क्या भावनाएँ बंधन हैं?

Acharya Prashant

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क्या भावनाएँ बंधन हैं?
पुरुषों में महत्त्वाकांक्षा और महिलाओं में भावना, उन्हें कहीं का नहीं छोड़ते। समाज, संस्कार, लोकधर्म और देह, ये सब मिलकर चाहते हैं कि आप अपना पूरा जीवन सिर्फ़ देह के कामों में निकाल दो, कोई भी ऊँचा काम न करो। तुम्हारी भावनाएँ बंधन हैं, गहना मत माना करो उन्हें। संघर्ष करना सीखो, कोई भावनात्मक मजबूरी नहीं होती। 'मैं क्या करूँ, मेरे आँसू निकल जाते हैं।' तो फिर, ‘आँसुओं के साथ सही काम करो।’ बात इसमें नहीं है कि भावना उठी, बात इसमें है कि आपने भावना को समर्थन दे दिया क्या? यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मैं मतलब हमेशा ही भावनाओं में बह जाती हूँ और उससे निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है, तो यही है मेरा क्वेश्चन। सर ऐसा भी होता है कि रात को नींद नहीं आती है मतलब कुछ बातें सोच-सोचकर।

आचार्य प्रशांत: रात को नींद न आना तो, ये कोई...

प्रश्नकर्ता: सर, वो भावनाएँ इतनी हेवी (भारी) हो जाती हैं मेरे ऊपर।

आचार्य प्रशांत: आपकी क्या उम्र हो गई?

प्रश्नकर्ता: सर ट्वेंटी-सिक्स (छब्बीस)।

आचार्य प्रशांत: जो भी भावनाएँ आ रही हैं, पहली बार तो आ नहीं रही होंगी न। है न? भाई, भीतर कोई बैठा है उसे पहली बार कुछ अनुभव हो रहा है, तो हम कह सकते हैं कि नई बात है। और नई बात है तो प्रयोग कर लेना चाहिए, उसका कोई उपाय या विकल्प भी नहीं होता। पर वही-वही भावनाएँ घूम-फिरकर के बार-बार आएं और उन भावनाओं पर आपने चलकर भी देख रखा है, आज़मा भी रखा है और उसके बाद भी आप उनको महत्त्व दें तो फिर यहाँ समस्या स्मृति की है एक तरह से। याद कर लिया करिए न। क्या बोलते हैं उपनिषद् याद करने के बारे में?

प्रश्नकर्ता: “कृतं स्मर।”

आचार्य प्रशांत: "कृतं स्मर, क्रतो स्मर।" कुछ भी ऐसा नहीं है जो शारीरिक है, सामाजिक है या सांसारिक है जो नया हो, एकदम भी नहीं है। आपने कभी सोचा है आपको बचपन में इतिहास क्यों पढ़ाया गया? या कम-से-कम आठवीं तक तो इतिहास सभी पढ़ते हैं, दसवीं तक। और बहुत लोग हैं जो फिर आगे बढ़कर के पीएचडी, पोस्ट डॉक्टरेट भी करते हैं। इतिहास इतना महत्त्वपूर्ण विषय क्यों है? क्यों पढ़े उनके बारे में जो मर गए, गर्क हो गए, कब्रों में हैं? धूल क्यों फांकनी है इतिहास की? क्या वजह है?

जो भावना आपको आ रही है न, उनको भी आई थी। तो उस भावना से क्या होता है ये जानने के लिए इतिहास पढ़ा जाता है। नहीं तो हमें बस किसी की महानता के नारे थोड़ी लगाने हैं कि अशोक महान और अकबर महान, तो हम इतिहास पढ़ रहे हैं ताकि बोलें, 'ये महान था, वो महान था, उसने ये लड़ाई लड़ी।' लड़ी होगी लड़ाई, हम भी तो लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं। आप यही जानने के लिए उनकी लड़ाइयाँ पढ़ते हो ताकि आप अपनी लड़ाइयों को भी सही परिप्रेक्ष्य में देख पाओ, पर्सपेक्टिव।

आप जो भी आज लड़ाई लड़ रहे हो, पहले बहुत लोग लड़ चुके। आप जो भी अनुभव कर रहे हो, जो भी आपकी भावनाएँ हैं वो सब न जाने कितनों को हो चुकी और आपके पास एक ही जन्म है।

ये जन्म तो छोटा पड़ जाएगा न, हर फालतू की राह पर चलने के लिए। इसलिए इतिहास पढ़ाया जाता है ताकि दूसरों के अनुभव से सीख सको। दूसरों के अनुभव दूसरों के नहीं होते वो समूची मानवता के होते हैं, क्योंकि आपके भीतर भी बिल्कुल वही वृत्तियाँ हैं जो इतिहास में आज तक किसी के भीतर थीं।

उस दिन हम कह रहे थे वर्ड्सवर्थ की उक्ति है, 'चाइल्ड इज़ द फ़ादर ऑफ़ मैन' (बच्चा ही मनुष्य का पिता होता है)। मैं उसको थोड़ा बढ़ाना चाहूँगा, 'द एनिमल इज़ द फ़ादर ऑफ़ द चाइल्ड' (जानवर बच्चे का पिता होता है)।

बच्चे को देखो तो पता चल जाता है कि ये बड़े लोग जो उधम करते हैं उसका स्रोत क्या है। सारा स्रोत बच्चे में पहले ही मौजूद होता है बीज रूप में, और बच्चा जो कुछ कर रहा है उसको अगर समझना है तो पशुओं को देख लो। अर्थ ये हुआ कि पशुओं को देखकर भी पता चल सकता है कि हमारे क्रियाकलापों का, उद्देश्यों का, प्रेरणाओं का, कर्मों का, भावनाओं का स्रोत क्या है। स्रोत ये शरीर है।

तो इतिहास को देख लो, चाहे बच्चों को देख लो, चाहे पशुओं को देख लो, मात्र एक दोहराव दिखाई पड़ता है। क्या दिखाई पड़ता है?

