क्या आपका भी मन बहुत भटकता है?

Acharya Prashant

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क्या आपका भी मन बहुत भटकता है?
मन नहीं चंचल होता, अहम् चंचल है और चंचल होना उसकी मजबूरी है, उसे चंचल होना पड़ेगा। रुककर, टिककर, थमकर तो वो बैठ सकता है न जिसको घर मिल गया हो, जिसको आश्वस्ति मिल गई हो। अहम् को न कोई घर है, न आश्वस्ति है। उसका तो यही है कि कहीं ज़रा सा कुछ खटका हुआ, उसकी नींद खुल जाती है, ‘मेरी चोरी पकड़ी तो नहीं गई? मेरी चोरी पकड़ी तो नहीं गई!’ यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: आज लाओत्ज़ु एक प्रश्न से शुरुआत कर रहे हैं और प्रश्न का उत्तर हम तभी दे पाएँगे, जब कुछ मूल बातें एकदम स्पष्ट होंगी। प्रश्न है — “क्या आप अपने मन को स्थिर रख सकते हैं? क्या आप मन के भटकाव के पार देख सकते हैं?”

उसके आगे और प्रश्न आते हैं, समय रहे तो और भी प्रश्न ले लेंगे; पहले मन की बात। “क्या आप अपने मन को स्थिर रख सकते हैं?” तो सबसे पहले कहा, ‘आप’, फिर कहा, ‘मन’ और फिर कहा, ‘स्थिर‘ — आप, मन और स्थिर। इसमें ऐसा लगेगा जैसे विषय वस्तु ‘मन’ है, जैसे केंद्रीय बात ‘मन’ है, जैसे मन का भटकना समस्या हो और उस समस्या के बारे में प्रश्न करा गया हो। अगर ऐसा लगेगा तो शुरू में ही गड़बड़ हो गई।

क्या कहा है? “क्या आप अपने मन को स्थिर रख सकते हैं?” तो मन से भी पहले कौन आता है? ‘आप’, आप माने — मैं, अहम्। मन यूँही नहीं होता, मन सदा ‘किसी का’ होता है। मन तो जैसे पालतू जानवर है या नौकर है या किसी वृत्त की परिधि है। सदा उसके केंद्र में कोई होता है, सदा उसका स्वामी कोई होता है। ‘आज मन खराब है,’ ‘आज मन चंचल है,’ ‘आज मन उदास है’ — जो मालिक है वो अपने आप को छुपाकर के सारी बात मन पर डाल देता है। है न?

‘अरे, मन तो बड़ा पापी होता है,’ ये ऐसा ही है जैसे अपराध करने वाले ने स्वयं को बचाकर के अपने उपकरण पर सारा दोष डाल दिया हो। जैसे बंदूक चलाने वाले हाथ ने अदालत में बंदूक हाज़िर कर दी हो कि यही गुनहगार है।

मन की क्या परिभाषा है? अहम् ने अपने इर्द-गिर्द जिन विषयों को एकत्रित कर लिया होता है, उन विषयों के समुदाय को मन कहते हैं। अहम् ने अपने इर्द-गिर्द जिन भी विषयों से संबंध बैठा लिया होता है, उन विषयों के लिए एक संयुक्त संज्ञा है — मन। तो इसको मैं अक्सर आपसे ऐसे भी कहा करता हूँ कि मन अहम् के चारों ओर बसा हुआ मोहल्ला है।

अहम् केंद्र में है और अहम् ने अपने चारों ओर एक बस्ती बसा ली है। उस बस्ती में सब उसके रिश्तेदार रहते हैं, दोस्त-यार रहते हैं। जिनसे अहम् का लेना-देना है वो सब उस बस्ती में रहते हैं, है न? आप उस बस्ती को देखें तो बस्ती बहुत बड़ी है। ध्यान से नहीं देखेंगे तो बस्ती-ही-बस्ती दिखाई देगी। बस्ती के बीचों-बीच जो बैठा हुआ है, वो नहीं दिखाई देगा क्योंकि वो एक है। वो मात्र एक है जो बस्ती के मध्य में बैठा हुआ है और बस्ती में उसने कितने बैठा लिए हैं? अनेक! आप यहाँ तक कह सकते हो, अनंत।

मन ऐसा ज़बरदस्त एक मोहल्ला हो जाता है, ऐसे उसमें अद्भुत गुण आ जाते हैं, कई तरह की उसमें अनंतताएँ जैसे दिखने लग जाती हैं। कहते हैं न — ‘मन की गति अनंत है,’ ‘मन की चाल अनंत है,’ बहुत तरह की बातें बोली जाती हैं, ‘मन की माया अनंत है,’ ‘मन की पीड़ा भी अनंत है,’ ‘अरे, मन की गहराइयों में क्या छुपा हुआ है, किसी को नहीं पता,’ जैसे कि अथाह गहराइयाँ हो।

तो मन जब इतना लंबा-चौड़ा और ऐसा अद्भुत उसका चरित्र, तो सारा ध्यान मन ही खींच ले जाता है। मन के केंद्र में जो बैठा है, उस पर ध्यान नहीं जाता है। मन के केंद्र में कौन बैठा है? अहम्। तो पहली जो हमें सावधानी बरतनी है, वो ये कि मन की बात करना छोड़ें, अहम् की बात करें। मन तत्काल बदल जाएगा, अगर आप बदल जाएँ। आप जैसे होते हैं, उसी से तय होता है कि आपका मन कैसा होगा। मन को लेकर के आपके पास कोई सीधा अधिकार या नियंत्रण नहीं हो सकता।

कहते हैं न, ‘मन बदलना है! चलो, मन बदलने के लिए पहाड़ों पर चलते हैं।’ ‘चलो मन बदलने के लिए पिक्चर देख लेते हैं,’ ‘कुछ और कर लेते हैं!’ मन नहीं बदलेगा। हाँ, इतना हो जाएगा कि एक चादर के ऊपर आप दूसरी चादर डाल दें। पिछला रंग दिखना बंद हो जाएगा, पिछले दाग-धब्बे दिखने बंद हो जाएँगे पर वो कहीं चला नहीं गया।

जो पिछली परत थी, तह थी, वो कहीं चली नहीं गई है! उसके ऊपर आपने कुछ डाल दिया है। जल्दी ही ज़रूरत पड़ेगी उसके भी ऊपर कुछ डालने की, इसीलिए फिर हम कहते हैं कि, बाप रे बाप! कितने तल हैं मन के। मन से उलझे रह जाना बहुत आसान है। आसान ही नहीं है मात्र, सुविधाजनक है। सुविधाजनक भी नहीं है, कहिए कि अनिवार्य है क्योंकि अगर मन की बात नहीं करी तो अहम् की बात करनी पड़ेगी, अहम् फँस जाएगा। मन की बात भी कौन कर रहा है? अहम्।

अहम् अपनी बात क्यों करेगा कभी सीधे? भूलिएगा नहीं कि मन की बात मन करने नहीं आता। मन की बात भी 'मैं' करता हूँ न, 'मैं'! ‘मैं’ मन की बात करता ही इसीलिए हूँ ताकि मुझे अपनी बात न करनी पड़े।

समझ रहे हैं बात को?

मैं मन की बात करता ही इसीलिए हूँ ताकि मुझे अपनी बात न करनी पड़े। अब देखते हैं कि मन का निर्माण कैसे होता है। अहम् कुछ है नही, संतों से लेकर के गीता तक और अष्टावक्र से लेकर नागार्जुन तक, सब आपको लगातार यही पढ़ा रहे हैं कि अहम् एक बड़ी अद्भुत इकाई होता है जो मात्र अपनी नज़रों में होता है, अन्यथा पारमार्थिक तल पर, वास्तविक अर्थ में उसका कोई अस्तित्व नहीं है। पर वो अद्भुत इसलिए है क्योंकि अपनी दृष्टि में तो वो है। इसीलिए हम कहते हैं कि अहम् यदि है भी तो बस व्यावहारिक तल पर है। व्यवहार की भाषा में हम 'मैं' आदि कह देते हैं।

जगत व्यापार चलना मुश्किल हो जाएगा, अगर हम वैसे ही हों जैसे हैं पर ‘मैं’ कहना छोड़ दें। तो इस दुनिया में तो ऐसे ही चलता है- मैं, तुम, मेरा, तेरा! लेकिन इस 'मैं' नामक इकाई का अपना कोई स्वतंत्र, पारमार्थिक, वस्तुगत अस्तित्व नहीं है। इसको खोजने जाओ, ये कहीं नहीं मिलती। वास्तव में ये अनुभव ही तभी तक होती है, जब तक इसको खोजने नहीं जाओ। ज्यों ही इसे खोजने निकलो, तो पता चलता है कि जिसको खोज रहे हैं वो है ही नहीं। और जो खोजने निकला है, वो भी खोज में मिट जाता है।

समझ मे आ रही बात ये?

तो अहम् बड़ी अजीब हालत में रहता है। उसकी हालत से हमको थोड़ी तो संवेदना रखनी पड़ेगी। अपनी ही हालत से भाई, (हँसते हुए) अहम् और कोई नहीं है, हम ही हैं। अब सोचो आप कि आप कुछ ऐसा बने बैठे हो जो बस आपके अपने प्रचार के कारण है, आप वास्तव में वो हो नहीं तो आपकी दिन-रात कैसी हालत रहेगी?

हमने अहम् के बारे में क्या कहा? वो मात्र अपनी दृष्टि में है, वो मात्र अपने देखे है। अगर स्वतंत्रता से, निष्पक्षता से उसको खोजा जाए तो वो नहीं मिलेगा। हाँ, अहम् स्वयं कहे कि मैं हूँ, तो उसका होना सिद्ध होता रहता है। और जब अहम् कहता है, 'मैं हूँ' तो साथ-ही-साथ वो ये भी मान लेता है कि तुम हो। क्योंकि बात बड़ी बेमेल हो जाएगी, बड़ी अतार्किक हो जाएगी, अगर मैं कहूँ कि मैं तो हूँ, पर तुम नहीं हो। तो इस तरीके से एक-दुसरे की पीठ खुजाकर काम चलता रहता है — मैं भी हूँ, तुम भी हो। ठीक है न?

अब मैं आपसे पूछ रहा हूँ — आपकी हालत क्या रहे, अगर आपको पता हो कि कोई ऐसी चीज़ है आपके बारे में जो सिर्फ़ आपके प्रचार के कारण है, जो सिर्फ़ आपके आग्रह, आपके हठ, आपके झूठ के कारण है, अन्यथा नहीं है, आपकी हालत कैसी रहेगी? उदाहरण के लिए, आपने दुनिया में घोषित कर रखा है, आप पीएचडी हैं और आप हैं पाँचवी फेल, और दुनिया को आपने क्या बता रखा है? आप पीएचडी हैं! तो आपकी दिन-रात हालत कैसी रहेगी?

अपनी हालत बयान करते हुए कुछ शब्द बताइए?

श्रोतागण: डरे हुए।

आचार्य प्रशांत: डरे हुए, असुरक्षित, धक-धक लगी रहेगी! और लगातार आप लोगों को पटाकर रखना चाहोगे, लगातार आप लोगों को अपने पक्ष में रखना चाहोगे, लगातार आप दबंग लोगों से अच्छा रिश्ता रखना चाहोगे, है न? जो समाज, दुनिया वगैरह के बाहुबली होंगे, आप उनकी गुड बुक्स (नज़रों में ऊँचा होना) में रहना चाहोगे।

श्रोता: नेताओं से रिश्ते रखना चाहेंगे।

आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया! और लगातार आप ऐसों से दूर रहना चाहोगे जो आपकी पोल खोल सकते हैं। तो आप ज्ञानियों से दूर रहना चाहोगे। दूर ही नहीं रहना चाहोगे, ज्ञानी का होना भी आपकी धड़कन बढ़ाने, रक्तचाप बढ़ाने के लिए पर्याप्त है। तो आप ज्ञानी को मिटाना चाहोगे, भले ही ज्ञानी स्वयं आप पर आक्रमण करने न आ रहा हो, पर आप अपनी ओर से उस पर आक्रमण करने जाओगे। क्योंकि अगर वो है भी तो उसका वजूद ही आपके लिए खतरा है।

आज वो आप पर आक्रमण नहीं कर रहा, पर कल कहीं उसने आप पर नज़र डाल दी तो आप मिट जाओगे। उदाहरण के लिए आप जिस यूनिवर्सिटी से पीएचडी होने का दावा करते हो, उसके वाइस चांसलर के प्रति आपका क्या रुख रहेगा? ये दृष्टि रहेगी ज्ञानियों के प्रति। क्योंकि वो व्यक्ति है जो तत्काल आपकी पोल खोल सकता है।

ये अहंकार की स्थिति होती है — वो एक बड़ा भारी झूठ है, लेकिन उसे जीना है, उसे जीना है, उसे झूठ बनकर ही जीना है। उसको लगता है अस्तित्व का मतलब ही होता है झूठ का अस्तित्व। उसको लगता है कि अगर उसने अपना झूठ हटा दिया तो वो स्वयं ही हट जाएगा। वो कहता है कि ‘मैं’ माने झूठ, तो अगर झूठ हट गया तो मैं ही गायब हो जाऊँगा। तो बहुत डरा हुआ रहता है, तो वो लगातार रिश्ते बनाता रहता है।

अब समझ में आ रहा है कि इतने विषयों से संबंधित होना हमारी मजबूरी क्यों है। ‘नेटवर्किंग करके रखने का भाई! किसी भी दिन आफ़त आ सकती है।’ ‘पैसा भी बहुत सारा रखने का क्योंकि किसी भी दिन आफ़त आ सकती है।’ अब पीएचडी बोलकर के नौकरी ले ली है, कुछ कर लिया है, वो सब चली जाएगी, किसी भी दिन जा सकती है।

तो बहुत सारा पैसा जोड़कर रखो, नौकरी चली गई तो अपना क्या होगा, क्योंकि पता है कि तुम्हारे पास जो है वो झूठ है, वो कभी भी छिन सकता है — ये अहंकार है। तुम्हारे पास जो कुछ है वो झूठ पर आधारित है, वो कभी भी छिनेगा, तो इसलिए बहुत तरह की सुरक्षा के इंतज़ाम करके रखता है। ‘पुलिस वालों से बनाकर रखो भाई, किसी भी दिन कोई एफआईआर कर सकता है कि इस आदमी की डिग्री झूठी है।’

तो मै पहले ही वहाँ पर जाकर के सब बंदोबस्त, इंतज़ाम, प्रबंध, सेटिंग करके रखूँगा। ‘नेताओं से बना कर रखो भाई! किसी भी दिन कुछ हो सकता है।’ ‘मीडिया से बनाकर रखो भाई! किसी भी दिन अखबारों में बदनामी छप सकती है।’

समझ में आ रही है बात?

अब समझ में आ रहा है कि क्यों कहा जाता है कि अहंकार एक अपूर्णता है, जो सदा किसी-न-किसी के सहारे की तलाश में रहता है। और कोई भी सहारा वो ले ले, कोई सहारा पूरा नहीं पड़ता, अभी उसे और सहारे चाहिए। क्यों कहा जाता है कि अहंकार का मुँह सुरसा के मुख की भाँति सदा खुला ही रहता है? क्योंकि वो एक झूठ है।

वो एक ऐसा झूठ है जो कितने भी सहारे ले ले, उसका झूठ होना सच में तब्दील नहीं हो जाएगा। झूठ माने मिथ्या, है ही नहीं! फॉल्स (झूठ), रॉन्ग (गलत) नहीं, है ही नहीं, प्रतीत होता है। प्रतीत भी बस इसलिए होता है क्योंकि प्रतीत होना मजबूरी है।

श्रोता: चोरी-छुपे बचने का तरीका ढूँढ ही लेता है अहम्।

आचार्य प्रशांत: चोरी-छुपे रह लेगा तो दूसरों की नज़र तो पड़ सकती है न उस पर और चोरी छुपे तो वो रहता ही है। कितना भी चोरी-छुपे रह ले, दूसरों की नज़र तो उस पर पड़ेगी ही न। साधारण कामों के लिए भी जगत से संबंधित तो होना ही पड़ेगा। जिसको कहते हैं कि भूमिगत हो जाना — चोर वगैरह, क्रिमिनल्स (अपराधी) कई बार हो जाते हैं अंडरग्राउंड — तो भी खाने-पीने के लिए, कुछ करने के लिए, तो साधारण रिश्ते तो बनाएँगे न दुनिया से?

तो डर तो लगातार लगा ही रहता है, ‘कभी भी धर लिए जाएँगे,’ वो हम हैं, वो अहंकार है, हमारा होना ही एक झूठ है। शरीर झूठ नहीं है, अहंकार झूठ है। शरीर तो तथ्य है, मिट्टी है, लहर है, मिट्टी से लहर उठी है। पूरा अध्यात्म देह की बुराई करने में लगा रहता है — ‘देह बुरी है, देह विषय-वासनाओं का घर है’ — देह कुछ नहीं है। देह तो वैसे ही है जैसे ये आपके पाँव के नीचे की ज़मीन है, सिर के ऊपर आसमान है, यही देह है — पंचभूत! देह में क्या है।

लेकिन एक बहुत विशेष तत्व होता है अहंकार, जिसको न तो ये कहा जा सकता कि तथ्य है मिट्टी की तरह और न ये कहा जा सकता कि असत है बिल्कुल, क्योंकि वो कम-से-कम अपनी दृष्टि में तो है। तो सारा अध्यात्म अहंकार के लिए ही होता है। अध्यात्म का मतलब होता है कि सबसे पहले तो ज्ञानियों ने, ऋषियों ने आपकी खातिर एक समझौता किया। समझौता ये किया कि आपकी हस्ती को स्वीकृति दी, माना, एक्नॉलेज (अभिस्वीकृत) किया। उन्हें भी पता है कि अहंकार तो है नहीं।

आप रोते हुए जाइए, ‘ऋषिवर, बड़ा दुख है! जीवन संताप से भरा हुआ है, ऐसा है, वैसा है,’ पचास बातें। अब ऋषिवर अगर बैठे हुए हैं पारमार्थिक आसमान पर, तो वहाँ बैठे हुए क्या बोल सकते हैं वो? ‘तुम तो होइच नहीं! जब तुम ही नहीं तो तुम्हारा दुख कैसा?’ सीधा जवाब तो ये ही होना चाहिए। ‘मैं बहुत गंभीरता से विचार कर रहा हूँ, फ़िज़ूल के प्रश्न बंद।’ कोई प्रश्न आए, बोलो प्रश्नकर्ता से, ‘तुम हो ही नहीं। जब प्रश्नकर्ता ही नहीं है तो प्रश्न कैसा?’

