क्या आनंद मन की व्यक्तिगत अवस्था है? || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2018)

Acharya Prashant

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क्या आनंद मन की व्यक्तिगत अवस्था है? || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या आनन्द हर एक का व्यक्तिगत होता है?

आचार्य प्रशान्त: आनन्द व्यक्तिगत होता ही नहीं है। 'मेरा आनन्द' या 'उसका आनन्द' जैसी कोई बात नहीं होती है। जब तक कोई अनुभोक्ता भीतर मौजूद है आनन्द जैसी कोई बात नहीं है। फिर प्रसन्नता हो सकती है, आनन्द नहीं होगा। आनन्द नहीं व्यक्तिगत होता, प्रसन्नता व्यक्तिगत होती है। आनन्द आपके हट जाने की, मिट जाने की स्थिति है। जब आप हट गये, मिट गये तो अब फ़ैसला कौन करेगा कि दूसरे को देना है कि नहीं देना है? फिर तो दिया भी जा सकता है, नहीं भी दिया जा सकता है। देने में भी न देना है, न देने में भी देना है। फिर तो ये कोई अपना व्यक्तिगत निर्णय हुआ ही नहीं न कि दे रहे हैं या नहीं दे रहे हैं।

तो जो योगी बैठा है हिमालय में, अब निर्णय करके बैठा है कि अब नहीं ही दूँगा। किसी को उसको कोई आनन्द वगैरह है नहीं। वो अभी व्यक्तिगत काया में ही जी रहा है और जो ये प्रण करके बैठा है कि मुझे तो ज़माने भर को बाँटना है, उसको भी कोई आनन्द वगैरह है नहीं। वो भी अपनी व्यक्तिगत काया और व्यक्तिगत संकल्प में ही जी रहा है।

न ये बात सही है कि जिसको मिलेगा वो शत् प्रतिशत बाँटेगा ही, न ये बात सही है कि जिसको मिलेगा उसे बाँटने से कोई मतलब नहीं रहेगा। जो मूल बात है वह है कि जिसको मिलेगा वो बचेगा ही नहीं। जिसको मिल जाता है वो बचता ही नहीं, तो वो बाँटेगा क्या! जिसको मिल जाता है वो ये निर्णय करने के लिए शेष ही नहीं रहता कि बँटेगा या नहीं बँटेगा। अगर अभी वो ये निर्णय कर रहा है कि बाँटूँ या नहीं बाँटूँ इत्यादि-इत्यादि तो फिर तो अभी सब उसका अभी अपना सीमित पार्थिव खेल चल रहा है।

प्र: आचार्य जी, क्या आनन्द मन की एक अवस्था है जो छिन सकती है?

आचार्य: आनन्द प्रसन्नता नहीं है, दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। आनन्द आने-जाने वाली, छिनने वाली चीज़ नहीं होती है; आनन्द मन की कोई अवस्था नहीं होती है कि बदल जाएगी। आनन्द आत्मा है, वो न आती है, न जाती है, न उसका कोई अनुभव होता है।

तो वो ऐसा नहीं कि अपना एकान्त में हो तो आनन्दित हो और सभा समाज में गये तो आनन्दित नहीं हो। असल में सारे अध्यात्म का सार है आनन्द, तो जिसने आनन्द समझ लिया उसने अध्यात्म समझ लिया। और आनन्द और अध्यात्म को समझने का तरीक़ा एक ही है — उसको जीना। जो जी नहीं रहा है, उसको आनन्द वगैरह नहीं मिला है, उसको मन की कोई शायद सुखद स्थिति मिल गयी है। और सुखद स्थितियाँ वगैरह तो सब क्षणभंगुर होती हैं; अभी हैं, कल नहीं हैं।

एको विशुद्धबोधोऽहमिति निश्चयवह्निना।

प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव।।१.९।।

मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें, इस प्रकार शोकरहित होकर सुखी हो जाएँ।

~ अष्टावक्र गीता, प्रकरण १, श्लोक ९

प्र: आचार्य जी, अष्टावक्र यहाँ पर सुखी हो जाने की बात क्यों कर रहें हैं?

