प्रश्नकर्ता: सर, जैसे-जैसे बड़े होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे उलझनें बढ़ती जा रही हैं। सर, पैसों की दिक्कत हो या कुछ और प्रॉब्लम हो, जैसे-जैसे बड़े होते जा रहे हैं, परेशानियाँ और बढ़ती चली जा रही हैं। तो ऐसा क्या है, जो अब होने लगा है, जो पाँच साल पहले नहीं था? ऐसा क्या बदलाव आ गया है हमारे अंदर कि हम मुश्किलों का सामना ही नहीं कर पाते?
आचार्य प्रशांत: (हँसते हुए) तुम होशियार होते जा रहे हो ज़्यादा, और कोई बात नहीं है!
बच्चा पैदा होता है, छोटा होता है, उसके लिए दुनिया बड़ी सरल होती है। उसने अभी बहुत कुछ सोख नहीं लिया होता है। जैस-जैसे तुम्हारी उम्र बढ़ रही है, अनुभव बढ़ रहा है, तुम यही कर रहे हो कि तुम दुनिया से दुनिया की सारी चालाकियाँ सोखे ले रहे हो। और जो जितनी चालाकियाँ सीख लेगा, वो उतना ज़्यादा कष्ट में, दुविधा में, अंदर बँटा–बँटा सा रहेगा।
जानते हो कैसी-कैसी चालाकियाँ? यह सारी कोशिश जैसे आप कह रहे थे कि “भविष्य के बारे में बहुत सोचते हैं;” यह एक प्रकार की चालाकी ही है कि “भविष्य आए और उससे पहले मैं तैयार रहूँगा। मैं तैयार रहूँगा! देखो, मैंने चाल खेल ली। तुम आए और मैं तैयार बैठा था।" यह काम तो दुश्मनों के साथ किया जाता है ना? जब दो सेनाएं आपस में लड़ती हैं, तो क्या करती हैं? कि “तू आए, तू मुझ पर हमला करे, उससे पहले मैं पूरी तैयारी कर लूँगा और एक पोज़िशन बनाकर बैठ जाऊँगा कि तू आया और मैंने तुझे…?"
प्रश्नकर्ता: जीत लिया।
आचार्य प्रशांत: यही काम तुम भविष्य के साथ करना चाहते हो। बात-बात में जुगत लगाते हो। तुम कह रहे हो “जब पाँच साल पहले जीवन अपेक्षाकृत सरल था। तुम उससे भी पीछे जाओ और पाँच साल पहले जाओ, तुम पाओगे जीवन और सरल था।" जीवन नहीं बदल रहा है, जीवन वही है। यह मत कहो कि जीवन सरल था, यह कहो कि “हम अब उलझे हुए होते जा रहे हैं।"
जीवन तो वैसा ही है जैसा सदा रहा है, तुम उलझते जा रहे हो क्योंकि तुम बहुत होशियार होते जा रहे हो और होशियारी के नाम पर तुमने बस दुनियाभर का कपट सीख लिया है।
बच्चे को देखो ना! वो इतना जानता ही नहीं है – टेढ़ा चलना, जितना तुम अब सीख गए हो। वो सीधी बात को सीधा जानता है। किसी बच्चे को सवाल पूछते देखो, उसकी आँखों की मासूमियत देखो, एक आश्चर्य होता है उसकी आँखों में। और ज़रा-ज़रा सी बात उसको पता नहीं कहाँ पहुँचा देती है! हम वैसे बचे कहाँ हैं? हमें बहुत कुछ पता चल गया है। ज्ञानी बहुत हो गए हैं।
तुम बच्चों को बहुत कम पाओगे कि वो कल की पीड़ा को आज तक आगे लेकर आएं। कभी किसी बच्चे को दौड़ते हुए देखना। वो दौड़ता है, गिर जाता है, चोट लगती है, बहुत ज़ोर-से रोता है और फ़िर…?
