प्रश्नकर्ता: मैं अपनी बाइस साल की बेटी और अठारह साल के बेटे को लेकर बहुत डरा रहता हूँ, पढ़ने में दोनों ही ठीक हैं। पर उनकी बातें, उनका व्यवहार और ज़िन्दगी के प्रति रवैया मुझे साफ़ दिख रहा है कि कुछ बहुत ही गलत हो रहा है, पर क्या गलत हो रहा है पता नहीं, साफ़ पता नहीं चल रहा। मैं जान नहीं पा रहा हूँ। उदाहरण के तौर पर हमारे घर में कोई माँस नहीं खाता है, पर पिछले महीने मेरी बेटी ने अपनी बर्थडे पार्टी पर मुझे बिना बताए माँस और ड्रिंक्स वैगरह खाये-पीये। बेटा न जाने किस बात में, किस भाषा में बात करता है और कहता है कि मुझे ऑस्ट्रेलिया में बसना है, वहीं ऑस्ट्रेलिया में कोई साधारण सा कोर्स करने का पचास लाख रुपया माँग रहा है। पैसा मैं दे सकता हूँ, पर इनकी हालत को लेकर बहुत संशय आता है कि ये कुछ कर भी पाएँगे या नहीं।
आचार्य प्रशांत: ये बात एक पूरी पीढ़ी की ही है। आपके बेटे और बेटी भर की बात नहीं है, एक पूरी पीढ़ी की ही बात है। देखो, आदमी बेहतर तब बनता है, सुधरता तब है जब उसको अपनी कमियों का एहसास होता है। और कमियों का एहसास तब होता है जब उसे दुख मिलता है, तकलीफ़, असफलता, निराशा ये सब। अब ये जो पीढ़ी है जिसका इस शताब्दी में जन्म हुआ है, जो अभी अधिक-से-अधिक बीस-बाईस साल के हैं। इनके साथ एक बड़ी दुखद बात ये हुई है कि इन्हें ये कोई बताने वाला नहीं है कि तुम कितने पानी में हो। मेरा समय था तो जिन बच्चो के नम्बर कम आते थे, उन्हें बुरा लगता था, उन्हें शर्म सी भी आती थी, हमें भी आया करे। और अभी स्थिति ये है कि नम्बर कम आ रहे हों, आप फ़ेल ही हो जा रहे हो तो भी शर्मिंदा होने की कोई ज़रूरत नहीं है।
एक माहौल बनाया गया है कि जिसमें ज्ञान की और सच्ची उपलब्धि की कीमत बहुत कम है। तो ऐसा भी हो सकता है कि जो स्कूल का सबसे बड़ा मूर्ख हो, जो सौ में से दस-बीस नम्बर भी हासिल करने लायक न हो, वो स्कूल का सबसे बड़ा हीरो हो, क्योंकि वो सबसे महँगे जूते और सबसे महँगी घड़ियाँ पहनकर के आता है। तो उसके पास एक स्वैग है, ऐसे कुछ लोग आज से बीस-चालीस साल पहले भी हुआ करते थे हर स्कूल में, हर कॉलेज में, लेकिन उनको बहुत भाव नहीं मिलता था क्योंकि आम रवैया कॉलेज में, स्कूल में सब स्टूडेंट्स का, टीचर्स का ये रहता था कि ऐसे लोगों को तवज्जों नहीं देनी है; आज वैसा नहीं है।
मेहनत और ज्ञान, इनकी कीमत बहुत कम हो गयी है। इनकी जगह कीमत हो गयी है पैसे की, स्टाइल, अन्दाज़ की तो आप असफल हैं, ये आपको पता भी नहीं चलता। आप अज्ञानी हैं इसका आपको कोई दुख भी नहीं होता, आप आलसी है और डरपोक है, इस बात का आपको बुरा भी नहीं लगता। आप कितने भी गिरे हुए इंसान हो सकते हैं, लेकिन अगर आपके पास पैसा है और आप एक शॉपिंग मॉल में जा रहे हो, तो सब आपको ‘सर-सर’ कहकर सम्बोधित करते हैं न?