(सभी हँसते हैं)

लेकिन वो ऐसा नहीं करते, वो सबसे पहले एक समझौता करते हैं हमारी खातिर। पूरा अध्यात्म उसी समझौते से शुरू होता है। वो समझौता ये है कि माना जाता है कि अहम् है, ये माना जाता है, किसकी खातिर? जो दुखी है, उसकी खातिर। क्योंकि हमको दिख रहा है कि न दुखी है, न दुख है, पर जो दुखी है वो तो रो ही रहा है न।

तो सबसे पहले तो उसके दुख को अभिस्वीकृति दी जाती है, एक्नॉलेजमेंट दिया जाता है कि हाँ, है। और फिर वहाँ से शुरू करके उसको वहाँ तक लाया जाता है, जहाँ दुख मिट जाए दुखी के मिटने से।

लेकिन शुरुआत में तो मान लिया जाता है, जैसे कोई छोटा बच्चा आपके पास रोता हुआ आए, बोले, ‘फ़लाने कमरे में भूत है। और भूत ने हमें गिरा दिया और हमारे देखो, ऐसे यहाँ चोट लग गई है कोहनी में।‘ तो आप बोलो, ‘अले, अले, अले, अले, भूत ने तो बला बुला किया, चलो दोनों मिलकर भूत को मालते हैं (बच्चे की तरह तुतलाकर बोलते हुए समझाते हैं)!‘ और फिर आप उसको लेकर जाएँ और कमरे की बत्ती जला दें। और फिर वहाँ दोनों मिलकर भूत को खोजें और भूत नहीं मिले। जब नहीं मिले तो फिर आप उसको समझा दें कि देखो भूत तो है ही नहीं।

लेकिन शुरुआत कैसे की गई? मान लिया गया। ‘अच्छा, तू कह रहा, ‘भूत है’ तो मैंने मान लिया।’ तो शुरुआत ऋषियों की करुणा से होती है। वो करुणावश वो बात भी मान लेते हैं जो उनको पता है कि झूठी है क्योंकि बच्चा रो रहा है। ‘क्या करें!’ — वो ऐं, ऐं, ऐं (बच्चे के रोने की आवाज़ निकालते हुए) — ‘ठीक है, मान लो! हाँ, हाँ, तुझे बहुत दुख है, मान लिया, बहुत दुख है। चल भूत को खोजते हैं।’ भूत तो मिला ही नहीं।

अहंकार वही भूत है जिसको खोजो तो कभी नहीं मिलेगा। वो सिर्फ़ अज्ञान में पनपता है। जब तक मानते रहोगे, वो रहेगा। जब तक बस अंधा विश्वास है, वो रहेगा। जैसे ही जिज्ञासा और प्रयोग-परीक्षण शुरू होते हैं, उसका कुछ पता नहीं चलता। ठीक है?

अहंकार की प्रकृति समझ में आ रही है?

एक डरी हुई चीज़ जो कभी पूरी नहीं हो पाएगी, क्योंकि वो है ही नहीं। जिसको कभी भी चैन, संतुष्टि, भरोसा, आश्वस्ति नहीं होगा क्योंकि उसके मूल में झूठ बैठा है। जिसके पास डिग्री है ही नहीं, वो सौ तरह की डिग्रियाँ बनवा ले और समाज के पाँच-सौ बड़े लोगों से अपने पक्ष में प्रशंसा, स्तुति आदि गवा ले, तो भी क्या कभी उसको चैन पड़ेगा?

भीतर-ही-भीतर लगातार उसको शंका बनी रहेगी, क्या? ‘कोई पोल खोल न दे!’ वो बन गया होगा समाज का बड़ा कद्दावर आदमी — वहाँ दूर कोई बैठा होगा एकदम नया-नवेला सा पत्रकार, पच्चीस साल का बस, और वो पत्रकार एक साधारण सा सवाल पूछ देगा और ये साहब हो सकता है पचास साल के हो गए हों और इनके पास दुनिया भर का रुतबा, रसूख है — और इनका दिल धक से धड़क जाएगा कि बाप रे! किसी ने सवाल पूछा क्या। किसी ने सवाल पूछा!

ये सब बातें होती दिखाई देती हैं? बड़े-बड़े इज़्ज़तदार, रुतबेदार लोग, बड़े अनुभवी लोग, बड़े ज्ञानी लोग और कैसे उनके पसीने छूटने लग जाते हैं, जैसे ही कोई घर का बच्चा भी सवाल पूछ दे क्योंकि उन्हें अच्छे से पता है कि कुछ है जो उन्होंने छुपा रखा है — देयर इज़ स्केलेटन इन द प्रोवर्बियल कबर्ड (कोठरी में कंकाल - अतीत से जुड़ा कोई शर्मनाक रहस्य)!

'जाने भी दो यारों', तो वो कमिश्नर था, पता नहीं, 'डिमेलो' नाम था (संस्था के एक स्वयं-सेवक से पूछते हुए)? डीमेलो! और वो लाश है। क्या कर रहे हैं, आप लोगों ने फ़िल्म नहीं देखी है (श्रोताओं से पूछते हुए)? मैंने पाँच बार देखी है कम-से-कम वो। तो कमिश्नर डीमेलो है। ये जो डार्क ह्यूमर होता है न, ये मुझे बहुत पसंद आता है।

जब वो अंत में दो सत्य के खोजी, पूरी पिक्चर में वो लगे रहते हैं कि दुनिया को सच बताएँगे, भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करेंगे और दोनों अंत में — आखिरी दृश्य ये है कि दोनों — दोनों को जेल ले जाया जा रहा है कि यही दोनों चोर हैं। और पीछे से धुन बज रही है, 'हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब एक दिन।' भारत राष्ट्र महान है!

पूरी पिक्चर में तीन घंटे, ये दोनों लगकर के जो गड़बड़ हुई होती है, ठेकेदारों और नेताओं के बीच में साँठ-गाँठ और ये सब हुआ होता है और कमिश्नर की हत्या हुई होती है। तो ये दोनों मिलकर के — इनमें से एक फ़ोटोग्राफ़र होता है शायद और एक शायद पत्रकार होता है, कुछ ऐसा ही है — ये दोनों लगे रहते हैं उसका एक्सपोज़ करने में। और अंत में क्या देखा जाता है? इन्हीं दोनों को पकड़ लिया गया कि यही दोनों गुनहगार हैं और हत्या भी इन्होंने ही करी और ये जेल जा रहे हैं।

तो अब वो कमिश्नर की लाश है, उसको पूरी फ़िल्म में घुमाया गया है। ऐसे दिखाया गया कि बंदा अभी मरा तो है ही नहीं। वो पूरी फ़िल्म ही जैसे दो-तीन दिन के अंदर की हो। तो कभी उसको साड़ी पहना रहे हैं, कभी कुछ कर रहे हैं। अंत में उसमें स्टेज पर एक महाभारत और रामलीला का कुछ हाइब्रिड भी हो जाता है।

तो उसमें भी कमिश्नर को कोई रोल दे देते हैं, द्रौपदी बना देते हैं उसको (पुनः स्वयं-सेवक से पूछते हुए)? हाँ! द्रौपदी बना देते हैं। अब ये तो बेचारी मौन व्रतधारी, रजस्वला द्रौपदी है, ये शर्म लज्जा के मारे क्या बोलेगी भरी सभा में? तो उसको खड़ा कर रखा और कभी इधर गिर रही है, कभी उधर गिर रही है। वो तो लाश है, उसको साड़ी में ऐसे लपेट-लपेटकर खड़ा कर रखा है। एक भारी भीम कर दिया है और उसका काम है उसको संभालना। और कमिश्नर इतना मोटा…

समझ में आ रही है बात?

