क्या मात्र आस्था काफी है? || (2020)

Acharya Prashant

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क्या मात्र आस्था काफी है? || (2020)

अर्जुन उवाच अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः। अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।

अर्जुन बोले – हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रध्दा रखने वाला है, किंतु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात् भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक ३७

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, चरणस्पर्श। अध्याय ६ में श्लोक संख्या ३७ से सम्बंधित प्रश्न है। योग के प्रति आस्था बहुत है पर संयम में थोड़ी सी कमी है, तो क्या मुझे भगवत प्राप्ति हो पाएगी? यही मेरे मन में हमेशा से आता रहा है। आपसे मार्गदर्शन चाहूँगा।

आचार्य प्रशांत: उत्तर तो साफ-साफ कृष्ण ने ही दे दिया है न। जब अर्जुन कहते हैं कि योग में श्रध्दा तो है पर संयम नहीं है, तो ऐसों के बारे में क्या कहते हैं कृष्ण?

प्र: “अगर तुम्हारे मन में श्रध्दा है तो तुम्हारी श्रद्धा कभी अपूर्ण नहीं जाएगी। भले इस बार तुम्हें ना हो, अगले जन्म में तुम अच्छी प्रवृत्ति वाले घर में पैदा होओगे, जिसमें तुम्हारा अंतरमन कहेगा कि अच्छी संगति में जाओ।”

मुझे लगता है कि मैं अच्छी संगति के घर में आया हूँ इस बार, और इस जीवन में तो कुछ सार्थक कर पाऊँ।

आचार्य: ऐसों को कृष्ण कहते हैं योगभ्रष्ट। क्या नाम दिया है? योगभ्रष्ट।

समझिएगा, योगभ्रष्ट कौन। योग की राह दुष्कर है। जब आगे बढ़ते हो तो चुनौतियाँ आती हैं, कष्ट आते हैं, पर आगे तुम बढ़ ही क्यों रहे हो? आगे बढ़ इसलिए रहे हो क्योंकि जिस बिंदु पर तुम पहले थे ठहरे हुए, वहाँ अतिशय कष्ट था। अधिकाँश लोग उस कष्ट को मानते ही नहीं, वे उस कष्ट के प्रति प्रस्तुत और संवेदनशील ही नहीं होते; उन्हें यही लग रहा होता है कि वे तो सुख में हैं।

योग की राह पकड़ता ही वही है जो साफ देख ले कि उसकी वर्तमान स्थिति बड़े दुःख की है, बड़ा वियोग है। वियोग होगा तभी तो योग की तरफ बढोगे न? तो वियोग के कारण ही तुम योग की राह में आने वाली सब चुनौतियाँ स्वीकार कर ले जाते हो। तुम कहते हो, “ठीक है, यहाँ दिक़्क़त आ रही है, इस रास्ते पर दिक़्क़त आ रही है सामने। लेकिन यह जो रास्ते की दिक़्क़त है, यह उस दिक़्क़त से तो छोटी ही है जो हमारे सामान्य, साधारण जीवन में हम रोज़ प्रतिपल ही झेल रहे थे।”

तो योगी आगे बढ़ता जाता है, आगे बढ़ता जाता है। आगे बढ़ता जाता है तो उसकी पूर्व अवस्था के दुःख उसको प्रतीत होने लगता है कि कम हो रहे हैं, उसको दिखाई देने लगता है कि उसके बंधन शिथिल पड़ रहे हैं। दुःख कटने लगते हैं तो अनुभव किसका होता है? सुख का। यह योग का समझ लो अंतरिम फल है, राह का फल है। यह फल मंज़िल आने से पहले ही, गन्तव्य से पूर्व ही मिल जाता है।

तुम चले हो हिमालय के शिखर की ओर, यह फल है जो तुम्हें राह में ही मिल गया, और यह फल बड़ा सुखप्रद है। तुम बहुत भूखे थे तभी तो तुमने यह यात्रा शुरू करी थी, और रास्ते में ही क्या मिल गया? फल। तो बड़ा लोभ उठता है कि राह में ही क्यों न रुक जाओ। जब राह में ही इतना सुंदर फल मिल गया तो आगे जाने की ज़रूरत क्या?

व्यक्ति अपनी तुलना अपनी पूर्ववर्ती स्थिति से करता है, कहता है, “हम पहले जैसे थे, उससे तो अच्छी हालत में आ गए न। धन्यवाद है योग का, उसने हमें पहले से कितनी बेहतर स्थिति में पहुँचा दिया।”

किस योग की बात कर रहे हैं अभी यहाँ पर कृष्ण? निष्काम कर्म की, कर्मयोग की बात कर रहे हैं। कृष्ण जब भी कहें ‘योग’, तो समझ लेना कि अर्जुन से बलपूर्वक श्रीकृष्ण कर्मयोग की ही संस्तुति करते हैं।

तो पथिक को रास्ते में रुकने का बड़ा लालच मिलता है। जिसमें यह संयम नहीं कि इतने लालच के सम्मुख भी चलता चला जाए और रुके नहीं, उसको कहते हैं योगभ्रष्ट।

