क्या भक्ति और बुद्धि साथ-साथ नहीं चलते? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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क्या भक्ति और बुद्धि साथ-साथ नहीं चलते? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बचपन से ही संतों का सानिध्य मिला है। मौसी थी हमारी, उनके साथ रहे और उनकी वज़ह से बचपन से ही उस ओर झुकाव हो गया। और बौद्धिक स्तर भी काफ़ी अच्छा हो गया। और धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा सत्संग का पता चला, सत्संग में आने-उठने लगे तो साधना का पता चला। तो बौद्धिक तरफ़ ज़्यादा झुकाव होने की वज़ह से वो जो साधना वाला पक्ष था, वो थोड़ा कमज़ोर ही रहा, कम ध्यान दिया उस तरफ़। लेकिन जैसे-जैसे गुरु जी की कृपा हुई, पता चला, तो दुआ करी कि थोड़ा भक्ति का भी स्वाद चखा दो। तो कुछ समय से वो धारा भी बही, मतलब वो पत्थर पिघली, आँखें गीली होने लगीं। और ग्रंथों के प्रति जो आदर था, वो किसी और ही तल पर चला गया, बहुत प्रेम।

तो मतलब आख़िरी बात है कि जहाँ पर बिलकुल कुर्बानी देने की बात है, बिलकुल अपनेआप को समर्पित कर देने की बात है चौबीस घंटे साधना में, बुद्धि चलानी ही नहीं है जहाँ। तो एक तो कुर्बानी नहीं दी जा रही बिलकुल, सिर को बचा जाते हैं। एक तो ये मलाल रहता है कि फिर बचा आए। तो उसके साथ बुद्धि फिर कारण खोजती है कि ये कैसे हुआ। तो बुद्धि को कुछ पता नहीं चला। और जो भक्ति की धारा बह रही है, प्रेम की, आनंद की, बुद्धि उसका भी कारण खोजना चाहती है। वो भी उसको पता नहीं चल रहा, बिलकुल ही जैसे शून्य पड़ गया हो, पागल वाली हालत हुई पड़ी है।

तो मतलब बुद्धि भ्रम में डाल रही है कि गुरु जी रूठ गए हैं। कुर्बानी तो खुद से नहीं दी जा रही है, अपनी कमजोरियाँ हैं। साधना का वो तल जहाँ बिलकुल ही न्यौछावर होना होता है, वहाँ तक उड़ान नहीं हो पा रही है। तो बुद्धि मतलब दिन का दिन बर्बाद कर देती है, प्रश्नों पर प्रश्न, कि तूने ऐसे किया वैसे किया। तो बहुत तकलीफ़ है। एक तो मलाल है कुर्बानी न दे पाने का, कि गुरु जी के इशारों पर जो काम होना चाहिए वो नहीं हो रहा, बचा जाते हैं, बेईमानी हो जाती है। और दूसरी तरफ़ बुद्धि उस मलाल को दूसरी तरफ़ भी उपयोग कर लेती है भ्रमों में, कि तेरी ग़लती है ये भी, ये भी। कृप्या मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: समझेंगे, साथ चलना! बुद्धि भक्ति के विपरीत नहीं है, न ही बुद्धि विपरीत है समर्पित निष्काम कर्म के। इतना तो तुम जानते ही हो, अनुभव में ही आया है तुम्हारे कि जब वृत्ति कुछ करना चाहती है तो बुद्धि उसके अनुकूल तर्क खोज लेती है। ये बात सबने देखी है न? जब भीतर से कोई उफान, कोई उद्वेग उठता है तो उसके समर्थन में बुद्धि क्या करती है? तर्क़ खोज लेती है ताकि तुम अपने कर्म को वैध, जायज़ ठहरा सको। देखा है न?

