कुछ नाम: जिन्होंने प्रेम का आखिरी मूल्य चुकाया (आप नहीं जानते इन्हें?) || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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कुछ नाम: जिन्होंने प्रेम का आखिरी मूल्य चुकाया (आप नहीं जानते इन्हें?) || आचार्य प्रशांत (2023)

आचार्य प्रशांत: अधार्मिक चित्त दुनिया की ओर देखता है मुँह खोलकर और धार्मिक चित्त दुनिया की ओर देखता है आँखें खोलकर। बहुत बड़ा अन्तर है। अधार्मिक चित्त दुनिया की ओर हाथ बढ़ाता है लपक लेने को और धार्मिक चित्त अगर हाथ बढ़ाता है तो उठ जाने को, 'मेरा हाथ थाम लो मुझे ऊपर उठा दो।’

जीना तो इसी दुनिया में है और ये कोई मज़बूरी की बात नहीं है, ये अवसर और उत्सव की बात है। जीवन उत्सव है, बिलकुल है, पर सिर्फ़ धार्मिक मन के लिए। जीवन धार्मिक है तो प्रतिदिन उत्सव है, सतत् उत्सव है।

जीवन धार्मिक नहीं है तो कुछ नहीं है, मारपीट, लूट-खसोट, इसको नोच लिया, इससे ये किया। और तुम उसको नोच रहे हो, तुम्हें छोड़ देगा वो? तुम एक को नोच रहे हो, दूसरा तुम्हें नोच रहा है, यही करवाओ। यही भोगने को पैदा हुए हो।

और जैसे-जैसे ऊपर उठते जाते हो, पाते हो कि और न जाने कितने हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में हैं। फिर भीतर अनुग्रह आता है, मेरा हाथ उसने न थामा होता तो मैं और नहीं उठ पाता। अब मैं कैसे कुछ चुकाऊँ क्योंकि उसको तो मुझसे कुछ चाहिए नहीं। उसको मैं क्या दूँगा (ऊपर की तरफ़ इशारा करके), वो तो वहाँ बैठा है, उसको मैं क्या दूँगा। और मैं देना भी चाहूँ तो मुस्कुराकर बोलेगा, ‘तुम ऊपर उठ गये, मेरे लिए इतना काफ़ी है।‘ मैं कैसे चुकाऊँ। तो भीतर अनुग्रह उठता है और वो अनुग्रह अभिव्यक्त कैसे होता है फिर? कि ये जितने नीचे हैं, इनको ऊपर उठाऊँगा।

समझ में आ रही है बात?

जो ऊपर है उसके प्रति प्रेम, जो नीचे है उसके लिए करुणा। और कोई ऐसा मिल गया जिसके आगे अपनी सब शक्तियाँ विफल हैं, उसका कुछ कर ही नहीं पा रहे, तो हाथ जोड़कर बस उपेक्षा। वहाँ भी पहले कोशिश पूरी कर लेनी है, पूरी कोशिश, कि जितना हममें दम था, हमने पूरा लगा लिया। अभी भी यही चाहते हैं और आगे भी यही चाहते रहेंगे कि तुम उठो। लेकिन अभी हमारी विवशता है, हम सफल नहीं हो पा रहे तुम्हारे साथ। तो अभी तो जो हमारा सीमित बल है, उसे हमें कहीं और ही लगा लेने दो। हम किसी और की सहायता कर लें, वो बेहतर है।

ये धार्मिक मन का दुनिया के प्रति रवैया होता है। प्रेम में अनूठा, उसके प्रेम का कोई अन्त नहीं। और दूसरा अन्त नहीं उसकी जिज्ञासा का। न उसमें आप कभी प्रेम की कमी पाएँगे, न जिज्ञासा की। और कोई मिले आपको ज़िन्दगी में जो लगता हो प्रेमी जैसा, पर जिज्ञासा न रखता हो, तो वो प्रेम नहीं है, कुछ और होगा। है वो परधर्म का ही कोई रूप, वो प्रेम जिसके साथ ज्ञान नहीं है, वो कुछ गड़बड़ ही चीज़ है।

इसी तरह से कोई आपको मिले बड़ा खोजी, वो जानने को तो बहुत उत्सुक है, 'अच्छा ये कैसे चलता है, ये क्या है, ये बताओ, यहाँ पर ऐसे है, ये एक्सपेरिमेंट (प्रयोग) करो, वहाँ खुदाई करो, वहाँ से ये पता करके आओ।' पर आप पाओ कि उसमें नीचे वाले के प्रति करुणा नहीं है, ऊपर वाले के प्रति आदर नहीं है, तो ये आदमी हिंसक है, ये धार्मिक वगैरह कुछ नहीं है।

धर्म वहीं है जहाँ ये दोनों एक साथ चलते हों — जिज्ञासा और प्रेम।

बाहरी दुनिया की बात कर रहे हैं अभी हम। बाहरी की बात ज़्यादा इसलिए करेंगे क्योंकि इन्द्रियाँ सब स्थूल हैं, बाहर की ही चीज़ पहले पकड़ पाती हैं, पहचानती हैं। हालाँकि ज़्यादा ज़रूरी क्या है, आपका एक अन्दरूनी धार्मिक जीवन होता है और एक बाहरी धार्मिक जीवन होता है, इसमें से ज़्यादा ज़रूरी कौनसा है? अन्दरूनी। क्योंकि बाहर वाला भी कहाँ से आविर्भूत होता है? भीतर से ही आता है।

अगर भीतर वाला गड़बड़ है, तो बाहर वाला फिर दिखावा होगा या होगा ही नहीं कुछ। तो ज़्यादा ज़रूरी तो भीतर का प्रज्वलन और प्रकाश है, लेकिन ज़्यादा पकड़ में बाहर वाला आएगा। बाहर लगातार-लगातार एक आतुरता हो और यक़ीन जानिए आप सब जान जाएँगे। आतुरता आ जाएगी, भोग की लिप्सा थोड़ी सी ज़रा दबाएँ। फिर चेतना का स्वभाव है जानना, आप उसके ऊपर से ये दायित्व हटा दो तुझे भोगना है, तो ख़ुद ही जानने को लपलपाती है फिर। कहती है, ‘ये बताओ, वो बताओ।‘ सब प्रश्न-ही-प्रश्न होते हैं उसके पास और प्रश्न उसको पूछने नहीं पड़ते, अपनेआप में जानते हो सबसे बड़ा प्रश्न ध्यान स्वयं है। ध्यान माने एक विराट प्रश्न। विराट प्रश्न!

बाक़ी प्रश्नों को तो हटने के लिए उत्तर चाहिए होते हैं। ध्यान में प्रश्नों को प्रश्न की गहराई ही गला देती है। साधारण जिज्ञासा होती है न, उसमें सवाल होते हैं ऊपरी। उन ऊपरी सवालों को आपके ऊपरी जवाब दे दो, वो थोड़ी देर को हट जाते हैं। ध्यान का मतलब होता है इतना बड़ा सवाल पूछ दिया और इतना गहरा पूछ दिया — और ध्यान जितना गहरा होता गया सवाल भी उतना सूक्ष्म होता गया — और गहराई में ही सवाल फिर खो गया। बस ध्यान बचा सवाल कहाँ गया?

“हेरत हेरत हे सखी, रहा कबीर हेराय।”

ये ध्यान है। हेरत माने खोजना। 'ओ सखी, कबीर खोजने गया था और खोजते-खोजते ख़ुद ही खो गया।' ये ध्यान है।

“बुन्द समाना समुन्द में, अब कित हेरत जाय।”

खोजने कौन निकला था? अहम्, और वो खोजते-खोजते समुद्र के इतने पास पहुँच गया कि खोजने वाला ही मिट गया। अब कैसे समुद्र से बूँद को दोबारा अलग करें, सम्भव ही नहीं है। ये जो बाहर की जिज्ञासा होती है, ये कोई बाहर भर जानने का नाम नहीं होती।

ये जो आत्म अवलोकन होता है ये कोई स्वयं को जानने भर के लिए नहीं होता है। ये मिटने की प्रक्रिया है।

एक ही तरीक़ा है अपनी मिथ्यात्व को और मूर्खता को बचाने का — तुम्हें पता ही न हो कि मामला क्या है। जो जानेगा वो मिटेगा। अहम् की तुलना की जाती है कई बार नमक के ढेले से। उसको पता करना था मैं आया कहाँ से हूँ।

समुद्र के पास नमक की फैक्ट्रियाँ वगैरह होती हैं कई बार। गुजरात जाइएगा तो देखिएगा, वहाँ पर क्या करते हैं समुद्र के पानी से? नमक बनाते हैं। तो एक ढेला बनाया गया वहाँ, उसको चेतना हो गयी (मुस्कुराते हुए)। जैसे हम हैं, हम भी तो क्या हैं? नमक के ढेले ही हैं, जिसमें एक अहम् तत्व भी, जो प्रकृति की ही पैदाइश है, वो आ जाता है। विशेष तत्व है। ऐसा तत्व जिसका होना, न होना सदा सर्वोच्च न्यायालय में एक मुक़दमे के तौर पर चलता है, फ़ैसला कभी नहीं आता। अहम् से पूछो तो कहता है, 'मैं’?

श्रोता: 'मैं हूँ।’

आचार्य: और सारे साक्ष्य क्या बोलते हैं कि ये?

श्रोता: 'नहीं है।’

आचार्य: लेकिन न्यायाधीश भी फँसे हुए हैं क्योंकि सारे प्रमाण यही बोलते हैं कि ये नहीं है। लेकिन फिर भी वो खड़ा है और क्या बोल रहा है?

श्रोता: 'मैं हूँ।’

आचार्य: तो आँखों से दिख रहा है, कान में सुनाई दे रहा है। वो वहाँ खड़ा हुआ है कटघरे में और क्या बोल रहा है? 'मैं तो हूँ।' लेकिन जितनी वो जाँच करते हैं, वकील जैसे-जैसे साक्ष्य लाते हैं, क्या पता चलता है कि ये?

श्रोता: नहीं है।

आचार्य: अब वो वहाँ ऊपर बैठे हुए हैं। वो कह रहे हैं, लग तो रहा है कि नहीं है। अगर नहीं है तो फिर सुनाई क्यों दे रहा है, दिखाई क्यों दे रहा है, ये सशरीर खड़ा कैसे है? और मैं-मैं कैसे बोल रहा है अगर नहीं है?

समझ में आ रही है बात?

तो अब नमक का ढेला उसमें भी ये मैं-मैं-मैं शुरू हो गया और उसने कहीं से गीता समागम सुन लिया। तो बोलता है, ‘मैं पता करूँगा, मैं हूँ कौन, मेरा स्रोत क्या, मैं आया कहाँ से, मेरी मम्मी कौन छे, मेरे डैडी कौन छे।’ गुजरात। तो किसी ने बताया, 'क्या यहाँ बैठे-बैठे दिन भर सवाल फेंकता रहता है, उधर समुद्र देख रहा है, उधर से ही हम सब आये हैं, जा वहाँ पूछकर आ।' तो वो चला गया पूछने। पूछने में उसको आनन्द आने लगा, वो और अन्दर चला गया। लोग कहते हैं वो फिर कभी लौटकर नहीं आया।

समझ में आ रही है बात?

जिज्ञासा सिर्फ़ उत्तर पाने के लिए नहीं होती, जिज्ञासा स्वयं को मिटाने के लिए होती है। प्रश्न की गहराई में सिर्फ़ प्रश्न नहीं मिटता, प्रश्नकर्ता ही मिट जाता है। ये धार्मिक चित्त है।

परधर्म, स्वधर्म का अन्तर स्पष्ट हो रहा है?

कोई कहे प्रकृति के इशारों पर न चलना, तो बात बहुत समझ में नहीं आती। तो उसको हम क्या कहेंगे? देह, समाज, संयोग पर नहीं चलना। ये परधर्म है। ठीक है? ये परधर्म है।

स्वधर्म क्या है? अहम् का एक मात्र कर्तव्य आत्मा है, इसको स्वधर्म बोलते हैं। स्वधर्म की बाहरी और भीतरी जगत में अभिव्यक्ति कैसे होती है? भीतर प्रेम की ज्वाला और अवलोकन का प्रकाश और बाहर पूरे जगत के प्रति जिज्ञासा। उसके प्रति आदर (हाथ उठाकर ऊपर की तरफ़ संकेत करते हुए), इसके प्रति करुणा (नीचे की तरफ़ संकेत करके)। ये स्वधर्म है।

समझ में आ रही है बात ये?