निश्चित रूप से यह व्यक्ति ऐसा है जिसको बंधनों में रहना स्वीकार नहीं, तभी तो इसने यात्रा शुरू करी। नहीं तो जैसे अधिकाँश लोग अपने बंधनों के साथ भी एक समायोजित जीवन बिताते रहते हैं, हँस लेते हैं, मुस्कुराते रहते हैं, वैसे ही यह व्यक्ति भी अपना बंधनों में पड़ा रहता है। यह वैसा तो नहीं है, इसे बंधन तो नहीं स्वीकार; इसने मुक्ति की तरफ, योग की तरफ यात्रा तो शुरू करी है। लेकिन यह इतना धीरज नहीं धर पाया कि सीधे शिखर पर ही जाकर रुके, इसे राह के प्रलोभनों ने लुभा लिया। यह कहलाता है योगभ्रष्ट।

इसी बात को दूसरी जगहों पर दूसरे तरीके से कहा गया है। जिसको मैं कह रहा हूँ राह का मीठा फल, उसे ही स्वर्ग नाम से भी इंगित किया गया है, कि जो लोग योग की राह पर चलते हैं—और योग ही एकमात्र पुण्य है—जो पुण्य की राह पर चलते हैं, उन्हें स्वर्ग मिलता है। स्वर्ग माने सुख। सुख समझ लो कि आख़िरी छल है। स्वर्ग का सुख, माया का आखिरी दाँव है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि “जो निष्काम कर्म करते हैं, अर्जुन, उन्हें सीधे मेरी प्राप्ति होती है। और जो सकाम कर्म, सकाम भक्ति करते हैं, उन्हें भी अपने इष्ट देवी-देवताओं द्वारा प्रदत्त फल की प्राप्ति तो हो ही जाती है।“ कुछ तो उन्हें मिला ही, पर उन्हें शिखर नहीं मिला। उन्हें जो ऊँची-से-ऊँची और आख़िरी वस्तु मिल सकती थी, वह नहीं मिली। वे स्वर्ग पर ही अटक गए। उन्हें देवी-देवता मिल गए, स्वर्ग का सुख मिल गया, पर अंतिम विलय नहीं मिला।

स्वर्ग में भी 'तुम' तो मौजूद हो न? तुम मिट नहीं पाए पूरे तरीके से। जो उत्कर्षतम स्थिति है, वह नहीं पाए तुम, वंचित रह गए; अंतिम आनंद से विमुख ही रह गए। स्वर्ग में भी तुम्हारा अस्तित्व तो बचा रह गया न। हाँ, बड़ा सुखपूर्ण अस्तित्व है, पर अस्तित्व तो अभी है। तो आख़िरी बंधन तो काट नहीं पाए, हस्ती तो तुम्हारी पूरी तरह मिटी नहीं, स्वर्ग का सुख भोगने के लालच में बचे ही रह गए तुम। राह का फल तुम्हें इतना लुभा गया कि तुम उस शिखर तक पहुँचे ही नहीं जहाँ तुम विलुप्त हो जाते, योग हो जाता जहाँ पर। ऐसे को कहते हैं योगभ्रष्ट।

योगभ्रष्ट की स्थिति के बारे में क्या बताते हैं कृष्ण? कहते हैं कि वह खूब सुख भोगता है, खूब सुख भोगता है। सुख-ही-सुख पाता है लेकिन भीतर-ही-भीतर भली-भाँति जानता है कि कुछ-न-कुछ बहुत महत्वपूर्ण है जिससे वह चूक रहा है। सुख तो बहुत मिल रहा है, पर वह नहीं मिल रहा जिसकी उसको गहरी तड़प है। इच्छाएँ सब पूरी हो रही हैं; मुमुक्षा नहीं पूरी हो रही। गतियाँ सब मिल रही है; परमगति नहीं मिल रही।

और जब इस योगभ्रष्ट व्यक्ति को यह दिख जाता है कि ऊँचे-से-ऊँचा सुख भी अंतिम योग के आनंद के समतुल्य नहीं है, तब ये फ़िर और संकल्प के साथ सब फलों इत्यादि को त्यागकर योग की अंतिम गति की ओर बढ़ता है, लेकिन समय गँवाकर, अवसर गँवाकर, मौके को राह के फलों में बिताकर।

जैसे कोई पथिक चला हो प्रेमवश कहीं पहुँचने के लिए, कोई है जो बहुत महत्वपूर्ण है जिससे मिलना अति आवश्यक है, और वह रास्ते में अटक कहाँ गया? मीठे फलों के बाग में। फल तो मीठे मिल जाएँगे उसे, पर थोड़ी ही देर में पछताएगा बहुत। जिससे मिलने को चले थे, उससे मिलने का मौका चूक गए।

सुख भी बहुत बड़ी बाधा है—सुख से बचना। दुःख ने नहीं बाँध रखा हमें। दुःख तो मुक्तिदाता है। जब तुम्हें दुःख होता है, तब तुम अपनी वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए उद्यत हो जाते हो न? कहते हो न कि “बड़ा दुःख लग रहा है, बड़ी पीड़ा है, बड़ी कचोट है, कुछ करना है”? तब तुम बल लगाते हो, बेड़ियाँ तोड़ना चाहते हो। जब सुख मिल जाता है, तब सब ठीक है, जैसा चल रहा है, यही बढ़िया। माया को जब योगी को तोड़ना होता है और वह पाती है कि दुःख तो काम आ ही नहीं रहा, योगी दुःख की चुनौती का सामना करे ले रहा है, तब माया दुःख का प्रयोग नहीं करती, तब माया प्रयोग करती है सुख का। जब तुम्हें दुःख नहीं डिगा पाएगा, तब माया तुम्हें सुख देगी।

सुख ज़्यादा घातक है क्योंकि एक अर्थ में सुख आनंद जैसा प्रतीत होता है। किस अर्थ में? सुख और आनंद दोनों में ही दु:ख की प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं होती। सुख में भी दुःख का अनुभव नहीं होता, आनंद में भी दुःख का अनुभव नहीं होता, तो व्यक्ति को कई बार भ्रम हो जाता है कि सुख ही आनंद है, जबकि सुख आनंद नहीं है।

आनंद तब जब तुम सुख और दुःख दोनों ही अनुभूतियों के पार निकल जाओ, दोनों ही अनुभूतियों को महत्व देना छोड़ दो। दुःख काम नहीं आया तो माया सुख का अस्त्र चलाती है। तुम्हें भ्रम हो जाता है कि तुम जिस आनंद शिखर की ओर जा रहे थे, वह रास्ते में ही मिल गया। तुम कहते हो, “देखो न, ऐसा मीठा फल मिला है, दुःख सब चले गए। ज़रूर यही आनंद है।” वह आनंद नहीं है, वह मात्र सुख है। स्वर्ग तुल्य सुख है पर है सुख ही; मंज़िल अभी नहीं मिली है।

अंततः योगभ्रष्ट को योग की प्राप्ति हो जाती है। पर अंततः तो सभी को योग की प्राप्ति होनी है, अंत में तो कृष्ण ही खड़े हैं जैसे आदि में। तो अंततः क्या होगा? तुम इसकी बात नहीं करो। यह बात करना जीव को शोभा नहीं देता। समय के अंत में तो सभी मुक्त हो जाएँगे। अंत तो सभी का एक ही है, क्या? मुक्ति। तो अंत में मुक्ति मिल जाएगी, यह बात कोई दिलासे की नहीं है।

तुम तो जीव हो, तुम्हें तो यह देखना है कि तुम्हारे पास यह जो जीवन है, तुम इसी में कैसे मुक्ति पा सकते हो। तुम्हें यह नहीं देखना है कि अंततः क्या होगा, क्योंकि जो अंततः की बात करने लगेंगे वे अपने वर्तमान कर्म से और कर्तव्य से मुँह चुराने लगेंगे, वे कहेंगे, “देखो, जल्दी क्या है? आख़िरकार तो सबको योगरूढ़ तो हो ही जाना है। नियति तो सबकी एक ही है न आख़िरी। क्या? मुक्ति। तो जल्दी क्या है? लाखों जन्म पड़े हुए हैं अभी, जल्दी क्या है? इस जन्म में तो चलो इंद्रिय सुख भोगते हैं खूब, आगे कभी-न-कभी तो मुक्ति मिल ही जाएगी। वह बात तो पूर्वनिर्धारित है, तय है। तो जल्दी क्या है?”

अंत की बात कभी मत करना। तुम्हें जल्दी होनी चाहिए—तुम्हारे पास समय सीमित है। मत भूलो कि तुम कौन हो। तुम जीव हो। तुम जीव-भाव में जीते हो इसीलिए तुम जीव हो। आत्मा होकर तो जी ही नहीं रहे न तुम। आत्मा अमर होगी, जीव का समय तो सीमित है न? तो तुम्हें समय की परवाह करनी है, तुम्हें समय फलों का रस लेते हुए नहीं बिता देना है। तुम्हें तो लगातार बिना रुके, बिना डिगे शिखर की ओर ही बढ़ते जाना है। समय बहुत कीमती है।

यह भाव मत बना लेना कि योगभ्रष्ट के तो दोनों हाथों में लड्डू हैं। स्वर्ग का सुख भी मिला, मीठा फल भी मिला और अंततः फ़िर मुक्ति भी मिल गई। नहीं, नहीं, नहीं। यह जो रास्ते का उसने फल चखा, इसकी उसने बड़ी भारी कीमत चुकाई। क्या कीमत चुकाई? बहुत समय गँवाया। तुम्हारे पास और है क्या जीवन में समयरूपी अवसर के सिवा? उसको ही अगर तुमने गँवा दिया तो कौन सी बुद्धिमानी? स्पष्ट है बात?

नर्क से निकल करके कहीं स्वर्ग में मत रुक जाना, कहीं भी ठिकाना मत बना लेना। नर्क में दु:ख बहुत है। बाहर निकलोगे तो अपेक्षतया सुख तो अनुभव होगा ही, वह सुख भी बड़ी चाल है, बड़ा घातक है। बचना है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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