क्या महिलाओं का कमाना ज़रूरी है?

Acharya Prashant

11 min
2.3k reads
क्या महिलाओं का कमाना ज़रूरी है?
कोई किसी के लिए मुफ़्त में कुछ नहीं करता। सिर्फ़ जीवनमुक्त ही किसी के लिए मुफ़्त में कुछ कर सकता है। अगर आपके पति साधारण व्यक्ति हैं, तो वे मुफ़्त में आपको कुछ नहीं दे रहे होंगे। कुछ-न-कुछ व्यापार चल रहा होगा। लेन-देन में जो फँस गया, वह मुक्त कहाँ से हो पाएगा? बस इतना कमा लो कि तुम्हारी रोटी कर्ज़ की न हो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: ब्याहता हूँ, अध्यात्म में गहरी रुचि है। गृहिणी होने के नाते घर में ही रहकर आध्यात्मिक पठन-पाठन और साधना में समय लगाती हूँ। पति अच्छी नौकरी में हैं। उनके माध्यम से आर्थिक और अन्य आवश्यक ज़रूरतें आसानी से पूरी हो जाती हैं। तो क्या तब भी मेरे लिए आवश्यक है कि मैं स्वयं कमाऊॅं?

आप बहुत ज़ोर देते हैं कि स्त्रियों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी होना चाहिए। लेकिन अगर कोई स्त्री मेरी जैसी सुविधापूर्ण स्थिति में हो तो भी क्या उसके लिए स्वयं कमाना, आर्थिक स्वावलंबन, आवश्यक है?

आचार्य प्रशांत: आवश्यक है तो। अभी आपका काम आपको लगता है चल रहा है। जब तक आपको लग रहा है कि चल रहा है, चलाए रखिए। बाकी देखिए जीवन के कुछ सिद्धान्त होते हैं। और वो सिद्धान्त अटूट होते हैं, सब पर लागू होते हैं। और मन का, जीवन का एक सिद्धान्त है कि जीवन मुक्त व्यक्ति को छोड़कर के कोई भी किसी के लिए भी निःस्वार्थ भाव से कुछ नहीं कर सकता। जब तक किसी में अहम् कायम है वो उस अहम् की पूर्ति के लिए ही करेगा जो कुछ करेगा। जब तक किसी में अहम् है, उसमें कर्ता भाव भी होगा तो उसमें एक-एक कर्म बस कर्ता के स्वार्थों की पूर्ति के लिए होगा।

इसका जो एक मात्र अपवाद होता है वो आध्यात्मिक रूप से बहुत ही उन्नत व्यक्ति होता है। वही एक मात्र अपवाद होता है। वही ऐसा होता है जो अपने लिए जीने और अपने लिए ही कर्म करने की अनिवार्यता से मुक्त हो गया होता है। अब वो जो कुछ भी करता है आवश्यक नहीं होता कि अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए करे। तो फिर उसका किया हुआ सबके लाभ, शुभ, कल्याण हेतु हो जाता है।

लेकिन देखिए, जीवन मुक्त व्यक्ति होते कितने हैं? ऐसा तो नहीं है गली-गली फिर रहे हैं। बाकी सब तो जो करेंगे अपने लाभ के लिए ही करेंगे, मुनाफ़े के लिए ही करेंगे। कई बार वो जो लाभ कमाना चाहते हैं वो बिल्कुल प्रकट होता है, स्थूल होता है, कई बार वो जो लाभ कमाना चाहते हैं वो सूक्ष्म होता है।

तो बहुत ऐसी गृहणियाॅं हैं जिनका ये कहना है कि भाई उनको बैठे-बैठाए रुपया-पैसा, घर, सुरक्षा ये सब मिल तो जाता है पति से। और हमारा पति हमें प्यार भी बहुत करता है तो हम काहे को बाहर निकलकर के परेशान हों? और आचार्य जी, जब कहते हैं आप कि जीवन का प्राथमिक उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति है, मुक्ति है तो हम घर में बैठकर के अपना समय अध्यात्म में और मुक्ति में क्यों न लगाएँ?