तो कैपिटल (पूँजी) ने आपको रेस्पेक्टेबल (सम्मानीय) बना दिया। जो इज़्ज़त आप पहले कमाते थे अपनी मेहनत से या अपने ज्ञान से, वो इज़्ज़त आपको अब बहुत अजीब चीज़ों से मिलने लग गयी है।
जो इज़्ज़त आपको पहले मिलती थी क्योंकि या तो आप मेहनती हो या ज्ञानी हो, वो इज़्ज़त अब न जाने किन चीज़ों से मिलने लग गयी है। उदाहरण के लिए, पहले जो कॉलेज का सबसे अच्छा डिबेटर होता था, सब उसका लोहा मानते थे कि साहब, ये डिबेटिंग बहुत अच्छी करता है। और अच्छी डिबेटिंग करने के लिए आपके पास अच्छी भाषा होनी चाहिए और आपके पास बुद्धि होनी चाहिए, और आपके पास नॉलेज होना चाहिए। आज अच्छे डिबेटर से ज़्यादा कीमत रोस्टर (कठोर-फूहड़ आलोचक) की हो गयी है। वो डिबेटिंग नहीं कर सकता पर वो रोस्टिंग कर सकता है। रोस्टिंग के नाम पर वो क्या करता है? उसे ज्ञान नहीं चाहिए, उसे बस फ़ज़ीहत करना आना चाहिए और गाली-गलौज करनी आनी चाहिए, वो कॉलेज का सुपरस्टार हो जाता है। अब सुपरस्टार होने पर जिसका हक है वो हक छिन गया, और सुपरस्टार एक ऐसा बन गया बन्दा जो कौड़ी का है।
आप समझ रहे हो?
तो ये जो मूल्यों का पतन हुआ है, मूल्यों के पतन से जो मेरा मतलब है कि आप गलत चीज़ को कीमत देने लग गये हो। वही चीज़ इस पूरी पीढ़ी में दिखाई दे रही है। मेहनत अब इनके लिए कोई कीमती शब्द रहा ही नहीं है। इन्हें ज़रा भी बुरा नहीं लगता है बाप के पैसों पर अय्याशी करते हुए। और एक ये ऐसी चीज़ थी जो आज से बीस साल पहले तक भी लोग करते हुए थोड़ा झिझकते थे, कहते थे, ‘यार! मैंने तो इसमें कुछ किया नहीं न — कमाया नहीं, अर्जित नहीं किया है तो बाप का है।’
आज बाप के पैसे पर बड़ी गाड़ी लेकर के घुमते हुए आपको लाज थोड़े ही आती है। मतलब क्या है? मतलब ये है कि पैसा कहीं से भी आना चाहिए। जब पैसे कहीं से भी आना चाहिए तो फिर हम कुछ भी कर सकते हैं! सफल होना है बस। और सफलता का मापदंड ये नहीं है कि हमने कुछ ऐसा करके दिखा दिया जो बहुत कम लोग कर सकते हैं। सफलता का मापदंड ये है कि हम ऐसा कुछ करने लग गये जिसमें कंज़म्प्शन के चांसेस बहुत ज़्यादा है, या ऐसा कुछ करने लग गये जिसमें बहुत सारे लोग हमारी वाहवाही कर रहे हैं, या हमें अपने झुंड में, ग्रुप में शामिल कर पा रहे हैं।
आप कह रहे हैं, ‘आपका बेटा है, पचास लाख रुपया माँग रहा है।’ कह रहा है, ‘ऑस्ट्रेलिया में जाकर कोई साधारण सा कोर्स कर लूँगा, वहीं सेटल हो जाऊँगा।’ तो आपका बेटा ये थोड़े ही कह रहा है कि मुझे कुछ ऊँचा हासिल करना है जीवन में। वो यही तो कह रहा है न कि डिग्री गयी भाड़ में, सबकुछ गया। मुझे बस किसी ऐसी जगह पर पहुँच जाने दो जहाँ मैं मज़े ले सकूँ।
ये इस पीढ़ी का आदर्श बन गया है मज़े लेना। और जब मज़े लेना आदर्श हो तो इंसान अन्दर से बिलकुल खोखला हो जाता है। आपकी बेटी भी अगर माँस खा रही है और शराब उड़ा रही है, तो उसकी वजह यही है कि सब यही कर रहे हैं तो मैं भी यही करूँगी। सही क्या है, ये बात कम कीमती है और दोस्तों के ग्रुप में बिलॉंग करना, वो ज़्यादा ज़रूरी है। ये जो वैल्यू-सिस्टम है, उनको कुछ तो समाज से और परिस्थियों से मिला है और बाकी मिला है परिवार से ही।
समझ रहे हो बात को?
