आचार्य प्रशांत: क्या करना है, क्या नहीं करना है। क्या होना है, क्या नहीं होना है। दिशा कौनसी लेनी है, नहीं लेनी है इसका निर्णय अहंकार ही करता है। और आप ये नहीं कह सकते कि अहंकार ने अपने लिए गलत निर्णय करा। कोई और देखें, तो कह देगा कि ये व्यक्ति गलत निर्णय कर रहा है। आप ही अपनेआप को कुछ काल बाद देखें, तो हो सकता है आप भी बोल दें कि मैंने गलत निर्णय कर डाला। लेकिन जिस पल आप जो बने हैं और जो कर रहे हैं, वो आप कर ही इसीलिए रहे हैं क्योंकि उस पल आपको लग तो वही ठीक रहा है।
तो अहम् चलता है अपने हिसाब से, अपनी गणनाओं पर, स्वयं को ही प्रमाण मानकर। कैसे सिद्ध करोगे कि जो तुम बने बैठे हो या कर रहे हो वो ठीक है, उचित है। अहम् का आखिरी जवाब होता है, क्योंकि ऐसा मुझे लगता है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है, ऐसे मेरी गणना है, ऐसा मेरा हिसाब है। और कोई अन्तिम तर्क नहीं होता अहम् के पास। और भी तर्क होते हैं पर वो इस तर्क से पूर्ववर्ती होते हैं। माने वो इस तर्क से पहले के, इस तर्क से हल्के तर्क होते हैं।
वो समझ लीजिए बाकी सब जो तर्क हैं, वो साधारण न्यायालय है, जिला न्यायालय। बहुत हुआ तो उच्च न्यायालय। लेकिन अहम् के देश में, अहम् की दुनिया में उच्चतम न्यायालय तो अहम् स्वयं हैं। ऐसा नहीं कि दूसरे अन्य लोगों को कोई अधिकार ही नहीं है कुछ कहने का। उन्हें अधिकार है, पर उनके सब अधिकारों से अहम् अपना अधिकार ऊपर रखता है। ठीक वैसे, जैसे जिला न्यायालय में कोई बैठा हुआ न्यायाधीश, उसको भी निर्णय देने का अधिकार है। कौन कह रहा अधिकार नहीं है? लेकिन वहाँ जो उच्चतम बैठा हुआ है न्यायाधीश, वो कहता है, ‘तुम दे लो, पर तुम्हारा चलेगा या नहीं चलेगा, ये आखिरी निर्णय तो मैं ही करूँगा।’
तो शास्त्र कुछ बोल लें, ठीक है शास्त्रों ने बोल लिया अच्छी बात है। पर शास्त्रों की बात माननी है कि नहीं माननी है, ये कौन तय करता है? अहम् तय करता है। तो शास्त्र बड़े हुए या अहम् बड़ा हुआ? अगर शास्त्रों की बात मानी भी गयी, तो भी क्या शास्त्र बड़े हुए? अगर अहम् बिलकुल शास्त्रों की बात मानकर भी चल रहा है, तो भी बड़ा कौन है? अहम् बड़ा है न। क्योंकि अहम् ने निर्णय किया है कि शास्त्र की बात माननी है। कल को अहम् अपना जो निर्णय है उसको पलट भी सकता है।
भाई! उच्च न्यायालय, हाईकोर्ट हमेशा जो निर्णय करता है, सुप्रीम कोर्ट उसको पलट तो देता नहीं। पर हाईकोर्ट ने कुछ फ़ैसला दिया, उसकी अपील हो गयी उच्चतम न्यायालय में। उच्चतम न्यायालय ने कहा, ‘नहीं, सही फ़ैसला था।’ तो इसका अर्थ ये थोड़े ही है कि जो उच्च न्यायालय का फ़ैसला है वही अन्तिम था। भले ही जो उच्च न्यायालय का फ़ैसला है, कार्यान्वित अन्ततः वही हुआ। लेकिन अन्तिम फ़ैसला किसका था? वो तो उच्चतम का ही था, माने अहंकार का था। अहंकार उच्चतम न्यायालय है अपनी ही दृष्टि में।
तो शास्त्र की हमने कह दी बात। अब ऐसे ही मान लो परम्परा है, गुरु है, और सब जो दुनिया भर के तमाम लोग होते हैं, ताकतें होती हैं जो कुछ कहते हैं, सुझाते हैं, सलाह देते हैं, उनकी भी बात मानी भी गयी, तो भी फ़ैसला किसका था? नहीं भी मानी गयी, तो भी फ़ैसला किसका था?
तो अहम् के अपने ढर्रे होते हैं वो उन पर चलता है। अहम् के पास चेतना तो कुछ होती नहीं, उसके पास ढर्रे होते हैं ढर्रे, ढर्रे। और उन्हीं ढर्रों को वो मान लेता है सजीव, जीवित हैं, सचेत हैं। और वही ढर्रे बोलने लग जाते हैं ‘मैं’। जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में जो पैटर्न्स हैं, वो क्या कहने लग जाएँ ‘आइ’, हम हैं। और उनको अब ऐसा सिखाया जा सकता है।
उनको ऐसा सिखाया जा सकता है कि अगर इस-इस तरह की शर्तें पूरी हो रही हों, तो साहब इस मशीन को ये हक दिया जाता है कि ये बोल सकती है, ‘आइ’। बिलकुल बोल सकती है। और शर्त क्या हो सकती है, उसकी हम बात कर चुके हैं। वो जो शर्त है, बहुत पुरानी शर्त है। कई दशकों के पुरानी शर्त है, और वो इतनी सरल शर्त है कि वो आज भी प्रासंगिक है। ट्यूरिंग टेस्ट।
कि किसी मशीन के आउटपुट को अगर कोई दूसरा व्यक्ति, जीवित व्यक्ति, चैतन्य व्यक्ति जान ही न पाये कि ये मशीन का आउटपुट है, तो उस मशीन को ये हक मिल गया है कि अब वो कह सकती है ‘आइ’। आपसे एक मशीन बात कर ही है, आपको पता ही नहीं चला, वो मशीन थी कि इंसान था। तो ठीक है फिर मशीन अब कह सकती है ‘आइ’, मैं हूँ। बताओ न, मैं क्यों नहीं हूँ? जब मेरी बातचीत से, मेरे व्यवहार से, मेरी प्रतिक्रियाओं से तुम ये पता लगा ही नहीं सकते कि मैं यंत्र हूँ, कि प्राणवान जीव हूँ, तो फिर मुझे प्राणी ही मानो न।
समझ में आ रही है बात?
तो अहम् है तो एक ढर्रा, सिर्फ़ एक ढर्रा, वो मृत ढर्रा है। उसमें कुछ नहीं है, ढर्रा है वो एक। पर वो अपनेआप को कहना क्या लग गया? मैं, आइ, अहम्। ठीक है? इस ढर्रे के लिए दो चीज़ें बहुत आवश्यक होती हैं। पहला — मैं जानता हूँ। और दूसरा — मेरे पास कामना है। मैं जानता हूँ, मेरे पास कामना है। क्या जानता है अहम्? सबसे पहली उसकी जानकारी क्या होती है?