समूचा अध्यात्म इतने में आ जाता है। बाक़ी सब बातें इसकी शाखाओं की तरह हैं या कोरोलरीज़ (परिणाम) हैं।

स्पष्ट हो रही है बात ये? ठीक है।

श्रीकृष्ण कह रहे हैं,

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनंश्रेयः परधर्मो भयावह:।।

सुन्दर रूप से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित होने पर भी निजधर्म श्रेष्ठतर है, अपने धर्म में मृत्यु भी कल्याणकारी है, दूसरों का धर्म भययुक्त या हानिकारक है।

~ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३, श्लोक ३५

तो जो अपना धर्म है उस धर्म को उन्होंने क्या कहा? विगुण धर्म। विगुण धर्म माने जिसका गुणों से कोई लेना-देना नहीं। गुणों से लेना-देना नहीं माने किससे लेना-देना नहीं? प्रकृति से लेना-देना नहीं। इसका आमतौर पर अनुवाद ऐसे कर दिया जाता है कि अपने धर्म में अगर कोई गुण न भी हो, तो भी उसका पालन करो। वो गुण से आशय ले लेते हैं श्रेष्ठता।

इसका आप कहीं भी अनुवाद पढ़ेंगे, तो वहाँ ऐसे बता देंगे कि जो दूसरे का धर्म है, वो भले ही बहुत सुन्दर तरीक़े से उसका अनुष्ठान हो रहा हो, तो भी उसका पालन मत करना। जो दूसरे का धर्म है वो सुअनुष्ठित हो, तो भी उसका पालन मत करना और जो अपना धर्म है, वो भले ही विगुण हो, तो भी उसका पालन करना। 'वो भले ही विगुण हो' कहने में आशय ये रहता है कि विगुण माने गुणरहित। गुणरहित माने जैसे कहते हैं न कि इसमें कोई गुण ही नहीं है।

वो ये समझ ही नहीं रहे कि यहाँ श्रीकृष्ण की बात हो रही है भाई। जब श्रीकृष्ण गुण कहें, तो उसका आशय आम ज़मीन की भाषा वाले गुण से नहीं है। जब श्रीकृष्ण गुण कहें, तो उससे मतलब है प्रकृति। और श्रीकृष्ण जब कह रहे हैं कि तुम्हें विगुण धर्म का पालन करना है तो उससे आशय है तुम्हें प्रकृति धर्म का पालन नहीं करना है।

समझ में आ रही बात ये?

नहीं तो इसकी जो दूसरी पंक्ति है, वो तो फिर भी ठीक है, लोग उसको समझ लेते हैं। पहली पंक्ति में बड़े विकार डाल दिये जाते हैं उनसे बचिएगा। पहली पंक्ति का आमतौर पर जो अर्थ है, वो मेरी दृष्टि में ठीक नहीं है। अब मैं विनम्रता के साथ इतना ही कह सकता हूँ कि मेरी दृष्टि में जो पहली पंक्ति का अर्थ है, वो वेदान्त-सम्मत् नहीं है। श्रीकृष्ण वैसी बात नहीं बोलेंगे। लगातार-लगातार श्रीकृष्ण 'गुण' शब्द का प्रयोग करते ही आ रहे हैं न। अर्जुन को क्या बोला था उन्होंने, सिर्फ़ एक शब्द में? बोलो-बोलो-बोलो, हाँ-हाँ बोलो (श्रोता से कहते हुए)।

श्रोता: निस्त्रैगुण्यो।

आचार्य: हाँ। तो जब अर्जुन को बोल रहे हैं कि तीनों गुणों से हट जाओ, “निस्त्रैगुण्यो भवः अर्जुन”, तो ये बोल रहे है कि अर्जुन दुर्गुणी हो जाओ? वहाँ गुण से क्या आशय है, श्रीकृष्ण की भाषा में? प्रकृति से हटना न, प्रकृति से हटना। तो यहाँ भी जब विगुण लिखा है, तो उसका आशय ये थोड़ी है कि भले ही तुम्हारे धर्म में कोई गुण न हो, फिर भी अपने धर्म का पालन करना है। लोग ये अर्थ लगा रहे हैं। नहीं, यहाँ पर श्रीकृष्ण स्वधर्म की परिभाषा ही बता रहे हैं कि उसमें गुण नहीं होते। जहाँ गुण है वहाँ स्वधर्म नहीं हो सकता। तो गुण वाले धर्म का पालन मत करना माने प्रकृति धर्म का माने परधर्म का पालन मत करना।

ये स्पष्ट हो रही है बात?