अब ये एक भयानक स्थिति पैदा हो गयी है जहाँ पर हम देख रहे हैं कि प्रिविलेज (सुविधा) और प्रोस्पेरिटी (समृद्धि) कितनी पेरीलस (खतरनाक) हो सकती है, सम्पन्नता कितना बड़ा खतरा हो सकती है। हालाँकि ये स्थिति बहुत देर तक चल नहीं सकती है। आपको एक गलत जीवन जीने पर सुख बहुत समय तक मिल नहीं सकता।
कौन आपको रिवॉर्ड करने जा रहा है, कौन आपको बहुत समय तक ढोने जा रहा है अगर आपके पास नॉलेज नहीं है, स्किल नहीं है और मेहनत भी नहीं है? तो देर-सवेर आप ज़मीन पर तो आ ही जाएँगे। लेकिन जब तक आप अय्याशी कर सकते हैं तब तक आप करते रहेंगे, और उसके बाद जब ज़िन्दगी आपको धड़ाम से ज़मीन पर पटकेगी तब तक आप पाएँगे, आपके भीतर वो ताकत ही मिट चुकी है जो आपसे मेहनत करा सकती थी; आपसे मेहनत की भी नहीं जाएगी। फिर आप क्या करेंगे? फिर आप उल्टे-पुल्टे, जायज़-नाजायज़ कुछ भी तरीके लगाएँगे कि किसी तरीके से एक अय्याशी की ज़िन्दगी बस चलती रहे।
तो मटेरियल इतनी ज़ोर से आगे बढ़ा है न कि हमको लगने लगा है कि यही सबकुछ है। एक के बाद एक चीज़ें सामने आती जा रही हैं, नये-नये इन्वेंशन्स (आविष्कार) हैं। मोबाइल फ़ोन देखिए आज से पन्द्रह साल पहले कैसा होता था, आज कैसा है, कम्प्यूटर कैसा होता था, आज कैसा है। दस साल बीतते-न-बीतते आप टू जी (2-G) से फ़ाइव जी (5-G) पर आ गये, वो सबकुछ जो मटेरियली पॉसिबल हो सकता है, जो सुख-सुविधा हमें मिल सकती है वो हमें मिल रही है। तो उस चीज़ ने हम को बिलकुल मंत्रमुग्ध कर दिया है, हमारे होश-ओ-हवास छीन लिये हैं।
जो मटेरियली आप पर बिलकुल चढ़ जाता है तो फिर जो स्पिरिचुअल है, उसकी कोई जगह ही नहीं बचती न ज़िन्दगी में, और हायर-वैल्यूज़ आनी स्पिरिचुअलिटी से ही हैं। जब आपके जीवन से स्पिरिचुअलिटी बिलकुल गायब हो जाती है तो साथ में जितनी भी हायर-वैल्यूज़ होती हैं, वो भी गायब हो जाती हैं। अब डिबेटर से ज़्यादा आकर्षक रोस्टर लगता है, अब गुणों से ज़्यादा आकर्षक रूप लगता है। अब आपको अपने नाकाबिल होने पर शर्म नहीं आती, आप कहते हैं, ‘मैं नाकाबिल हूँ क्या फ़र्क पड़ता है! मैं मज़े कर रहा हूँ न।’ क्योंकि ज़्यादा बड़ी चीज़ ये है ही नहीं कि तुम काबिल हो या नाकाबिल, ज़्यादा बड़ी चीज़ ये है कि तुम मज़े कर रहे हो या नहीं कर रहे हो।
ले-देकर बात इतनी है कि आपको अभी पता ही नहीं कि किस चीज़ को कीमती मानना है, और किस चीज़ को नहीं मानना। आपने सबसे ज़्यादा कीमती मज़े मारने को ही मान लिया है। और अभी मैं देख पा रहा हूँ जो सुन रहे होंगे, वो कह रहे होंगे, ‘तो क्या मज़े नहीं मारने? मज़े मारने में बुराई क्या है?’ क्या बुराई है, ये समझने के लिए आपको थोड़ा सा ज़िन्दगी में उतरना पड़ेगा, थोड़ा आध्यात्मिक होना पड़ेगा। उसके लिए आपको एक नयी शुरुआत करनी पड़ेगी, आपको अब एक वाक्य में नहीं बताया जा सकता कि काबिलियत के बगैर मज़े मारने में बुराई क्या है। और आपके सामने बिलकुल खड़े हो जाएँगे, एकदम बेशर्मी भरा सवाल दाग देंगे, ‘हाँ, मैं काबिल नहीं हूँ पर मैं मज़े मार रहा हूँ, इसमें बुराई क्या है? हाँ, मैं अपने बाप के पैसे पर मज़े मारता हूँ, इसमें बुराई क्या है?’