जो उसकी पूरी कॉमिक अपील है, वो इसी में है कि कैसे एक लाश को जीवित दिखाने में बहुत हास्यास्पद स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं। है लाश और उसको दिखाना क्या है? कि जीवित है; उसी से कॉमेडी पैदा हो रही है — वो अहंकार है। लाश है, लेकिन दुनिया भर को ये जताना है कि प्राण हैं, “जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्राण।” उसको गाड़ी में बैठा रखा है, कभी दिखा रखा है कि वो रोगी है तो उसको व्हील चेयर पर डाल रखा है। जगह-जगह उसकी लाश लेकर घूम रहे हैं और दुनिया को ये दिखाना है कि ये तो अभी?

श्रोतागण: ज़िंदा है।

आचार्य प्रशांत: और दोनो की दुर्गति हुई जा रही है उस कमिश्नर की लाश को ढ़ोने में। यही दुर्गति हमारी है। हम अपने भीतर एक लाश ढ़ो रहे हैं, हम अपने भीतर एक झूठ ढ़ो रहे हैं। उस झूठ का नाम है — मैं। 'मैं' से नहीं समझ में आएगा, उस झूठ का नाम है — कर्ता, डूअर, डूअर!

श्रीकृष्ण से ज़्यादा बेहतरीन तरीके से इस बात को शायद ही किसी ने समझाया हो। कहते हैं, "गुणा गुणेषु वर्तन्ते" — गुण ही गुणों से मिलकर काम करते हैं। लेकिन जो मूर्ख होते हैं — क्या! अहंकार विमूढ़ात्मा — जो मूर्ख होते हैं, उन्हें लगता है हम कर रहे हैं। सब कुछ ही इस प्रकृति की रासायनिक क्रियाओं से घटित हो रहा है, जिसको वो कहते हैं कि तीन गुण आपस में गति कर रहे हैं। लेकिन एक मूर्ख आकर के उसका श्रेय ले लेना चाहता है कि मैंने करा है।

जो कुछ हो रहा है, सच पूछो तो तुम्हारी अनुमति के बिना हो रहा है। जो हो रहा है उसमें तुम्हारा कोई योगदान नहीं है, कोई तुमसे अनुमति माँग नहीं रहा, कोई तुम से सहमति भी नहीं माँग रहा। लेकिन फिर भी एक है विदूषक, उसको कूदकर आना है मंच पर और कहना है, 'ये सब कुछ मैंने किया' — वो अहंकार है। अहंकार माने कर्ता, डूअर, जो डूइंग (करने) का, हैप्पनिंग (होने) का श्रेय ले लेना चाहता है।

वास्तव में डूइंग है ही नहीं, हैप्पेनिंग है मात्र। गति है, गतिक कोई नहीं है। कर्म है, कर्ता कोई नहीं है। कर्म निरंतर हो रहे हैं। लेकिन एक मान्यता है, झूठी धारणा है कि कर्म हो रहे हैं तो करने वाला कोई होगा, ज़रूर होगा — वो अहंकार है। और अहंकार के पास स्वयं ही ये प्रमाण है कि वो नहीं है।

प्रमाण क्या है? लगातार बना हुआ उसका डर। वो इतना डरा हुआ है कि समझ जाता है कि मेरे जो दावे हैं अपने ही बारे में, वो दावे यथार्थ तो नहीं हो सकते। और इसी डर के कारण वो दुनिया भर का संचय करता है, कहानियाँ बनाता है, गुटबंदी करता है। जितने दुनिया के आप कुकृत्य देख रहे हैं, वो अहंकार के डर से ही होते हैं और डर तो उसमें रहेगा ही। अहम् हो और डर न हो, ये नहीं हो सकता। तो अहम् ने जो गुटबंदी करी है, जो अपने आस-पास पूरा मोहल्ला बैठाया है, उसको मन कहते हैं।

जैसे आपने पुरानी हिंदी फ़िल्मों में देखा होगा कि किसी छोटी जगह पर जो एकदम दबंग, बाहुबली, नंबर एक लठैत है, किसी जगह पर उसकी कोठी होती है और कोठी के चारों ओर उसने लगभग एक किलोमीटर वर्ग क्षेत्र में क्या फैला रखा होता है? अपने लोगों की बस्ती। देखा है कि नहीं देखा है? जैसे चक्रव्युह में होता है, कि एक के बाद एक चक्र हैं और बीच में कौन खड़ा है? जो परम योद्धा है। ये उस तक आसानी से नहीं पहुँच सकते, चारों ओर पहले ये सब है। तो मन समझ लीजिए जैसे अहम् का सुरक्षा कवच है।

आपके मन में कुछ भी यूँही नहीं होता। आपके मन में जो कुछ भी है वो इसलिए है ताकि आपके झूठ को बचाए रख सके। जो चीज़ आपके झूठ को बचाएगी नहीं, वो मन में बसेगी नहीं। वो मन को काटकर के अहम् पर आघात करेगी। कुछ अगर है जो मन को बहुत प्यारा है, जो मन में आकर के शांतिपूर्वक, कुशलतापूर्वक बस गया है, तो उसका जीवन में एक ही काम है — अहंकार को बचाना। फिर दोहराते हैं, मन अहंकार के इर्द-गिर्द जमा हुई विषयों की बस्ती है।

श्रोता: जैसे गैंगस्टर अपने चारों तरफ़ अपने लोग रखते हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ, रहा होगा। अगर वहाँ भी गैंगस्टर वाला मामला है तो बिल्कुल रहा होगा। एक बीच में और उसने अपने चारों तरफ़ पूरी बस्ती बसाई होगी। जैसे अभी ये फ़िल्म आई थी, उसमें भी तो था, गैंगस्टर फ़िल्म, 'केजीएफ', बीच में उनका महल है और चारों तरफ़ उनके लोगों की बस्ती है — ये मन है, ये मन है।

ऐसे ही वहाँ किसी को नहीं बसा लिया जाता। देखिए आपके मन में कौन है? जो भी आपके मन में है, वो कहीं-न-कहीं इसलिए है कि वो आपके होने को स्वीकृति देता होगा, माने आपके झूठ को सच मानता होगा। आप मन में लाओगे ही उसी को जो कह दे कि हाँ, तेरा जो झूठ है, वो मैंने सच माना, तो वो ठीक है, ‘अब हम तुम्हें अपने मन में प्रवेश देते हैं’ — “तुम दिन को कहो रात, तो हम रात कहेंगे,” ठीक है!

’एग्री (सहमत हो)?’

‘यस, एग्री।’

’ओके, यू कैन कम (ठीक है, तुम आ सकते हो)।’ तो अब वो मन में आ जाएगा।

श्रोता: मन में विचार कैसे आते हैं?

आचार्य प्रशांत: किसका विचार?

श्रोता: मन का विचार।

आचार्य प्रशांत: मन का विचार? मन के पास कोई एजेंसी नहीं है, मन कर्ता नहीं है। मन कर्ता नहीं है, कर्ता कौन होता है? अहम्। मन तो विषयों का संकलन है, जैसे अब ये सब — मैं बैठा हूँ, मैंने ये सब चीज़ें अपने आस-पास रख ली हैं (मेज़, ग्लास, माइक, तोलिया इत्यादि चीजों की ओर इशारा करते हुए), मन ऐसा है। ये सब क्या हैं? ये विषय हैं, इनको आस-पास रख लिया है, मन ऐसे है।

तो मन के पास अपना कोई कर्तृत्व नहीं होता है। मन अपने आप में पैसिव (निष्क्रिय) है। इसीलिए आपसे कह रहा हूँ कि जब हम कहते हैं न कि मन उदास है, मन चंचल है, तो वो बात पूरी तरह सही नहीं होती। जिसको आप मन की चंचलता कहते हो, वो फुटबॉल की चंचलता है। फुटबॉल चंचल तो होती ही है। फुटबॉल चंचल होती है कि नहीं होती है? पर क्या हम कहेंगे कि फुटबॉल चंचल है? तुम फुटबॉल को देखो, तो कितनी चंचल दिखाई देगी? मैच चल रहा है, फुटबॉल कैसी दिखेगी? रुक ही नहीं रही, पर क्या फुटबॉल चंचल है? चंचल कौन है? फुटबॉल को मारने वाला।

तो उसी तरह से मन की चंचलता वास्तव में अहम् की विकलता है। अहम् की विकलता मन की चंचलता के रूप में प्रकट होती है, मन नहीं चंचल होता। समझ रहे हो? विषय क्यों इधर-उधर भागेंगे भई? मन नहीं चंचल होता है। अहम् कभी इस विषय से रिश्ता बनाता है और कभी… (उँगलियों से इशारा कर समझाते हुए।)

श्रोता: उस विषय से।

आचार्य प्रशांत: तो चंचल कौन है?