और तर्क देती हैं, कहती हैं, ‘घर में बैठे हैं, अपना आराम से हम बैठ के कभी उपनिषद् पढ़ लेते हैं, कभी कोई और किताबें पढ़ लेते हैं, अच्छे वीडियो देख लेते हैं। नौकरी हमने कभी करी नहीं। हम बाहर निकले सड़क पर, नौकरी खोजने तो पहले तो बड़ी तकलीफ हो जाएगी, उस तकलीफ के मारे हमारा पढ़ना-लिखना छूट जाएगा। दूसरी बात हमें नौकरी मिलेगी भी तो बहुत ऊँची श्रेणी की शायद अभी नहीं मिलेगी क्योंकि कितने सालों से हमने कोई नौकरी करी नहीं है। अब हम जाएँगे, नौकरी करेंगे, उसमें हम परेशान भी होंगे, उसमें पसीना बहाऍंगे, हमारा शोषण भी होगा। और इन सब चक्करों के कारण जो हमारी आध्यात्मिक साधना चल रही थी, वो साधना भी फिर खंडित हो जाएगी, बाधा पड़ेगी। तो क्या हमारे लिए यही ज़्यादा अच्छा नहीं है कि घर में आराम से घर पर बैठे और रुपया-पैसा आ ही जाता है, हम घर पर बैठ के साधना करें?’

आपकी ये बात सुनने में बड़ी आकर्षक लगती है। इतनी आकर्षक लगती है कि मुझे भी ये लालच आ जाता है कि मैं कह दूँ कि ठीक है जब आपके लिए सब सरल और सुविधा में चल ही रहा है, तो आप आराम से घर पर बैठो। घर को आप जानते हो, घर की नियमित, सन्तुलित ज़िन्दगी है, आराम से बैठो, वीडियो देखो, भजन करो, पठन-पाठन करो। और जो आपके ख़र्चे हैं वो पति के माध्यम से पूरे हो ही जाते हैं। तो मन तो मेरा भी करता है कि मैं यही मशवरा दे दूँ। लेकिन जीवन के सिद्धान्तों को कैसे भुला दूँ मैं?

सिद्धान्त की आपसे बात करी थी न? कोई किसी के लिए मुफ़्त में कुछ नहीं करता। या तो परमात्मा हो वो किसी के लिए मुफ़्त में कुछ कर सकता है, या कोई जीवन मुक्त हो। अब आपके पति अगर परमात्मा हों तो मैं नहीं कहता, या जीवन-मुक्त समाधिस्त व्यक्ति हों तो भी मैं नहीं कहता। फिर तो जो उनसे मिल रहा है, वो अनुकंपा है, ग्रेस है, फिर तो लिए जाइए, उसके एवज में आपको कुछ नहीं देना पड़ेगा। लेकिन अगर साधारण व्यक्ति हैं आपके पतिदेव, तो वो मुफ़्त ही आपको कुछ नहीं दे रहे होंगे, ये पक्का है। ये नियम है जीवन का और अहम् का। मुफ़्त कोई किसी को कुछ नहीं देता। कुछ-न-कुछ व्यापार चल रहा होगा, कुछ-न-कुछ लेन-देन चल रहा होगा। लेन-देन में जो फँसा वो मुक्त कहाँ से हो जाएगा?

और ये भी मत भूलिए कि जब अहम् लेन-देन करता है, तो उसमें वो देन कम करना चाहता है, लेन पाँच गुना करना चाहता है। तो जब गृहणियाँ आकर के कहती हैं कि हमारे पति से हमको इतनी तो प्राप्ति हो ही जाती है महीने की। वो आकर के हमारे हाथ में अपनी तनख़्वाह का इतना हिस्सा रख देते हैं। या और बातें हैं, घर के सारे हक़ उन्होंने हमको दे रखे हैं। तो इतना-इतना हमें पति से मिल जाता है। तो इस प्रसंग में वो ये बताना बिल्कुल छुपा जाती हैं कि ये सब जो तुम्हें मिल जाता है इसके बदले में तुम्हें देना क्या पड़ता है? मुफ़्त तो नहीं मिलता होगा। देना क्या पड़ता है वो बताओ न।