श्रोता: मैं हूँ।
आचार्य प्रशांत: हाँ, थोड़ा आगे बढ़ाओ, मैं क्या हूँ? मैं....।
श्रोता: मैं अपूर्ण हूँ।
आचार्य प्रशांत:: मैं अपूर्ण हूँ। अहम् की पहली जानकारी क्या होती है? मैं अपूर्ण हूँ। इसकी हम बहुत बार चर्चा कर चुके हैं न। अहम् पैदा ही इसी ज्ञान के साथ होता है अगर इसको हम ज्ञान बोल सकें तो। अब ज्ञान न बोलें, तो क्या बोलें? अहम् के लिए तो ज्ञान ही है। अहम् पैदा ही इसी ज्ञान के साथ होता है कि मैं हूँ अपूर्ण। और अपूर्ण होते ही अहम् में क्या जाग्रत हो जाती है?
श्रोता: कामना।
आचार्य प्रशांत:: कामना। ऋषि अष्टावक्र आज दोनों को तोड़ रहे हैं। और दो ऐसे वो हमारे सामने आज शब्द लेकर आएँगे, जिनसे शायद हमारा कोई पूर्व परिचय न हो। तो आज बात एकदम गर्मा-गर्म होने जा रही है। पहला शब्द है, ‘निर्वेद’। और दूसरा शब्द है, ‘अव्रती’। अब ये दोनों शब्द अहंकार के लिए बड़े पूजनीय होते हैं।
पहला शब्द क्या? वेद, विद्, जानना। और दूसरा शब्द व्रत, व्रत माने संकल्प, कामना। अहंकार इन दो चीज़ों में पलता है न? मैं जानता हूँ। और मैं ये जानता हूँ मैं अपूर्ण हूँ तो मेरे पास कामना होती है, क्या होने की? पूर्ण होने की। कामना के लिए ये क्या शब्द है? व्रत, संकल्प। और मैं जानता हूँ उसके लिए क्या शब्द है? विद्, जानना। आज ऋषि अष्टावक्र दोनों बातें तोड़ रहे है। कह रहे हैं, ‘तुझे बहुत पसन्द है न जानना। और तुझे बहुत पसन्द है न, कामना करना, संकल्प करना, विल पॉवर, व्रत, अनुष्ठान, प्रतिज्ञा, दृढ़ता, ध्रुती ये सब तुझे बहुत पसन्द है न। हम तोड़े देते हैं।’
ऋषि अष्टावक्र कह रहे हैं, ‘सबसे ऊँची बात वेद नहीं है, सबसे ऊँची बात है निर्वेद हो जाना।’ निर्वेद हो जाओ। फिर ऋषि अष्टावक्र कह रहे हैं, ‘सबसे ऊँची बात ये नहीं है कि तुम व्रती हो गये, संकल्पी हो गये, कामी हो गये। सबसे बड़ी बात ये है कि तुम अव्रती हो जाओ।’ जानने से बहुत ऊँची बात है, न जानना। और व्रत से बहुत ऊँची बात है, अव्रती। ये क्या बात कर दी, जानने से ऊँची बात न जानना, कैसे हो सकता है? और वो भी हम ये ज्ञानयोग की एक शास्त्र में ऐसी बात पढ़ रहे हैं। ज्ञानयोग के उच्चतम ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ क्या बोल रहा है? निर्वेद हो जाओ।
अब ये बात बुद्ध ने बिलकुल बोली है। बुद्ध बिलकुल बोलते हैं कि वेदना जो है, तमाम तरीके के तुम्हारे क्लेशों का कारण है। तो वो बात जो है, वेदना भी वहीं से आयी है, विद्। तो वो बात बौद्ध साहित्य में तो पायी जाती है कि वेदना मुक्त होना निर्वाण है। पर वेदान्त में, वो भी ज्ञान मार्ग में, ये चल क्या रहा है? कह रहे हैं, निर्वेद हो जाओ। क्यों हो जाएँ?
इसलिए हो जाओ क्योंकि हमारा जितना ज्ञान होता है न, वो सारा-का-सारा खड़ा होता है एक मूल ज्ञान की बुनियाद पर। और वो मूल ज्ञान वही है जिसकी अभी चर्चा करी, कि मैं हूँ अपूर्ण। और ये जो अपूर्णता है, ये तथ्य तो है नहीं। है क्या ये बस एक? मान्यता है। तो जो हमारा पूरा भौतिक ज्ञान होता है, सांसारिक ज्ञान होता है, वो खड़ा होता है एक मान्यता, एक एजम्प्शन पर। ये क्या हो गया?
आपका पूरा जो भौतिक ज्ञान है, वो एक मान्यता पर खड़ा है। आप बोल रहे हैं, वो ज्ञान है। और वो खड़ा किस पर है? मान्यता पर। मान्यता माने कल्पना और कुछ भी नहीं, और कुछ भी नहीं। कोई अज्ञानी आ जाए, बुद्धू। कोई अज्ञानी आ गया बुद्धू, वो यहाँ बोले, ‘यहाँ छ: लोग बैठे हैं कुल, यहाँ छ: बैठे हैं। तो कहेंगे, ‘अज्ञानी कहीं का।’ अब पण्डित जी बुलाए गये ज्ञानी। पण्डित जी ने गिनकर बोला, छप्पन, छप्पन। आप कहोगे, ‘ये ज्ञानी निकले देखा, एकदम बता दिया छप्पन जने हैं।’
ये छप्पन के पीछे एक मान्यता है बड़ी भारी, बहुत भारी मान्यता है। सारा ज्ञान उस मान्यता पर खड़ा होता है। छप्पन को तो आप ज्ञान बोल दोगे, पर आपको ये नहीं दिख रहा है कि जो छप्पन का आँकड़ा है, वो एक मान्यता पर खड़ा है। वो मान्यता ये है कि ये सब हैं। मान्यता ये है कि ये हैं। अब जिसने छ: बोला, उसके पास भी एक मान्यता थी, क्या? ये हैं। वो बेचारा बस गिनती नहीं कर पाया था। उसके सपने में कुछ किरदार आये थे, वो ठीक से नहीं गिन पाया। ये छप्पन वाले थे, इन्होंने गिन लिया छप्पन है। पर ये भी तो मानकर चल रहे हैं न कि ये सब है।
उसको ‘है’ का स्थान देने को मजबूर कौन होता है? जो इस बात से मजबूर होता है कि ‘मैं हूँ।’ अहम् की ये मजबूरी कि उसे मानना पड़ेगा कि मैं तो ‘हूँ ही।’ यही मजबूरी बन जाती है संसार को सत्य मानने की उसकी विवशता। जहाँ अहंकार है, वहाँ संसार है। क्योंकि भाई अगर वो छप्पन नहीं है, तो ये सत्तावनवाँ भी तो झूठ हो गया न। अब ये मर जाएगा कैसे अपनेआप को झूठ बोले।
तो इस एक झूठ को बचाने के लिए उसे छप्पन झूठ बोलने पड़ेंगे। क्योंकि आप ये तो नहीं बोल सकते कि ये (श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए) छप्पन तो नहीं है, पर ये (अपनी ओर इशारा करते हुए) है। क्या ये बोल पाओगे? आप यहाँ पर आओ, यहाँ छप्पन बैठे हैं, और आप बैठे हो यहाँ पर। क्या आप बोल पाओगे, ये (श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए) छप्पन तो मिथ्या हैं, पर ये (अपनी ओर इशारा करते हुए) असली है। ऐसा बोल पाओगे?
और इसको (अपनी ओर इशारा करते हुए) बनाना अहम् की मजबूरी है। क्योंकि वो तो बोल चुका है ‘मैं’, ‘मैं।’ इसको तो बोलना ही पड़ेगा न, ये है। इसको अगर बोलना है कि ये है, तो इन सबको भी तो मानना पड़ेगा कि ये हैं। तो ये जो छप्पन अंकीय ज्ञान था, ये एक ज़बरदस्त कल्पना के आधार पर खड़ा हुआ था। कल्पना क्या थी? ये सबकुछ है मामला। जैसा है ये तो है ही है। सारा ज्ञान ऐसा ही होता है, सारा विज्ञान यही है।
सारा जो भौतिक विज्ञान है वो ये मान के चल रहा है कि ‘है’ तो है ही। हम ये पता करेंगे क्या है? विज्ञान ये थोड़े ही पूछता है कि ये खम्भा है भी कि नहीं। वो कहता है, खम्भा तो है क्योंकि आँखों से दिख रहा है। आओ अब चलो खोजते हैं कि इसका मामला क्या है। अणु-परमाणु जिस भी तरीके से खोजना हो, अलग-अलग तरीके से खोजा जाता है। विज्ञान ये थोड़े ही कहता है कि ये सबकुछ है भी क्या? ये प्रश्न विज्ञान में आता ही नहीं है।
तो विज्ञान भी एक तरीके से एक भारी अन्धविश्वास पर खड़ा हुआ है। वो अन्धविश्वास क्या है? कि अनुभव हो रहा है, तो है। और ये अन्धविश्वास रखना अहंकार की भारी मजबूरी है। इसीलिए अहंकारी आदमी हमेशा अनुभववादी होता है। वो अपने अनुभवों को ही सत्य मानता है पहली बात। दूसरी बात, स्वयं को पूर्णता देने के लिए नये-नये अनुभवों की तलाश में रहता है।
अहंकार की एक निशानी है अनुभवों को बड़ा वज़न देना, बहुत वज़न देना। तो वो कहेगा, ‘जो कुछ दिख रहा है, ये तो सत्य है। क्योंकि मेरी आँख को ऐसा अनुभव हुआ। और दूसरी बात, मैं अपूर्ण हूँ, तो मुझे पूर्णता भी कौन दिलाएगा? अनुभव ही दिलाएँगे। नये-नये तरीके के दिलाएँगे अनुभव। चलो, आज कुछ नये प्रकार का खाना खा लेते हैं, नये तरीके के कपड़े ले आते हैं, किसी नये देश घूम आते हैं, कुछ और कर आते हैं। नये रिश्ते बना लेते हैं, नयी पिक्चर देख आते हैं।’
ये जो अनुभववाद है, ये मजबूरी है अहंकार की। और ये इतनी ज़बरदस्त मजबूरी है कि आध्यात्म में भी पूरे तरीके से घुसी रहती है। ज़्यादातर आध्यात्मिक लोग आपको यही कहते मिलेंगे, ‘बताओ, तुम्हारे आध्यात्मिक अनुभव क्या हैं?’ और जो व्यक्ति ऐसी बात कर दे कि आध्यात्मिक अनुभव, कि अध्यात्म में जब आप प्रवेश करते हो, फ़लानी विधि करते हो, तो आपका जो सिर है, वो अचानक हल्का होना शुरू हो जाता है। कानों में घंटियाँ बजने लगती हैं, दिल में सुराख होने लगता है, पेट में बुलबुले आ जाते हैं। इस तरह की बातें जहाँ शुरू हो जाएँ, जान लो अहंकार बोल रहा है। और एकदम भ्रमित अहंकार। जो देख ही नहीं पा रहा कि अहंकार की प्यास अनुभव की होती है।
तो आप अगर अनुभव-अनुभव कर रहे हो, अनुभव को बहुत महत्व दे रहे हो, तो आप बस वो जो प्यासा बना हुआ है उसकी हस्ति को वैधता दे रहे हो।
समझ में आ रही है बात?
अहंकार को ज्ञान चाहिए। और उसे ज्ञान चाहिए भौतिक चीज़ों का, और उसे ज्ञान चाहिए ताकि वो अपनी कामना पूरी कर सके। ये छप्पन बैठे हैं। पहले तो ये मानना पड़ेगा न, कि छप्पन बैठे हैं। तभी तो देखूँगा कि पॉकेट किसकी काटनी है। क्योंकि मैं कौन हूँ?
श्रोता: अपूर्ण।
आचार्य प्रशांत:: हाँ, जिसको रुपया कभी पूरा नहीं पड़ता, तो भीतर का अपूर्णता का भाव रहता है पैसा नहीं है, पैसा नहीं है। अब मैं अपने भीतर तो भाव लिये हूँ कि रुपया बड़ा अपूर्ण है। और जितने आये हैं, उनको देखूँ भी न मैं लालच की नज़र से, ऐसा हो सकता है क्या? तो पहले तो जितने आये हैं, उनको गिनूँगा। और फिर आँखों-ही-आँखों से तोलूँगा कि इसमें किसकी जेब भारी होगी। और फिर जाकर के ....।
तो ये अच्छे से समझ लो जिसको आप सांसारिक ज्ञान कहते हो, वो बस कामना की खुराक होता है। वो ज्ञान होता ही इसीलिए है ताकि आगे वो कामना का भोजन बन सके। इसको समझ लो कि यही रिश्ता साइंस और टेक्नॉलॉजी का है। साइंस अगर वेद है, तो टेक्नॉलॉजी व्रत है। साइंस वेद है, जानना। तो टेक्नॉलॉजी व्रत है, कामना। साइंस है जानना, टेक्नॉलॉजी है कामना।
तो वेदना का और कामना का बड़ा गहरा रिश्ता है। हो ही नहीं सकता कि आप कुछ जानो और उसके प्रति आप में कामना न पैदा हो जाए। प्रयास करके देख लो। और अगर कोई ऐसी वस्तु है जिसकी कामना करना असम्भव है, तो आप उसको जानोगे ही नहीं। और अगर किसी चीज़ को जानने में आपकी बड़ी रुचि बढ़ रही है, तो निश्चित बात है कि उसका आपकी कामना से कुछ रिश्ता होगा।
स्टॉक ट्रेडिंग का नया कोर्स करना है, और मैं बहुत लगन से कर रहा हूँ। एकदम ए प्लस पाकर के निकालूँगा मैं उसमें। ये क्या हैं? ये मुमुक्षु हैं? ये ज्ञानयोगी हैं? बोलो। ये काहे के लिए ज्ञान इकट्ठा कर रहे हैं। ऐसे ज्ञान पर असली ज्ञानी थूकते हैं। तो इसीलिए ऋषि अष्टावक्र कह रहे हैं, ‘निर्वेद हो जाओ।’
ये सब जो तुम जानते हो न, ये तुम्हारा जानना झूठा है। क्योंकि पीछे से ये खड़ा है एक अन्धविश्वास पर। उस अन्धविश्वास का नाम है अहंकार। पीछे से ये खड़ा है एक अन्धविश्वास की बुनियाद पर और आगे ये तुम्हारा ज्ञान बनेगा कामना। तुम्हारे ज्ञान के पीछे मान्यता है और तुम्हारे ज्ञान के आगे कामना है। धिक्कार है ऐसे ज्ञान पर।
तुम्हारे ज्ञान के पीछे क्या है? मान्यता। मान्यता क्या है? मैं हूँ। ज्ञान है, ‘ये छप्पन हैं।' वो छप्पन के ज्ञान के पीछे सबसे पहले ये मान्यता जैसा मैं हूँ। क्योंकि ये नहीं हो पाएगा कि मैं हूँ, पर छप्पन नहीं है। तो मैं हूँ, तो छप्पन को तो होना पड़ गया। सारे ज्ञान के पीछे ये मान्यता है कि जो दृष्टव्य, अनुभव्य जगत है, है तो वो सत्य ही। तो सारा ज्ञान खड़ा है एक अन्धविश्वास की बुनियाद पर, और जो ज्ञान है वो आगे बनेगा निश्चित रूप से?