अब इसी बात को आगे बढ़ाओ, जैसे तुमने अभी-अभी देखा कि बुद्धि वृत्ति के विपरीत नहीं चलती, बुद्धि वृत्ति को निष्पत्ति देने की दिशा में बढ़ती है। बढ़ती है न? वृत्ति जो चाहती है, बुद्धि उसको निष्पत्ति देती है। निष्पत्ति माने पूरा करने में समर्थन, उसको निष्कर्ष तक पहुँचने में सहायता देती है। यही हो रहा है न? पर हमें अक्सर ये लगता है कि बुद्धि अर्थात् रीज़न, वृत्ति अर्थात् टेंडेंसी के विरुद्ध होता है। हम ऐसा ही कहते हैं न? हम कहते हैं, 'रीज़न इज ऑपोज्ड टू टेंडेंसी'; ऐसा नहीं है। पर हमें अक्सर लगता है कि जो तार्किकता होती है, या जो रीजनिंग माइंड है, जो तार्किक युक्तिपूर्ण मन है, वो विरोध में खड़ा है हमारी पुरानी-पाशविक-आदिम वृत्तियों के। ऐसा ही हमें लगता है पर ऐसा है नहीं।

तो हमने कहा बुद्धि निष्पत्ति देती है वृत्ति को। बात को आगे बढ़ाओ। बुद्धि भी कुछ खोज रही है, जैसे वृत्ति कुछ खोज रही है। और वृत्ति जो खोज रही है, वो करने में उसको बुद्धि का सहारा चाहिए होता है। बुद्धि का सहारा इसलिए भी चाहिए कि बुद्धि कुछ तर्क़ लगाकर के वृत्ति की गति को वैध ठहराए, और इसलिए भी चाहिए क्योंकि वृत्ति तो सिर्फ़ माँगती है, पाने की तरक़ीब नहीं जानती। बुद्धि क्या जानती है? पाने की तरक़ीब जानती है।

तो तुम्हें वृत्ति की वज़ह से भीतर से बड़ी चाहत उठ रही है; क्या चाहत उठ रही है? सेब खाना है। जैसे किसी पशु को भी उठ सकती है, किसी तोते को उठ सकती है, किसी बंदर को उठ सकती है, कि क्या चाहिए? सेब चाहिए। ये जो चाहत है, ये तो तुम्हारी पुरानी पाशविक वृत्ति है, 'सेब चाहिए भाई!' लेकिन सेब तुमको दिलाएगा कौन? बुद्धि दिलाती है। बुद्धि क्या जानती है? तरक़ीब जानती है, युक्ति जानती है, उपाय जानती है। यही तो बुद्धि का काम है न। वो मुश्किलों के बीच में से रास्ता निकालने का गुर जानती है। तो ये बुद्धि क्या कर रही है? ये वृत्ति को समर्थन दे रही है। तो बुद्धि वृत्ति की अपूर्णता को पूरी करने में सहायक का किरदार निभा रही है। वृत्ति को जो चाहिए वो पूरा करने में सहायक क्या हुई? बुद्धि।

फिर से समझो! वृत्ति को जो चाहिए वो पूरा करने में सहायक क्या हुई? बुद्धि। तो वृत्ति के विपरीत नहीं हुई बुद्धि। ठीक? इसी तरह से आगे बढ़ो! बुद्धि को भी तो कुछ चाहिए न? सब बुद्धिजीवियों को देखो, क्या दिखाई देता है? जैसे वृत्ति सेब माँगती है—जो बड़ी स्थूल बात है—बुद्धि भी कुछ माँग रही है लगातार। वो क्या माँग रही है? वो कुछ और माँग रही है जो ज़रा सूक्ष्म बात है। सेब कैसा है? गोल-गोल, हाथ में आ जाएगा, लाल-लाल दिखाई देगा, उसका स्वाद ज़ुबान को पता चलेगा, सेब ऐसा होता है। सेब की चाहत किसको होती है? वृत्ति को। बुद्धि को भी किसी की चाहत है।

देखा नहीं है, मन में हर समय प्रश्न चलते रहते हैं, चक्र चलते रहते हैं, कुछ चाहिए जिसको बुद्धि खोज रही है। इधर से एक तर्क़ उठ रहा है, उधर से दूसरा तर्क़ उठ रहा है, विचार चलता ही जा रहा है, चलता ही जा रहा है। तो बुद्धि भी कुछ चाहती है। वृत्ति जो चाहती थी, वो बड़ी सीधी-सादी चीज़ थी। क्या चाहती थी वृत्ति? सेब। बुद्धि भी कुछ चाहती है। बुद्धि जो चाहती है, उसको पाने में फिर भक्ति सहायक होती है। वृत्ति जो चाहती थी उसको पाने में सहायक कौन हुआ?