श्रोता: अहम्।

आचार्य प्रशांत: और चंचल इसलिए है क्योंकि विकल है, विकल माने — बेचैन। चैन नहीं है उसे, शांति नहीं है, तो इसलिए वो कभी इससे रिश्ता बनाता है, कभी इससे रिश्ता बनाता है। ठीक वैसे जैसे कभी इसको पास देते हो (फ़ुटबॉल), कभी उसको पास देते हो, कभी इससे लेते हो, कभी उससे लेते हो। वहाँ तो फिर भी जो खिलाड़ी हैं, वो कई सारे हैं, यहाँ पर खिलाड़ी बस एक है। एक खिलाड़ी है, जो कभी इस विषय को पकड़ता है, कभी उस विषय को पकड़ता है। किसी भी एक विषय के साथ वो सेटल नहीं हो सकता, वो शांत नहीं बैठ सकता क्योंकि किसी भी विषय में ये क्षमता ही नहीं है कि झूठ को सच बना दे।

हाँ, हर विषय के पास जाया इसी आशा से जाता है कि क्या पता, ये मेरी हस्ती को प्रमाणित कर दे, क्या पता इससे जुड़कर के जो है नहीं, वो हो जाए। क्या पता इससे जुड़कर चैन मिल जाए। तो विषय नहीं कूद-फाँद मचा रहे हैं — मन माने विषयों का, हमने क्या कहा? समुदाय — विषय नहीं कूद-फाँद मचा रहे, वैसे भी मन तो सूक्ष्म होता है न, वो क्या कूदफाँद मचाएँगे।

इतनी बाहर वस्तुएँ हैं, उन वस्तुओं में से जिनसे आपने रिश्ता बना लिया, उनको विषय बनाकर यहाँ बैठा लेते हो (मस्तिष्क में); वो क्या बेचारे कूदफाँद मचाएँगे, वो तो छवियाँ हैं। मन में उन वस्तुओं की छवियाँ होती हैं जिन वस्तुओं से आपने रिश्ता बना लिया, तो वो छवियाँ क्या कूद-फाँद मचाएँगी!

मन नहीं चंचल होता, अहम् चंचल है और चंचल होना उसकी मजबूरी है, उसे चंचल होना पड़ेगा। रुककर, टिककर, थमकर तो वो बैठ सकता है न जिसको घर मिल गया हो, जिसको आश्वस्ति मिल गई हो। अहम् को न कोई घर है, न आश्वस्ति है। उसका तो यही है कि कहीं ज़रा सा कुछ खटका हुआ, उसकी नींद खुल जाती है, ‘मेरी चोरी पकड़ी तो नहीं गई? मेरी चोरी पकड़ी तो नहीं गई!’

आप कोई बड़ी भारी चोरी करके बैठे हों, क्या हालत रहेगी आपकी? और सोचो, अहम् की क्या हालत रहेगी, जिसने दुनिया की सबसे बड़ी चोरी कर दी है। जिसने किसी ऐसे को अस्तित्ववान घोषित कर दिया जो…

श्रोता: है ही नहीं।

आचार्य प्रशांत: आप काले को गोरा बोल दें, एक झूठ ये हुआ, अमीर को गरीब बोल दें, एक झूठ ये हुआ, आदमी को औरत बोल दें, एक झूठ ये हुआ, आप छोटे को बड़ा बोल दें, एक झूठ ये हुआ, हुआ न? और सोचो, झूठों में झूठ क्या है? जो है ही नहीं, उसे हुआ बोल दें।

अहंकार ने वो झूठ बोल रखा है, कैसे उसको कभी चैन मिलेगा! न रात की नींद, न दिन का आराम, लगे हुए हैं ये करने में, वो करने में, इधर-उधर, दुनिया भर का खुरपेंच! कभी किसी से नाता जोड़ा, कभी किसी से कुछ करा, कभी कहीं जाकर टाँका भिड़ाया। शतरंज के मोहरे हो गए दुनिया के सब विषय, ‘इसको इससे लगाओ, इसको उससे जोड़ो, क्या पता! बात बन ही जाए।’ बात बनती नहीं, ज़िंदगी खत्म हो जाती है।

समझ में आ रही है बात ये?

तो जो चुनौती आज हमें दे रहे हैं लाओत्ज़ु; प्रश्न ही चुनौती के रूप में है — "क्या आप अपने मन को स्थिर रख सकते हैं? क्या आप मन के भटकाव के पार देख सकते हैं?"

जी हाँ, देख सकते हैं, अगर हम मन की बात करना बंद कर दें। ‘मैं’ मन की बात करता है, ताकि मैं को ‘मैं’ न देखना पड़े। मन की बात बंद, मेरी बात शुरू! मेरे होने से मन है न, आप न रहो तो मन रहेगा क्या? आप न रहो तो मन रहेगा क्या? जो कुछ स्मृति में पड़ा हुआ है वो विषय नहीं कहलाता। विषय तभी है जब अहम् उससे संबंध बनाता है।

जिस क्षण आपने संबंध बनाने की आवश्यकता छोड़ दी, विषय सीधे स्मृति में चला जाता है, निष्क्रिय हो जाता है, पैसिव! अब आपको व्यावहारिक तल पर कभी ज़रूरत पड़ेगी तो आप उसको कॉल कर लोगे। जैसे सॉफ्टवेयर में होता है न — फंक्शन किसी चीज़ को कॉल करता है। तो आप उसे कॉल कर लोगे, (उपयोग करके) छोड़ दोगे।

अब आपके पास ये ज़रूरत नहीं है कि आपके पास लगातार कोई मौजूद रहे सुरक्षा कर्मी की तरह। जब अहम् शांत हो जाता है, माने आत्मस्थ हो जाता है, तो मन विषयों से रिक्त हो जाता है। तब कोई आपसे अगर पूछेगा, 'क्या सोच रहे हो?' तो आप थोड़ा सकता जाओगे, बोलोगे, 'क्या, जवाब क्या दें इस बात का?’ क्योंकि मन में कुछ था ही नहीं। बल्कि, ‘अब आपने पूछ लिया कि क्या सोच रहे हो तो मन में कुछ आ गया। आपके पूछने से आ गया, अन्यथा कुछ नहीं था।‘

लेकिन ये नहीं हो सकता कि गैंगस्टर साहब हैं और सुरक्षा कवच…

श्रोता: न हो।

आचार्य प्रशांत: तो वो जो पूरी बस्ती है, वो खाली तब तक नहीं होगी जब तक उसके बीच में एक दबंग दिखने वाला, लेकिन निहायत ही डरपोक गैंगस्टर जब तक बैठा हुआ है, तब तक बस्ती खाली नहीं होगी। अहम् जैसे-जैसे आत्मस्थ होता जाता है, वैसे-वैसे विषयों से जुड़ने की ज़रूरत कम होती जाती है।

आपकी आध्यात्मिक प्रगति कितनी हो रही है, उसको जाँचने का एक ये तरीका हो सकता है — कोई भी तरीका शत-प्रतिशत फूलप्रूफ (पूर्णतः सिद्ध) नहीं होता पर फिर भी — आपको ज़िंदगी में कितने विषयों से जुड़ने की बाध्यता प्रतीत होती है? और जबसे जीवन में गीता आई है, कितने विषय अनावश्यक लगने लगे हैं? कितनी बैसाखियाँ हैं जो आपने त्याग दीं और त्याग भी नहीं दीं, वो गिर गईं क्योंकि आप दौड़ने लग गए।

जो दौड़ रहा हो, वो बैसाखी कहाँ तक ढ़ोते-ढ़ोते दौड़ेगा? जो दौड़ना शुरू कर दे, वो भले ही बैसाखी त्यागने का संकल्प न करे, वो पाएगा कि दौड़ने की प्रक्रिया में बैसाखी अपने आप गिर गई है। तो ये जाँचिए अपने जीवन में, कि कितनी चीज़ें आपने सिर्फ़ इसलिए पकड़ रखी थीं कि उनसे आपको सहारा या सुरक्षा मिलता था और अब लगता है कि आवश्यकता नहीं है, ‘ज़रुरत नहीं है भाई, हट जाओ!’ वो आकर कहे, ‘अं, अं, अं! थैंक यू सो मच फॉर योर सर्विसेज़ (आपकी सेवाओं के लिए धन्यवाद), पर अब तुम्हारी ज़रूरत नहीं है।‘

आप घर से बाहर निकल रहे हैं, कोई आकर कहता है, ‘अरे, अरे, मैं भी चलता हूँ।‘ ‘ठीक है, कर लेंगे, हो जाएगा।‘ आप ट्रेन का टिकट करा रहे हैं, ‘नहीं, नहीं, मैं भी, मैं भी चलता हूँ।‘ ‘ट्रेन है, सीट है, हम हैं, पहुँच जाएँगे।‘

समझ में आ रही बात?

ये जितनी ऊँची बातें हैं, ये ऊँचाइयों के लिए नहीं हैं। ये जितनी ऊँची बातें हैं, वो इसलिए हैं ताकि ज़मीन पर रहने वालों की ज़िंदगी बेहतर हो सके। आसमानों की बातें आसमानों के लिए नहीं होतीं, कृष्णों की बातें कृष्णों के लिए नहीं होतीं।

कई बार बात आती है कि भगवान महावीर और गौतम बुद्ध समसामयिक थे, मोटे तौर पर। बीस-तीस साल उम्र में महावीर बुद्ध से ज्येष्ठ थे और एक ही क्षेत्र में वो भ्रमण करते थे — यही पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र, यहीं पर उनका पूरा काम चलता था — तो लोग कई बार कहते हैं कि ये दोनों महानुभाव एक-दूसरे से कभी मिले क्यों नहीं?

क्योंकि कोई ज़रूरत नहीं है। क्योंकि कृष्णों की बातें कृष्णों के लिए नहीं होतीं। क्या करेंगे एक-दूसरे से मिलकर? हाँ, जानते थे शायद एक दूसरे को, क्योंकि कई बार ग्रंथों में उल्लेख आता है तो पता रहता है। हिंदू ग्रंथों में, उदाहरण के लिए, जैन मुनियों का बड़े आदर के साथ उल्लेख आता है, लेकिन ऐसा कोई उल्लेख हमें नहीं मिलता कि जैन तीर्थंकर और उपनिषदों के ऋषि आमने-सामने बैठे हुए हों। आदर बहुत है, पर आमने-सामने बैठने की कोई आवश्यकता शायद है नहीं।

यही बात आप जब मध्य-काल में आ जाएँ, और वहाँ आप पाएँ कि भक्ति मार्ग के इतने संत थे, संतकवि थे; बहुत कुछ छिट-पुट मौके होंगे विरल, जब उनमें आपस में मुलाकात हुई हो। हाँ, उनमें गुरु-शिष्य का नाता हो जैसे रैदास हैं, मीरा हैं, तो अलग बात है, अन्यथा आपस में नहीं मिलते थे। और अब, जनश्रुति है, कह नहीं सकते कि कितना सही है, कितना गलत है — उदाहरण के लिए एक जनश्रुति है कि बाबा फ़रीद और संत कबीर मिले। वो जनश्रुति ठीक हो नहीं सकती क्योंकि दोनों का जीवन काल अलग है। लेकिन फिर भी, जो संदेश देने के लिए वो जनश्रुति निर्मित है, वो संदेश महत्वपूर्ण है।

कहते हैं कि ये दोनों महापुरुष आपस में मिल रहे हैं, तो दोनों के साथ दोनों को सुनने वाले उनके शिष्य, वो बहुत सारे मौजूद हैं और वो बहुत उत्साहित हैं कि ये एक बड़ी अनूठी घटना घटने जा रही है। ये दोनों मिलेंगे तो न जाने क्या होगा और कई दिनों पहले से तैयारियाँ चल रही हैं, और बड़ा रोमांच है कि एक विरल घटना घटने जा रही है।

और होता क्या है — ये दोनों जन मिलते हैं, एक-दूसरे को देखते हैं, मुस्कुराते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। इनका इधर से आ रहा था काफ़िला, इनका इधर से आ रहा था, और ये दिख रहा था कि अब ये मिलेंगे रास्ते में। तो मिले भी, बस इतना ही हुआ आमने-सामने खड़े हुए, मुस्कुराए, और आगे बढ़ गए। लोगों को समझ में नहीं आया, बोले, 'बैठे नहीं, कुछ अड्डा नहीं जमा, कोलैबोरेशन (सहकार्यता) तो हुआ ही नहीं।' कुछ नहीं! क्योंकि वो बातें उनकी एक-दूसरे के लिए नहीं हैं, हमारे लिए हैं।

तो जब ये ऊँची बातें भी हो रही हों, तो उसमें अपने आप से पूछना ज़रूरी है कि मेरा जो ज़मीन का जीवन है, उस पर कितना अंतर पड़ रहा है। हर श्लोक से पूछिए, हर दोहे से जवाब माँगिए, ‘तू मेरी ज़िंदगी में किस तरह प्रासंगिक है? और नहीं प्रासंगिक है तो मैं तेरे साथ समय नहीं ज़ाया कर रहा। सिर्फ़ इसलिए थोड़े ही कि कोई चीज़ धार्मिक मान ली गई है, श्रेष्ठ मान ली गई है, परंपरा में पूज्य मान ली गई है, तो हम उसको रटते फिरेंगे। मुझे ये ज़िंदगी जीनी है अपनी, पार्थिव; बताओ तुम इसमें कैसे बेहतरी ला सकते हो?’

और वो बेहतरी ला सकता है, अगर आप ये सवाल पूछेंगे। सवाल पूछे बिना बस शत-शत नमन करेंगे तो कोई बेहतरी नहीं आएगी। कि गा रहे हैं, गा रहे हैं, एक-के-बाद-एक गा रहे हैं जैसे अभी था, मैं बोल रहा हूँ, दोहरा रहे हैं (सत्र से पहले का ज़िक्र करते हुए जब आचार्य जी ने सभी श्रोताओं के साथ भगवद्गीता के श्लोक गा रहे थे)।

सवाल करना तो ज़रूरी है न, ‘ये मेरी ज़िंदगी में कैसे उपयोगी है? मेरे दैनंदिन आचरण में इसकी सार्थकता क्या है?’ और सार्थकता है, पर सिर ज़्यादा झुका दोगे तो कुछ दिखाई नहीं देगा। सारा खेल देखने का है। झुकाओ सिर, पूरा झुका दो (श्रोताओं से सिर झुकाकर देखने का आग्रह करते हुए)। सबकुछ झुका दो तो बस अपना ही… (शरीर दिखने लगेगा)। और कुछ नहीं दिखाई देगा।

परिभाषाओं से बात करते हैं, है न — ज़िम्मेदारी माने क्या? मोह माने क्या? जितने भी मेरे आरंभिक वीडियो हैं, सबमें बातचीत इसी बात को है कि तुम जिन शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हो, तुम्हें उनकी परिभाषा पता है क्या। लंबी-चौड़ी बातचीत हो सकती है, घंटों की बातचीत हो सकती है, और परिभाषा ही स्पष्ट नहीं तो तुम बात किस पर कर रहे हो? वन स्ट्रॉमैन वर्सेज़ द अदर (एक के ऊपर एक अज्ञानी)!

मैं पूछा करता था, जैसे ये सामने बैठे हुए हैं; मैं पूछता था — हाँ भाई, कितने लोग मानते हो, दैट ‘ए’ इज़ ग्रेटर दैन ज़ीरो (कि ‘ए’ शून्य से बड़ा होता है), हाथ खड़े करो। खड़े करो (श्रोताओं से हाथ उठाने को कहते हुए)! अरे, कर दो यार! ये देखा! तुम सब लाल पार्टी में आ गए। सब लोग हाथ खड़े करो, जितने लोग मानते हो, ‘ए’ इज़ ग्रेटर दैन ज़ीरो। खड़े करो, खड़े करो। ये सब लाल पार्टी में आ गए, नीचे करो।

कितने लोग मानते हो, ‘ए’ इज़ लैस दैन ज़ीरो, हाथ खड़े करो। तुम सब हरी पार्टी में आ गए। अब वहाँ बाहर निकलो, एक-दूसरे का सिर फोड़ दो (दोनों में प्रतिद्वंदता प्रमाणित करके कहते हैं कि अब आप एक दूसरे के दुश्मन हो गए)। बस ये किसी को नहीं पता है, 'ए' है क्या?

ये आस्तिक हैं, ये नास्तिक हैं और ये वो प्रजाति हैं जिन्हें एग्नॉस्टिक (संशयवादी) बोलते हैं (उदाहारण के तौर पर श्रोताओं को उनकी मान्यताओं के हिसाब से बाँटकर समझाते हुए), और तीनों भयानक तरीके से लड़ रहे हैं, पर आस्तिक माने क्या, ये किसी को नहीं पता है। 'अस्ति' माने एफ़र्मेशन (अभिपुष्टि) कि ‘है’, किसके होने की बात हो रही है, ये किसी को नहीं पता।

ये निगेशन (नकार) कर रहे हैं — 'नास्ति', नहीं है! किसका निगेशन कर रहे हो, नहीं पता। और वो बोल रहे हैं, ‘पता नहीं, कुछ हो भी सकता है, नहीं… इसमें हमारा कोई रुख नहीं है।‘ पर किस बारे में तुम्हारा कोई ओपिनियन (राय) नहीं है, ये इन्हें नहीं पता। जब परिभाषाएँ ही स्पष्ट न हों तो बात किस बारे में हो रही है? किस बारे में बात हो रही है?

सब्ज़ियाँ बड़ी मस्त चीज़ होती हैं। एक सब्ज़ी होती है, उसका एक जगह कुछ नाम होता है, और उससे दो-चार-सौ मील दूर चले जाइए, तो उस क्षेत्र में दूसरा नाम होता है। अब डेढ़-सौ करोड़ लोगों का देश हो गया ये, तो बहुत संभव है कि एक नाम जो एक जगह एक सब्ज़ी का हो, वही नाम दूसरी जगह दूसरी सब्ज़ी का हो।

अब कुछ, कुछ नाम बताओ मज़ेदार सा?

