क्या भजन एक ध्यान विधि है? || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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क्या भजन एक ध्यान विधि है? || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज जो भजन सुना, मुझे उस बारे में पूछना था कि क्या यह विधि है? अगर यह एक विधि है तो क्या हमें इसी को कन्टिन्यू (जारी) रखना चाहिए दिनचर्या में?

आचार्य प्रशांत: तुमने इतनी फ़िल्में देखी होंगी, तुम्हें डायलॉग (संवाद) कितनों के याद हैं? और तुम्हें गाने कितनों के याद हैं? यूट्यूब पर लोग डायलॉग सुनने जाते हैं फ़िल्मों के या गाने सुनने जाते हैं?

प्र: डायलॉग।

आचार्य: फ़िल्मों के गाने ज़्यादा प्रसिद्ध होते हैं या डायलॉग ?

प्र: गाने ज़्यादा प्रसिद्ध होते हैं।

आचार्य: तो गीत मन पर कब्ज़ा तो कर ही लेता है, इसीलिए जानने वालों ने विधि निकाली कि उसे जब मन पर कब्ज़ा कर ही लेना है तो क्यों न गीत में बोल वो हो, सन्देश वो हो जो मन की शुद्धि करे।

अगर यह गीत नहीं चलेगा मन में तो दूसरे गीत तो चल ही रहे हैं। यह गीत नहीं चलेगा तो दूसरे गीत तो चल ही रहे हैं। उनको हटाने की ख़ातिर गीत की विधि को अध्यात्म के साथ जोड़ दिया गया। दोनों में गाँठ बाँध दी गयी। इसी का नाम है — भजन।

संगीत का मतलब होता है — एक ऐसा बहाव जिसमें बाधाएँ नहीं हैं, खुरदुराहट नहीं है, नुकीले कोने नहीं हैं, मन उसकी ओर आकर्षित होता है। लेकिन समस्या यह है कि जब आप कोई आम गीत सुनते हो तो उसमें आपको धुन के साथ, सुर-ताल-राग के साथ, बोल ऐसे दे दिए जाते हैं जो ज़हरीले हैं। जैसे किसी को मिठाई में ज़हर मिलाकर दे दिया गया हो। वो अपनी ओर से तो मिठाई खा रहा है लेकिन उसके भीतर प्रवेश क्या कर गया है?

श्रोतागण: ज़हर।

आचार्य: हम मिठाई के शौक़ीन हैं, दुनिया हमें मिठाई के साथ ज़हर खिला देती है। संतों ने कहा, 'मिठाई की तो तुम्हें लत लगी ही हुई है, हम मिठाई का ही उपयोग करके तुम्हारे ज़हर को काटे देते हैं।' उन्होंने मिठाई में हमें दवा मिलाकर दे दी।

हम अपनी ओर से अक्सर मिठाई ही खा रहे होते हैं, हम तो अंतर करना भी नहीं जानते। बस यह है कि जो दुश्मन हैं हमारे और जो दुश्मन हैं अपने भी, वो मिठाई के साथ विष दे देते हैं और संत मिठाई के साथ दवा दे देता है। मिठाई क्या है? संगीत।

समझ रहे हो बात को?

छोटा बच्चा होता है जो कुछ नहीं जानता, वो भी लोरी सुनकर सोता है; प्रवचन सुनकर नहीं। लोरी में क्या है? लोरी में पद्यात्मकता है। लोरी में संगीत का मधुर बहाव है। तो उसे कुछ नहीं पता कि बात क्या कही जा रही है लेकिन वो कहता है, 'बढ़िया'!

यह तो हुई ये विधि कि गीत क्यों दिए गये हमें; भजनों की ही बात नहीं है जो ग्रन्थ भी दिए गये हैं वो सब गीतनुमा ही हैं। सुबह अज़ान की आवाज़ सुनते होगे – कुरान गायी जाती है। श्रीमदभगवद् – गीता है, अष्टावक्र – गीता है। गीता समझते हो न? गीत।

और फिर आता है कि भजन में सन्देश क्या दिया जा रहा है? सन्देश वहाँ वही दिया जा रहा है जो सदा से गुरुओं की वाणी में था। सन्देश वही है लेकिन उस सन्देश को इस तरीक़े से दे दिया है, इस विधि से दे दिया है, इस सुविधा से दे दिया है कि हमारे लिए उसे याद रखना आसान हो जाए — ये है भजन।

गीत दे दो, गीत मन में घूमता है, तुम्हारे लिए भजना आसान हो जाएगा। फ़िल्मी गीत तक घूमता है। और जब तुम्हें मन में गीत को घुमाना ही है तो फ़िल्मी गीत क्यों घुमाओ? फिर बोध गीत घुमाओ, फिर कृष्ण का गीत घुमाओ, फिर भक्ति गीत घुमाओ — ये है भजन का पूरा विज्ञान।

प्र: तो क्या इसका हमें विधि के माध्यम से ऐसे ही अभ्यास करना चाहिए?

आचार्य: हाँ, कर सकते हो। जब मन अभी किसी-न-किसी ढ़ाँचे को पकड़ने का आदि हो, तो उससे एक झटके में यह कह देना कि सारे ढ़ाँचे तोड़ दो; उसके साथ ज़रा ज़्यादती हो जाएगी, वो कर नहीं पाएगा। तो जानने वालों ने हमें फिर ऐसे ढ़ाँचे दिए जो बाकी ढ़ाँचों को काट देते हैं। भजना एक वैसा ढ़र्रा है।

सौ ढ़र्रे मन में चल ही रहे होते हैं न, उसमें आप ज़रा इस ढ़र्रे को जोड़ दीजिए – भजना। ये वो ढ़र्रा है जो बाकी सारे ढ़र्रों को काट देगा। अंत में सिर्फ़ गीत बचेगा, वो घूम रहा है। और जब कुछ नहीं बचेगा जो भजन के द्वारा काटे जाने को शेष है, तो फिर भजन मौन में तब्दील हो जाता है। वो भजन की विदाई होती है। भजन ने अपना उद्देश्य पा लिया, अब उसके पास कोई कारण नहीं है मन में स्थापित रह जाने का। मन की सारी गन्दगी साफ़ करके, भजन फिर स्वयं भी विदा हो जाता है।

प्र: आचार्य जी, जैसे आपने बोला, 'भजने में भी हम स्वतः उसी मौन की स्थिति में जाते हैं।' तो फिर इतनी साधनाएँ बुद्धों ने क्यों की, जब सरल तरीक़े से इसमें जाया जा सकता था? ख़ाली भजने से ही आसानी से जा सकते हैं?

आचार्य: क्योंकि सबका मन एक सा नहीं होता, क्योंकि आप जिसको एक व्यक्ति कहते हैं, वो भी एक मन नहीं है। कभी उसे नाचना होगा, कभी उसे भजना होगा और कभी उसे मौन हो जाना होगा। कभी उसे लिखना होगा, कभी उसे अपने आपको कर्म में झोंकना होगा — यह सब ध्यान की विधियाँ हैं, इन विधियों में भजन एक श्रेष्ठ विधि है।

श्रेष्ठ, लेकिन सम्पूर्ण नहीं। सम्पूर्ण कोई भी विधि नहीं हो सकती क्योंकि आप सम्पूर्ण नहीं। आप प्रतिपल बदल रहे हो इसीलिए विधि को भी बदलना पड़ेगा। मीरा गाती है; बुद्ध मौन हैं। कबीर के पास भजन थे; लाओत्ज़े के पास नहीं थे।

आप वो बीमार हो जिसके चिकित्सापत्र में पच्चीसों दवाइयाँ लिखी जानी ज़रूरी हैं, एक से काम नहीं चलेगा। और 'आप' से मेरा आशय है – मानवता। इसीलिए जो जानते थे, उन्होंने ध्यान की बहुत विधियाँ दी।

जो पेशेवर बीमार लोग होते हैं, देखा है न, उनके पास दवाइयों का पूरा एक बक्सा होता है। और उनके लिए बड़े-बड़े आविष्कार किये गये हैं, उनके लिए ऐसे-ऐसे छोटे-छोटे प्लास्टिक के डब्बे बनाये जाते हैं, जिनमें खाँचें होते हैं। एक खाँचे पर लिखा होता है सोमवार, एक पर लिखा होता है मंगलवार। गोलियों के लिए जगह होती है, सिरप के लिए जगह होती है, इंजेक्शन के लिए जगह होती है।

बहुत कुछ चाहिए तुम्हें ठीक रखने के लिए, तुम इतने बीमार हो। इसीलिए भजन बहुत-बहुत आवश्यक है लेकिन काफ़ी नहीं। तुम्हें पढ़ना भी पड़ेगा, तुम्हें नदी में भी कूदना पड़ेगा— वो भी ध्यान की विधि है। कभी भजोगे, कभी मुझे सुनोगे, भजन के बाद श्रवण। कल पहाड़ चढ़ोगे, झरने के नीचे फेंके जाओगे, यह सब क्या हो रहा है? यह सब अलग-अलग विधियाँ हैं जो आज़माई जा रही हैं।

अलग-अलग पुस्तकें सबके हाथ में आयी न? सबका अंत तो एक है, सबका लक्ष्य तो एक है लेकिन देखो, सबकी बात अलग-अलग है। और वो सारी बातें तुम्हें चाहिए क्योंकि इतने सौभाग्यशाली कम ही होते हैं कि एक बात सुनकर तर जाएँ।

हमें तो काफ़ी कुछ चाहिए, दवाइयों का पूरा कॉकटेल।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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