श्रोतागण: बुद्धि।

आचार्य: और बुद्धि जो चाहती है उसको पाने में सहायक कौन होगा अब?

श्रोतागण: भक्ति।

आचार्य: तो ये सब क्या विपरीत हैं आपस में? कोई वैपरित्य नहीं है इनमें। उल्टा-पुल्टा मत समझ लेना, कि कह दो कि अरे, ये तो लेफ्ट ब्रेन पर चलते हैं, वो राइट ब्रेन पर चलते हैं। ये सब विभाजन झूठे हैं। और कह दो कि नहीं, ये तो भक्तिजीवी हैं, वो तो बुद्धिजीवी हैं। सबकी माँग एक है भाई! सबका मालिक एक है, तो सबकी माँग अलग-अलग कैसे हो सकती है? जो वृत्ति पर चल रहा है वो भी वही माँग रहा है।

बाहर अभी कोई पक्षी कुछ माँग रहा था। तुम्हें क्या लगता है, जतिंदर ने जो माँगा और उस पक्षी ने जो माँगा, क्या वो अलग-अलग है बिलकुल? वृत्ति भी वही माँग रही है जो बुद्धि माँग रही है, और बुद्धि भी वही माँग रही है जो भक्ति ही दिलाएगी। सब एक ही को माँग रहे हैं। तो ये मत कहो कि अभी तक हम बुद्धि पर चल रहे थे और भक्ति की तरफ़ आए हैं। अगर बुद्धि ने जो माँगा, वो पूरा-पूरा माँगा होता तो बुद्धि अपनेआप भक्ति में परिणित हो गई होती।

अगर बुद्धि के ही तल पर अटक गए तो इसका मतलब ये है कि अभी बुद्धि के तल को भी तुमने पूरा-पूरा खोजा नहीं। बुद्धि की कुछ माँग है, अपनी निजी सामर्थ्य का पूरा उपयोग करके बुद्धि को दिख गया होता कि उसको जो चाहिए वो बुद्धि भर के उपयोग से नहीं मिलेगा, तो बुद्धि कब की नतमस्तक हो गई होती न। इसका मतलब कि जो बुद्धि पर ही अटक गया है, उसने बुद्धि भी पूरी चलाई नहीं। जो बुद्धि पूरी चला लेगा, वो भक्त हो जाएगा।

ये बात समझ लेना ग़ौर से! जो बुद्धि पूरी चला लेगा, वो भक्त हो जाएगा। जो भक्त नहीं हो पा रहा है, बुद्धिजीवी ही बना बैठा है, इसका मतलब उसकी बुद्धि अभी बहुत चल नहीं रही है। ये तो बात ही विचित्र निकली। बुद्धिजीवी वो, जिसकी बुद्धि पूरी नहीं चलती। जिस दिन पूरी चल गई उस दिन बुद्धि भक्ति में बदल जाएगी। बहुत उदाहरण हैं, जो सबसे प्रकाशित उदाहरण है वो तो जानते ही हो—चैतन्य महाप्रभु।

बुद्धि पूरी चल गई तो गिर जाएगी बुद्धि, या कह दो खिल जाएगी बुद्धि, एक ही बात है। बीज का मिट जाना कहोगे या बीज का खिल जाना कहोगे? ये भी कह सकते हो कि कली अब रही नहीं और ये भी कह सकते हो कि कली अब फूल हो गई; एक ही बात है।

बुद्धि भी हम पूरी चलातें नहीं। तर्क को भी हम उसके शिखर तक, उसकी निष्पत्ति तक लेकर जाते नहीं। हम कहते भी हैं कि हमें तो बौद्धिक ज्ञान है, तो हम झूठ बोल रहे हैं। हमें तो बौद्धिक ज्ञान भी बस आधा-अधूरा है। बौद्धिक ज्ञान भी पूरा हो जाए—तो मैं कह रहा हूँ—वो परिवर्तित हो जाएगा। परिवर्तन भी ओछा शब्द है, वो सुगंधित हो जाएगा, वो पुष्पित हो जाएगा। किसमें? भक्ति में। और वो छोटा-मोटा परिवर्तन नहीं होता, वो कोई सतही रूपांतरण नहीं होता। वो ऐसा होता है जैसे मिट्टी के प्राण जग गए हों, मिट्टी भर थी और मिट्टी में से दो पत्ते फूट पड़े। ये कोई छोटा-मोटा परिवर्तन थोड़े ही है, ये तो ऐसा है जैसे मिट्टी में प्राण आ गए हों। ऐसा हो जाता है। हुआ कुछ नहीं है, इतने-इतने से दो पत्ते हैं, लेकिन बहुत बड़ी बात हो गई है। जड़ पत्थर में से, जड़ मिट्टी में से ज़िंदगी फूट पड़ी है; ये कोई छोटी बात है? जादू है।