श्रोतागण: तोरई, टिंडा, नेनुआ।

आचार्य प्रशांत: नेनुआ तो सचमुच में होती है। ऐसा बताओ जो… कल्पना दौड़ाओ थोड़ी…

(श्रोतागण अनेक सब्ज़ियों के नाम लेते हुए) कद्दू, लौकी।

आचार्य प्रशांत: पोटा!

श्रोता: कोहड़ा।

आचार्य प्रशांत: क्या कर दिया आपने? कोहड़ा नहीं जानते क्या होता है? कोहड़ा होता है। ऐसा जो नहीं होता। अभी क्या बोला मैंने? पोटा। अब पोटा, पोटा ठीक है। पोटा बंबई में पारसी समुदाय आलू को बोलता है, वो पोटैटो से मिलता-जुलता है, तो वहाँ क्या होता है? पोटा माने आलू।

और पंजाब में पोटा माने क्या होता है? पंजाब में पोटा माने क्या होता है, कुछ बोलो (श्रोताओं से कल्पना करके किसी और सब्ज़ी का नाम पूछते हुए)?

श्रोता: बैंगन।

आचार्य प्रशांत: बैंगन! अब ये दोनों आमने-सामने बैठ गए हैं (एक बंबई वाला व्यक्ति और एक कोई पंजाब वाला व्यक्ति), ठीक है न ये? इनका नाम है, सोडा बॉटल वाला। जमशेद जी, सोडा बॉटल वाला! सोडा बॉटल भी नहीं, सोडा बॉटल ओपनर वाला! और ये आकर बैठ गए, इनका क्या नाम है?

श्रोता: हरदीप सिंह।

आचार्य प्रशांत: हाँ, हरदीप सिंह। और दोनों लड़ गए हैं कि पोटा सख्त होता है कि मुलायम, कि उसमें बीज होते हैं कि नहीं होते हैं। और सोडा बॉटल वाले का एकदम ही ओपनर लग गया।

अपने पंजाबी भाई हैं, वो भारी पड़ गए, बोले, ‘क्या बोल रहा है? बोल रहा है, पोटा में बीज होते हैं,’ और वो (पंजाब वाले) बैंगन की बात कर रहा है, वो (बंबई वाले) आलू की बात कर रहा है। एक के देखे बीज होते हैं, एक के देखे नहीं होते, पर दोनों समझ ही नहीं रहे कि बात हो किसकी रही है। एक के देखे इतना बड़ा होता है, एक कह रहा है, ‘नहीं, इससे ज़्यादा बड़ा होता ही नहीं।’ एक कह रहा है कि लटकता है पौधे में, एक कह रहा है, 'ज़मीन खोदकर निकाला जाता है,’ और सिर फोड़ दिया एक-दूसरे का।

‘किसकी बात कर रहे हो?’ ये तो पूछना ही नहीं है कभी। ये तो पूछना ही नहीं है कभी कि बात किसकी हो रही है, परिभाषा क्या है।

आ रही है बात समझ में?

इससे भी आगे एक और सवाल होता है — किसका पोटा? किसका!

अब यहाँ पर कौन आ गया सीधे रोशनी के नीचे, लाइमलाइट में? अहंकार। बात सही है। ‘तेरा पोटा ज़मीन के नीचे होता है, क्योंकि तेरा पोटा आलू है लेकिन मेरा पोटा ज़मीन के ऊपर होता है, मेरा पोटा बैंगन है।’

अहम् कभी ये नहीं मानेगा कि सारी परिभाषाएँ उसकी स्वयं की दी हुईं हैं। वो कभी भी ये नहीं मानेगा कि सब कुछ उसके सापेक्ष है, वो ये दिखाएगा कि सब कुछ ही ऑब्जेक्टिव (वस्तुगत) है। इसी को हम कहते हैं कि अहम् अपने आप को आत्मा दर्शाना चाहता है।

अहम् ये बताना चाहता है कि मामला एबसोल्यूट (निरपेक्ष) है, एब्सोल्यूट नहीं है, रिलेटिव (सापेक्ष) है। वही पोटा उसके रिलेशन में आलू है, और वही पोटा उसके रिलेशन में बैंगन है। अहम् की दुनिया में सब कुछ रिलेटिव है। आपका बेटा आपके रिलेशन में राजकुमार है, आपका बेटा पड़ोसी के रिलेशन में लफंगा है।

समझ में आ रही है बात?

लेकिन आप ये नहीं मानोगे कि हाँ, वो राजकुमार है, पर सिर्फ़ मेरे लिए। पड़ोसी के लिए और पड़ोसी की बिटिया के लिए तो वो लफंगा ही है, ये कभी नहीं मानोगे। आप कहोगे, ‘राजकुमार है एब्सोल्यूटली (निश्चित रूप से)।‘ एब्सोल्यूटली माने 'है’।

अहम् यही करता है, वो है, पर मात्र अपने रिलेशन में। अपने देखे है और उसकी पूरी दुनिया भी बस उसी के लिए है। माने मन किसके लिए है? अहम् के लिए है। मन अहम् के लिए है। मन स्थिर नहीं है तो माने कौन स्थिर नहीं है? मन उदास है तो कौन उदास है? और कोई भी स्थिति हो — चाहे वो उदासी की हो, चाहे खुशी की हो — कोई भी स्थिति हो वो स्थिति अपूर्णता की ही होती है।

हर स्थिति का काम है आना और जाना। वो वापस चली ही इसलिए जाती है क्योंकि अपूर्ण निकली। लगभग वैसे ही जैसे आप लोग अमेज़न वगैरह से कुछ मँगाते हैं और अगले दिन उसको लौटा भी देते हैं। मन लगातार यही करता रहता है, मन नहीं…

श्रोतागण: अहम्!

आचार्य प्रशांत: वो क्या करेगा? ऑनलाइन ऑर्डर देगा, माल आएगा, एक-दो दिन इस्तेमाल करेगा — बात तो कभी बन ही नहीं सकती — जब बात नहीं बनती तो फिर वो लौटाता है। और वो यूनिवर्स, वो यूनिवर्सल सेट, वो समुच्चय, जहाँ से ऑर्डर किया जा सकता है, जहाँ से विषय उपलब्ध हो सकते हैं; वो अनंत हैं। और कोई रिस्ट्रिक्शन (प्रतिबंध) नहीं है कि पाँच-सौ बार आपने कुछ मँगाया और लौटाया, तो अब नहीं मँगा सकते। जीवन पूरा फिर ऐसे ही प्रयोग और आशा में बीत सकता है, बीत जाता है।

ये मँगाया, आज़माया, बात नहीं बनी, लौटाया, फिर अगली चीज़ मँगाई। और यही कारण है कि अहम् की दुनिया में ‘आशा’ बड़ा ऊँचा शब्द होता है। और यही कारण है कि लोग कितना भी अपने आप को धार्मिक बोल लें, कृष्ण भक्त बोल लें, गीता से सब बचकर निकलना चाहते हैं। गीता से सब कतराते हैं क्योंकि गीता में 'निराश' शब्द बहुत केंद्रीय है — गीता में भी, अष्टावक्र गीता में भी, हर जगह! कहते हैं, 'जो अभी तक आशा को पकड़े हुए है, वो बंधक ही रहेगा, वो दुखी ही रहेगा।’

क्योंकि आशा का मतलब ही यही है, ‘मैं तो वही रहूँगा जो मैं हूँ। उम्मीद करूँगा कि इसके बाद अब इसको आज़माऊँगा तो शांति मिल जाएगी। मैं वहीं रहूँगा, विषय बदलता चलूँगा। इतना बड़ा मैंने विषयों का संसार बसाया किसलिए है? इसीलिए तो कि एक के बाद एक उसमें मैं कुछ…’

अब बताओ कि हमें नए-नए अनुभवों की तलाश क्यों रहती है? पहली बात तो नए अनुभव की परिभाषा क्या हुई? नया विषय। नया विषय क्यों चाहिए? क्योंकि पुराना हर विषय नाकाफ़ी पड़ेगा, असफल पड़ेगा।

श्रोतागण: बोर हो जाएँगे।

आचार्य प्रशांत: बोर हो जाओगे। अब ये जो 'बोर' शब्द है, इसकी भी आध्यात्मिक परिभाषा करिए, बहुत मज़ा आएगा कि बोर माने क्या। एक कहीं पर, किसी से मैंने कहा था कि पूरा अध्यात्म सिर्फ़ बोरियत से निपटने का उपाय है। मनुष्य का जीवन माने — एक सतत ऊब। तो अध्यात्म उस ऊब को मिटाने के लिए है — द हाइएस्ट एंटरटेनमेंट (उच्चतम मनोरंजन)। आप सारा मनोरंजन इसीलिए करते हो न कि ऊब से निवृत हो पाओ। इसीलिए करते हो न?