श्रोता: कामना।
आचार्य प्रशांत:: कामना। आप कुछ जानो और उसको चाहो नहीं, ये नहीं हो पाएगा, नहीं हो पाएगा। हो ही नहीं सकता। मारा-मारी मची हुई है, अमोद (एक श्रोता) जहाँ से आया है, वहाँ (आईआईटी अहमदाबाद) घुसने के लिए। मतलब मैं भी वहीं से आया हूँ। ठीक है? उस बेचारे को क्यों दोष दूँ। एकदम भयानक मारा-मारी मची हुई है। कहते हैं दुनिया में और कहीं भी प्रवेश मिल सकता है, आपको हार्वर्ड वगैरह में भी मिल जाएगा। जहाँ से ये मालिक आये हैं वहाँ नहीं मिलता।
भारतीय तो सदा से प्यासे रहे हैं बिज़नेस एजुकेशन के। हमारे ऋषियों को देखो, हमारे गणितज्ञों को देखो, तो हम उन्हीं की परम्परा को तो आगे बढ़ा रहे हैं। कि हम कह रहे हैं कि हमको बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन करना है।
वहाँ एक-एक व्यक्ति इसलिए जा रहा है कि क्या ज़बरदस्त प्रोफेसर हैं, क्या केस स्टडीज हैं। ऐसा ज्ञान पाएँगे कि बस अभीभूत हो जाएँगे बिलकुल।
याद नहीं आ रहा कि आईआईटी की बात है कि आईआईएम की। शायद आईआईएम की है। प्रोफेसर रघुराम थे बोले, ’फ़ॉर मोस्ट ऑफ़ यू देयर आर ऑनली टू ऑफ़िस इन दिस बिल्डिंग। दैट एडमिशन्स ऑफ़िस, एंड दैन द प्लेसमेंट ऑफ़िस।’ (आप में से अधिकांश के लिए इस भवन में केवल दो कार्यालय हैं — प्रवेश कार्यालय और फिर प्लेसमेंट कार्यालय।) और बीच में जो इतने सारे लेक्चर थियेटर हैं, उनका क्या है। उन्हें तो बस किसी तरह काटना है, “बीती न बिताई रैना” बस ये अन्धेरी, काली, दुर्गम रात किसी तरह कट जाए, सुबह-सुबह वो मोटे नोट वाली कम्पनी आ जाए। इसलिए आपको ज्ञान चाहिए, इसलिए।
कामना पूरी हो। नहीं तो कौन पढ़ना चाहता है फाइनेंस और इकॉनमिक और स्ट्रैटेजी। छी! उसको तो हम बस किसी तरह बर्दाश्त करते हैं। झेलो-झेलो आईपीएम था न, जिसके लिए एकदम मारा-मारी मचती थी इन्वेस्टमेंट पोर्टफोलियो मैनेजमेंट। मिलता नहीं है कोर्स ये। सब घुसे हुए हैं इसमें। ऐसा लग रहा है पैदा हुए थे, तो वहाँ पण्डित जी ने बोला था कि ये इन्वेस्टमेंट है। और मोहल्ले वालों ने बोला था पोर्टफोलियो है पूरा, डाईवर्सिफाइड।
काहे को? क्योंकि सबसे मोटा रोकड़ा कौन देता? इन्वेस्टमेंट बैंक। और वो आगे पूछते थे कि ये कोर्स करा है क्या? और उस कोर्स में सीट रखी गयी थी, पता नहीं हमारे समय में जो बैच स्ट्रेंथ थी, उसकी शायद एक बटा तीन। तो पूरा बैच आतुर रहता था किसी तरह ये कोर्स मिल जाए। और सेकेंड इयर की जो हमारी सीजीपीए होती थी, वो प्लेसमेंट में काउंट नहीं होती थी। तुम्हारे समय पर ये चलता है कि? (अमोद, एक श्रोता)
श्रोता: सेम। ऐसा ही था।
आचार्य प्रशांत:: ऐसा ही था। तो सेकेंड इयर में सीजीपीए आती ही नहीं थी। पहले तीन ट्राइमेस्टर में जितनी बनानी है बना लो। अगले तीन ट्राइमेस्टर मौज़ के हैं। क्योंकि ये नियम बन गया था कि आप अपने सीवी में सिर्फ़ फ़र्स्ट इयर की लिखोगे, सेकेंड इयर लिखनी ही नहीं है। सेकेंड इयर तो फिर कुछ नहीं, मौज करो, फ्रिज्बी खेलो, फुटबॉल खेलो, सोओ। कहाँ गयी वो ज्ञान पिपासा? वो कभी थी नहीं। कामना पूरी हो गयी अब ज्ञान क्यों चाहिए? कामना पूरी हो गयी न, अब ज्ञान का क्या करना है आपको।
हम जो भी कुछ करते हैं, इसलिए करते हैं कि उससे आगे कामना पूर्ति की हमें कुछ आशा रहती है। ज्ञान भी आप इसीलिए संकलित करते हो और संचित करते हो कि इससे आगे कुछ मिल जाएगा। ऋषि अष्टावक्र कह रहे हैं, ‘मुक्त हो जाओ तुम सारे ज्ञान से। तुम्हारा सारा ज्ञान झूठा है। तुम जो कुछ भी जानते हो, वो बोझ है तुम्हारा। तुम जो कुछ भी जानते हो, उससे बस आगे कामना और फलेगी-फूलेगी। इससे तो भला होता कि तुम ये सब जानते ही नहीं।’
समझ रहे हो?
मैं बहुत गुस्से में हूँ, बहुत गुस्से में हूँ। कमलेश (संस्था के एक सदस्य) ने कुछ कांड कर दिया आज फिर से। अचानक परिणय (संस्था के एक सदस्य) आता है और मुझे एक ज्ञान की बात बताता है। क्या? आचार्य जी, क्या आप जानते हैं कि आपके उस ड्रावर में एक डंडा रखा है। अब क्या बढ़िया ज्ञान दिया इसने मुझे, इसका तो मुझे पता ही नहीं था। मैं ज्ञानी हो गया। अचानक उसने बता दिया कि मेरे पास एक डंडा है। उस डण्डे का उपयोग क्या होने वाला है? बस।
तुम्हारा जो ज्ञान है वो मुक्ति के लिए नहीं, भुक्ति के लिए है। बचना ऐसे ज्ञान से। और इसीलिए ज्ञानयोग ज़्यादा-से-ज़्यादा असफल होता देखा गया है। ज्ञानयोग पर जो आरोप लगते हैं, उसमें से एक बड़ा आरोप यही है। ज्ञान तो इनको पूरा है, पर ज़िन्दगी इनकी खटमल जैसी है अभी-भी। बिस्तर पर पड़े रहते हैं, दूसरों का खून चूसते हैं। ज्ञान तो पूरा है। वो इसीलिए, ये तुम्हारा ज्ञान है न, ये अहंकार को काटने वाला नहीं है, ये अहंकार से जनित है। ये अहंकार से उठा हुआ ज्ञान है। और आगे चलकर के बस ये।
भोग का ज्ञान है। भुक्ति की दिशा का ज्ञान है, मुक्ति की दिशा का ज्ञान नहीं है। चोर भली-भाँति जानता है मोहल्ले में किसके घर की दीवाल कमज़ोर है। क्या ज्ञानी आदमी है, जिनकी कमज़ोर हैं उन्हें भी नहीं पता, कमज़ोर है। पर चोट्टो को सब पता है कौनसी दीवार कमज़ोर है। क्या ज़बरदस्त ज्ञान है। क्या होगा इस ज्ञान का?
चोरी के काम आएगा। आपको बहुत तकलीफ़ हो जाएगी। अपना कोई भी ज्ञान ऐसा खोज निकालिए जो भुक्ति के काम न आया हो। खोजिए। हमने ज्ञान को भी भोग लिया। इसीलिए ज्ञानयोग हमारे काम नहीं आता। ज्ञान को भोग लिया। मेरे अब आईआईएम कैम्पस की बात चली है, तो मेरे पसन्दीदा अनुभवों में से है राइनोसोरस प्ले करा था वहाँ पर। तो लुई कान प्लाजा है, उसमें रिहर्सल किया करते थे, और फ़रवरी-मार्च में प्लेसमेंट होते हैं, तीन-चार दिन में निपट जाते हैं। और ये जो प्ले था, ये नवम्बर में स्टेज होना था।
तो अक्टूबर की शुरुआत से इसकी रिहर्सल शुरू हो गयी थी। और मुझे बड़ा अच्छा लगा कि जितने कैम्पस के टॉपर थे, सब ऑडिशन के लिए आ गये। और संयोग की बात ये कि ये प्ले ऐसा था कि इसमें अठारह चरित्र थे, अठारह। और वो सब आ गये ऑडिशन को। तो लगभग उनमें से मैंने सबको ही ले लिया। तो जो मेरे बैच का पूरा क्रीमी जत्था था, वो मेरे हत्थे चढ़ गया। अब ये सब-के-सब मेरे प्ले में हैं।
और मुझे अच्छा भी लगा मैंने देखो, कलाओं के प्रति कितनी जागरूकता आ गयी है। वो तो बेचारे लगता है कि पहले साल में अकेडमिक के दबाव में आ गये थे। इसीलिए इनका जो सृजनात्मक पक्ष है, वो अभीव्यक्त नहीं हो पाया। पर अब सेकेंड इयर में देखो ये आये हैं प्ले करने। अब उसकी रिहर्सल शुरू हुई। वो पूरा लम्बा करीब ढाई-तीन घंटे का नाटक।
तो दो महीने तक उसकी रिहर्सल शुरू हुआ करे रात में आठ बजे और सुबह चले सात-आठ बजे तक। ये हो कि अब यहीं से आप सीधे क्लास में चले जाइए। रात में आइए डिनर करके, आठ बजे पहुँच जाइए और चले जाइए। जो लुई कान प्लाजा है वो ऐसा है जैसे आँगन, घर का आँगन होता है न। घर का आँगन, तो उसमे चारों तरफ़ से आप देख सकते हो। बीच में खुली जगह है आँगन। इधर कमरे, इधर कमरे, इधर कमरे तो ऐसे ही लोई का अपना जो बीच में हैं। और उसमें आप इधर से भी देख सकते, इधर स। और यही नहीं कि आप वहाँ पर, बस उसको उसी तल से देख सकते हो। ऊपर से देख सकते हो, और ऊपर से देख सकते, दो-तीन तलों से देख सकते हो।
तो अब रात-रात भर रिहर्सल चले और पूरा इंस्टीट्यूट हैरत से खड़ा होकर के देखे, कि चल क्या रहा है चारों तरफ़। खड़े हैं लोग देखने के लिए। और जो पूरा हमारा जो टॉप जत्था था, वो रिहर्सल-पर-रिहर्सल, रिहर्सल-पर-रिहर्सल। दस-पन्द्रह दिन हुए वो रोने लग गये। हालाँकि लोग बहुत अच्छे थे, मेहनती लोग थे। सारे डायलॉग्स याद कर लिये, मेरे भी याद कर लिये।
सबसे बड़ा तो रोल उसमें मेरा ही था। और उनको सबको तैयारी कराने में मैं अपना भूल जाऊँ, उनकी पूरी तैयारी करा दूँ, मेरे डायलॉग कौन तैयार कराएगा। और ठीक वैसे जैसे इनके सबके दिलवा दिये। मेरा कौन दिलाएगा। क्या? वो बंगाली को अभी भी हँसी आ रही है। (संस्था के एक सदस्य को कहते हुए) तो ये मेरे साथ बीस साल से हो रहा है। लेकिन वो लोग दूसरे थे। जब उन्होंने देखा कि मेरा सारा वक्त उनकी तैयारी कराने में जा रहा है, तो उन्होंने मेरे भी डायलॉग रट लिये।
तो लोग देखे ये, ये। पन्द्रह-बीस दिन में रोना-पीटना शुरू हो गया कि ये चल क्या रहा है, ये चल क्या रहा है। मैंने कहा, क्या हो गया? बोले, इतना थोड़े ही करना होता है। मैंने कहा, पर तुम लोग तो आये हो यही करने के लिए। बोले, हम तो ये सोचकर के आये थे कि जैसे पहले प्ले वगैरह हुआ करते थे, वैसे ही होंगे। मैंने कहा, तो? वो बोले, वैसे ही होंगे तो हम भी कर लेंगे और निपट जाएगा।
मैंने कहा, निपटाना क्यों? बोले, वो प्लेसमेंट आ रहा है न तो सीवी प्वॉइंट मिल जाएगा। सीवी में ये भी लिखने को हो जाएगा कि ये साहब एक्टर भी हैं, तो और अच्छी नौकरी मिलेगी। मैंने कहा, अब तो फँस गये हो, लिख लेना सीवी में उसे तुम्हारा हक है, पर प्ले के साथ तो इंसाफ़ करना पड़ेगा और प्ले वैसा ही जैसा होना चाहिए।
