एक सूनापन है जो बना ही रहता है, वो कहलाता है आध्यात्मिक दुख।

संतों की बातें उनके लिए हैं जिनको आध्यात्मिक दुख है। जिनको आदिभौतिक दुख है उनके लिए मनरेगा है। ठीक है तुम जाओ वहाँ से जो भी बीस रुपया मिलता है ले लो। तुम क्या करोगे वहाँ पर ये गीता के श्लोक पढ़कर? समझ में आ रही बात।

लेकिन फिर ऐसे लोग भी इनके साथ जुड़े रहें तो संतों ने फिर उसमें तरक़ीब लगायी। बोले ऐसा करो इनको न मधुर गीत जैसा बना दो, तो गाना तो शुरू करे। और इनको अर्थ भी कई तलों के दे दो ताकि जो निचले तल का आदमी है उसको भी इसमें से कुछ लाभ तो हो जाए। तो फिर वही हुआ कि जो "बड़ा हुआ तो क्या हो जैसे पेड़ खजूर पंथी" अब ये पाँचवीं क्लास में टीचरें पढ़ा रही होती हैं और लाभ भी कुछ हो ही जाता है। पूरा लाभ नहीं होता पर कुछ लाभ हो जाता है। ये एक युक्ति है। पाँचवीं क्लास में आप गीता का श्लोक नहीं पढ़ा पाओगे बिलकुल वो लाभहीन हो जाएगा। पर संतों ने करुणा के चलते अपनी बात को ऐसा कर दिया कि पाँचवीं के बच्चे को भी पढ़ा सकते हो भले ही उससे उसको लाभ नहीं होगा पर आप उसको बता सकते हो कम-से-कम उसके कान में घुस गया, मन में याद आ गया। अभी नहीं काम आएगा धीरे-धीरे आगे परतें जब खुलेंगी तो आगे काम आयेगा।

तो ये मत सोचिएगा कि ये बात आपको समझ में आ गयी। ये बात आपके लिए उतनी ही अभी सार्थक हुई है जितनी गहरी आपकी पीड़ा है। ये टैंक है (किसी चीज़ की ओर संकेत करके) और आपकी कुल लड़ाई है पड़ोस के झुन्नूलाल से तो ये आपके कितना काम आएगा? ये सब बातें उनके लिए हैं जिन्होंने जीवन में बड़े पंगे लिए हों। समझ में आ रही है बात? जो अभी छोटे ही मुद्दों में उलझे हुए हैं तो क्या उनका होगा कुछ नहीं। बगल वाले ने मेरे घर के सामने गाड़ी पार्क कर दी, संयुक्त राष्ट्र संघ में ये बात उठायी जानी चाहिए। उनके लिए ये नहीं है (बोध साहित्य), उनको तो बस अधिक-से-अधिक ऐसे ही है कि क्या कुछ भी नहीं। समोसा खिला दो, खुश हो जाएँगे। बड़ा दर्द, बड़ा दर्द जब हो तब ये चीज़ें काम आती हैं।

प्र: सर, इसके ऊपर ही ये एक फॉलोअप प्रश्न रहेगा कि ये बड़ा दुख उठाने के लिए बड़ी चुनौतियाँ उठानी पड़ेगी।

आचार्य: ईमानदारी चाहिए क्योंकि बड़ा दुख लाना थोड़े ही पड़ता है, बड़ा दुख तो है। हर बच्चा वो बड़ा दुख लेकर पैदा होता है, बड़ा दुख है। बहुत सारे लोग‌ उस बडे दुख को? हाँ, शर्ट सस्ती मिल रही थी, ख़रीद लाये, मज़ा आ गया, कोई दुख नहीं है। चार हज़ार की शर्ट बाईस सौ में लेकर आए हैं, तीन दिन तक बिलकुल मूड हरा-हरा है। तो ईमानदारी चाहिए न कि क्या करेगा तू अट्ठारह सौ बचाकर के, तेरी छाती में एक इतना बड़ा सुराख है। अट्ठारह सौ बचाकर क्या मिल गया तुझे?

बड़ा दुख सबको है पर सबमें इतनी ईमानदारी नहीं है कि स्वीकार करें कि वो गहरे दुख में हैं। कारण बिलकुल स्पष्ट है, मान लिया कि गहरे दुख में हो तो गहरी ज़िम्मेदारी उठानी पड़ेगी न। ज़िम्मेदारी से बचता है अहंकार तो नहीं मानते कि दुख है। सब घूम रहे हैं हैप्पी-हैप्पी। अभी कौन तो बोल रहा था कि जो वो एक रैंकिंग निकलती है न हैप्पीएस्ट कंट्रीज ऑन द अर्थ (विश्व के खुशहाल देश) तो वो हैप्पीएस्ट कंट्रीज की रैंकिंग ली।

प्रतिभागी: नेपाल उसमें शीर्ष पर था।

आचार्य: नहीं-नहीं वो तो ठीक है, उसका कोरिलेशन (सहसंबंध) निकाला; एंटी डिप्रेसेंट कंजम्पशन (प्रति अवसादकों के उपभोग) से। वो बड़ा तगड़ा कोरिलेशन आया जितनी हैप्पी कंट्री है, उसमें एंटी डिप्रेसेंट का उतना तगड़ा कंजम्पशन चल रहा है। झूठ बोलने में क्या जाता है हम हैप्पी हैं, हैप्पी हैं और फिर जाकर क्या करो? डिप्रेशन की गोली खा लो कि हम तो हैप्पी हैं। नहीं तो कैसे होगा कि जो देश सबसे आपको हैप्पी बोलते हैं वहाँ पर कैपिटा एंटी डिप्रेसेंट कंजम्पशन (प्रतिव्यक्ति प्रतिअवसादकों का उपभोग) एकदम चढ़ा हुआ है। ये कौन सी हैप्पीनेस है। इधर कौन हैप्पी हुआ था? (व्यंग्य करते हुए)

प्र: सर आपने एक पॉइंट बोला था, अबाउट टेकिंग रेस्पॉंसिबिलिटी (ज़िम्मेदारी उठाने के संदर्भ में)। तो उसमें एक सवाल जो मेरे दिमाग में काफ़ी टाइम से है कि और ये मैंने पर्सनल एक्सपीरियंस भी करा है कि ये ज़िम्मेदारी जो बोल रहे हैं इस ज़िम्मेदारी का रेस्पोंसिबिलिटी का बर्डन कैरी करने के लिए आइ डोंट फील द स्ट्रेंथ (मैं ताक़त अनुभव नहीं करता हूँ ) कि मैं परिणाम क्या बियर (झेल) कर सकता हूँ क्योंकि इट सीम्स लाइक वन वे पाथ एक बार यदि जाता हूँ तो देयर इज़ नो लुकिंग बैक (तो फिर पीछे लौटने का कोई रास्ता नहीं है)।

आचार्य: अब आप सुनिए, अच्छा किया आपने ये प्रश्न पूछ लिया। ज़िम्मेदारी आती है न आपकी स्ट्रेंथ चेक करने, न डेवलप करने बल्कि रिवील करने। स्ट्रेंथ आपमें है पर वो छुपी रहेगी जब तक आप ज़िम्मेदारी नहीं उठाओगे। तो ज़िम्मेदारियाँ आपकी परीक्षा लेने भी नहीं आतीं, आपके बल का विकास करने भी नहीं आतीं, आपके बल का उद्घाटन करने आती हैं। जो ज़िम्मेदारी नहीं ले रहा है उस बेचारे को कभी पता ही नहीं चलेगा उम्र भर कि उसमें फ़ौलाद कितना था।

जो भीतरी चीज़ होती है वो बोलती है मैं प्रकट ही तभी होंऊँगी जब मेरी कोई उपयोगिता हो। जब मेरी ज़रूरत ही नहीं, जैसे कोई ऑटोमैटिक कार हो, आप उसको बीस पर चला रहे हो, उसमें पाँचवाँ गियर लगेगा ही नहीं। आप कह रहे हैं हमेशा सेकेंड गियर में चलती रहती है। वो कह रही तुम एक्सिलेटर दबाओ तो सही, तुम सौ पहुँचाओ तो सही, तुम सौ पहुँचाओ फिर देखो हम छठा लगाते हैं कि नहीं।

आप में ताक़त कितनी है वो प्रदर्शित ही होता है जब आप चुनौती उठाते हो। और ताक़त छुपी रहेगी जब तक आप चुनौती नहीं उठाओगे एकदम छुपी रहेगी और आपको यही भ्रम बना रहेगा कि हम तो बलहीन हैं। आप बलहीन नहीं हो, अगर कोई अपनेआप को बलहीन मान रहा है तो इसका मतलब है वो श्रद्धाहीन है। उसने कभी भरोसा करके चुनौतियाँ उठाई नहीं इसीलिए कभी उसकी ताक़त सामने आयी नहीं। उसमें कमी बल की नहीं भरोसे की है, बल की कमी किसी में नहीं होती।

देखिए बाहर का नियम होता है कि बल पहले हो चुनौती बाद में आएगी, यही होता है न। ये स्थूल जगत का नियम है, वहाँ कहते हैं भाई जितनी जान हो उतनी ही वज़न उठाओ। आंतरिक जगत का नियम उलटा है। जितना वज़न उठाओगे उतना स्वयं को बली पाओगे। हम बाहर का नियम भीतर में लगा देते हैं, ग़लती हो गयी। दो सौ किलो ऐसे उठा लोगे तो क्या होगा? टूट जाएगा। तो हम सोचते हैं यही नियम भीतर लगता होगा, ज़्यादा बड़ी चुनौती उठा ली तो हम टूट जाएँगे, नहीं ऐसा नहीं है। ज़्यादा बड़ी चुनौती उठा लोगे तो बस भ्रम टूटेंगे आपके और कुछ नहीं टूटेगा और भ्रम आपका ये है कि आप तो पिद्दू बाबा हो। मेरा नाम है पिद्दू‌ बाबा मैं जिसकी-तिसकी गोद में बैठा रहता हूँ क्योंकि मैं हूँ पिद्दू बाबा। चुनौती उठाओ, वो देखो क्या होता है। इसीलिए चुनौती उठाते नहीं पिद्दू बाबा को गोदी की आदत लग गयी है।

वो एक कहा है न किसी ने बड़ा काव्यात्मक "अवर डीपेस्ट फिअर इज देट वी आर पॉवरफुल बियोंड मेज़र " (हमारा सबसे गहरा डर ये है कि हम हमारी कल्पना से बहुत अधिक बलशाली हैं)। अवर डीपेस्ट फिअर इज देट वी आर पॉवरफुल बियोंड मेज़र। यहाँ से नहीं, ये तो कुछ भी नहीं ऐसे ही है (बाहरी शरीर) यहाँ से (हृदय से)।

प्र: सर हाउ केन देट बी अ फिअर? (सर ये डर कैसे हो सकता है?)

आचार्य: पिद्दू‌ बाबा नहीं रहोगे न फिर। पिद्दू बाबा तो ख़त्म ही हो जाएगा न पॉवरफुल हो गया तो। तो फिअर किसको है? पिद्दू बाबा को, हाँ पिद्दू बाबा को। मैं तो नहीं बचूँगा न। सेठ जी पैसा छुपाकर रखते हैं, बताओ क्यों? वो बार-बार यही दिखाते हैं कि मैं तो पिद्दू बाबा हूँ, बताओ क्यों? बहुत सारी ज़िम्मेदारियाँ उठानी पड़ेंगी और टैक्स भी देना पड़ेगा। अच्छा है कि ऐसे बन जाओ के कुछ है ही नहीं।

प्र: सर जब आप लोगों की रेस्पांसिबिलिटी आपने एक और चीज़ बोली थी कि आपकी ग्रोथ में लोगों की रेस्पांसिबिलिटी लेना वज अ बिग स्टेप फॉर यू , क्या वो लोगों को कॉम्पलिसेंट बनाता है बिकज मैं भी बहुत चाहूँगा कि कोई मेरे पास गुरु रहे जो को गाइडेंस दे लेकिन अगर मुझे लगता है गुरु इज कैरिंग माई वेट देन मैं खुश हूँ, वैसा।

आचार्य: वो कॉम्पलिसेंट बनेंगे तो मेरी जिम्मेदारी होगी उनकी कॉम्पलेसेंसी तोड़ना। ले-देकर वो ज़िम्मेदारी भी मेरी अपनी गरिमा के प्रति है। आप मेरे पास हैं और मेरे पास होने के कारण आपका नुकसान हो गया‌। ये अपनी डिग्निटी , अपनी गरिमा के कारण मुझे अस्वीकार है न। आप अगर यहाँ आए हैं तो आपको बेहतर होना पड़ेगा। आप यहाँ से वैसे ही लौट गए बल्कि बदतर होकर या खाली हाथ लौट गए तो कुछ-न-कुछ हमने भी ग़लत ही किया होगा फिर। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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