ऐसा हो जाता है, बुद्धि से ही भक्ति आविर्भूत हो जाती है। तो ग्रंथों का अध्ययन करते हो तुम, उसको ही और तल्लीनता से करो। ये मान्यता छोड़ दो कि तुम बौद्धिक तल पर भी बहुत कुछ समझ गए थे। बिलकुल बच्चे हो जाओ, एकदम शून्य से शुरुआत करो। कहो कि मुझे बौद्धिक तल पर भी बहुत पता नहीं। गुरुओं ने जो समझाया, उसे अगर मैं सैद्धांतिक तौर पर भी समझ लिया होता पूरा, तो गुल खिल जातें। खिलें नहीं, इसका मतलब अभी तो मुझे सिद्धांत भी पूरा-पूरा समझ में आया नहीं है।

ऐसा करने से सर्वप्रथम क्या होगा? ऐसा करने से ये होगा कि जिन सिद्धांतों को तुम समझा माने बैठे हो, अब उनको लेकर प्रश्न करोगे। तुम्हारे सवाल बढ़ेंगे। और सवाल वो किस श्रेणी के होंगें—गौर से सुनना—बड़े सवाल नहीं करोगे फिर। अगले दर्जे के, उन्नत कक्षा के सवाल नहीं करोगे फिर तुम। फिर तुम बड़े मूलभूत सवाल करोगे, क्योंकि तुममें एक विनम्रता आएगी। तुम कहोगे, 'समझ ही गया होता, तो आगे नहीं बढ़ गया होता! अगर समझ के भी ठहरा हुआ हूँ—जैसे तुमने कहा—अगर समझ के भी ठहरा हुआ हूँ, इसका मतलब है सबसे पहले तो मुझे मानना पड़ेगा कि समझा नहीं।' तो फिर तुम्हारे सवालों की कोटि बदलेगी। तुम बिलकुल बच्चे जैसा सवाल पूछना शुरू करोगे, एकदम ज़मीनी श्रेणी के सवाल पूछना शुरू करोगे। अब बात बनती है, अब कुछ नया होता है।

ऊँची बात तो जतिंदर, पल में समझ आ जाती है अगर मौलिक बात अपनी जगह ठीक हो। मिट्टी अगर ठीक हो तो बहुत कोशिश थोड़े करनी पड़ती है कि वृक्ष को ऊँचाई मिले। ऊँचाई फिर अपनेआप हासिल हो जाती है, अगर मिट्टी ठीक हो। जो चीज़ नीचे है उस पर ध्यान दो, ऊपर वाली चीज़ अपनेआप हो जाती है। ऊपर वाली घटना अगर नहीं घट रही तो ऊपर-ऊपर ज़ोर मत लगाते रहना, कि पेड़ को पकड़कर ऊपर से खींच दिया। पेड़ की क्या ग़लती, शायद नीचे से ही पोषण पूरा नहीं मिल रहा है।

बुद्धि पूरी नेति-नेति करे, तो उसके बाद भक्ति दूर कैसे रह सकती है? जानते हो नेति-नेति का चमत्कार क्या है? नेति-नेति का चमत्कार ये है कि वो तुम्हें गहरी बेचैनी में छोड़ जाएगी। क्योंकि तुम जितनी नेति-नेति करोगे उतना तुम अकेले होते जाओगे, उतना छटपटाओगे और अहंकार अकेला जी नहीं सकता। ये भी नक़ली, ये भी नक़ली, ये भी नक़ली, और मैंने हमेशा अपनी पहचान क्या बनायी थी? इससे जोड़कर, इससे जोड़कर, इससे जोड़कर।