प्रश्नकर्ता: दोहराव।

आचार्य प्रशांत: दोहराव! वही-वही तो है जो हो रहा है लगातार। आपकी बड़ी भारी इमारत खड़ी हो रही है, न जाने कितनी मंज़िलों का घर और सड़क के उस तरफ़ आपने निर्माण का कुछ सामान रखा हुआ है। ठीक है न?

बढ़िया पत्थर मँगवाए हैं आपने कि घर में लगवाऊँगा और आप कह रहे हो कि ये चीज़ खराब हो गई है, वो चीज़ खराब हो गई है। वहाँ पर कुछ सरिया रखा होता है, यही सब तो रखा होता है — रेत पड़ी होती है यही और तभी एक कुत्ता उठ आता है और (पैर उठाकर पेशाब करने का इशारा करते हुए), और आप कहते हो, 'भक्क! पत्थर मारो इसको!' गॉर्ड को बोलते हो, 'सोता रहता है? कुत्ता मूत गया!'

वो कुत्ता बिल्कुल वही कर रहा है जो आप कर रहे हो, वो भी घर बना रहा है। कुत्ता किसी भी जगह जाकर के पेशाब क्यों करता है? वो उसका टेरिटरी मार्कर (क्षेत्र का अंकन करना) है ताकि दूसरे कुत्तों को उसकी गंध से पता चल जाए, 'भाई, यहाँ नहीं आना, ये मेरा इलाका है।' इसीलिए कुत्ते जगह-जगह पर खंभे हो गए, टायर हो गए, इधर-उधर जाकर पेशाब करते रहते हैं। वो एक तरह से अपना नक्शा बना रहे होते हैं। 'भाई, ये मेरा देश है। कोई और भीतर आएगा तो मैं भौंकूँगा।'

तुम भी तो यही कर रहे हो। तुम अपना इलाका बना रहे हो। कुत्ते ने भी इलाका बना दिया, तुम कह रहे हो, 'कुत्ता कहीं का! पत्थर मारो!' कुत्ते को देखकर पता चल जाएगा अपना। हम इतना कुछ देखकर भी अपनी भावनाओं की हकीकत नहीं जान पाते क्या? और मैं कह रहा हूँ कि जो अभी छः साल का है उसकी माफ़ी है, छब्बीस साल वाला? (सभी हँसते हैं) मजबूरी नहीं है, मौज है। मौज को मजबूरी बता रही हैं। आँखें बंद करके, 'आह-आह!' क्या कर रही? 'भावना! महसूस कर रही हूँ, महसूस।'

अब देखो, मुझसे पूछा है तो मैं उल्टा-पुल्टा तो बोलूँगा, मेरा काम है। इसी नाते मुझे आचार्य वगैरह बोलकर के तुम जलील करते हो। और मुझसे कोई सवाल पूछने क्यों आता है? जिसका भेजा आउट होता है, जिसे पीठ में खुजली हो रही होती है कि कोई दो-चार लगा दे, मैं उनकी सेवा हेतु उपलब्ध रहता हूँ। कोई भी सुलझे हुए मन का आदमी तो आएगा नहीं मुझसे सवाल पूछने; आज तक हुआ है? एड़े, खिसके, उल्टे, ऐसे ही आते हैं! ये आपकी तारीफ़ की है मैंने? आप हँस क्यों रहे हो इतना? समझ में आ रही है बात?

तुम्हारे बारे में जब कुछ मौलिक है ही नहीं, नया, यूनीक, ओरिजिनल, नूतन है ही नहीं तो तुम उलझे किस चीज़ में हुए हो?

इसमें करेंट आ रहा है। बताया था उसने, ‘इधर छू मत देना। अरे, सही बता रहा हूँ!’ और ये उसको ज्ञान दिया और खुद जाकर के धीरे से (तार पर पैर रखते हुए) वो भी उतार के (जूते उतारने का इशारा करते हुए), पूरा आनंद नहीं आएगा न बीच में इंसुलेटर आ गया तो, तो उतारकर ऐसे, 'आह!' ऑर्गैज़मिक प्लेज़र ! एक बार कर लिया? उसके बाद जब हिल-हुला गए पूरा तो कह रहे, 'आ-रा-रा-रा-रा-रा, आचार्य जी!'

उसके बाद फिर धीरे से वापस जाकर के जूता भी उतार दिया, कपड़े भी उतार दिए और फिर, 'हू-ला-ला-ला-ला-ला, हू-ला-ला-ला-ला-ला!' (काँपने का अभिनय करते हुए) अब इसमें मैं क्या कर सकता हूँ? ये मजबूरी है कि मौज है?

श्रोतागण: मौज।

आचार्य प्रशांत: ये मौज है। तुम किसी अनुभव को दोहराना चाह रहे हो, इसी को प्लेज़र बोलते हैं। जॉय में और प्लेज़र में यही मूलभूत अंतर होता है भाई। आनंद सर्वथा नया होता है और वो किसी अनुभव का नाम नहीं होता। और जिसको आप प्लेज़र बोलते हो वो सदा पुराना होता है, वरना आप उसकी कल्पना ही नहीं कर पाते।

जब आप भावना में बहते हो तो कोई कल्पना रहती है न दिमाग में। क्या कल्पना स्मृति के बिना हो भी सकती है? सोचकर बताओ। हम कई बार कहते हैं, 'मैं नई चीज़ की कल्पना कर रहा हूँ।' नहीं हो सकता। आप जिसको नई चीज़ की कल्पना कहते हो, वो भी कहीं-न-कहीं पुरानी स्मृतियों या अनुभवों पर आश्रित होती है। और वो जो अनुभव है बहुत बार ले चुके हो ये हु-ला-ला-ला।