प्रश्नकर्ता: उठ जाता है।
आचार्य प्रशांत: पीड़ा इस क्षण की थी, उसको पूरा-पूरा हमने भुगत लिया और फ़िर आगे को चल दिए। अतीत नहीं बचा है।
तुम अब अतीत को लेकर बैठने लग गए हो। भविष्य अतीत की परछाई ही है। बच्चे की जिंदगी में कुछ पाने की ख्वाहिश बहुत कम होती है।
तुम समझना चाहते थे ना कि बच्चे थे तो सहज कैसे थे?
क्योंकि उसके जीवन में बहुत इकट्ठा कर लेने की ख्वाहिश बहुत कम होती है। वो छोटा-सा है, उसने अपना कुछ एक खिलौना पा लिया, जो बहुत बढ़िया है! और हो सकता है कि वो उस खिलौने को भी छोड़कर चल दे। हो गया! जब तक खिलौना सामने है, वही जीवन है उसका। उससे प्यारा उसके लिए कुछ है ही नहीं।
“भविष्य में कुछ बहुत बड़ा अपने लिए इकट्ठा कर लूँगा। ऐसी नौकरी, ऐसा महल, ऐसी कार, ऐसी बीवी।" बच्चे के पास यह सब है ही नहीं। निरर्थक उलझनें उसके पास है ही नहीं। तुम्हारे पास निरर्थक उलझनें एक हज़ार हैं और तुम कहते हो, “भाई, मैं होशियार हूँ ना। मैं प्लैनिंग कर रहा हूँ और नहीं करूँगा तो पता नहीं क्या हो जाएगा।"
एक बात ध्यान से देखना- पूरी दुनिया की ओर देखो, आदमी के अलावा कुछ नहीं है जो तुम्हें दुखी दिखाई देगा। जानवरों को भी कष्ट होता है। उसको चोट लग जाए तो उसे कष्ट होता है, पर उसका कष्ट बच्चे की तरह होता है कि जब तक कष्ट है तो है और जब ठीक हो गया, तो हो गया। अस्तित्व में कुछ भी नहीं है, जो दुखी है। कोई जानवर तुम्हें दुखी नहीं दिखाई देगा। दुखी होगा भी वो, तो एक ही स्थिति में होगा, कि वो आदमी के करीब है। तभी दुखी हो सकता है, वरना वो दुखी नहीं होगा। घास, फूल, पौधे, पत्ते, पत्थर, बादल, तुम्हें कुछ दुखी दिखाई नही देगा! आदमियों में भी तुम्हें बच्चे बहुत दुखी दिखाई नहीं देंगे। व्यक्तियों की सिर्फ़ एक श्रेणी है, जो दुखी होता है – वयस्क इंसान, अडल्ट मैन। सिर्फ़ वो दुखी होता है। उसके अलावा कोई दुखी नहीं होता।
और एक और तथ्य पर भी गौर करो। अडल्ट मैन ही अकेला होता है जो दिमाग बहुत चलाता है। जिसका भेजा हर समय कुछ ना कुछ पका रहा होता है। और अब इन दोनों बातों का संबंध देखो आपस में।
यह जो तुम्हारे खोपड़े का निरंतर चलते रहना है ना – यही उलझाव है। यही तुम्हारा बोझ है। यही तुम्हारा दुख है इसको शांत रहने दो। क्यों इतना चालू होना है?