आचार्य: वहाँ पर सुख शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है क्योंकि हम सब दुख से पीड़ित हैं। वहाँ पर आप सुख को सुख नहीं पढ़िए, वहाँ पर सुख को पढ़िए 'दुख नहीं'। लेकिन जब दुख नहीं होगा तब सुख भी नहीं होगा।

देखिए, कोई परेशान हो, कोई दुखी हो तो उससे कहेंगे, 'तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा'। इसी बात को और आकर्षक तरीक़े से कह सकते हैं कि तुम्हें सुख मिल जाएगा। लेकिन ये जो कहा जा रहा है — 'तुम्हें सुख मिल जाएगा' ये वास्तव में सुख की बात नहीं कही जा रही है, ये बात सिर्फ़ दुख का निषेध है और दुख के निषेध में दुख और सुख दोनों का वास्तविक निषेध हो जाता है। तो इसीलिए सुख में और आनन्द में बहुत अन्तर है।

जहाँ सुख है, वहाँ दुख है। आनन्द सुख-दुख दोनों का अतिक्रमण है, उल्लंघन है। सुख और आनन्द में कोई साम्य नहीं है, सिवाय इसके कि दोनों में ही दुख की अनुभूति नहीं है। लेकिन सुख में दुख की सिर्फ़ क्षणिक विलुप्ति होती है और आनन्द में दुख-सुख दोनों जाते हैं और वो एक…।

यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।

अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि।।१.४।।

यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके चेतना में विश्राम करें तो तत्क्षण ही सुख, शान्ति और बन्धन-मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे।

~ अष्टावक्र गीता, प्रकरण १, श्लोक ४

आचार्य: सुख किसको मिलेगा? आप शरीर नहीं हो, सुख किसको मिलेगा?

प्र: स्वयं को।

आचार्य: स्वयं माने (हँसते हुए) किसको? आपने कोई ऐसा सुख आजतक अनुभव करा है जिसका ताल्लुक तन-मन से न हो? तो ये तो सोचिए न!

प्र: मन।

आचार्य: तो फिर शरीर से अलग होकर वो ये कह रहे हैं क्या कि मन से तादात्म्य कर लो? ये तो नहीं कह रहे तो जब वो कह रहे हैं कि शरीर से अलग हो जाओ तो उनका अर्थ है — 'मिट जाओ'। सुख-दुख दोनों के मिट जाने की अवस्था को आनन्द कहते हैं। और उसका फिर शरीर से कोई ताल्लुक़ नहीं होता। जब सुख-दुख तमाम लहरों का उपद्रव शान्त हो जाता है तो वो आनन्द है। आनन्द का कोई अपोज़िट नहीं है। जिस चीज़ का अपोज़िट नहीं वो चीज़ हो भी नहीं सकती। आनन्दित हुए आप सुखी भी हो सकते हो, आनन्दित रहते हुए आप दुखी भी हो सकते हो। आनन्द सुख-दुख से सम्बन्धित नहीं है, वो सुख-दुख से आगे है।

प्र: आनन्दित होते हुए कोई सुखी और दुखी या दुखी कैसे रह सकता है? ये थोड़ा सा असम्भव लग रहा है।

आचार्य: क्यों आकाश में धुँआ नहीं होता? आकाश में दिन-रात नहीं होते? आकाश में चाँद-तारे नहीं होते? सारे विपरीत आकाश में घूम रहे हैं — रोशनी भी है, अन्धेरा भी है; गन्दगी भी है, स्वच्छता भी है; छोटा भी है, बड़ा भी है, काला भी है, सफ़ेद भी है। सबकुछ आकाश में है, आकाश में कुछ है जो बहुत गर्म है, कुछ है जो बहुत शीतल है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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