बार-बार क्यों लेना है? क्यों? इसलिए लेना है क्योंकि झटके के साथ-साथ मौज भी तो आती है। आकर मुझे झटका बता देते हो, मौज छुपा जाते हो। मुझे बड़ी तकलीफ़ रहती है। मैं कहता हूँ, 'मुझे बिल्कुल गटर बना रखा है।' सारा अपना मैला आकर मुझ में उड़ेल देते हो, और जब मौज कर रहे होते हो तब कहीं आचार्य जी नहीं होते। और वही मौज आपको बार-बार दोहरानी है, बार-बार दोहरानी है।

उपनिषद् बार-बार बोल रहे हैं, "कृतं स्मर," 'अपने किए को याद कर, यार।' इसलिए नहीं बोल रहे कि तुझे ग्लानि-भाव उठे या पाप उठे। इसलिए बोल रहे हैं ताकि दोहराओ नहीं।

जो बात उपनिषद् बोल रहे हैं उसी उद्देश्य से शिक्षण व्यवस्था में मैंने कहा, ‘आपको इतिहास भी पढ़ाया जाता है ताकि दोहराओ नहीं।’ अन्यथा प्रकृति मात्र क्या है एक?

श्रोतागण: दोहराव।

आचार्य प्रशांत: दोहराव। हम बोल देते हैं, ‘नदी है।’ वो भी पूरी बात नहीं होती। वो नदी नहीं है वो जो पूरा वाॅटर साइकिल है, वो है जिसमें नदी भी बस एक हिस्सा है छोटा। अगर आपको प्रकृति को नदी भी बोलना है न तो ऐसे बोलो कि ऐसे नदी बहती है, सागर में जाता है पानी, भाप, बादल, वर्षा, बर्फ़, नदी। प्रकृति मात्र एक दोहराव है। कुछ नया तो कर ही नहीं रहे न। एक बार उस साइकिल से आप गुज़र लिए अब दोबारा क्यों गुज़र रहे हो? क्यों गुज़र रहे हो? क्योंकि अब बात मूल्य की आ जाती है।

ये यहाँ पर आकर के जो प्लेज़र मिलता है, हम उसको इतना महत्त्व दे देते हैं कि फिर उससे जो फिर आगे जाकर के पूरा जोड़-जोड़, हाड़-हाड़ काँपेगा, उस वक्त हम उसको; वही जैसे पानी पूरी जब खाते हो, 'भैया, थोड़ा सा और सौंठ वाला देना भैया! सौंठ वाली भैया, थोड़ा सा मिर्च डालकर देना भैया!' उसके बाद जाकर रॉकेट बन गई। ‘हाय-हाय, हाय-हाय!’

समस्या ये नहीं है कि भाया ने सौंठ ज़्यादा डाल दी, समस्या ये भी नहीं है कि एक बार रॉकेट बने, समस्या ये है कि अगले दिन जाकर फिर वही करना। अब इसका कोई इलाज नहीं होता। इसका कोई इलाज नहीं होता। प्लेज़र के नाम पर अनुभवों को दोहराने के अलावा हम और क्या करते हैं। कभी कोई अनुभव हुआ था वही हमारे लिए आगत सुख की कल्पना बन जाता है। या कभी कुछ देख लिया, सुन लिया वही हमारे लिए भविष्य का सपना बन जाता है।

आप भावनाओं में नहीं बह रहे हो, आप कामनाओं में बह रहे हो। भावना नहीं बहा सकती। भावना को तो ऐसे मानो जैसे डकार, शारीरिक प्रक्रिया भर है। भावना कहाँ से आती है? डकार की तरह शरीर से आती है। हमने तो नहीं सुना, कोई सवाल पूछे, अगला सवाल यही होगा शायद आज का! 'आचार्य जी, मैं डकार में बह जाती हूँ।' हमने तो किसी को डकार में या साँस मारने में या पाद मारने में बहते नहीं सुना।

ऐसा होता है? कोई बहता है कभी? या ये भी हो कि दस्त लगे हुए हैं तो मैं बह गई! वो भी नहीं होता। ये भी बिल्कुल वैसे ही है जैसे हम बाकी द्रव्यों की बात कर रहे हैं न, फ़्लूइड्स (तरल पदार्थ) की। तो वैसे ही ये भी हाॅर्मोन्स, ये भी फ्लूइड ही होते हैं भीतर और वही भावना बनते हैं। वो आपको कैसे बहा सकते हैं?

बहाती आपको कामना है और कामना के पीछे क्या होता है? ज्ञान का अभाव या झूठा ज्ञान। झूठा ज्ञान अपने पैरों पर नहीं खड़ा रहता। झूठा ज्ञान खड़ा रहता है कामना के भरोसे पर, 'मुझे कुछ मिलेगा, मुझे कुछ मिलेगा, मुझे कुछ मिलेगा!' स्वार्थ इतना भारी हो जाता है कि वो आपको सच्चाई देखने नहीं देता। आप अपने में रहते हो, 'नहीं, मैं तो मैं जानता हूँ, मेरा ऐसा, मेरा वैसा है मेरा, आइ नो (मुझे पता है), आइ नो।' तथ्य आपके सामने खड़े होते हैं मुँह फाड़कर के, 'देखो हमें।' देखने से इनकार कर देते हो।

बात समझ रहे हो?

