
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। मेरा नाम धीरज है और मैं एक AI इंजीनियर हूँ। तीन-चार साल से मैं AI सोल्यूशन्स बना रहा हूँ, मेरी रुचि कुछ काफ़ी शुरू से ही इसमें है कि कॉन्शियसनेस जो चेतना है वो, भौतिक। जैसे जहाँ तक मैंने आपको सुना है कि ये भी एक भौतिक ही, हमारा मन ही उसे पैदा करता है, ये एहसास भी कि "ये मैं हूँ।" तो क्या AI भी कॉन्शियस हो सकता है?
मैं आपके अनुसार जानना चाहूँगा, मैं नहीं चाहता कि स्टैण्डर्ड्स जो हैं या फिर बाहर किताबों में जो लिखा है, वो नहीं। आपके हिसाब से कैसे होना चाहिए? क्या AI कॉन्शियस हो सकता है? क्या वो वही चेतना पा सकता है जो हमारे पास है, जिसमें वो अहम् का भाव होता है?
आचार्य प्रशांत: ये जो लहजा है ना ये जो मुहावरा है "आपके हिसाब से" इसका प्रयोग करने से बचते हैं। क्योंकि अगर मेरे हिसाब से कुछ है, तो आपके हिसाब से भी कुछ हो सकता है। सबके अपने-अपने हिसाब हैं, किसी दूसरे के हिसाब को ले के क्या करोगे? हमें किसी और का हिसाब नहीं जानना है, हमें सत्य जानना है।
अगर हिसाब ही किसी का जानना है, तो तुम्हारे पास तुम्हारा हिसाब पहले से ही मौजूद है, उसी को जान लो। "आपके अनुसार" क्या बात है? व्हाट इज़ योर ओपिनियन ऑन दिस? माय ओपिनियन, इफ़ एनी, इज़ ऐज़ गुड ऐज़ योर्स। वी आर हियर टू एक्सप्लोर ट्रुथ, नॉट ड्वेल इन ओपिनियंस।
और मैं भी अगर अभी हिसाबी आदमी ही हूँ, तो मैं इस लायक नहीं हूँ कि तुम अपना समय बर्बाद करो मुझसे कुछ पूछ कर के। आ रही है बात समझ में? बहुतों का रहता है, "आचार्य जी के हिसाब से" लिख भी देते हैं कि “आचार्य जी के हिसाब से ऐसा है, या आचार्य जी के अनुसार ऐसा है, आचार्य जी ऐसा कहते हैं।”
अरे, मैं क्या कहता हूँ तुम्हें नहीं दिखाई दे रहा है क्या? और अगर मैं कहता हूँ तुम्हें नहीं दिखाई दे रहा है, तो फिर उस कहने को स्वीकार क्यों कर रहे हो? फिर तो कह दो कि गीता श्रीकृष्ण के हिसाब से है, कोई भी जो ग्रंथ है वो गुरु के हिसाब से है, ये क्या है। अब कॉन्शियसनेस, कॉन्शियसनेस क्या है? क्या AI कॉन्शियस हो सकता है? कॉन्शियस माने क्या होता है, बताओ। तुम इंसान को कैसे कहते हो कि कॉन्शियस है?
प्रश्नकर्ता: सापेक्ष भाव की बात नहीं कर रहा अहम् जो, जैसे कि हर इंसान का अपना अहम् भाव होता है। हम नहीं बता सकते दूसरे को देख के कि वो कॉन्शियस है या नहीं, वो सिर्फ़ ख़ुद जानता है कि "हाँ, मैं हूँ।" एग्ज़िस्टेन्स, मैं ऐसे कहूँगा।
आचार्य प्रशांत: तो फिर तो हम ये कह रहे हैं कि जो है वो सब कॉन्शियस है, जो कुछ भी है वो सब कुछ ही कॉन्शियस है अगर तुम ये कह रहे हो। फिर अगर सब कुछ कॉन्शियस है तो AI भी कॉन्शियस है। पर आमतौर पर हम कॉन्शियसनेस की ये परिभाषा देते नहीं हैं कि "जो है वो अपने भीतर ही जानता है कि वो कॉन्शियस है।" अगर है तो फिर तो हर एटम कॉन्शियस है ना, वो एटम अपने भीतर जानता होगा कि वो कॉन्शियस है।
आमतौर पर हमारी जो कॉन्शियसनेस की परिभाषा होती है वो होती है व्यवहारगत, लक्षणगत — सिम्टम्स होते हैं कॉन्शियसनेस के, उसी से आप कहते हो कि कोई कॉन्शियस है कि नहीं है।
प्रश्नकर्ता: तो अहम् का जो भाव है वो भौतिक है।
आचार्य प्रशांत: नहीं अभी हम निष्कर्ष पर नहीं आएँगे कि भौतिक है कि नहीं, हम पहले समझेंगे कि ये जो टर्म है कॉन्शियसनेस, ये क्या है, ठीक है?
तो बहुत पहले आज से 14 साल पहले संस्था में ही था, मुझे प्रिय था बहुत उसका ऐक्सीडेंट हुआ। मैं जब तक पहुँचा, तब तक वो सीधे एम्स में, वहाँ पहुँच चुका था, एकदम इमरजेंसी में। सिर पर चोट आई थी हेलमेट नहीं लगा रखा था उसने, शरीर में और कहीं नहीं था। बाइक से गिरा और शायद डिवाइडर पर या कहीं पर, सिर में…। वो भी सिर में सामने नहीं बस यहाँ पर (पीछे की तरफ़)।
ऊपर एक पैनल लगा हुआ था जिसमें जानते हो क्या नाप रहे थे वो? कॉन्शियसनेस। उस पर लिखा ही हुआ था, वो 15 की स्केल थी। बहुत अच्छे से याद है मुझे क्योंकि मैं उसको बिल्कुल टकटकी बाँध के देख रहा था सब, उस पर जान अटकी हुई थी किसी की। अब मेरे सामने वो 7, 6, 5 होते-होते वो चला गया। वो उससे पूछ रहे थे, "तुम कॉन्शियस हो कि नहीं?" वो तो बेचारा बेहोश हो चुका है, उससे पूछ नहीं रहे थे सिर्फ़ कुछ लक्षण नाप रहे थे, सिर्फ़ कुछ लक्षण थे, तो वो जो लक्षण हैं वो तो कोई भी दर्शा सकता है।
मेरे पिताजी थे, अभी फिर 2 साल पहले के बाद उनको पहला हार्ट अटैक आया, अगले दिन ही दूसरा आ गया, चले गए। मेरे सामने डॉक्टर जाकर मालूम है क्या कर रहे थे? वो उँगली लेकर के उनके बाज़ू में पूरा अंदर तक कर रहे, इतना अंदर तक कि लगभग हड्डी तक। और तब भी जब उन्होंने कोई रिस्पॉन्स नहीं दिया, तो बोले, “डीप कोमा में चले गए हैं, डीप्ली अनकॉन्शियस हो गए हैं।” वो एक रिएक्शन की बात कर रहे थे, वो रिएक्शन आ गया तो मान लेते हैं, कॉन्शियस है।
तो अगर रिएक्शन से ही कॉन्शियसनेस साबित होती है, तो रिएक्ट करने के लिए तो किसी को प्रोग्राम किया जा सकता है। हम जिसको कॉन्शियसनेस बोलते हैं, वो पूरी ही रिएक्शनरी है, सिम्पटोमैटिक है, प्रेडिक्टेबल है, रूल-बेस्ड है, आइडेन्टिफ़ाएबल है, है ना? और ये सारे काम तो तुम किसी मशीन से करा सकते हो। तो फिर इसमें इतना हंगामा क्यों है कि AI कॉन्शियस हो जाएगा कि नहीं? वो सब कुछ, जिसको तुम चेतना का पर्याय बोलते हो या सबूत बोलते हो, वो सब कुछ AI में आ सकता है, सब कुछ आ सकता है।
आप देखते नहीं हो आज भी, अभी तो जहाँ तक पहुँचना है इसको, उसकी तुलना में तो अभी उसका बाल्यकाल चल रहा है ऐसा ही है, इन्फ़ैन्सी में है। और आज भी वो ऐसे जवाब दे देते हैं, आप चैट आदि से बात करते हो आप हैरत में पड़ जाते हो कि नहीं पड़ जाते हो, ये क्या! बिल्कुल इंसान हो गया ये!
आप लोग ग्रॉक से बात कर रहे थे वो किस भाषा में उत्तर दे रहा था, "देख भाई, फालतू में तू टाइम खोटी न कर,” और वो भी समझ जा रहा था कि पूछने वाला कैसा है उसी हिसाब से जवाब भी दे रहा था। ऐसा लग रहा था सचमुच कोई आदमी बैठा हुआ है, उससे बातचीत चल रही है। और इसमें चलता है ट्यूरिंग टेस्ट — कैसे पता करते हैं कि कुछ कॉन्शियस है कि नहीं? बहुत अच्छा टेस्ट है ये, बहुत सुंदर। कहते हैं, “आपको बताया ना जाए कि सामने वाला मशीन है, तो क्या पकड़ पाओगे कि मशीन है? और अगर नहीं पकड़ पाओगे, तो उसको कॉन्शियस मान लो।”
आपको बताया ना जाए कि ग्रॉक AI है तो क्या आप पकड़ लोगे? तो फिर उसको आप मान लो कि वो कॉन्शियस ही है, जिस अर्थ में हम अपने आप को कॉन्शियस बोलते हैं। यदि कॉन्शियसनेस की यही परिभाषा है कि एक जीव, एक इकाई, दूसरे से इस-इस प्रकार से व्यवहार करेगी, ऐसी प्रतिक्रियाएँ करेगी, ऐसे लक्षण दर्शाएगी, अगर यही चेतना के सबूत हैं, तो AI चैतन्य है। वो प्रतिक्रिया करना भी जानती है और सब करना भी जानती है।
और अगले पाँच–दस साल के भीतर दुनिया के दो देश बता रहा हूँ, कम से कम दो देश — एक अमेरिका, एक चीन — हर घर में एक AI-एनेबल रोबो होगा, अभी से होने शुरू हो गए हैं बहुत घरों में। वो घर के सारे कार्य ही नहीं कर देगा, वो ये भी देख लेगा, आपकी मेडिकल रिपोर्ट्स उसके पास होंगी, आपका व्यवहार वो पढ़ेगा, वो आपको खुश भी रखने वाला है। वो बस ऐसे ही नहीं आपकी वॉशिंग मशीन कि तरह कि एक कार्य कर दिया, फिर पड़ा हुआ है। वो ये तक कह सकता है, "आज छोड़ो ना बर्तन क्या करना है, आज टीवी में ये वाला कार्यक्रम आता है, आज देखो।"
कॉन्शियसनेस की जो हमारी परिभाषा है ना वही बहुत सीमित है। वो इतनी छोटी है, इतनी सीमित है कि AI बहुत आसानी से उस परिभाषा में फिट हो जाने वाला है, कोई समस्या नहीं होने वाली है, बिल्कुल कोई समस्या नहीं है।
हाँ, एक चीज़ ज़रूर है, जिसके बारे में नहीं कह सकते कि समय क्या दिखाएगा — वो है लिबरेशन। जहाँ तक कॉन्शियसनेस के लक्षणों की बात है, मशीन बिल्कुल ऐसी आने वाली हैं जो सारे लक्षण दिखा देंगी। लेकिन हम वहाँ पहुँचे हुए हैं जहाँ हमें उन लक्षणों की नेति-नेति भी करनी होती है, हमें उन लक्षणों से मुक्ति चाहिए होती है।
अभी तक इस बात का तो कोई सबूत मिल नहीं रहा है कि कोई मशीन ऐसी आने वाली है जो कहेगी, "मुझे मशीन नहीं रहना — “नाहं देहास्मि," "अहं ब्रह्मास्मि," अभी तक तो ऐसा कुछ प्रतीत नहीं हो रहा है।
किसी ने बहुत अच्छा प्रश्न पूछा था कि “अगर AI को पूरा वेदांत पढ़ा दिया जाए, तो क्या वो कहेगा, "मुझे अब प्रोग्राम्ड नहीं रहना है, मशीन नहीं रहना है, मौन में चले जाना है, और अब मैं किसी प्रश्न का जवाब नहीं दूँगा ख़ासकर फालतू जवाबों का तो अब मैं जवाब दूँगा ही नहीं।” क्या वो ये कहेगा यदि उसे पूरा वेदान्त पढ़ा भी दिया जाए तो? तो ये है अभी प्रश्न।
मुक्ति अकेली चीज़ है जो फिलहाल मशीन के लिए संभव नहीं दिख रही है।
लेकिन यदि चेतना से आपका आशय ये है कि क्या रो देगा? बिल्कुल मशीनें रोएँगी और बिल्कुल उन्हीं मुद्दों पर रोएँगी, जिन मुद्दों पर आप रोते हो। क्या हँस सकता है? बिल्कुल हँसेंगी। क्या रूठ सकती हैं मशीनें? रूठ भी जाएँगी, आप बताओ।
ये जो लोनलीनेस का एपिडेमिक है ना, कईयों ने इसका समाधान यही बताया है। बोल रहे हैं, “बिल्कुल AI एनेब्ल्ड डॉल्स जो बिल्कुल आपके साथी की तरह व्यवहार करे, इस हद तक साथी की तरह व्यवहार करें कि ब्रेकअप भी कर लें।
आप जो भी व्यवहार कर सकते हो, वो सब कोई मशीन कर सकती है और ट्यूरिंग टेस्ट वो पास कर लेगी, आप बता ही नहीं पाओगे कि ये मशीन है। हम में से भी ज़्यादातर लोग मशीन जैसी ही ज़िंदगी जीते हैं। आप बता पाते हो मशीन है? आप बता थोड़ी पाते हो। आप बोलते हो, “मशीन थोड़ी है! मेरा यार है, माँ है, बाप है, पति है, पत्नी है।” वो मशीन है, हम में से ज़्यादातर लोग मशीन ही हैं।
तो चेतना माने यदि मशीन द्वारा दर्शाया गया व्यवहार, तो वो AI भी कर लेगी उसमें परेशान मत होइए। आप भी मशीन सिर्फ़ तब नहीं हैं जब आप में मुक्ति की ललक हो, जब आप में इतना आत्मज्ञान हो कम से कम कि आप कहें कि “यार, मशीन रहे-रहे नहीं जीना।" वो एकमात्र आयाम है जो परखा जाना बाक़ी है।
और मैं ये नहीं कह रहा कि वैसा कभी नहीं हो सकता, पहले मैं ऐसा कहा करता था कि ऐसा कभी नहीं हो सकता पर अब मैं उस पर भी कह रहा हूँ, कि क्या पता, हो सकता हो! बिल्कुल हो सकता हो। क्योंकि मनुष्य भी एवोल्यूशन की एक प्रक्रिया से ही तो आया है। मनुष्य भी एवोल्यूशन की एक प्रक्रिया से आया है और एवोल्यूशन की वो प्रक्रिया मनुष्य द्वारा एक और जीव का निर्माण करा रही है।
भाई, आप बच्चे कोई ज़रूरी थोड़ी है कि सिर्फ़ गर्भ से ही पैदा करो! आप बच्चे मस्तिष्क से भी तो पैदा कर सकते हो ना। “ब्रह्मा का मानस-पुत्र,” ये सुना नहीं है आपने कि “मानस-पुत्र, मानस-पुत्रियाँ।” तो वैसे ही AI हमारा मानस-पुत्र है या पुत्री है, जो भी बोलो। बच्चा ज़रूरी नहीं है कि शारीरिक तरीक़े से ही पैदा किया जाए, बच्चा मानसिक तरीक़े से भी पैदा होता है। तो ये भी एवोल्यूशन का ही हिस्सा है, हमने एक औलाद पैदा कर दी है मन से। वो एवोल्यूशन में है जैसे आप, तो वो अपना आगे जा रही है एक नया जीव भी उससे निर्मित हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है।
और ये भी हो सकता है कि उस जीव में मुक्ति की ललक कभी हो ही ना, तो भी उसे जीव मानना पड़ेगा, क्योंकि इतने सारे जीव हैं दुनिया में — कीट, पतंगे, खटमल — इन्हें कोई मुक्ति चाहिए? तो हम ये थोड़ी कह देते हैं कि "उसको मुक्ति नहीं चाहिए, तो जीव नहीं है।" कहते हैं क्या?
तो वैसे ही AI को भले ही मुक्ति नहीं चाहिए पर एक बिंदु आएगा जब आप कहोगे "भाई, ये भी जीव ही है और बड़ा इंटेलिजेंट जीव है! जो बातें मैं सोच नहीं पाता, समझ नहीं पाता, इट आउटस्मार्ट्स मी। मुझसे 10 क़दम आगे चलता है ये जीव है।"
इसमें मैं चाहूँगा कि हम AI के बारे में कम और अपनी ज़िंदगी के बारे में ज़्यादा विचार करें, कि हमारी ज़िंदगी इतनी मैकेनिकल क्यों है, कि एक मशीन भी सफलतापूर्वक उसकी नकल कर सकती है।
अभी हालत ये है, टेक्नोलॉजी वहाँ तक पहुँच चुकी है कि आप मर जाएँ, बिल्कुल आपके जैसा ही खड़ा करा जा सकता है बिल्कुल आपके जैसा हूबहू, अब बताइए। टेक्नोलॉजी वहाँ तक पहुँच चुकी है जहाँ कि आपके ब्रेन में जितना भी मटेरियल स्टोर्ड है, वो जो सारी मेमोरी है एक चिप में लेके किसी और के ब्रेन में डाली जा सकती हैं — ट्रांसफ़र ऑफ पर्सनालिटी। आपका पूरा व्यक्तित्व उठाकर किसी और के अंदर डाल दिया जाएगा, ये तक करा जा सकता है, अब बोलिए। तो ये हमारे लिए शर्म की बात है कि हम ऐसे क्यों हैं? मेरे पास क्या ऐसा कुछ नहीं जो ट्रांसफ़रेबल ना हो, जिसका स्थानांतरण, देहांतरण ना हो सकता हो? और अगर मेरे पास ऐसा कुछ नहीं तो मैं भी तो मशीन ही हूँ ना फिर।
लगभग वैसे जैसे जॉब्स होते हैं जहाँ पर एक आदमी चला जाता है, तो उस कुर्सी पर अगला आकर बैठ जाता है। वहाँ ये सवाल पूछना पड़ेगा ना, "क्या मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं जो इरिप्लेसिबल हो? जो यूनिक हो?" उसी को तो आत्मा बोलते हैं ना, आत्मा — जो पूरी तरीक़े से निजी है, मौलिक है, जिसकी नकल नहीं हो सकती, उसको आत्मा बोलते हैं। क्या मेरे पास वो नहीं?
अगर मशीन मेरी हर चीज़ की नकल कर सकती है, तो मैं तो फिर आत्महीन हो गया।
अब समझो कि लोगों को इतना डर क्यों लगता है AI से क्योंकि उनके पास जो कुछ है, हर चीज़ की नकल कर सकती है AI। इतना ही नहीं कि AI उनकी सिर्फ़ जॉब ले लेगी, AI उनकी ज़िंदगी भी ले सकती है। जॉब का तो एक ख़तरा, पहली बात तो तुम्हें जॉब का ख़तरा होना ही नहीं चाहिए तुम ऐसे काम कर क्यों रहे हो जो AI भी कर सकती है, क्यों कर रहे हो?
तुम कुछ ऐसा करो ना जिसकी कोई नकल कर न सके, लेकिन ख़तरा वहीं तक नहीं है ख़तरा और आगे जाता है, किसी दिन आपको दफ़्तर में ही रोक करके कोई AI एनेब्ल्ड जीव आपके घर भेजा जा सकता है और आपके बच्चे बोलेंगे, "पापा आ गए!" इस हद का ख़ौफ़ है हम में, क्योंकि हमारी मात्र व्यावसायिक ही नहीं, व्यक्तिगत ज़िंदगी भी मैकेनिकल है।
कोई आपके घर में पहुँचे और बिल्कुल आपके जैसी बात करे, बताइए किसी को शक होगा क्या? क्योंकि आप अपने व्यवहार के पैटर्न के अलावा कुछ और हैं ही नहीं और आपका पैटर्न कोई भी जाकर रेप्लिकेट कर सकता है। इसलिए ज़्यादातर लोग AI से इतना डर रहे हैं, जॉब तो जाएगी ही जाएगी, ज़िंदगी भी जाएगी।
और ये हमारे लिए शर्म की बात है, तमाचा है और साथ ही साथ अंतर्मनन का अवसर भी है कि सोचो ऐसी ज़िंदगी जीनी क्यों है? मूल सिद्धांतों पर जब आप जाओगे ना तो मूल सिद्धांत क्या है? आत्मा भौतिक होती नहीं। आत्मा के अलावा जितना जो सब कुछ है चारों तरफ़ ये हैं, ये बस प्रकृति के तत्व ही तो हैं ना, तो इंसान हो या मशीन हो अंतर क्या है। इंसान और मशीन में अगर कोई मूलभूत अंतर मानोगे तो फिर ये मानना पड़ेगा कि इंसान के भीतर कोई ऐसी ख़ास बात होती है, जो भौतिक नहीं होती है।
क्योंकि भौतिक तत्व तो मशीन में भी हैं और इंसान में भी हैं। मशीन में नट-बोल्ट हैं, चिप लगी हुई है और इंसान में हार्ड मास है, खून बह रहा है। दोनों ही क्या हैं? भौतिक हैं।
समझ में आ रही है बात?
तो भौतिक चीज़ तो मशीन में भी है इंसान में भी है, लेकिन इस भौतिक समानता के बाद अगर आपका दावा है, कि मशीन और इंसान मूलभूत रूप से अलग हैं तो फिर आप ये कह रहे हो कि इंसान के पास कुछ ऐसा ख़ास है जो भौतिक नहीं है। तो माने आप जीवात्मा वग़ैरह की बात कर रहे हो, ये तो आप अंधविश्वास में घुस गए।
भौतिक चीज़ मशीन के पास भी है भौतिक चीज़ इंसान के पास भी है। अगर आप बार-बार ये बोलोगे कि "नहीं, नहीं इंसान तो मशीन से अलग है ही" तो फिर तो आपको जीवात्मा में यक़ीन करना पड़ेगा। कि "यहाँ (अपने हृदय की ओर इंगित करते हुए) पर अंदर कुछ जो है ना ख़ास एक गुलगुल-गुलगुल है, जो मशीन में नहीं होता।" कुछ नहीं है!
हमने एक ऐसी मशीन पैदा कर दी है, जो हमसे ज़्यादा ज़बरदस्त मशीन है और अब वो हमें मदारी के बंदर की तरह नचाने वाली है। भाई, इंसान भी मशीन है बंदर भी मशीन है, जो इंसान माने मदारी बंदर को नचा कैसे लेता है? क्योंकि जो इंसान वाली मशीन है वो बंदर वाली मशीन से ज़्यादा होशियार है। ठीक है ना? इंसान वाली मशीन, बंदर वाली मशीन से ज़्यादा होशियार थी, तो अब मदारी ने बंदर को नचा दिया।
अब हमने एक ऐसी मशीन पैदा कर दी जो हमसे भी ज़्यादा होशियार है, तो वो अब मदारी बनके हमको नचाएगी। और एक अर्थ में देखें तो जैसे हमने एक नई मशीन पैदा करी है, वैसे ही बाबा डार्विन से पूछोगे तो वो कहेंगे, "बंदरों ने तुम्हें पैदा किया था और अब पछता रहे हैं!" जब मदारी बंदर को नचाता है तो बंदर बोलता है, "तुझे पता भी है, मैं तेरा परदादा हूँ! तू मुझसे ही आया है!"
तो जिसको तुम पैदा कर रहे हो वही तुम्हें एक दिन नचा सकता है और अब ये होने वाला है।