तो बाक़ी तो ”स्वधर्म निधनं श्रेय:।” बहुत प्यारी बात है ये। जब कष्ट हो रहा हो स्वधर्म के पालन में, तो अपनेआप को यही बोल दो — स्वधर्मे निधनं श्रेय:। युध्यस्व!

वहाँ बोला था भिड़ो और यहाँ बोला है अब जान भी जाए तो कोई बात नहीं। और जान की बाज़ी तो लगेगी। ये तो नहीं हो सकता कि मामला हल्का है और सस्ते में मिल जाएगा। सबसे जो ज़बरदस्त हमको एषणा होती है, वो प्राणों की ही तो होती है न, प्राणों की। तो मुक्ति के मार्ग में जो आख़िरी बाधा आएगी, वो यही तो आएगी कि लगेगा प्राण ही चले गये। ऐसा कैसे हो सकता है कि जो आपका सबसे बड़ा बन्धन है, उसको चुनौती न मिले और मुक्ति भी आ जाए, ऐसा हो सकता है क्या?

तो सबसे बड़ा बन्धन क्या है? जीवेषणा ही तो है न (शरीर की ओर इशारा करते हुए)। तो मुक्ति के जो भी खोजी हैं, उनके जीवन में ऐसा निश्चित रूप से होगा कि उनको लगेगा कि प्राण ही जा रहे हैं, मर ही जाएँगे। और जब वो मौक़ा आये कि लगे कि क्या अब जान ही जाएगी क्या, तो समझ लेना कि अब सबसे बड़ी और शायद आख़िरी चुनौती सामने है, अब यहाँ नहीं हार माननी है। नहीं तो बड़ा अफ़सोस रह जाएगा आगे के लिए। सो नियर येट सो फ़ार (इतना क़रीब फिर भी इतना दूर)। पाते-पाते रह गये।

दाम काफ़ी चुकाया पर वस्तु जब बहुत निकट थी, ठीक तभी टाँगें काँप गयीं, घुटने टेक दिये। रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियाँ हैं, अब वैसे याद रहती हैं, अभी नहीं याद आएँगी। तो कहते हैं कि — कर्ण कह रहे हैं कि — “और सब मूल्य तो सब देते रहते हैं, पर अन्तिम मूल्य न दिया प्राणों का, तो बाक़ी मूल्य देना क्या।” अभी तो मैं कुछ ऊपर-नीचे उद्धरित कर रहा हूँ। बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं, वो कहते हैं, 'जीवन में जो इच्छित वस्तु होती है, उसके मूल्य तो सभी चुकाते हैं, पर जो उच्चतम वस्तु है, उसका मूल्य भी तो उच्चतम ही होगा न भाई! तो प्राणों का मूल्य अगर नहीं दे रहे हो तो बाक़ी तुमने जो भी मूल्य दिये, वो बेकार गये और व्यर्थ गये। वो मूल्य तुमने दे भी दिया और कुछ पाओगे भी नहीं।'

तो जीवन में एक तो मौक़ा ऐसा आएगा, सबके जीवन में आएगा, जब ऐसा लगेगा जैसे मृत्यु ही होने वाली है। उस समय पर अगर आपके क़दम उखड़ गये तो फिर ख़त्म।

आ रही है बात समझ में?

प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन उसे निभाना। सबसे बड़ी जाँच है, व्रत का अन्तिम मोल चुकाना। सबसे बड़ी जाँच है, व्रत का अन्तिम मोल चुकाना। अन्तिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या? करने लगे मोह प्राणों का, तो फिर प्रण लेना क्या?

वही अन्तिम मूल्य है। व्रत करना, प्रण करना, ये तो आसान है। दिक्क़त सारी तब आती है जब दाम देने पड़ते हैं। “मीठे लागे दाम।” दाम नहीं देना चाहते।

आगे सुनिएगा, आनन्द आएगा बिलकुल।

सस्ती क़ीमत पर बिकती रहती जब तक कुरबानी, सस्ती क़ीमत पर बिकती रहती जब तक कुरबानी, तब तक सभी बने रह सकते हैं त्यागी बलिदानी।

जब तक मामला सस्ता रहता है, तब तक सभी क्या बने रह जाते हैं? 'अजी! ये भी त्यागी है, ये भी बलिदानी है।’

पर महँगी में मोल तपस्या का देना दुष्कर है, हँस कर दे दे वो मूल्य न मिलता वह मनुष्य घर-घर हैl

बिरला होता है वह मनुष्य जो महँगा मूल्य चुका दे। वो मनुष्य घर-घर नहीं मिलता।

आगे भी बहुत सुन्दर है। आगे आप पढ़ेंगे, अच्छा लगेगा। सुनिएगा।

जो नर आत्मदान से अपना जीवन घट भरता है, वही मृत्यु के मुख में भी पड़कर न कभी मरता है।

अब आगे की जो पंक्तियाँ हैं बहुत-बहुत सुन्दर हैं और हमने कहा था न अभी पिछले सत्र में कि सुन्दरता सिर्फ़ वहीं हो सकती है जहाँ अहंकार न हो। यही परिभाषा ली थी न अभी लाऊत्जू के साथ। तो यहाँ आत्मदान की बात करी है न। आत्मदान माने आत्मा का दान? किसका दान? अहंकार का दान। तो अब उससे सुन्दरता आ गयी यहाँ पर। सुनो,

जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला, वहाँ खड़ा है कोई अन्तिम मोल चुकाने वाला।

दुनिया में जहाँ कहीं भी सुन्दरता देखना, ज्योत, प्रकाश देखना, उजियाला देखना, पक्का जान लेना कि वहाँ कोई खड़ा है जिसने वो अन्तिम मूल्य चुकाया था। नहीं तो सौन्दर्य नहीं आ सकता। अन्तिम मूल्य का क्या मतलब होता है? स्वत्व का ही दान, अहम् का दान। आत्मदान, अहम् ही अपनेआप को चुका दे।

सुन अन्तिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की, सरमद ने हँस कर उतार दी त्वचा समूचे तन की। हँसकर लिया मरण होठों पर, जीवन का व्रत पाला, अमर हुआ सुकरात जगत में पीकर विष का प्याला। मरकर भी मंसूर नियत की सह पाया न ठिठोली, उत्तर में सौ बार चीखकर बोटी-बोटी बोली। दान जगत का प्रकृत धर्म है मनुज व्यर्थ डरता है, एक रोज़ तो हमें स्वयं सब कुछ देना पड़ता है, बचते वही समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं। रित का जिनको ज्ञान नहीं वे देकर भी मरते हैं।

'रित' माने लाऊत्जू का ताओ, ब्रह्म। जो जीवन का नियम नहीं जानते, देते तो वो भी हैं, वो कैसे देते हैं? एक दिन मौत हो जाती है, शरीर चला जाता है। लेकिन जो समय पर माने अवसर रहते, माने जीवन रहते ही दान कर दें अहम् का, वो फिर अमर हो जाते हैं। बचाकर भी कुछ मिलना नहीं है, मौत आकर के ले तो जाती ही है शरीर को, लेकिन अमर वो हो जाते हैं जो शरीर के रहते अपने सर्वस्व का त्याग कर देते हैं, दान कर देते हैं या ये कह दो क़ीमत अदा कर देते हैं, मूल्य चुका देते हैं।

श्रीकृष्ण यहाँ कह रहे हैं ‘सुअनुष्ठितात’। ये जो पराये धर्म हैं न, ये बड़े बढ़िया तरीक़े से अनुष्ठित रहते हैं, माने बड़े विधि-विधान के साथ होंगे, बड़े नियमबद्ध तरीक़े से होंगे। क्योंकि ये बहुत समय से चले आ रहे हैं और बहुत लोगों द्वारा चलाये जा रहे हैं, तो ये मँझ गये हैं। मँझना समझते हो? चमक गये हैं। जो चीज़ बहुत दिनों से प्रयोग में आ रही हो, वो क्या हो जाती है? वो चमक जाती है। तो जो परधर्म है, वो बहुत चमका हुआ है और चमकी हुई चीज़, घिसी हुई चीज़, मँझी हुई चीज़, उसकी चकाचौंध होती है, वो आकर्षक लगती है।