अभी कुछ दिन पहले एक वीडियो अपना प्रकाशित हुआ जो इसी पर था कि महिलाओं को सम्बोधित करते हुए, कि आप अपने रूप और शरीर के भरोसे ही मत बैठी रहिए, गुण और ज्ञान अर्जित करिए, वही असली सुन्दरता है। तो उस पर बहुत महिलाओं के क्रोधित से जवाब आये। बोलीं, ‘हम सुन्दर हैं अगर और अगर हम अपनी सुन्दरता की कमाई खा रहे हैं, तो उसमें बुराई क्या है?’ बहुत सीधे-सीधे, ‘मैं सुन्दर हूँ और मैं अपना शरीर दिखाकर के पैसे कमाती हूँ, इसमें क्या बुरा है?’
बहुत देर हो गयी न, कैसे समझाएँ कि आपको इसमें क्या बुरा है, ये समझने के लिए इसमें कुछ महीने लगेंगे, थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, कुछ बातों को समझना पड़ेगा। अब आप अचानक से पूछ देंगे कि बाप के पैसों पर अय्याशी करने में क्या बुरा है, या कि सेक्सी बॉडी है तो उसको दिखाकर के मैं पैसे कमाती हूँ तो उसमें बुरा क्या है। तो आपको अचानक से एक वाक्य में नहीं समझाया जा सकता। ये इस पीढ़ी की हालत है।
कुछ हायर होता भी है वो इसका कन्सेप्शन (धारणा) ही खो चुके हैं। सिद्धान्त रूप में भी, इवन कॉन्सेप्चुअली (सैद्धान्तिक तौर पर) उनको ये होश ही नहीं है कि ज़िन्दगी मौज मारने, खाने-पीने से कहीं ज़्यादा ऊपर की चीज़ है, कि हा-हा, हू-हू करने और गाँजा मारने और आउटिंग (पर्यटन) करने, इससे जीवन का काम नहीं चल जाना है। आप इसलिए नहीं पैदा हुए हो, इससे आपको कोई सन्तुष्टि मिलेगी भी नहीं।
वो कहते हैं, ‘पर हमें तो मज़ा आ जाता है।’ ये तर्क है। अब ये समझा पाना कि देखो, इससे जो तुमको मज़ा आता है, वो बहुत नहीं चलता क्योंकि अगले ही वीकेंड में तुम्हें दोबारा यही मज़ा मारना पड़ जाता है। तुम्हें ज़रूरत आ खड़ी होती है कि फिर से मैं धुआँ उड़ाऊँ, मुझे ड्रग्स फिर से चाहिए, शराब फिर से चाहिए।
ये समझा पाने के लिए ज़रूरी है कि पहले कम-से-कम कुछ हफ़्ते तो मिलें उनके साथ, कुछ महीने नहीं तो। पर वो हफ़्ते-महीने मिलेंगे नहीं, क्योंकि जो उनका माहौल है, उनका जो पूरा इको-सिस्टम (पारिस्थितिकी-तन्त्र) वो इस वक्त ब्लॉक्ड है, क्राउडेड है, पूरा भरा हुआ है। उसमें किसी ऊँची बात के लिए कोई जगह ही नहीं है। वो ऊँची बात अगर किसी तरीके से उनके इको-सिस्टम में घुस भी जाए, तो वो इनको इतनी चुभती है कि उसको तुरन्त निकालकर बाहर फेंक देते हैं। कहते हैं, ‘क्यों आ गयी है ये बात?’
तो देखिए, अगर आप वाकई समाधान चाहते हैं तो समाधान तो यही है कि आपको अपने बेटे को, अपनी बेटी को सही संगति देनी होगी। उनको ऊँची आर्ट, ऊँचे लिटरेचर, ऊँचे लोगों के पास ले जाना होगा। और जब तक उनका ऊँचाइयों से परिचय नहीं होता, तब तक तो वो निचली जगह पर ही लोटते रहेंगे, आप उन्हें रोक नहीं पाएँगे।