कोई न कहे कि मैं इमोशनल ज़्यादा हूँ, मेरा तो नेचर है न इमोशनल। नेचर माने प्रकृति नहीं होता। नेचर माने क्या होता है? स्वभाव। और स्वभाव आत्मा है। 'नहीं, मैं न नेचर से थोड़ी सेंटी (भावुक) हूँ!' हे! 'नहीं वो हैं न वो नुन्नू के पापा, वो नेचर से ही थोड़े कमीने हैं!' नेचर नहीं होता किसी का कमीना — या तो प्रकृति होगी या संस्कार होंगे, स्वभाव नहीं। अंतर करना सीखना पड़ेगा, स्वभाव में और प्रकृति में अंतर।

प्रकृति से कोई क्रोधी हो सकता है, स्वभाव से कोई क्रोधी नहीं हो सकता। संस्कार से कोई अमीर हो सकता है, हिंदू हो सकता है, मुसलमान हो सकता है, अंधविश्वासी हो सकता है, स्वभाव से कोई अंधविश्वासी नहीं होता।

'उनका न नेचर ही थोड़ा सुपरस्टिश्यस (अंधविश्वासी) है। वो पाँच लाख का वो टैरो (ज्योतिष की एक विद्या) करा कर लाए थे।' कुछ समझ में आ रही है बात ये?

ये कहना भी एक तरह की सफ़ाई बन जाती है, डिफेंस (बचाव) बन जाता है कि मैं क्या करूँ, मेरा तो नेचर ही ऐसा है। 'मैं क्या करूँ, बीइंग अ वुमन यू नो आइ ऐम इमोशनल (औरत होने के नाते मैं भावुक हूँ)' और इसी बात को फिर महिलाओं के खिलाफ़ देखो कितना इस्तेमाल किया जाता है। 'ये बड़े काम नहीं कर सकती, ये तो इमोशनल ज़्यादा होती है न और बड़े कामों में निर्ममता चाहिए होती है, औरत कैसे करेगी?'

प्रकृति हो सकती है, स्वभाव नहीं। प्रकृति नहीं चढ़ सकती आपके ऊपर बिना आपकी आज्ञा के। आज्ञा भी नहीं, स्वार्थ के। जब आपका स्वार्थ होता है न तो आप प्रकृति के बहावों के साथ जुड़ जाते हो। भावना में आप नहीं बह रहे हो, भावना में आप स्वार्थ देख रहे हो इसीलिए भावना को अनुमति दे रहे हो सर पर चढ़ जाने की।

क्रोध नहीं आ रहा आपको, लोग कहते हैं, 'मुझे क्रोध बहुत आता है, क्रोध बहुत आता है,' अह छी! क्रोध बहुत आता है! जाकर के रिक्शे वाले को मार दिया गाड़ी से या आपकी गाड़ी खड़ी थी, पीछे से आकर रिक्शे वाला उसने ज़रा बंपर छुआ दिया अपने टायर से। 'हो...लू-लू-लू-लू, मार दूँगा, कतल कर दूँगा, गर्क कर दूँगा!' करते हो न? करते हो न भाई, क्रोधी हो? कोई पूछे, ‘क्यों किया?’ 'यू नो, (आप तो जानते हैं) वो तो नेचर से ही एंग्री (क्रोधी) हैं।'

अच्छा! बैठे हुए थे खड़ी गाड़ी में पीछे से भड़ाम से पड़ा, हाय-हाय! पूरा उछल गए। उतरे तो देखे पीछे नेताजी की गाड़ी है और पाँच एस्कर्ट व्हीकल्स (अनुरक्षण वाहन) हैं उनके साथ, और वाइ-क्लास सिक्योरिटी (वाइ-श्रेणी सुरक्षा, जिसमें आठ सुरक्षा कर्मी होते हैं) है, काले कपड़ों वाले कमांडो हैं और उन्होंने, रिक्शा वाले ने तो बस बंपर छू दिया था तुम्हारा, नेताजी ने बंपर उड़ा ही दिया है। दिखाओ गुस्सा! तुम्हारा तो नेचर ही है न, एंग्री नेचर के हो न तुम, तुम्हारी फ़ीलिंग्स बहुत जल्दी एक्साइट हो जाती है न। अब फ़ीलिंग्स एक्साइट क्यों नहीं हो रही है? जाओ, नेताजी को वैसे ही गाली दो जैसे रिक्शे वाले को दी थी, जाओ। बात फ़ीलिंग्स की थी या स्वार्थ की?

श्रोतागण: स्वार्थ।

आचार्य प्रशांत: एंगर था या कैलकुलेटेड एंगर (नपा-तुला क्रोध) था?

श्रोतागण: कैलकुलेटेड एंगर।

आचार्य प्रशांत: जे इच्च बात है! कुछ नहीं होता। जहाँ स्वार्थ होता है वहाँ सारी फ़ीलिंग्स आ जाती हैं, फ़ीलिंग्स का बहाना मत लो, स्वार्थ है। नेताजी पर किसी को गुस्सा नहीं आता। 'मैं कह रहा हूँ, थप्पड़ मार दूँगा तुझे!' ये तभी कहते हो न जब रिश्ता थोड़ा जम जाता है, जब पता होता है कि सामने वाला अब रिश्ता तोड़कर भाग नहीं सकता। जब रिश्ते की शुरुआत कर रहे होते हो पहली डेट पर, किसने बोला है, 'बोल रहा हूँ, थप्पड़ मार दूँगा तुझे!' बोला है?

अरे! भैया, आप लोग तो टिंडर, बंबल (ऑनलाइन डेटिंग प्लैटफ़ाॅर्म) वाले लोग हो, बताओ न? कौन अपनी प्रोफ़ाइल में लिखता है, 'मैं पहली डेट पर थप्पड़ मारता हूँ?' किसने लिखा है? लेकिन यही जब रिश्ता दो महीने, आठ महीने या पाँच साल पुराना हो जाता है तो थप्पड़ की धमकी ही नहीं दी जाती, थप्पड़ भी दिया जाता है। बात नेचर की है या?