तो इसलिए श्रीकृष्ण पहले ही चेतावनी दे रहे हैं। वो कह रहे हैं उधर जो है, जो पराये धर्म का अनुष्ठान चल रहा है, वो आकर्षक तो हमेशा लगेगा, पर उसमें फँसना नहीं। वो आकर्षक सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि बहुत लोगों द्वारा और बहुत समय से उसको माँझ दिया गया है, पॉलिश कर दिया गया है। पर उसकी जो बाहरी चकाचौंध है, उससे उसका भीतरी खोखलापन दब नहीं जाता।

कोई केतली हो सकती है खोखली, अब यही है (कप दिखाते हुए), इसको बाहर से खूब माँझ दो, तो ये कैसा हो जाएगा? चमक जाएगा। भीतर तो लेकिन खोखला ही है, कुछ नहीं है इसमें। तो जो परधर्म है वो चमकता खूब है और जो स्वधर्म है वो मूल्य माँगता है।

तो जीव प्राकृतिक तौर पर किधर को खिंचेगा? परधर्म को। तो इसलिए इतनी सख़्त चेतावनी देनी पड़ रही है कि मर जाना, परधर्म का पालन मत करना। और परधर्म में आप फँस सकते हैं, क्योंकि 'पर' माने पता नहीं चलता। 'पर' माने क्या? वैसे तो बहुत स्पष्ट है प्रकृति ही परायी है और आत्मा अपनी है, इतने से ही स्पष्ट हो जाना चाहिए। पर इतने से स्पष्ट नहीं होता इसीलिए आज मैं आठवीं-दसवीं बार दोहरा रहा हूँ। परधर्म का अर्थ हुआ — शरीर धर्म, समाज धर्म, संयोग धर्म। इनमें नहीं फँसना है।

स्वधर्म का क्या मतलब हुआ? आत्मा। आत्मा। प्रकृति में फँसने को पैदा नहीं हुआ हूँ। आत्मा मेरा अभिप्राय है, आत्मा मेरा प्रयोजन है, आत्मा मेरा जीवन है, आत्मा मेरा प्रेम है। और आत्मा के प्रति ही जो मेरा प्रेम है, वो जगत के प्रति मेरी करुणा में अभिव्यक्त होता है।

स्पष्ट है या कुछ फँस रहा है?

इस स्वधर्म को और अगर समझना हो, जैसे हमने परधर्म को तीन नाम दिये, क्या? शरीर, समाज, संयोग। वैसे ही स्वधर्म को भी दो नाम दे दीजिए — प्रेम धर्म, ज्ञान धर्म। प्रेम धर्म और ज्ञान धर्म। वो परम्परा बतायें, आप प्रेम बताइएगा। वो देह बतायें, आप ज्ञान बताइएगा। परधर्म के नीचे तीन चीज़ें लिख दी हैं न। वैसे ही स्वधर्म के नीचे ये दो चीज़ें लिख दीजिएगा — प्रेम और ज्ञान।

तो स्वधर्म माने प्रेम धर्म और स्वधर्म माने ज्ञान धर्म। और एक बड़ा सा असमानता का निशान बना दीजिए, ग्रेटर देन। प्रेम बड़ा है देह से, समाज से, संयोग से। और ज्ञान बड़ा है देह से, समाज से, संयोग से। कुछ मेरे सामने आ गया है संयोग से, क्यों मैं उस पर चल दूँ, मैं अपने प्रेम पर चलूँगा। कुछ मेरे सामने मेरे जीवन में आ गया है बेहोशी में, मैं बेहोशी पर क्यों चलूँ, मैं अपने बोध पर, अपने ज्ञान पर चलूँगा। उन तीन पर चलना हुआ परधर्म, इन दो पर चलना हुआ स्वधर्म।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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