वो ऊब उस मनोरंजन से नहीं मिटेगी, वो ऊब यहाँ (अध्यात्म) से मिटती है। तो जिन्हें मनोरंजन भी चाहिए, उनके लिए सबसे ऊँचा मनोरंजन यही है। गज़ब की बात हो गई।

हाँ (श्रोता का प्रश्न ठीक से न सुन पाने पर)?

श्रोता: क्या शुरुआत में अध्यात्म से बोरेडम भी आता है?

आचार्य प्रशांत: हाँ, बोरडम आता है।

श्रोता: अहम् की डेफिनिशन क्या होगी आचार्य जी?

आचार्य प्रशांत: अहम् की डेफिनिशन — बस जो कहता है कि मैं हूँ, जो कहता है, ‘मैंने किया,’ जो कहता है, ‘मैंने भोगा,’ वही।

श्रोता: थोड़ा इलैबोरेट (विवरण) करेंगे क्या सर?

आचार्य प्रशांत: बस यही है, इलैबोरेट की ज़रूरत क्या है, बताओ? जो कह रहा है, ‘और इलैबोरेट करेंगे,’ वही अहम् है।

श्रोता: (सिर हिलाते हुए) समझ नहीं आया सर!

आचार्य प्रशांत: जो सिर ऐसे-ऐसे हिला कर कह रहा है कि समझ में नहीं आया, वही अहम् है।

श्रोता: जो पूछ रहा है वही अहम् है क्या?

आचार्य प्रशांत: हाँ, बिल्कुल है। अहम् न हो तो पूछेगा कौन और जवाब कौन देगा? पर जितने प्रश्न पूछे जा रहे हैं, वो सब इस भावना पर आधारित हैं कि मुझे समस्या है। माने ‘मैं’ सत्य…

श्रोता: हूँ।

आचार्य प्रशांत: (श्रोताओं द्वारा गलत जवाब देने पर पूछते हुए) सत्य को समस्या होती है? माने ‘मैं’ सत्य…

श्रोता: नहीं हूँ।

आचार्य प्रशांत: तो पारमार्थिक तल पर ये पूरी प्रश्नोत्तरी मिथ्या है। न किसी को कोई समस्या है, न समस्या का निदान या समाधान देने की कोई ज़रूरत है। आप जब अद्वैत में भी विशुद्ध अद्वैत पर जाओगे, उच्चतम अद्वैत पर, जैसे ‘ऋभुगीता‘, तो वहाँ गुरु-शिष्य संवाद पर भी हँसा जाता है। कहते हैं, ‘क्या पूछ रहे हो और क्या जवाब दिया जाए?’ वहाँ ये भी नहीं करा जाता कि गुरु के सामने नमन करना है।

अवधूत गीता कहती है, "सिर झुकाऊँ भी तो झुकाऊँ किसके आगे? मैं ही मैं तो हूँ।" अवधूत शिव को समर्पित होता है पर एक जगह पर आकर अवधूत गीता कह देती है कि महादेव के आगे भी सिर कैसे झुकाऊँ, नमन करूँ भी तो किसको।

और छोड़ो, आप अष्टावक्र गीता में साथ रहे हैं, कैसे आप भूल गए — “अहो अहं नमो मह्यं।“ अगर मैं ही हूँ — चलो, एक काम करते हैं, शत-शत नमन खुद को ही कर लेते हैं। अहो अहं, 'अहो' — विस्मय का भाव — अपने, अपने औदात्य का भाव, ‘अहो अहं’! और अब नमन करना है — ‘नमो मह्यं।’

समझ में आ रही है बात ये?

तो ये भी जो हो रहा है, है ये भी बस बच्चों का खेल ही। कोई बनकर बैठ गया है, ‘मुझे तो पता नहीं है।‘ कोई बनकर बैठ गया है, ‘मैं डूड हूँ, मुझे सब पता है। मेरा नाम आचार्य जी है, मैं बताऊँगा। मुझसे पूछो, मुझसे, मैं बताऊँगा!’

कुछ नहीं है, ये बच्चों का खेल है, खेल लो! जब तक तुम्हें लगता है कि तुम्हें समस्या है, तब तक तो ये खेल तुम्हें खेलना पड़ेगा। ठीक है? वैसी सी बात है कि किसी को वहम हो गया है कि पीठ पर छिपकली चिपकी है। खुद तो दिख नहीं रही तो अब तुम्हें कोई दूसरा चाहिए होगा जो तुम्हें दिखा सके आइना। या तुम्हारी पीठ को देखकर बोल सके, बता सके कि कुछ नहीं है। जब तक वहम है तब तक दूसरे की ज़रूरत है। और जो दूसरा है, वही वहम है। दोनों बातें एक जैसी हैं।

अहम् कौन है? वही जो बोल रहा है, जो सुन रहा है, वो अहम् है। जो दावा करता है कि उसने कह दिया, जो दावा करता है, ‘मैंने सुन लिया,’ वही है।

(किसी श्रोता के बीच में प्रश्न पूछने पर) आपने कल रजिस्टर किया है गीता में? कल?

श्रोता: जी।

आचार्य प्रशांत: तो आप यहाँ कैसे आए? जानते नहीं हैं आप क्या कि बात सिर्फ़ चार-सौ लोगों के लिए नहीं हो रही है। कहाँ है माइक? कहाँ है कैमरा? या चलती ट्रेन में हमने बस यूँही गॉसिप शुरू कर दी है? आप संस्था के साथ हो, आप मिशन को समझते हो, आप भली-भाँति जानते हो कि इस बातचीत में भले ही इस सभागार में पाँच-सौ ही लोग मौज़ूद हैं, पर इस बातचीत को पाँच लाख लोगों तक पहुँचना है।

आप ऐसे बीच-बीच में कुछ उछालते रहोगे तो क्या ये स्वार्थ की बात नहीं होगी? कि हम पाँच-सौ लोगों का तो काम हो जाए और जो बाहर देख रहे हैं, उनको भी छोड़ो कि जिन लोगों तक सोशल मीडिया से पहुँचना है, जो हमारे ही भाई-बंधु अभी कम्युनिटी पर ये पूरी बात सुन रहे हैं, उन तक आपकी बात कैसे पहुँचेगी? पहुँच जाएगी?

सोचिए आप — आप आज आए हो, आप पिछले दो दिनों में तो नहीं आए थे, छब्बीस-सत्ताईस तारीख को। लेकिन यहाँ जितनी बातचीत हो रही थी, वो आप सुन कर लाभ ले रहे थे न? और वो बातचीत आप न सुन पाते ठीक से तो आपको कैसा लगता? आपकी बातचीत कोई कैसे सुन पाएगा? खट से जनरल डब्बा बना देते हैं।

आपका ही हूँ मैं, मैं आपकी सेवा के लिए मौजूद हूँ। मैं तो कह रहा हूँ, ‘यूज़ मी, पूरा निचोड़ लो।‘ पर पूरा निचड़ूँ तो पूरे के लिए निचड़ूँ न, मात्र एक अंश के लिए क्यों? मात्र दो लोगों के लिए क्यों? मेरा पूरा इस्तेमाल हो। तो फिर पूरे विश्व के लिए हो न, मात्र इस सभागार के लिए क्यों? अब कोई सवाल ही नहीं पूछेगा।

तो सवाल शुरू ही कर देते हैं, आप लोग आज बहुत आतुर हैं। ठीक है, प्रश्नोत्तरी ही शुरू करते हैं।

प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर! सर, जैसे आपने बताया है कि तथ्य सत्य का द्वार है, तो आज जो मैंने अभी सुना है उससे ऐसा लगता है कि मन जो है, अहम् का द्वार है।

आचार्य प्रशांत: सबसे पहले क्या होता है? मन थोड़े ही होता है। सबसे पहले क्या होता है? अहम् के बाद ये सब आते हैं। हाँ, आप अगर ये कहना चाह रहे हों कि मन की सामग्री को देखकर के अहम् की गुणवत्ता का पता चल जाता है तो बिल्कुल ठीक है। अगर आप यही कह रहे हैं।

प्रश्नकर्ता: मैं यही कह रहा हूँ।

आचार्य प्रशांत: परफ़ेक्ट

प्रश्नकर्ता: इससे पहले भी सत्रों में सुना था और आज बिल्कुल क्लियर हो गया कि….

आचार्य प्रशांत: आपका अहम् कैसा है, ये सीधे-सीधे कभी नहीं जाना जा सकता क्योंकि अहम् कुछ है ही नहीं। कैसे तुम उसका कुछ करोगे जानने के लिए? एक्सरे-सीटी, कुछ हो नहीं सकता उसका। अहम् की गुणवत्ता क्या है, ये देखने के लिए बस ये देखना होता है कि मन किन विषयों से संबंधित है।

प्रश्नकर्ता: क्लियर हो गया।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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