श्रोतागण: स्वार्थ है।

आचार्य प्रशांत: तो महिलाएँ इमोशनल होती हैं, ये नेचर है या स्वार्थ है?

श्रोतागण: स्वार्थ।

आचार्य प्रशांत: स्वार्थ है। कोई नहीं इमोशनल है, कोई फ़ीलिंग्स की बात नहीं है, कोई भावनाओं में नहीं बह रहा। जितनी बार ये हो न कि भावनाओं में बह रहे, अपना फिर वही, मेरा सड़ा हुआ चुटकुला याद रखिएगा, 'जब मैं पाद में नहीं बहती तो भावनाओं में क्यों बह रही हूँ? हैं तो दोनों शारीरिक प्रवाह ही और अगर भावनाओं में बहना ही है तो जितने तरह के प्रवाह होते हैं, मैं सबमें बहूँगी!' बहिएगा और वीडियो बनाकर डाल भी दीजिएगा, हमारा भी कुछ शिक्षण हो जाएगा। नई चीज़ सीखेंगे कि कैसे भावनाएँ या कोई भी और चीज़ खुद-ब-खुद बहा सकती है।

कुछ आपको बहा नहीं सकता, आपकी अनुमति रहती है, आपका पूरा सहयोग रहता है, बल्कि आपका आग्रह रहता है। आप चाहते हो इसलिए होता है।

आप चाहते हो इसीलिए गुस्सा चढ़ता है। कामवासना को सबसे बड़ी अंधी ताकत माना जाता है। 'चढ़ जाती है, कामवासना चढ़ जाती है, कामवासना चढ़ जाती है!' देश की प्रधानमंत्री हो कोई महिला, कामवासना चढ़ाकर दिखाओ। दिखाओ! कोई बॉस हो आपकी, वो भी तेज़-तर्रार और वो आपकी खबर ले रही है। वो कुर्सी पर बैठी हुई है, सामने चौड़ी अथॉरिटी (अधिकार) वाली मेज़ है और उसके सामने खड़े हो, काम नहीं किया है और वो आपकी इज़्ज़त उतार रही है, दिखाओ कामवासना, दिखाओ न। कामवासना भी चुनाव होता है।

कुछ भी नेचुरली अपने आप नहीं हो रहा। इसको स्वभाव या नेचर तो बोल ही मत देना। वेदांत किसी भी तरह की मजबूरी में बिल्कुल नहीं मानेगा। आप कहोगे, ‘भावनात्मक मजबूरी है।’ माना ही नहीं जाएगा। कोई भावनात्मक मजबूरी नहीं है। 'मैं क्या करूँ, मेरे आँसू निकल जाते हैं।' तो मैं बोलता हूँ, ‘आँसुओं के साथ सही काम करो।’ मजबूरी अभी भी नहीं है। हाँ! आँसू मैं मान सकता हूँ, मेरे भी निकल जाते हैं। बताया तो था अभी वो पिक्चर देखने गया था, बिना बात के मैं रोने लगा, बीस मिनट तक रोता ही गया, तो? ऐसा थोड़ी है कि रो रहा हूँ तो काम नहीं करूँगा। काम कर रहा हूँ।

बात इसमें नहीं है कि भावना उठी, बात इसमें है कि आपने भावना को समर्थन दे दिया क्या? समर्थन नहीं देना है, याद रखना है, "कृतं स्मर।" याद रखना है कि ये मेरे साथ नहीं हो रहा, "पहला नशा, पहला खुमार।" न पहला नशा है न पहला खुमार है, मुझसे पहले न जाने कितनों को हो चुका था। मैं ही हूँ इसी से प्रमाण मिलता है कि कम-से-कम मेरे माँ-बाप को तो हुआ ही था। इनको न हुआ होता तो मैं कहाँ से आती?

तो फिर मैं पहला नशा, पहला खुमार कैसे बोल सकती हूँ? मेरी हस्ती ही प्रमाण है इस बात का कि मामला पहला नहीं है, पर सबको यही लगता है कि हमारा तो पहला है और जैसा हमारा है वैसा किसी और का नहीं है। जैसा हमारा है बिल्कुल वो नहीं। हर माँ को अपना लल्ला ऐसे ही लगता है बस हो गया। सुना है वो ‘ज़ू-ज़ू,ज़ू-ज़ू-ज़ू’? वो क्या बोलती है उसमें? हाँ?

प्रश्नकर्ता: यशोदा का नंदलाला।

आचार्य प्रशांत: “जग से न्यारा, जग से न्यारा है। यशोदा का नंदलाला तो बस बृज का दुलारा है।” उन्होंने श्रीकृष्ण को भी पीछे छोड़ दिया। ये मम्मियों के काम हैं और पता नहीं कैसे वो साँप को ‘ज़ू-ज़ू,ज़ू-ज़ू-ज़ू’ ऐसे कर रही है। अरे! मैं गायिका से पहले ही माफ़ी माँग रहा हूँ। बहुत सुंदर गाना है, मेरे घर में भी खूब चला करता था, मैंने भी खूब उसका रस लिया है।

पर अभी कुछ समझाने के लिए बोल रहा हूँ, बोलों पर ध्यान दीजिए। क्या बोल हैं? "यशोदा का नंदलाला बृज का उजाला है, मेरे लाल से तो सारा जग झिलमिलाए," मेरा लाल कृष्ण से भी ऊपर का है! स्वार्थ है तुम्हारा तुम्हारे लाल से।

श्रीकृष्ण के साथ जो मिलेगा वो आप देख नहीं पा रहे हो, तो अपने लाल पर लगे हुए हो, 'मेरा लाल, मेरा लाल, मेरा लाल!' अरे! तुम्हारा क्या लाल! सबका लाल होता है, फिर लाल-पीले हो जाते हो। आप दुःसाहस देखिए न। "यशोदा का नंदलाला, मेरे लाल से तो!" तुम्हारा तो लोकलाइज़्ड (स्थानीय) है मामला—बृज। मेरा इंटरनेशनल है, ग्लोबल (वैश्विक) है, ग्रीन कार्ड (अमरीकी सरकार द्वारा जारी किया जाने वाला स्थायी निवासी दस्तावेज़) वाला है।

तुम्हारे नंदलाले ने यशोदा कोई भी लीला अमेरिका में की थी? मेरा वाला सिलिकॉन वैली (अमरीका के कैलिफ़ोर्निया राज्य का एक प्रमुख तकनीकी हब) जाएगा, मैं अभी से उसे प्रोग्रामिंग की क्लास कराएगी।'

ये भावना नहीं है। क्या है? स्वार्थ है। कोई न कहे कि भावनाओं में बह जाती हूँ। स्वार्थ में बह जाते हो और स्वार्थ से बचना है तो ये देख लो कि ऐसी स्वार्थपूर्ति का यत्न आपने पिछले एक लाख साल में दस लाख बार किया है और हर बार मुँह की खाई है।

अपनी भावनाओं को समझना है तो किसी पशु को देख लो। अपनी भावनाओं को समझना है तो पड़ोसी को देख लो। वो भी वही कर रहा है जो तुमने किया है और तुमसे दस साल आगे है। तुम्हारा भी वही होना है जो उसका हुआ है।

उसको देखकर अपनी ज़िंदगी नहीं समझ में आती? तुम उसी राह पर चल रहे हो जिस पर न जाने कितने मुसाफ़िर जा चुके हैं, तो देखो वो कहाँ पहुँचे। तुम भी वहीं पहुँचोगे।

तुम उनके ही राह पर चलना चाहते हो पर तुम्हारी आशा ये है कि तुम्हारी मंज़िल दूसरी हो जाए। कभी होगा ऐसा? कभी होगा? देखो उन सबको जिन्होंने शरीर के रास्ते स्वीकार किए और उनका हश्र देखो, वही हश्र तुम्हारा होगा। पर तुम चाह रहे हो कि नहीं, शरीर के रास्तों के जो मज़े मिलते हैं, ये वाला हू-ला-ला-ला-ला, ये भी ले लूँ और फिर जो जीवन की उच्चतम प्राप्तियाँ हो सकती हैं वो भी हो जाएँ। होगा कभी ऐसा? आज तक किसी के साथ हुआ? तुम अपवाद हो? तुम कौन हो? जो भी अपने साथ हो रहा हो, देखो कि सबके साथ हुआ और सबने मुँह की खाई।

बड़ी दीदी की हो चुकी है और रोज़ पिटती है और पापा शादी के पाँच साल बाद भी अभी दहेज दिए ही जा रहे हैं, पर छुटिया मचली जा रही है, 'मेरी भी करवा दो न! नहीं मेरा वाला ऐसा नहीं आएगा। मेरा तो उस पर आएगा, सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर के वो।' घोड़े को तो छोड़ो सबसे पहले, मामला एनिमल राइट्स (पशु अधिकार) का है। और जो तेरा वाला है न सड़े रिक्शे पर भी नहीं आएगा। और चाहे पर आए वो, व्हाइट मर्सिडीज़ में भी आ जाए तो भी पीटेगी तू भी वैसे जैसे दीदी पिट रही है, क्योंकि तू उसी राह पर चल रही है जिस पर वो चली।

होशियार होने का मतलब ही होता है कि क्यों अपनी ज़िंदगी तबाह करनी है, दूसरों के अनुभवों से सीख लो न और अगर दूसरों के अनुभव नहीं दिख रहे तो पूरा इतिहास और समष्टि उपलब्ध है, उससे सीख लो न।

टिंकू भैया हमारे आदर्श हैं। उम्र में छ:-सात साल जो बड़ा होता है न, अक्सर हम उसके फ़ैन हो जाते हैं, बचपन में ऐसा होता है। 'मुझे मेरी पहली पॉर्न टिंकू भैया ने दिखाई थी तो टिंकू भाई के लिए मेरे मन में बेइंतहाँ इज़्ज़त है। इन्होंने ही मेरे को बच्चे से जवान किया कई तरीकों से।' तो कायदे की बात पर ध्यान रखा करो।

ये मैं परीक्षा लेता हूँ कि कौन-कौन बहक जाएगा। टिंकू भैया तुम्हारे रोल मॉडल। और दिख नहीं रहा टिंकू भैया की ज़िंदगी बर्बाद है? तो अब तुम उन्हीं पदचिह्नों पर क्यों चलना चाहते हो? कम-से-कम अब तो रास्ता बदल दो अपना। आप सबकी ज़िंदगी में कोई-न-कोई टिंकू भैया होगा ज़रूर जो ऐसा लगता है भाई-भाई-भाई। गौर से उसकी ज़िंदगी को देखो न। तुम्हें वही ज़िंदगी चाहिए क्या सचमुच? नहीं चाहिए तो उसे रोल मॉडल मानना बंद करो। और यकीन मानो जो उनका हुआ है वही तुम्हारा होकर रहेगा अगर उसी रास्ते पर चलोगे।

आप पहली महिला हैं जो भावना के आवेग में बह रही हैं? इतनी बही हैं, क्या हुआ उनका? मैटरनिटी से मॉर्चुअरी (मुर्दाघर) तक, यही यात्रा होती है बस। और सारी भावनाएँ होती किसलिए हैं? प्रकृति आपमें भावनाएँ इसलिए प्रदीप्त करती है ताकि आप निर्वाण को प्राप्त हो जाएँ?

आपके लोकधर्म में तो बहुत बड़ी तादाद है ऐसों की जो मानते हैं कि महिलाओं को स्वर्ग उपलब्ध ही नहीं हो सकता जब तक उनका पुनर्जन्म न हो, और वो पुरुष न बनें। जानती हैं आप? बहुत बड़ा वर्ग है जो ये मानता है कि स्वर्ग महिलाओं के लिए नहीं है, स्वर्ग में सिर्फ़ एक प्रकार की महिलाएँ होती हैं उर्वशी, रंभा वगैरह वाली।

अगर स्वर्ग महिलाओं के लिए होता तो उर्वशे और रंभे भी तो होते वहाँ? अप्सराएँ तो सुनी हैं, जिगोलो (पुरुष वैश्य) सुने हैं कभी? महिलाओं के लिए भी अगर स्वर्ग होता तो उनके मनोरंजन के लिए भी वहाँ कुछ खास तरह के पुरुष रखे गए होते। नहीं रखे गए। तो सब पुरुष वहाँ जाते हैं और ये सब।

भावनाओं का मतलब नहीं समझते हो क्या? समाज, संस्कार, लोकधर्म और देह, ये सब मिलकर चाहते हैं कि आप अपना पूरा जीवन सिर्फ़ देह के कामों में निकाल दो, कोई भी ऊँचा काम न करो। ये है भावनाएँ जो आपसे करवाना चाहती हैं और महिलाओं के लिए तो इतना बड़ा ये बंधन साबित होती हैं न — पुरुषों में महत्त्वाकांक्षा और महिलाओं में भावना, कहीं का नहीं छोड़ते।

बंधन है भाई, गहना मत माना करो उसको। संघर्ष करना सीखो, ये नहीं कि और अपनी, 'ये तुम्हारे आँसू नहीं हैं, ये मोती हैं, ये दीप हैं।' है! ये भी जैसे शरीर बाकी चीज़ें उत्सर्जित करता है न, एक्सक्रीटा (मलमूत्र), ये भी एक्सक्रीटा ही है। यही मानो और जो स्थान टट्टी-पेशाब को देते हो, वही अपने इन सब भावनात्मक उत्सर्जनों को दिया करो। ये भी बह रहा है वो भी बहता है, क्या अंतर है? अंजाम याद कर लिया करो। इन सब हरकतों का एक ही अंजाम होना है। फिर बोल रहा हूँ — शॉर्ट-टर्म (अल्पावधि) में मैटरनिटी, लॉन्ग-टर्म (दीर्घकालिक) में मॉर्चुअरी, और कुछ नहीं।

कोई जवान लड़की बोले कि मैं बहुत इमोशनल हो रही हूँ, उसका एक ही मतलब होता है, क्या? मैटरनिटी। प्रकृति आपमें जितनी भी भावनाएँ उठा रही होगी आपकी उम्र में, वो ले-देकर कहीं-न-कहीं सेक्स से ही संबंधित होंगी। और भारत में तो ये और ज़्यादा होता है हमारे सामाजिक संस्कारों की वजह से।

कोई लड़की रो रही हो, अस्सी प्रतिशत संभावना है उसको सेक्स मिल जाए, उसका रोना बंद हो जाएगा। कोई लड़का बहुत क्रोधित हो ज़िंदगी से बिल्कुल बेजार, आत्महत्या करने जा रहा हो, अस्सी पर्सेंट संभावना है उसको सेक्स दे दो, वो कहेगा, ’लाइफ़ इज़ कूल’ (ज़िंदगी मस्त है)।

सारी भावनाएँ बस उस एक उद्देश्य के लिए उठती हैं, क्या? प्रोक्रिएशन (संतानोत्पत्ति)।

वो भावना कुछ भी हो सकती है, वो भावना ये भी, 'मैं बहुत अकेली हूँ, मैं बहुत अकेली।' सबको तो अकेलेपन की बड़ी प्रॉब्लम है। ये रहता है कि नहीं, 'ओ आइ एम फ़ीलिंग सो लोनली' (अरे! मैं बहुत अकेलापन महसूस कर रही हूँ)। ये लोनली फ़ीलिंग (अकेलेपन का एहसास) का मतलब बस एक होता है, क्या? ठरक!

मेरा हक है, मैं करूँगा अश्लील बातें। आप आए हो खुद। इससे हमारे युग का पता चलता है कि सच अश्लील हो गया है और सच तो मैं इस समाज के बारे में ही बोल रहा हूँ न, हमारे बारे में ही बोल रहा हूँ न। अगर हमारा सच अश्लील है तो हम अश्लील हैं। मूड स्विंग्स, ये वो। उसका थोड़ा सा उपचार करना होता है तो कुछ खा लो, उसका ज़्यादा बड़ा उपचार करना है तो सेक्स कर लो। खाने वाला उपचार तीन-चार घंटे चलता है, सेक्स वाला एक-दो दिन चल जाएगा। दो दिन बाद फिर उसी स्थान पर वापस आ जाओगे।

कितनी बार दोहराना है? कितनी बार दोहराना है? और साइंस से आगे पूछ लो न। मूड लिफ़्टिंग हाॅर्मोन्स (अच्छा महसूस कराने वाले रासायनिक पदार्थ) ज़बरदस्त तरीके से सीक्रीट (शरीर में कोशिकाओं से निकलना) होते हैं सेक्स में। कोई आदमी बिल्कुल ज़िंदगी से बदहाल हो, उसको सेक्स भी मत दो, वो हाॅर्मोन्स (शरीर की कुछ ग्रंथियों से निकलने वाले रासायनिक पदार्थ) दे दो जो सेक्शुअल एक्टिविटी में सीक्रीट होते हैं, उसको ऐसा लगेगा कि ज़िंदगी गुलज़ार है।