और जो अभी देने की बाध्यता में फँसा हुआ है, बताओ वो मुक्त कैसे हो जाएगा? देने की बाध्यता का मतलब समझते हो क्या है? 'ऋणी' हो तुम, 'कर्ज़दार'। तुम अगर कर्ज़दार हो तो बताने वाले कह गए हैं कि तुम मर भी नहीं सकते। ये जो पुनर्जन्म का पूरा सिद्धान्त रहा है पूरब में, वो यही तो रहा है। वो कहता है कि तुम कर्ज़दार पैदा हुए थे, कर्ज़ा ही पैदा होता है और तुम कर्ज़ा लिए-लिए ही मर भी गए। बल्कि तुमने जीवन ऐसा जिया कि तुम्हारा कर्ज़ा और बढ़ गया। अब चूँकि अभी तुम कर्ज़ा रखे हुए हो अपने सिर पर इसीलिए तुम्हें मरने का हक़ भी नहीं मिलेगा। जीने का हक़ तो नहीं ही मिलता, जिसके सिर पर कर्ज़ा है वो जी तो नहीं ही सकता, वो मर भी नहीं सकता। तू मरेगा भी नहीं, तू दोबारा पैदा हो। तू तब तक जन्म लेता रह जब तक सारे कर्ज़े पटा नहीं देता।

देखते नहीं हो पुराने लोग ऐसा कहा करते हैं। कभी कोई आकर के तुम्हारा कुछ सामान लेकर के चला जाए, मान लो उसने चोरी ही कर ली, तो तुमसे कह देते हैं, चिन्ता मत करो तुम्हारे पिछले जन्म का कोई कर्ज़ा पट गया। कुछ देन-दारी बाकी थी वो आज पट गई। ये बात एकदम यथार्थ रूप से सही नहीं है, इसको आप तथ्य नहीं मान सकते। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि चोर के साथ आपका कोई कर्ज़ा था, जो कि निपट गया है। लेकिन ये बात किसी बहुत गहरे सिद्धान्त की ओर इशारा करती है। वो सिद्धान्त समझिए। वो सिद्धान्त यही है कि जिसने अपने सिर पर कर्ज़ा ले रखा है उसे मरने का हक़ भी नहीं है।

तो आप लेन-देन में फँसी हुई हैं। ले तो आप रही हैं, देने की बाध्यता आपकी लगातार बन रही होगी, बन रही है न? और लेना आपको आख़िरी साँस तक पड़ेगा क्योंकि अपनी शारीरिक माँगो के लिए ही आप किसी दूसरे पर आश्रित हो गई हैं। भोजन ही आपका किसी दूसरे के श्रम से आ रहा है, तो आप निरन्तर किसी दूसरे से लिए जा रही हैं। जब दूसरे से लिए जा रहे हो, तो कर्ज़ा कौन पटाएगा?

दो स्थितियाँ बनती हैं, दूसरा तुम्हें कुछ दे रहा है। अगर तुम्हें वो एक इकाई कुछ देगा, तो जीवन का सिद्धान्त है कि तुमसे बदले में वो कितना चाहेगा? पाँच इकाई। अगर तुम ये कर रहे हो कि तुम उससे एक इकाई लेते हो और पाँच इकाई देते हो, तो अपना शोषण करवा रहे हो। जो अपनी मर्ज़ी से अपना शोषण करवा रहा है उसे मुक्ति कैसे मिलेगी? मुक्ति का तो मतलब ही होता है कि अब हमें शोषण करवाना स्वीकार नहीं रहा। हमें शोषण से मुक्ति चाहिए।

और दूसरी स्थिति ये हो सकती है कि तुम उससे ले तो रहे हो पर अभी तुम उसको वापस नहीं दे रहे। अगर वापस नहीं दे रहे, तुम क्या बने जा रहे हो? ऋणी बने जा रहे हो। जो ऋणी है उसे भी मुक्ति नहीं मिलेगी। तो जो दूसरे पर आश्रित है अपने रुपये-पैसे के लिए, अपने शारीरिक भरण-पोषण के लिए, उसे कहाँ से कोई आध्यात्मिक मुक्ति मिल जाएगी?