कोई मुझसे पूछता था, 'तुम हो कौन?' तो मैं कहता था, 'मैं इसका पिता हूँ, मैं इसका पति हूँ, इस दुकान का मालिक हूँ मैं, इस फैक्ट्री का सरदार हूँ मैं, इस घर का मुखिया हूँ मैं। ऐसे ही तो मैं अपनी पहचान बताता था। तो मेरी सारी पहचान किस पर अवलंबित थी? दूसरों पर। और नेति-नेति ने क्या कर डाला? इसको भी गिरा दिया, इसको भी मिटा दिया, उसको भी हटा दिया। जब ये सब हटें तो क्या हुआ? मैं ही नहीं बचा भाई! क्योंकि मैं ही इन पर आश्रित था अपनी हस्ती के लिए। अब बड़ा कचोटता है सब। अब दिख जाता है कि अपनी बसाई हुई दुनिया कितनी नकली है, कितनी अधूरी है, और उसमें कितनी बेबसी, कितना अकेलापन है। अब अहंकार के सामने कोई तरीका ही नहीं रहता, उसे सिर झुका ही देना पड़ता है, छटपटा कर सिर झुका देना पड़ता है, अनिवार्यतः भक्ति करनी पड़ती है।

भाई, भक्ति का क्या मतलब है? भक्ति का यही मतलब है कि एक तू ही सहारा। भक्ति क्यों नहीं होती है? क्योंकि हमारे पचास सहारे हैं। और नेति-नेति का क्या काम है—नेति-नेति बुद्धि से होती है—नेति-नेति का क्या काम है? पचास सहारे काट दिए। पचास सहारे काट दिए तो लो मज़बूरी में भक्ति करना पड़ेगा, कोई चारा ही नहीं बचा। भक्ति नहीं करोगे तो जाओगे कहाँ! यहाँ कोई बचा नहीं जिसका अब सहारा ले सको, तो अब 'हारे को हरिनाम।' एक वही सहारा बचा है, और कहाँ जाओगे!

बुद्धि पूरी चलाओ लेकिन, अगर पचास सहारे ले रखे हैं और बुद्धि लगाकर चालीस ही काट रहे हो, तो दस तो बहुत होता है। एक भी बहुत होता है। जब तक तुमने नीचे एक भी सहारा पकड़ रखा है तब तक भक्ति संभव हो ही नहीं पाएगी। अहंकार किसी एक को ही पकड़कर चिपक जाएगा। अपना काम चला लेगा वो। कहेगा, 'एक है तो भी काम चल रहा है, एक के अनेक बना लूँगा।'

बुद्धि का ज़बरदस्त प्रयोग करो, पूरी जान लगा दो। ऐसे सवाल पूछो जो सुनने में ही लगता है कि कितने छोटे हैं या कितने व्यर्थ हैं। हर ज़रा-ज़रा सी बात पर जिज्ञासा करो। किसी भी बात को यूँ ही मान्यता मत दे दो। जैसे-जैसे बुद्धि की धार से सब झूठों को काटते जाओगे, तुम पाओगे जीना अब मुश्किल होता जा रहा है, और जीना अब संभव तभी हो पाएगा जब उसके (एक का इशारा करते हुए) आश्रित हो जाओ, उसकी शरण में आ जाओ।

तो वो भी एक शर्त रखता है कि मेरे पास तभी आना जब दुनिया से ज़रा बेज़ार हो जाओ। 'जिसका कोई नहीं, उसका ही ख़ुदा है यारों।' जब तक तुम्हारे बहुत सारे आसरें हैं तब तक करोगे क्या ख़ुदा का? ख़ुदा कहता है, 'तुम मौज करो, बहुत लोग हैं अभी।' और इन बहुत लोगों की असलियत क्या है, ये तुम्हें कौन दिखाएगा? बुद्धि ही दिखाएगी, तुम्हारी जिज्ञासा ही दिखाएगी। सवाल ही दिखाएँगे, बिना सवाल पूछे कुछ नहीं पता चलने वाला। सवाल पूछने का मतलब है, 'कपड़ा हटा दिया। पर्दा हटा के देखेंगे।'

जो भी बात है, साफ़ ज़ाहिर होना चाहिए—सवाल पूछने का ये मतलब है, ये बुद्धि का काम है। साफ़ बताओ, हमें देखना है, आंकड़ें दिखाओ, तथ्य बताओ, खूब पूछो। जितना पूछोगे उतना मुक्त होते जाओगे।

आपके पास जो कुछ भी है सब उसी की ओर जाता है, बशर्ते आप उसका पूरा और ईमानदारी से उपयोग करें। आप अगर भावुक प्रवृत्ति के हैं तो आपकी भावना भी आपको वहाँ पहुँचा देगी। क्योंकि भावना भी क्या चाहती है? पूर्णता ही तो चाहती है। आप अगर बुद्धि प्रधान हैं तो आपकी बुद्धि भी आपको वहाँ पहुँचा देगी। आप दुनिया को जीतना चाहते हैं तो दुनिया को जीतने का संकल्प भी आपको वहीं पहुँचा देगा, क्योंकि दुनिया को जीतना भी बिना वहाँ जाए संभव नहीं है।

आप प्रतिस्पर्धी किस्म के हैं, इससे आगे निकलना चाहते हैं, उसको पीछे छोड़ना चाहते हैं तो भी आपको वहीं जाना पड़ेगा। जैसी भी वृत्ति मिली हो तुमको, जैसे भी संस्कार मिले हों, जो भी भावना हो तुम्हारी, हर चीज़ माँगती तो पूर्णता ही है न। और पूर्णता वहीं जाकर मिलती है। तो फ़र्क नहीं पड़ता कि कैसे हो तुम, जैसा भी रूप-रंग, मन, विधान, प्रारब्ध तुमको बक्शा है उसने, उसी का पूरा-पूरा इस्तेमाल करो और देखो कि वहाँ पहुँचते हो कि नहीं पहुँचते हो।

इसी जगह को ले लो, यहाँ सब लोग एक ही वज़ह से थोड़ी आए हो? आप जिस वज़ह से आयी हैं और आप जिस वज़ह से आए हैं, वो अलग होंगी। कल सुन ही रहे थे, आप पति-पत्नी हैं, पर दोनों जिन वजहों से आए हैं उनमें ज़रा फ़र्क है। आप कुछ समझना चाहते हैं, आप कोई ज़रा भिन्न मुद्दा समझना चाहते हैं। पर दोनों में साझा क्या है? दोनों समझना चाहते हैं। दोनों भीतर की अपूर्णता को पूर्णता तक लाना चाहते हैं। जो कुछ भी है तुम्हारे भीतर उसे पूर्णता तक लाने का तरीक़ा तो एक ही है—वही रब, वही परमात्मा। आगे बढ़ो उसके साथ, ये सब विपरीत चीज़ें नहीं हैं।

ठीक है?

प्र: आचार्य जी, नेति-नेति का क्या अर्थ है?

आचार्य: पूछा आपने कि नेति-नेति क्या है। हम सब, कुछ ढूँढ रहे हैं। कोई ऐसा है यहाँ जो बिलकुल कुछ न चाहता हो? उसके अभी जैसे हालात हों उससे ही पूर्ण संतुष्ट हो, है कोई ऐसा? किसी को छोटी चीज़ चाहिए, किसी को बड़ी चीज़ चाहिए। अभी कुछ चाहिए, थोड़ी देर में कुछ और चाहिए। लेकिन ये तो पक्का ही है कि सबको कुछ-न-कुछ चाहिए। अभी कुछ बाकी है, कहानी पूरी नहीं हुई। ठीक?

ये एक बात कि हम सब, कुछ ढूँढ रहे हैं। दूसरी बात, हम सब जो ढूँढ रहे हैं उसको कहाँ ढूँढ रहे हैं? यहीं ढूँढ रहे हैं। भीतर अपूर्णता बैठी है, ये हमारा अनुभव है। वो अपूर्णता संसार मिटा देगा, ये हमारा अनुमान है। इन दोनों बातों में अंतर समझिएगा। भीतर अपूर्णता बैठी है, इसका तो आपको साफ़-साफ़ अनुभव होता है, हम बेचैन हैं। और ये बात किसी दूसरे को सत्यापित करने की ज़रूरत नहीं, हमें पता है कि हम बेचैन हैं। 'चैन एक पल नहीं।'

दूसरा आकर बोल भी दे कि नहीं यार, तू बेचैन नहीं है, तो भी हम कहेंगे कि भाई, मेरे दिल की मैं जानूँ, मुझे अपना पता है न, बेचैनी तो है। बेचैनी को लेकर हम कोई बहस नहीं कर रहे हैं। हमें पता है कि बेचैनी है, बेचैनी हमारा दिन-रात का क्या है? अनुभव है। तो बेचैनी तो है। लेकिन उस बेचैनी को ये दुनिया मिटा देगी, दुनिया में कुछ मिल जाएगा या कोई मिल जाएगा जो इस बेचैनी को मिटा देगा, ऐसा हमने बस अंदाज़ लगा रखा है। ऐसा हमने अनुमान कर रखा है कि दुनिया में कुछ तो ऐसा होगा जो इस बेचैनी को मिटा देगा।

नेति-नेति का मतलब होता है कि जिसको भी लेकर के तुम ये उम्मीद, अपेक्षा रख रहे हो कि वो तुम्हारी बेचैनी को मिटा देगा, उसके पास जाकर ज़रा गौर से परीक्षण करो। और परीक्षण करोगे तो चिल्ला उठोगे 'ये नहीं, ये नहीं। ये नहीं, ये नहीं,' इसी को संस्कृत में कहते हैं, 'न इति, न इति– ये नहीं, ये नहीं।'

'मुझे कुछ चाहिए तो है ही, पर मुझे जो चाहिए वो ये नहीं, ये नहीं।' पर ये तुम तब तक नहीं कहोगे जब तक ग़ौर से इसका परीक्षण नहीं किया। उस परीक्षण के लिए ही बुद्धि चाहिए, ध्यान चाहिए। परीक्षण नहीं करोगे तो आस बंधी ही रहेगी, यही लगता रहेगा कि यार क्या पता यही संतुष्टि दे जाए, क्या पता इससे सहारा मिल जाए। बेचैन घूम रहे हैं, क्या पता वो ज़िंदगी में आ जाए तो बिलकुल चैन पड़ जाए, ठंडे हो जाएँ। और ऐसी उम्मीदें हमने बहुत जगह बांधी हुई हैं। बहुत बार हमारा दिल भी टूटा है, लेकिन हमारी उम्मीद पूरी तरह नहीं टूटती।

नेति-नेति का मतलब है कि तुम्हारी जिज्ञासा में बड़ी ईमानदारी और बड़ी धार होनी चाहिए। तुम्हारी तैयारी पूरी होनी चाहिए कि उम्मीदें टूटती हैं तो टूटें, सपनें टूटते हैं तो टूटें, दिल टूटता है तो टुकड़े-टुकड़े हो जाए, लेकिन आज हकीक़त जान के रहूँगा। तू वो है भी कि नहीं जिसकी मुझे तलाश थी। मैं सालों से यही सोच रहा हूँ कि तू ही वो है, पर आज तो मुझे पक्का पता करना है, सामने बैठ, बात करेंगे। तू क्या वो है भी?

'और अगर बात से नहीं पता चलेगा तो मैं छानबीन करूँगा। ज़रूरत पड़ी तो वैज्ञानिक बन जाऊँगा, ज़रूरत पड़ी तो जासूस बन जाऊँगा, पर पक्की बात पता लगाऊँगा। क्या तू वो है भी?' और जिन्होंने भी वो प्रयोग किया, जाँच-पड़ताल करी, उन्होंने यही पाया कि जिसको परखा, वही नक़ली निकला, 'तू भी नहीं है यार वो।' जिसको ही परखोगे उसको ही नक़ली पाओगे। अगर अभी तुम्हें कोई असली लग रहा है तो इसलिए क्योंकि तुमने उसको पूरा परखा नहीं।

इसी को अभी तुमसे कह रहा था कि बुद्धि का अभी पूरा इस्तेमाल किया नहीं, परख नहीं रहे हो पूरा-पूरा। परखो! वैज्ञानिक की सी ईमानदारी और धार रखो—रिगर, साइंटिफिक रिगर।

लिजलिजी भावनाओं में मत बह जाया करो। उम्मीदों के कोहरे में मत खो जाया करो। जैसे साफ़ देखते हो न जब सूरज चमक रहा होता है, वैसे साफ़ देखो।

"न इति, न इति" तुम्हें क्या लग रहा है, इस उद्घोष में निराशा है? निराशा नहीं है, मुक्ति है।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=spckIJOk_zw

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