कुछ चूहों पर प्रयोग किया गया था। पता है न ये प्रयोग? चूहों को सेक्स हार्मोन लगाया गया और उसी समय पर वहाँ सामने कुछ घंटी वगैरह थी कुछ साथ में बजाई गई। चूहों ने कोरिलेशन (पारस्परिक संबंध) बना लिया कि ये घंटी बजती है और ये हार्मोन मिलता है, माने प्लेज़र मिलता है। तो चूहों ने घंटी और प्लेज़र में रिश्ता बैठा लिया। वो जब उनको इंजेक्शन लगे या गोली दी जाए जो भी था तो घंटी बजे, तो चूहों ने कहा, ‘मतलब घंटी बजाएँगे तो प्लेज़र पाएँगे।’

चूहों ने तब तक घंटी बजाना चालू रखा जब तक वो मर नहीं गए। उन्होंने इतना एक्सेसिव (अत्याधिक) प्लेज़र ले लिया कि वो मर ही गए। और मरने से पहले बहुत कुछ उन्होंने झेला क्योंकि आप यकायक नहीं मर जाते। हार्टबीट (दिल की धड़कन) बढ़ी, ब्लड प्रेशर बढ़ा, सब बढ़ता जा रहा है, चूहों की अंदरूनी हालत खराब होती जा रही है, लेकिन प्लेज़र ऐसी चीज़ है कि चूहे और ज़्यादा, और ज़्यादा सेक्स डिमांड करते जा रहे हैं, करते जा रहे हैं। चूहे मर गए, मर गए लेकिन रुके नहीं। चूहों से ही सीख लो।

आ रही है बात समझ में?

या ये इल्ज़ाम है कि ये तो हर चीज़ को ले आकर सेक्स पर डाल देते हैं। तो और किस चीज़ पर डालूँ, समाधि पर? आप में से कौन-कौन समाधि के लिए उतावला हो रहा है? जो हकीकत है वो बोल रहा हूँ। पूरी प्रकृति क्या कर रही है हर समय? मेटिंग (संभोग) के अलावा क्या कर रही है?

फूल एक बार अपने पराग बिखेर देता है, फिर वो झड़ जाता है, मुरझा जाता है। ये करती है प्रकृति। फूल की हस्ती तभी तक है जब तक रिप्रोडक्शन (प्रजनन) हो सकता है। जैसे ही आप सेक्स के लिए काबिल नहीं बचते, देखा है प्रकृति क्या करती है? प्रकृति कहती है, 'तू जीकर क्या करेगा बूढ़े! इस बुड्ढी को मरना चाहिए! इसका मेनोपॉज़ (रजोनिवृत्ति) हो गया इसको मार दो।' ये तो दवाईयों के दम पर हमने जो एवरेज लाइफ़ एक्सपेक्टेंसी (औसत जीवन प्रत्याशा) है इतनी बढ़ा दी है, नहीं तो प्रकृति तो ये चाहती है कि जिस दिन आप बच्चा पैदा करने लायक न रहें, आप मर ही जाएँ।

आपने कभी सोचा, जवानी का मतलब ही ये होता है कि अब वो जल्दी से रिप्रोड्यूस (संतानोत्पत्ति) कर दे। टेक्निकली आप सौ नहीं, एक-सौ-बीस साल तक जी सकते हो लेकिन रिप्रोडक्शन का फेज़ (चरण) पंद्रह साल से शुरू हो जाता है। ये क्यों किया है प्रकृति ने? इसीलिए उसको माया बोलते हैं। जल्दी-से-जल्दी इससे बच्चे पैदा करा दो, जल्दी-से-जल्दी, इसे होश न आए, इसे कोई समझ न हो, जल्दी-से-जल्दी इससे बच्चे पैदा करा दो।

और जैसे ही आपकी सेक्शुअल एक्टिविटी रुकती है, वैसे ही शरीर कमज़ोर पड़ने पड़ता है। आप देखते नहीं हो इस बात को? सेक्शुअल एक्टिविटी रुकी नहीं कि आप कमज़ोर पड़ने लग जाते हो। प्रकृति ने यहाँ तक की घातक व्यवस्था की है कि अगर आप रिप्रोड्यूस नहीं कर रहे, तो आपको कुछ बीमारियाँ होने की संभावना बढ़ जाती है।

तो ये भावनाएँ भी तो प्रकृति ही दे रही है न। तो इन भावनाओं के पीछे भी और क्या होगा? जब प्रकृति सबकुछ सिर्फ़ इसलिए कर रही है कि एक आपका शरीर चलता रहे और आपके बाद....(हाथों से इशारा करते हुए)। तो प्रकृति अगर भावनाएँ भी दे रही है तो भावनाएँ भी सेंट्रली सेक्शुअल ही होती हैं। कोई बुराई नहीं है उस सेंट्रल सेक्शुएलिटी में, लेकिन उसको अपना जीवन अर्पित कर देना जीवन की बर्बादी है।

मैं यहाँ पर खड़ा होकर के आपको लोकधर्म वाले ब्रह्मचर्य का उपदेश नहीं दे रहा हूँ। मैं बस आपको बता रहा हूँ कि आप जिन चीज़ों को एसेक्शुअल भी समझते हो, वो भी सेक्शुअल ही हैं। और उनको बहुत वरीयता देना, बहुत महत्त्व देना माने अपनी जवानी की, अपनी ऊर्जा की, अपने समय की बर्बादी है।

ज़्यादा ए रेटेड (केवल वयस्क के लिए दर्शनीय) हो गया? चलो कोई बात नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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