तो ये तर्क बड़ा मीठा लगता है कि हम मिया-बीवी में बड़ा प्यार है। मिया कमाते हैं और उनको भोजन कराती हूँ, मैं खुद भजन करती हूँ। ये लेकिन बात चलेगी नहीं। ये सुनने में मीठी लगती है, ज़मीनी तौर पर इसमें कोई दम नहीं है। मुझे मालूम है इसका जो विकल्प है, वो थोड़ा टेढ़ा है। और उस विकल्प में श्रम शामिल है, असुविधा शामिल है, सड़क की थोड़ी धूल फाॅंकनी पड़ेगी। अपरिचित दफ्तरों में जाकर नौकरी का आवेदन देना पड़ेगा, थोड़ी असहजता झेलनी पड़ेगी, हो सकता है कहीं-कहीं अपमान झेलना पड़ जाए।

तो ये मालूम है कि घर की अपनी सुन्दर नियमित व्यवस्था चल रही थी। घर की हम रानी थे। घर के हम महारानी थे। और अब यहाँ बाहर निकलकर के किसी छोटे से दफ्तर में कोई छोटी सी नौकरी कर रहे हैं। बड़ा अपमान लगता है। ये सब मुझे मालूम है कि बुरा लगता है, लेकिन फिर भी मैं कह रहा हूँ कि घर की आप महारानी बनी बैठी हैं और आर्थिक दृष्टि से आप परनिर्भर हैं, उससे कहीं अच्छा है कि कम कमाइए, पर इतना तो कमा ही लीजिए कि कम-से-कम अपने निजी, व्यक्तिगत ख़र्चों के लिए किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े। और ये सब तर्क मत दीजिएगा कि मैं किसी के आगे हाथ नहीं फैला रही हूँ, वो कोई ग़ैर थोड़े ही हैं, वो कोई पराए थोड़े ही हैं। वो तो मेरे ‘वो’ हैं। उन्हीं से तो ले रही हूँ।

अध्यात्म की अगर आप बात कर रही हैं, तो अध्यात्म में तो देखिए सच के अलावा सब पराए ही होते हैं, पति हो, कि पिता हो, कि बेटा हो, अपना कौन होना है?

यहाँ सब पराए ही हैं। जो एक अपना होता है उसकी परवाह कर लीजिए।

मैं आपसे बिल्कुल नहीं कह रहा हूँ कि आप दस-दस घंटे काम करें और बहुत सारा पैसा कमाऍं। मेरा बस इतना निवेदन रहता है कि इतना कमा लो कि तुम्हारी रोटी जो है वो कर्ज़े की न हो। इतना कमा लो बस।

एक इसमें विकल्प आपके लिए ये भी हो सकता है कि अगर आप घर का काम करती हैं तो स्वयं ही ईमानदारी से जाँच लीजिए कि आप जो घर का काम करती हैं, उसका आर्थिक मूल्य कितना है। और उस घर के काम-काजों का जो आर्थिक मूल्य वगैरह है, बस ठीक उतना ही पति से लिया करिए, उससे ज़्यादा नहीं। इतना तो आप स्वयं भी आँकलन कर सकती हैं न? कि भाई, मैं घर में ये, ये, ये, ये करती हूँ। तो इन सेवाओं का आर्थिक मूल्य इतने हज़ार रुपये बैठा, ठीक है। पति से उतना ले लीजिए, उससे ज़्यादा नहीं फिर। ये नहीं कि पति की कमाई पर पत्नी का हक़ तो होता ही है। बेकार की बात हैं ये सब।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories