क्या अध्यात्म से रिश्ते टूट जाते हैं?

Acharya Prashant

7 min
1.5k reads
क्या अध्यात्म से रिश्ते टूट जाते हैं?
अध्यात्म का अर्थ यह नहीं है कि रिश्ते तोड़ देने हैं। अध्यात्म का अर्थ है— घटिया रिश्ते को सुंदर बनाना है। बीमारी अगर जाती है तो 'स्वास्थ्य' प्रकट भी तो होता है। इसी तरीके से रिश्तों में, जब बंधन कटते हैं तो स्वस्थ संबंध प्रकट होता है। अध्यात्म सबकी मुक्ति के लिए है। इसलिए स्वयं मुक्त होते चलो और जिनसे संबंधित हो, उन सब के भी मुक्ति में सहायक बनो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: सार्थक कर्मों की बात कही तो यह तो अभी स्पष्टता आती है कि जीवन में जैसे-जैसे मिलता जाता है, इच्छाएं बढ़ती जाती हैं, तब हम रुक नहीं पाते। तो यह भी समझ में आता है कि जैसे आपने बताया कि बंधन दिखे तो तोड़ दीजिए, तो यह सार्थक काम है। और बंधन नहीं हैं तो उसको 'क्रीड़ा' मानिए। बंधन को तोड़ना थोड़ा-सा कठिन मालूम पड़ता है, तो क्या करे कि मतलब पारिवारिक ज़िम्मेदारी के चलते और दूसरी इच्छाओं के चलते, या दोनों करते है तो कुछ लगता है कि बंधन है?

आचार्य प्रशांत: परिवार नहीं बंधन होता। बंधन सदा अपने भीतर होता है। जब भी हम कहते हैं कि परिवार है तो जॉब करना पड़ेगा, परिवार है तो बंधन है, यह है। यह सब बातें असली मुद्दे को छुपाने की कोशिश होती हैं।

कोई दूसरा आपको क्या बाँध लेगा? जीव का जन्म हुआ है, अपनी मुक्ति के लिए और दूसरे को भी मुक्ति देने के लिए। संबंध तोड़ने नहीं होते। हमारा तो जन्म ही हुआ है दूसरे को मुक्ति देने के लिए, तो दूसरे को मुक्ति देनी है, तो उससे संबंध तोड़ने होगें या बनाने होगें?

प्रश्नकर्ता: बनाने होगें।

आचार्य प्रशांत: 'अध्यात्म' संबंध तोड़ने की बात हो ही नहीं सकती। वहाँ तो जिससे संबंध नहीं है, उससे भी बनाना पड़ेगा। यह अभी जा रहा है लाइव (सत्र के बारे में बताते हुए), इस समय भी सैकड़ों लोग ऐसे देख रहे होगें, इस पूरी चर्चा को, जिन्होनें पहले कभी न यह बातें सुनी होंगी, न मुझे देखा होगा। हम संबंध बना रहे हैं या तोड़ रहे हैं?

प्रश्नकर्ता: बना रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: तो मुक्ति में तो संबंध बनाए जाते हैं लेकिन मैं जब भी बात करता हूँ 'मुक्ति' की तो लोग कहते हैं, 'बंधन समझ में आते हैं, बंधन तोड़े कैसे?' बंधन नहीं तोड़ने है, स्वस्थ संबंध बनाइए। यह है मुक्ति का अर्थ। बंधन का अर्थ क्या होता है? 'रुग्णता' का अर्थ क्या होता है? अभी मैं आ रहा था, रास्ते में एक अस्पताल पड़ा, आप ही के शहर में। उसमें लिखा हुआ था 'रुग्णालय'। आमतौर पर उत्तर भारत में 'चिकित्सालय' लिखते हैं।

मैं किस अस्पताल की बात कर रहा हूँ शायद कोई जानता भी हो। (सत्र प्रतिभागियों से पूछते हुए) अभी रास्ते में ही पड़ा है। जो पुणे के रहने वाले होगें, वह जानते होगें। बड़ा लिखा हुआ था 'रुग्णालय'। मुझे अच्छा लगा। मैंने कहा, 'चलो किसी ने तो समझा कि ‘चिकित्सालय' और 'रुग्णालय' एक ही जगह के नाम हैं।' एक ही जगह के नाम है।

तुम उसे 'रुग्ण' भी बोल रहे हो अगर, तो तात्पर्य यही है कि यहाँ 'चिकित्सा' होती है। तुम अगर संकेत रुग्णता की ओर भी कर रहे हो तो भी तुम्हारा आशय 'चिकित्सा' से ही है। तुम अगर नाम 'बीमारी' का भी ले रहे हो, तो भी तुम्हारा इरादा 'इलाज' का ही है। तो रुग्णालय और चिकित्सालय माने एक ही बात।

तो इसी तरीक़े से जब अध्यात्म कहता है कि बंधनों को काटो तो वह कह रहा है 'रुग्णालय'। किसका नाम ले रहा है? रुग्णता का, बंधन का। लेकिन उसका आशय चिकित्सा से ही है। उसका आशय सिर्फ़ यही नहीं है कि रिश्ता तोड़ दो। उसका आशय है कि एक स्वस्थ रिश्ता बनाओ भी तो। अस्पताल जाते हो तो वहाँ सिर्फ़ बीमारी कटती है या वहाँ से स्वस्थ होकर भी लौटते हो? या तुम यह कहते हो कि वहाँ हम कुछ लेकर कर गए थे और गवाँकर लौट रहे हैं।

जब चिकित्सालय जाते हो, अस्पताल जाते हो, तो क्या वहाँ से खोए-खोए, सूने, अकेले और लुटे-पिटे लौटते हो कि 'हाय! हाय! कुछ लेकर कर के गए थे, वापस लौटे है तो है नहीं।' ऐसा तो नहीं है न। 'रुग्णता' अगर जाती है तो 'स्वास्थ्य' प्रकट भी तो होता है। इसी तरीक़े से रिश्तों में, संबंधों में जब बंधन कटते हैं तो एक स्वस्थ संबंध प्रकट भी तो होता है।

'अध्यात्म' का अर्थ यही नहीं है कि रिश्ते तोड़ देने हैं। अध्यात्म का अर्थ है— घटिया रिश्ते को सुंदर बनाना है, घटिया रिश्ते को सुंदर बनाना है।

और घटिया रिश्ते की जब हम बात कर रहे हैं तो भूलिए मत कि उस रिश्ते के दो सिरे है। जिसमें से एक सिरे पर आप खड़े हैं और दूसरे सिरे पर कौन है? यह भी आपने ही निर्धारित किया है।

दूसरे सिरे पर कौन है? उसकी बात करने वाले भी आप ही हैं। तो ले-देकर जब हम रिश्ते के परावर्धन की बात कर रहे हैं। जब हम रिश्ते के परिष्कार की बात कर रहे हैं। तो हम किसके परिष्कार की बात कर रहे हैं? तुम्हारे ही तो। आप बदल जाइए आपको जो रिश्ता आज बंधन लगता है, नहीं लगेगा।

फिर आप उस बंधन को अपने जीवन का प्रयोजन बना लेंगे। यह ऐसी-सी बात है जैसे एक कमज़ोर आदमी हो और उस पर वज़न रख दो, तो वह कहेगा, 'बंधन-बंधन, बंधन-बंधन'। दब जाएगा उसी बोझ की तले मर जाएगा। और यह थोड़ा मज़बूत आदमी हो उस पर वही वज़न रख दो तो वह उसी वज़न का इस्तेमाल करकर अपनी माँसपेशियाँ और मज़बूत कर लेगा।

वही लोग आपकी ज़िंदगी के जो आज आपको बंधन स्वरूप लगते हैं, वह कल आपका व्यायाम बन जाएंगे। जो घर आज आपके लिए क़ैदख़ाना है, वही घर कल व्यायामशाला बन जाएगा। आप कहेंगे, 'यहीं तो हमने सेहत अर्जित करी है। तुम नहीं होते तो किसका वज़न उठाते? तुम नहीं होते तो यह बाज़ू कहाँ से लाते?' बात समझ में आ रही है।

दूसरे पर दोष न डालें और यह बड़ी पुरानी शिकायत है सबकी। लोग सत्संग में आते हैं, कहते हैं, 'देखिए हम तो आ गए सत्संग में, पर हमारे वह तो नहीं आए न। हम अकेले ही आएं है, यही बंधन है। हम तो बड़े भले हैं, हमारा अध्यात्म में मन लगता है। हम सत्य के सेवक हैं, पर देखिए अकेले ही आएं है हम। हमारा बेटर हाफ (जीवन साथी) तो आया नहीं न।’

और वह जो बेटर हाफ है वह पकड़कर वापस खींच लेगा। क्यों भाई, बेटर हाफ में क्यों इतनी ताकत है कि वह तुम्हें वापस खींच लेगा और तुममें यह ताकत क्यों नहीं है कि तुम ख़ुद भी ऊपर उठो और दूसरे का भी ऊर्ध्वगमन करा दो। तुममें यह ताकत क्यों नहीं है?

तुम कह रहे हो, 'अंधेरे में रोशनी से ज़्यादा ताकत है?' हाय! बड़ी दुर्बल रोशनी होगी। तो सार्थक कर्म को थोड़ी देर पहले हमनें दो तरीक़ों से परिभाषित किया था, दो और तरीक़ों से करे देते हैं, रिश्तों के संबंध में।

रिश्तों के संबंध में सार्थक कर्म होता है—स्वयं मुक्ति पाना और जिनसे संबंधित हो, उनको भी मुक्ति दिलाना।

जो स्वयं मुक्ति पाता जाएगा, वह पाएगा कि उसके संबंधों का दायरा भी बढ़ता जा रहा है तो अंततः वह किसकी-किसकी मुक्ति के लिए उत्तरदायी हो जाएगा?

प्रश्नकर्ता: सबकी मुक्ति के लिए।

आचार्य प्रशांत: सबकी मुक्ति के लिए। यही अध्यात्म है। दो ही तरीक़े के सार्थक कर्म हैं— स्वयं मुक्त होते चलो। तुम मुक्त होते चलोगे, तुम्हारे संबंधों का दायरा विस्तार पाएगा। और अपने साथ-साथ जिनसे-जिनसे संबंधित हो उन सबको मुक्ति दिलाते चलो। जन्म तुम्हारा इसीलिए हुआ है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories