क्या अकेले रहकर स्वयं को जान सकते हैं? || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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क्या अकेले रहकर स्वयं को जान सकते हैं? || आचार्य प्रशांत (2017)

आचार्य प्रशांत: प्रश्न है कि क्या अकेले रह करके भी स्वयं को जान सकते हैं? मन हमेशा भीड़ में क्यों रहना चाहता है?

हम अकेले कभी होते नहीं। हम जिसे अकेलापन कहते हैं उसमें भी संसार मौजूद रहता है। आप एक कमरे में बिलकुल अकेले हो गए हो, कमरा बंद है, कमरे में कोई चीज़ भी नहीं है; फिर भी संसार के साथ तो आप हो ही। बस अब जो संसार आपके पास है वो मानसिक है, काल्पनिक है; मन विचार कर रहा है संसार का।

अब यह जो संसार आपके सामने आएगा वो एक विचारा हुआ संसार है, गढ़ा हुआ संसार है; ये संसार का किस्सा है। ये संसार की हक़ीक़त नहीं होगी। ये संसार आपके सामने ठीक उस रूप में आएगा जिस रूप में आपने इसे गढ़ा है। वो रूप आपकी अहंता के अनुकूल है।

और जब आप वास्तव में संसार के सामने होते हैं, सम्बन्धों में होते हैं, तब संसार की कल्पना नहीं बल्कि संसार का तथ्य आता है आपके सामने। अब कुछ ऐसा हो सकता है जो आपकी धारणाओं को, आपकी मान्यताओं को तोड़ दे। आपकी कल्पनाएँ चूँकि आपकी हैं, इसीलिए वो आपकी धारणाओं से उपजी हैं। जो धारणा से ही उपजा है वो धारणाओं को तोड़ तो सकता नहीं।

हाँ, जब आप अपने कमरे से बाहर निकलते हैं, दुनिया के सामने जाते हैं, सम्बन्धों में जाते हैं, तब संभावना बनती है कि अब कुछ ऐसा हो जो आपको ज़रा झटका दे, झंझोड़ दे, क्योंकि अब संसार का तथ्य आपके सामने आएगा।

याद रखिएगा, कमरे के अन्दर, कमरे के बाहर — दोनों ही दशाओं में आप अकेले नहीं हैं। और जो अकेला होता है, वास्तव में; जिसे कैवल्य से मतलब है, उसे फ़र्क नहीं पड़ता कि वो कमरे के भीतर है या कमरे के बाहर। क्योंकि वो जानता है कि दूसरापन, द्वैत तो सदा मौजूद रहेंगे। बस वो वहाँ न चढ़ आयें जहाँ उन्हें नहीं होना चाहिए।

केंद्र में कैवल्य रहे, अद्वैत रहे, अकेलापन रहे। बाहर-बाहर दूसरे रहेंगे ही रहेंगे। ये कोशिश करना कि बाहर भी दूसरे न रहें, बाहर से भी मैं दूसरों को बेदख़ल कर दूँ, कमरा खाली कर दूँ; ये मूढ़ता की बात है।

कमरे से आपने सबको हटा दिया, कमरा तो बच गया न! आप कमरे को देखेंगे, तो कमरे के कारीगर का ख़्याल आएगा। कमरे का कोई रंग होगा, उस रंग को देखेंगे, तो किसी स्त्री की साड़ी का ख़्याल आ जायेगा। ये लीजिए, कल्पना का घोड़ा दौड़ पड़ा। कहाँ अकेले रह गए आप?

कमरे में भी अकेले नहीं हैं। निर्जन से निर्जन जगह आपको छोड़ दिया जाए, आप अकेले नहीं रह जाएँगे। और कुछ नहीं तो अपना नाम तो याद रखेंगे, अपने नाम के तो साथ हैं, स्मृतियाँ तो साथ हैं। अपने हाथ को देखेंगे, नाखून को देखेंगे, तुरंत दूसरों से भर जाएँगे।

जिसने जाना है, वो दूसरों से आपत्ति नहीं करता। वो कहता है, “दूसरे मौजूद रहें। जीव पैदा हुआ हूँ, तो संसार में पैदा हुआ हूँ। ‘संसार’ माने ‘बहुत सारे दूसरे’।

तो दूसरे तो रहेंगे ही रहेंगे, बस दूसरे अपनी जगह रहें। दूसरे वहाँ का अतिक्रमण न कर दें जहाँ सिर्फ़ परमात्मा को आसीत होना चाहिए। सर्वत्र दूसरे-ही-दूसरे हैं, रहने दो उनको वहाँ पर। किसी दूसरे को इतना महत्वपूर्ण न बना लेना कि वो तुम्हारी आत्मा पर सवार हो जाए।

हृदय तुम्हारा मात्र सत्य को समर्पित हो। दूसरे होते हैं, उनमें से किसी का मूल्य कम होता है, किसी का ज़्यादा होता है। सबके अपने-अपने तुलनात्मक, सापेक्ष मूल्य हैं, क़ीमतें हैं, पर किसी की भी क़ीमत अनंत नहीं है।

अनंत क़ीमत, आख़िरी क़ीमत, उच्चतम क़ीमत तुम सत्य को ही देना, और किसी को नहीं। तभी तुम्हारा दूसरों से सम्बन्ध भी असली रहेगा, वास्तविक रहेगा, सच्चा रहेगा, और प्रेमपूर्ण रहेगा।

ये मज़ेदार बात है। जिसको तुमने सत्य की जगह बैठा दिया, उससे तुम्हारा सम्बन्ध शोषण का हो जाएगा। तुम्हें लगता ये है कि कोई तुम्हें बहुत प्यारा है तो तुम उसे बिलकुल दिल पर बैठा लोगे, तुम्हें लगता है — इससे प्यार और बढ़ेगा, तुम्हें लगता है — ये प्रेम की निशानी है। ये प्रेम की निशानी नहीं, मूढ़ता की निशानी है।

जिसको तुमने राम की जगह बैठा दिया, अब तुम उससे राम समान गुण की, और शक्ति की, और वरदान की, और आनंद की उम्मीद भी करोगे। तुम कहोगे, 'मैंने तुझे राम का दर्ज़ा दिया है, मैंने तुझे ब्रह्म का दर्ज़ा दिया है, भगवान का दर्ज़ा दिया है। अब तू मुझे वो सब दे भी तो जो भगवान से मिलता है।' वो तुम्हें वो दे नहीं पाएगा। तुम्हें निराशा होगी।

तुम्हें निराशा होगी, तुमने जिसको सत्य की जगह बैठाया था, तुम उसी के प्रति हिंसा से भर जाओगे। तुम कहोगे, 'मैंने तुम्हें इतना सुन्दर स्थान दिया, इतना ऊँचा आसन दिया, और तुमसे मुझे निराशा हाथ लगी।' तुम बड़े हिंसक हो जाओगे।

जिससे रिश्ते ठीक रखने हों, उसे ज़रा नीचे रखना। हृदय के केंद्र पर मत बैठा लेना। दुनिया से रिश्ते ठीक रखने हों, तो राम से अपना रिश्ता सच्चा रखो, सत्य से अपना रिश्ता सच्चा रखो। और दुनिया से तुम्हारे रिश्ते कैसे चल रहे हैं, उसको देख करके तुम्हें ये पता चल जायेगा कि सत्य से तुम्हारा सम्बन्ध कैसा है।

दुनिया यदि तुम्हें तनाव देती है, दुनिया से अगर उलझे-उलझे और डरे-डरे फिरते हो तो जान लो कि वो सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि तुम राम के प्रति समर्पित नहीं हुए, वफ़ादार नहीं हुए।

दुनिया से तुम्हारा गणित क्या चल रहा है, कैसा बैठा है समीकरण, वो इस बात का प्रमाण होता है कि राम से तुम्हारा रिश्ता कैसा है। तो दुनिया से अपने रिश्ते पर नज़र रखो। नज़र रखो, सिर पर मत चढ़ा लो। साक्षी होने को कह रहा हूँ, मोहित हो जाने को नहीं कह रहा हूँ। दुनिया से तुम्हारा क्या रिश्ता चल रहा है, इसके साक्षी रहो। दुनिया से मोहित होकर दुनिया को सिर पर मत चढ़ा लो, ये दो अलग-अलग बातें हैं।

दूसरों को यदि परेशान नहीं करना चाहते, तो कभी उन्हें अपनी प्रथम वरीयता मत बना लेना। जिसको तुमने अपनी प्रथम वरीयता बना लिया उसको अब तुम सिर्फ़ दुःख-दर्द दोगे, और उससे सिर्फ़ दुःख-दर्द पाओगे। किसी इंसान से तुम्हारा मन लगने लगा है, और तुम नहीं चाहते हो कि तुम दोनों एक-दूसरे के लिए विपदा का कारण बनो।

तो उससे कहना कि तू भी मुझे बहुत महत्व मत दे, और मैं भी तुझे बहुत महत्व नहीं दूँगा। जो ही तुम्हारे लिए बहुत मूल्यवान हो गया वही तुम्हारे लिए अब नरक बन जाएगा। ज़रा हल्के रखो, ज़रा नीचे रखो, ज़रा दूर रखो, दुनिया को दुनिया की जगह पर रखो।

और ये इसलिए नहीं किया जा रहा है, या कहा जा रहा है कि दुनिया कोई घृणास्पद चीज़ है। ये इसलिए कहा जा रहा है ताकि तुम दुनिया में चैन से जी सको, दूसरों के प्रति हिंसा और द्वेष और शिकायतों से भरे न रहो। कभी देखा है न, जो तुम्हारे जितना निकट होता है, तुम्हें सबसे ज़्यादा शिकायतें उसी से होती हैं।

कोई होगा बहुत दूर का रिश्तेदार, उससे कितनी शिकायतें होती हैं तुम्हें? और देखो, अपने बच्चों से, अपनी बीवी से, पति से कैसे द्वेष से भरे रहते हो! वो इसीलिए, कि तुमने उन्हें सत्य का दर्ज़ा दे दिया, तुमने अब उनसे वो माँग लिया जो वो बेचारे दे ही नहीं सकते।

तुमने कहा, देखो, अब हमने तुम्हें राम की जगह काबिज़ कर दिया है। अब वरदान दो हमें। वो कहाँ से दे वरदान? तुम कहते हो, 'देखो, हमने तुम्हें अपने हृदय की देवी बना लिया, अब चरम सुख दो हमें।' वो कहाँ से देगी? तुम चाहते हो कि वो तुमको सतत् आनंद देती रहे, वो दे नहीं पाएगी।

अब तुम चिढोगे, कि ये तो झूठी निकली। हमने इसे हृदय साम्राज्ञी बनाया, और इससे क्या मिला! अमृत सोचकर पिया था, ये तो गुनगुना तेल निकला। और फिर तुम ये नहीं कहोगे कि तुमने ग़लती कर दी। तुम्हारी उम्मीदें झूठी थीं। तुम्हें लगेगा कि जैसे सामने वाला मक्कारी कर रहा है। वो दे सकता है, पर दे नहीं रहा। तुम्हें लगेगा कि वो तुम्हें परम आनंद दे सकती है, पर जानबूझकर दे नहीं रही है, कुछ छुपा रही है, कुछ बचाए ले रही है। तो तुम और डंडा लेकर दौड़ोगे — ‘देती काहे नहीं!’

उस बेचारी के पास हो, तो न दे! वो ख़ुद प्यासी है, वो ख़ुद इसी झंझट में फँसी हुई है। उसने भी तुम्हें यूँही हृदय-सम्राट नहीं बनाया था, उसे भी यही लगा था कि तुम उसे चरम आनंद दे ही दोगे। तुम भी कहाँ दे पाए! अब दोनों पीटो एक-दूसरे को (हँसते हुए कहते हैं)। क्या पता पीटने में ही मिल जाए, चरम आनंद! विधियाँ हैं, क्या पता इसमें भी आनंद आता हो?

संत जन कितना समझा गए कि मिट्टी से घी नहीं चूएगा, तुम उसे कितना भी निचोड़ लो। पर जो संसारी है, वो इसी प्रयत्न में लगा है कि मिट्टी से घी निकाल लूँ।

और जब नहीं निकलता घी, तो वो दो बातें करता है — पहला, मेरे श्रम में कुछ कमी रह गयी, ज़रा मुझे और मेहनत करने दो। या दूसरा, मिट्टी धोखा दे रही है। अपनेआप को धोखा इत्यादि मत दो। सीधी चीज़ सीधी रखो। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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