पर तुमने चालू होने को बड़ी कीमत दे ली है। अभी हम बात कर रहे थे ना “वाट इस इम्पोर्टेन्ट? क्या महत्वपूर्ण है?” तुमने इसका उत्तर खोज लिया है। तुमने इसका उत्तर यह खोजा है कि चालाक होना बड़ा महत्वपूर्ण है। चालू होना चाहिए। और तुम्हारे पास वजहें हैं। तुमने यह देखा कि आस-पास दुनिया में, समाज में, जो लोग चालाक किस्म के हैं वही जीतते हुए नज़र आतें हैं, उन्हीं के पास पैसा है, वही चुनाव जीतते हैं, वही दौड़ में आगे नज़र आतें हैं, तो तुम्हें लगा कि “चालाकी से ही सब कुछ मिलता है, तो मैं भी और चालाक हो जाऊँ।"
मैं तुमसे कह रहा हूँ, सीधे हो जाओ बिल्कुल! बिल्कुल सीधे हो जाओ, सारी चालाकियाँ बिल्कुल छोड़ दो! बिल्कुल सीधे होकर रहो।
अगर तुम्हें यह लगता है कि सीधे होने में कोई नुकसान हो जाएगा तुम्हारा, तो इस बात को ध्यान रखना कि चालाक होकर तुम उससे सौ-गुना ज़्यादा नुकसान भुगत रहे हो।
सीधे होने में हो सकता है तुम्हारा दस रुपए का नुकसान हो जाए, पर चालाक हो कर तुम हजारों-लाखों का नुकसान भुगत रहे हो। बस वो नुकसान तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा, पर भुगत रहे हो और जिस किसी को भी चालाक देखना, जिस किसी की भी आँखों में वो टेढ़ापन देखना, समझ जाना कि यह बहुत नुकसान भुगत रहा होगा, पर इतना मुर्ख है कि उस नुकसान की गिनती भी नहीं कर पाता।
बात समझ रहे हो?
प्रश्नकर्ता: सर, मन शांत रहेगा तो इन्वेन्शन कैसे होगी? कौन करेगा इन्वेन्शन, अगर हम यही सोचते रहे कि जैसे जानवर दुखी नहीं है, तो हम भी दुखी नहीं होंगे?
आचार्य प्रशांत: बेटा तुम्हें क्या लगता है, इन्वेन्शन उन लोगों के द्वारा होती हैं, जिनका मन अशांत होता है? समझो ध्यान से। मैंने कहा था ना कि बच्चे का वंडरमेंट जबरदस्त होता है, जब वो कुछ जानना चाहता है। वैज्ञानिक बच्चे समान ही हो जाता है। तुम तो जानना भी वही सब कुछ चाहते हो जो तुम्हारी चालाकी से निकलता है। तुम्हारे सवाल भी सवाल नहीं होते, वो चालाकियाँ होती हैं। जैसे कोई किसी से पूछे, “और भाई, तू अभी भी बेहोश है क्या?” यह कोई सवाल है? इसका वो क्या जवाब देगा? कहे हाँ, तो माने बेहोश है और कहे ना, तो मतलब पहले बेहोश था!
वैज्ञानिक ऐसे सवाल नहीं पूछता। वैज्ञानिक बच्चे समान ही हो जाता है। बहुत सीधा, निष्कपट। तुमने साइन्स की किताबों में चालाकी देखी है क्या? कि “देखो, यह जो इक्वेशन है ना, अभी इसमें, दो की जगह तीन रख देते हैं। चल यार, क्या फ़र्क पड़ता है? बोल कितना करना है? दो का तीन ही तो करना है ना! कोइफिशियंट ही तो बढ़ाना है बस, एक बढ़ा दे! कल अगर तीन होगा तब उसको दो कर देंगे, ठीक है?” हो गई बड़ी चालाकी! विज्ञान ऐसे चलता है? वहाँ तो बात खरी-खरी होती है। अगर २.२१४ है तो, वो २.२१५ भी नहीं हो सकता। बड़ी सीधी बात है। हाँ या ना?
प्रश्नकर्ता: जी सर।
आचार्य प्रशांत: पर तुमने तो बस गुत्थम-गुत्था होना जाना है, तरकीबें भिड़ाना। और ऐसे लोगों के मन के लिए तुम्हारे मन में बड़ी इज्जत आ गई है जो चालू किस्म के होते हैं। वो सबसे घटिया लोग हैं। उनको इज्जत मत दिया करो! उनके जैसे बनने की कोशिश मत किया करो। वो तो ख़ुद भुगत रहे हैं, वो किसी तरह अपनी ज़िंदगी को ढ़ो रहे हैं और उनकी चालाकी का आलम यह है कि वो तुम्हें यह दिखाएंगे भी नहीं कि वो कितने कष्ट में हैं। पर वो गहरे कष्ट में हैं, बहुत गहरे कष्ट में हैं।
प्रश्नकर्ता: सर, तो फ़िर किया क्या जाए इन चीज़ों से उभरने के लिए?
आचार्य प्रशांत: देखो, अभी जैसे तुम हो, यदि तुम ऐसे ही हो, तो तुम्हें कुछ करने की जरुरत नहीं है। जीवन अपने आप सुलझा हुआ ही रहेगा। सीधे-सीधे एक बात कह रहे हो। मैं तुमसे एक बात कह रहा हूँ, तुम उसको सुन रहे हो। यहाँ पर कोई छल का खेल नहीं चल रहा है कि तुम मेरे साथ कोई साजिश करना चाहते हो या मैं तुम्हारे साथ कोई साजिश करना चाहता हूँ। इसलिए क्योंकि यहाँ पर हम दोनों एक-दूसरे के सामने बिल्कुल खुले हुए हैं, कोई धोखाधड़ी की कोशिश नहीं कर रहे हैं। मामला सामने है, खुल रहा है। जीवन में अगर ऐसे ही तुम रह पाओ, जैसे अभी हो, तो जीवन सुलझा हुआ ही है। तुम्हें कुछ और नहीं करना है। यह मत पूछो कि किया क्या जाए। बस जैसे अभी हो, ऐसे ही रहो। कुछ और हो जाने की कोशिश मत करना।
बच्चे के साथ होता ही यह है कि बच्चे को बता दिया जाता है कि “तुझे कुछ और बन जाना है।" बच्चे को बता दिया जाता है कि “जैसा तू है, अगर ऐसा रहा, तो दुनिया तुझे लूट खाएगी। चल, तू चालाक हो जा।" तुम बच्चे जैसे ही रहो। तुम थोड़े भोले ही रह जाओ। हो सकता है, उसमें थोड़े-बहुत तुम्हें नुकसान हों, पर झेल लो उन नुकसानों को। नुकसान तो होगा, पर जो तुम्हें मिलेगा, वो बहुत कीमती होगा। तो मिला-जुला कर, ख़ूब फ़ायदा ही फ़ायदा होना है। ठीक है?
प्रश्नकर्ता: सर, मगर पाँच साल पहले जब प्रॉब्लम आती थी तो मुझे बुरा नहीं लगता था, कभी डर नहीं लगता था। पर अब उससे एकपर्सेन्ट भी प्रॉब्लम आ जाती है तो सब कुछ बिखरता जाता है मेरे लिए।
आचार्य प्रशांत: क्योंकि तुम प्रॉब्लम के फल के बारे में सोचना शुरू कर देते हो। समस्या अपने आप में कभी बड़ी विकट नहीं होती। समस्या तब भयंकर लगने लगती है जब मन यह सोचता है कि “हाय राम, अब आगे क्या होगा? अगर अब यह हो गया, तो अब भविष्य में क्या हो जाएगा,” तभी जाकर तुम्हें लगता है कि “अब हाँथ-पाँव फूल गए, अब क्या करें?”
बैठे हो परीक्षा देने, कोई बड़ी बात नहीं हो गई कि तुमसे एक सवाल हल नहीं हो रहा। लेकिन मन आगे जाएगा। “यह हल नहीं हुआ तो क्या होगा?” टोटल इतना कम हो जाएगा। टोटल यूनिवर्सिटी की परीक्षा में इतना कम हो जाएगा तो क्या होगा? जो ग्रैन्ड टोटल होगा वो इतना कम हो जाएगा! ग्रैन्ड टोटल कम हुआ तो क्या होगा? जो मेरी अंत में परसेंटेज निकलनी होगी वो इतनी कम हो जाएगी। वो कम हो गई तो क्या होगा? नौकरी नहीं लगेगी। वो नहीं होगा, वो नहीं मिलेगा…..।
आख़िर में तुम्हें यह दिखाई देता है कि बस अब मौत ही सामने खड़ी है और असल में कुछ है नहीं। वो बस एक ज़रा-सा सवाल है! पर मन पता नहीं कहाँ तक जाता है। मत जाने दो ना! “सवाल है भाई, नहीं हो रहा। सवाल है, नहीं हो रहा, बात खत्म”। सवाल हल किया जा सकता है, मन की दौड़ को कहाँ तक हल करोगे? उसको तो बस चुप करा सकते हो।