तो दो महीने तक एकदम बर्बर दृश्य रहा, गजब हिंसा। और सब एकदम जितने देखे, वो भी अवाक् हैं, उनके दिलों में दहशत। खौफ़ फैला हुआ है कि ये क्या चल रहा है कैम्पस में। आप कुछ भी करने जाते हो, तो इसलिए कि उससे कामना पूरी हो जाए। आप अगर नाटक भी करने आये हो तो किसलिए करने आये हो? कि उससे आगे जाकर के पैसा मिलेगा, सीवी प्वॉइंट बन जाएगा। हालाँकि ये बहुत खूबसूरती से करा उन सबने। और मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ, इतनी बढ़िया टीम थी, इतना बढ़िया परफ़ॉर्म करा।
किसी का कोई अनुभव वगैरह नहीं था पहले करने में, लेकिन जो अनुभव की कमी थी, उसको उन्होंने मेहनत से पूरा कर दिया है। कह रहा हूँ, अपने (डायलॉग) तो याद करते ही थे, मेरा भी सब याद कर लेते थे। और उसके अलावा जो अभिनय के अलावा भी पीछे का भी बहुत कम होता है बैक स्टेज, वो भी बहुत खूबसूरती से सम्भाला गया। लेकिन शायद ही उन अठारह लोगों में दो-चार ही रहे हो, जो अभिनय के रसिक थे। वरना सब आये क्यों थे? (पैसों के लिए) ऋषि अष्टावक्र कह रहे हैं, अव्रती हो जाओ, छोड़ो न ये सब चक्कर। तुमने जो कुछ भी जाना है अपने झूठ को बनाए रखने के लिए जाना है। और तुमने जो कुछ भी जाना है अपने झूठ को सच साबित करने में इस्तेमाल करोगे। अपने झूठ से शुरुआत करके तुमने कुछ जाना है, और जो जाना है उसका इस्तेमाल भी यही करोगे कि झूठ कायम रहे। कह रहे हैं, अव्रती हो जाओ।
मुक्ति जब आने लगती है, तो उसका एक लक्षण ये होता है कि बहुत सारी बातें जो आप पहले जानते थे, वो आप जानना बन्द कर देते हो। आप पहले ज़्यादा ज्ञानी हुआ करते थे। अब कोई पूछेगा, तो आप बता नहीं पाओगे, आप भूल गये। बल्कि आप थोड़ा हैरत से कहोगे— अरे! ये बात मुझे पता क्यों नहीं है, सब तो मुझे पता होता था, कहाँ चला गया ये सब ज्ञान।
भीतर हिंसा बहुत भरी हुई है, नफ़रत बहुत भरी हुई है, तो पहले इधर-उधर जाकर के, तमाम वेबसाइट पर पढ़कर और विकिपीडिया पर पढ़कर, और गूगल सर्च करके पूरा पता लगा लिया था। कि दुनिया की फ़ौजों के पास कितने हथियार हैं, और आपकी फ़ौज के पास कितने हथियार हैं। वहाँ कितने जहाज हैं, आपके पास कितने जहाज हैं। वहाँ कितनी पनडुब्बी हैं, आपके पास कितनी पनडुब्बी हैं। वहाँ कितने बम हैं, आपके कितने बम हैं। अलग-अलग तरह के वहाँ हवाई जहाज कितने हैं, अलग-अलग तरह के आपके हवाई जहाज कितने हैं। ये सब पूरा ....।
और ये भी अपनेआप में एक बड़ा शास्त्र बन जाए, ये सब रटने लग जाओ तो। भीतर से हिंसा जाती रहेगी। पाँच साल बाद कोई ये सब पूछेगा तो भूल जाओगे। याद ही नहीं आएगा। वो ज्ञान विलुप्त हो गया। क्योंकि वो ज्ञान खड़ा ही किस बुनियाद पर था? अहंकार की। अहंकार कम हुआ, इस ज्ञान की कोई ज़रूरत नहीं बची। क्या करोगे इस ज्ञान का, भूल गये।
मुक्त की पहचान ये कि वो अमुक्त से कम ही जानता है। ज़्यादा नहीं जानेगा, उसको नहीं पता। यही तो उसके मुक्ति है, उसको नहीं पता। राजदीप (एक श्रोता से पूछते हुए) ग्रेटर नोएडा में आ गये न? ग्रेटर नोएडा के पाँच अस्पतालों के नाम बताओ?
श्रोता: नहीं पता।
आचार्य प्रशांत: देखा। कमलेश (संस्था के एक सदस्य) पाँच अस्पतालों के नाम बताना। (श्रोता कोई उत्तर नहीं देते हैं।) जिसको ज्ञान है वो बँधा हुआ है। अच्छे से जानता है कि कैसे बँधा हुआ अस्पतालों के नाम से। जिसको नहीं पता वो मुक्त है। स्वास्थ्य से ज़्यादा सम्बन्ध किसका है, जिसको पाँच अस्पतालों के नाम रट गये हैं या जो जानते ही नहीं अस्पतालों के नाम। बोलो, स्वस्थ कौन है?
मुक्त की पहचान ये है कि उसे पता ही नहीं होता। क्या करेगा जानकर, करेगा क्या जानकर? और जिसको पता है वो भली-भाँति जानता है कि कितना महँगा सौदा है उन अस्पतालों के नाम जानना। बड़ा महँगा सौदा है। ज्ञानी तो लेकिन वो बैठे। प्रसाद (संस्था के एक सदस्य) भी मुस्कुरा रहा है, वो भी जान गया है। बहुत महँगा सौदा है अस्पतालों के नाम जानना। ये तो नहीं जानता, अज्ञानी कहीं का, कुछ नहीं जानता। नहीं जानता है इसीलिए मुक्त है। राम बचाए कि कभी ये भी जानना शुरू कर दे।
एक समय था जब तक मैं नहीं जानता था कि यहाँ पर आँखों का डॉक्टर कौनसा है, और चश्मे कहाँ बनते हैं। फिर जानना पड़ा। ये जानना कोई बहुत आनन्द की बात है? क्या करें। और ये बिलकुल अतिशयोक्ति नहीं है, अगर मैं आपको बताऊँ कि इस जगत के बारे में आप जो कुछ जानते हो, ले-देकर वो ज्ञान है तो बीमारी का ही। अभी ये चल रहा है, इज़राइल-फिलिस्तीन वाला। आप अभी जाइएगा सोशल मीडिया पर, वहाँ आपको मिलेंगे एक-से-एक धुरन्धर ज्ञानी।
एक-से-एक धुरन्धर ज्ञानी। और वो पूरा बता रहे होंगे ड्रोन के बारे में, अलेक्सा के बारे में। ठीक कहाँ-कहाँ पर घुसे हमास वाले, और कितने-कितने मारे, और किस-किस तरीके से मारे। पूरा ज्ञान होगा वहाँ पर। और सम्भावना यही है जहाँ वो ये ज्ञान दिया जा रहा होगा, वहाँ साथ में नफ़रत भी दी जा रही होगी, उत्तेजना दी जा रही, उग्रता दी जा रही होगी। एक तरह से हत्या का ही आह्वान किया जा रहा होगा। देख लीजिएगा।
अभी इसमें मत जाइए, तो क्या हम न जानें? जल्दी से ये प्रश्न मत करिएगा, तो क्या हम कुछ भी न जानें? अभी पहले ये देखिए कि जो कुछ आप जानते हो, उस जानने की क्या प्रकृति है। बस ये समझिए। दूसरी अति पर मत जाइए। तो क्या मैं ये जानना बन्द कर दूँ कि दुनिया में क्या चल रहा है, क्या मैं जानना बन्द कर दूँ कि शहर में अस्पताल कहाँ है। और मैं बीमार पड़ गया तो कैसे जाऊँगा?
अभी ये प्रश्न मत करिए। बस ये समझिए, जो कुछ आप जानते हैं, वो जानना कहाँ से आता है। जो मुक्त है उसको तो ये भी न ज्ञान हो कि शहर में मन्दिर कहाँ पर है। और जिसके पास कामनाएँ बिलकुल छलछला रही होंगी, वो छोटे-से-छोटे, बड़े-से-बड़े मन्दिर का पता जानता होगा। कामना इतनी है मन्दिर तो उसको जानने पड़ेंगे।
बहुत सुन्दर सूत्र है, ‘निर्वेद’। निर्वेद हो जाओ। क्यों जानते हो इतना कुछ? क्यों तुम्हें ये सब पता है? पता ही क्यों है? ये विचार, संयम और मन की निवृत्ति, और मन का निरोध ये मूर्खता की बातें हैं। जानते हो सचमुच क्या होता है जब अहम् मुक्त होने लगता है? विचार आने स्वत: ही कम हो जाते हैं। विचारों को रोकना नहीं पड़ता, वो आते ही नहीं। विचार एक ऐसी, एक ऐसी विषैली फसल है जो बहुत सड़ी हुई मिट्टी पर पैदा होती है।
जब मन की मिट्टी एकदम सड़ी होती है न, तो उस पर अन्धाधुन्ध विचारों की फसल तैयार होती है, और आप रोक नहीं सकते। मिट्टी सड़ी हुई है, और उस पर चारों तरफ़ से विषयों की बारिश हो रही है। मन की मिट्टी कैसी है? एकदम तैयार है वो बदबदाने को, और उसके चारों तरफ़ से विषयों की बारिश हो रही है। और मिट्टी में वृत्ति के बीज पहले से ही पड़े हुए हैं। तो खटाखट उस पर क्या उगती है? विचारों की फसल। आप रोक ही नहीं पाओगे।
जैसे कि एक बहुत बड़ा आपके पास मैदान हो खाली, और बारिश का मौसम हो, और बारिश भी किस तरीके की। जैसी समझ लीजिए दक्षिण भारत में होती है, या जैसी अफ्रीका के जंगलों में होती है, या अमेजन के जंगलों में होती है जैसी बारिश, वैसी बारिश। और कोई बहुत बड़ा खाली स्थान है और बारिश हो रही है। आप कहोगे, नहीं, यहाँ पर खरपतवार उगने नहीं चाहिए, आप रोक पाओगे? रोक पाओगे क्या?
और आप एक तरफ़ से उसके जो-जो उगा है उसको काटोगे, तब तक दूसरी तरफ़ उग आएगा, और लम्बा बड़ा हो जाएगा। ये सज़ा मिलती है उनको, जिन्होंने अपने दिमाग की मिट्टी सड़ा ली होती है। उस पर ज़हरीले विचारों की अनियंत्रित फसल पैदा होती है। ये व्यक्ति अपने विचार रोक ही नहीं सकता। और फिर अध्यात्म के नाम से ये सब करते हैं विचार संयम, और बेकार की बात है।
जिसने अपनी मिट्टी ठीक कर ली न। उसको पुरस्कार ये मिलता है कि उसको दँद-फँद के विचार आते ही नहीं। विचार ही नहीं आ रहा। कोई पूछे, ‘तुम अपने डर को काबू कैसे करते हो?’ डर तो एक विचार है, और विचार हमें आया नहीं, तो काबू करने का कोई सवाल नहीं। अब आया ही नहीं विचार तो क्या है? कैसे काबू करें? काबू वो करे जिसको आता है। हमें डर लगा ही नहीं, तो काबू क्या करे।
हमारी कोई बहादुरी भी नहीं है इसमें, हमारी सहजता है बस। तुम्हें ये बहादुरी लग रही है। हमारे लिए तो सहज बात है। तुम्हें लग रहा है कि जैसे तुम्हें डर लग रहा है, वैसे ही हमें लग रहा होगा। पर हमने अपने डर को काबू में कर लिया है। या हमने अपने डर को जीत लिया है। नहीं बाबा! हमने जीता नहीं है, क्योंकि जीतने के लिए कुछ है ही नहीं। हमारी मिट्टी ऐसी नहीं है कि उस पर ये ज़हरीली खरपतवार, वीड्स, टॉक्सिक वीड्स पैदा हो। नहीं होते, हमारी मिट्टी ऐसी नहीं है।
समझ में आ रही है बात?
और विचारों की पैदाइश के लिए मन की मिट्टी पर जो उर्वरक डाला जाता है, फर्टिलाइजर, उसका नाम होता है ज्ञान। जितना तुम्हारा ज्ञान बढ़ता जाता है, उतना तुम्हारे विक्षिप्त विचार बढ़ते जाते हैं। ज्ञानियों ने अक्सर आत्महत्या करी है पागल होकर के। ज्ञानी माने ऋषियों वाले ज्ञानी नहीं, वो वाले ज्ञानी जिनका ज्ञान खड़ा ही अहंकार की बुनियाद पर है। इनका खूब पाया गया या तो आत्महत्या कर लेंगे, नहीं तो कुछ और इनको मानसिक क्लेश हो जाएगा।
जब आत्मशोधन के बिना, जब आत्मज्ञान के बिना सांसारिक ज्ञान इकट्ठा करा जाता है, तो नतीजे भयावह होते हैं। ज्ञान से बहुत बचो, बहुत बचो। ज्ञान मार्ग का मतलब ये नहीं है कि दुनिया भर की जानकारी इकट्ठा कर ली। ज्ञान मार्ग का मतलब होता है— आत्मज्ञान मार्ग। ज्ञान मार्गी ये नहीं है कि वो अखबार खूब पढ़ता है। या दुनिया भर के विचारकों को उसने विचार घोटकर के पी लिये हैं। वो ज्ञान मार्गी नहीं है, वो तो अपनी विक्षिप्तता की तैयारी कर रहा है।
ज्ञान मार्ग का मतलब होता है आत्मज्ञान मार्ग। ठीक वैसे जैसे कर्मयोग का मतलब होता है निष्काम कर्मयोग। कर्मयोग का मतलब ये नहीं कोई भी कर्म करे जा रहे हैं और कह दिया कर्मयोगी। वैसे ही ज्ञान मार्ग ये नहीं होता कि दुनिया भर का अंत-पंत ज्ञान इकट्ठा कर लिया और कह रहे हैं, ये तो ज्ञानी है। ऐसे नहीं ज्ञानी हो जाते। ज्ञानी वही जो स्वयं को जानता हो। उसके बाद तो दुनिया का कुछ अपना हाल-चाल, जानकारी रखता है तो ठीक। नहीं रखता है तो भी ठीक।
अब अगर वो दुनिया का ज्ञान रखेगा भी, तो वो जो ज्ञान है उसका वो कामना की खुराक नहीं बनेगा। अब वो ज्ञान बस उतना ही इकट्ठा करेगा, जितना पारमार्थिक उपयोग में आ सके। नहीं तो उसको ज्ञान नहीं चाहिए, उसे चाहिए ही नहीं ज्ञान। दुनिया भर की सूचनाएँ इधर-उधर तैर रही होंगी, वो खुला ही नहीं होगा उन सूचनाओं को भीतर ग्रहण करने के लिए। ठीक है, चल रहा है कुछ। सामने टीवी चल रहा होगा और उसमें दुनिया भर की बातें आ रही हैं, उसको दिखाई ही नहीं देगा।
जानना क्यों है, क्या करना है? हाँ, जहाँ वो जान जाएगा कि किसी उच्च प्रयोजन के लिए जानना ज़रूरी है, वहाँ वो अपनी ओर से श्रम करके सब जान लेगा। फिर वो ये नहीं कहेगा कि जो कुछ हवाओं में तैर रहा हो, उसी को भीतर स्वीकार कर लो। ऐसे नहीं करेगा वो। ये तो रैंडम बात होगी न, सांयोगिक। जो भी गॉसिप है कि जो कुछ भी हवा में है उसको भीतर ले लिया। ऐसे नहीं। वो बाज़ार के बीच से निकल जाएगा, उसको पता नहीं होगा दुकानों में क्या है। क्योंकि उसको वो ज्ञान चाहिए नहीं।
आप उससे पूछेंगे कि अभी तुम होकर के आये हो वहाँ से, वो रास्ता बाज़ार से गुजरता है, बताओ वहाँ कपड़ों की दुकान थी, फ़र्नीचर की दुकान थी, घड़ी की दुकान थी, चश्मे की दुकान थी। क्या बोलेगा? नहीं साहब! पता नहीं। और नाज़ होना चाहिए इस बात पर, अगर काफ़ी कुछ ऐसा है जो आपको पता नहीं। ये बड़े-से-बड़े स्वास्थ्य का लक्षण है, अगर बहुत कुछ ऐसा है जो आपको पता नहीं। ये बात सुनने में बहुत अजीब लगेगी। पर ऐसे ही है।
दुनिया के बारे में बेटा, इतना ज़्यादा पता करोगे, तो खुद का कब पता करोगे। और जिन्हें खुद का पता करना होता है न, उनके पास दुनिया का पता करने को बहुत ज़्यादा अवकाश, ऊर्जा, स्थान, संकल्प बचते नहीं हैं। वो दुनिया की उतनी ही खबर रखते हैं जितनी आवश्यक है। व्यावहारिक रूप से अपना जो भी काम चला रहे हैं, जो भी अपने, जिस भी उपक्रम में लगे हुए हैं, उसके लिए जो व्यावहारिक आवश्यकता है, वो दुनिया का बस उतना हाल-चाल रखते हैं।
बाकि आप उनसे पूछोगे, उन्हें नहीं पता होगा। क्यों पता हो? अभी मैं आपसे पूछूँ एक फ़लाना कोई रैपर है, उसने अभी अपना एक नया-नया निकाला है। कुछ बोलो। (श्रोता से पूछते हैं) हाँ, नहीं नाम। अरे! नहीं यार, एलबम का नाम। पीली मूँछे, पीली मूँछे। हाँ, पीली मूँछे। हँस क्या रहे हो? हाँ, सचमुच निकाला है। आपको पता है? आया है ये मार्केट में एलबम नया? पता?
श्रोता: नहीं पता।
आचार्य प्रशांत: नहीं पता। अच्छा मान लीजिए सचमुच आया है और आपको नहीं पता। और मैं कहूँ कि कैसे लोग हो यार! आपको कोई ज्ञान नहीं है। क्यों नहीं पता? तो आप क्या बोलोगे? आप बोलोगे, ट्रीविया (सामान्य जानकारी) है, हमें क्यों पता हो। क्या बोलोगे? ट्रीविया है, हमें पता क्यों हो?
ऐसे समझिए कि आपको जो पता है न। ऋषि अष्टावक्र उसको देखेंगे तो बोलेंगे, ’ट्रीविया है। मुझे क्यों पता हो? इसी तरह और भी लोग होंगे दुनिया में जिन्हें उस पीली-नीली मूँछ के बारे में सबकुछ पता होगा। और आप उनको बोलोगे, ‘ये ट्रीविया है।’ तो वो मानेगे नहीं। ठीक, वैसे जब ऋषि अष्टावक्र जब आपको बोलेंगे आपका ज्ञान ट्रीविया है, तो आप मानोगे नहीं।
और दुनिया में ऐसे लोग बिलकुल हैं। ऐसे लोग ही ज़्यादा हैं जो सबकुछ जानते होंगे। वो जो पीली मूँछ, नया एलबम आया है उसके बारे में। सबकुछ जानते होंगे, सबकुछ पता होगा उनको। आपको क्यों हीं पता? बोलो न? ये कोई ऐसी चीज़ है नहीं जिसका ज्ञान रखा जाए। अहम् का स्तर बदल गया है। जब अहम् का स्तर बदल जाता है, तो ज्ञान का स्तर भी बदल जाता है। कौन अहम् के किस स्तर पर बैठा है, ये जानना हो तो देख लो कि वो ज्ञान किस स्तर का रखता है, उसका ज्ञान किस क्षेत्र का है।
समझ में आ रही है बात?
ज्ञान से मुक्ति बहुत बड़ी मुक्ति है। और इसका मतलब ये नहीं होता कि भोन्दू बन जाओ। ज्ञान से मुक्ति तभी सम्भव है जब अहंकार से मुक्त हो जाए। जो उसमें सूत्र है, कड़ी है, लिंक वो साफ़-साफ़ समझ में आ रही है। अहंकार अपूर्ण होता है। मैं अपूर्ण हूँ, तो मुझे अपनेआप को पूरा करना है। मुझे अपनेआप को पूरा करना है तो मुझे सबसे पहले क्या चाहिए? मैं कह रहा हूँ, मेरे पास कपड़े नहीं हैं। तो मैं सबसे पहले क्या इकट्ठा करूँगा, कपड़ा या कपड़े से भी पहले मुझे कुछ और चाहिए?
ज्ञान चाहिए न। ये ज्ञान चाहिए कि बाज़ार कहाँ है। बाज़ार में दुकानें कितनी-कितनी हैं?
समझ में आ रही है बात?
तो हमारा जो सारा ज्ञान होता है, वो हमारे पास है ही इसीलिए क्योंकि हम अपूर्ण हैं। तो ज्ञान से मुक्ति की जब बात करते हैं वास्तविक ज्ञानी, तो वास्तव में आपको कह रहे हैं, ‘अहम् से मुक्त हो जाओ। तो फिर जो दो कौड़ी का ज्ञान है, इसकी तुम्हें कोई ज़रूरत बचेगी नहीं।’ और तुम्हारा अहम् जितना गहराता जाएगा, उतना तुमको ये जो चवन्नी-अठन्नी ट्रिवियल ज्ञान है, तुम्हें उसकी उतनी ज़्यादा ज़रूरत पड़ेगी। और उस तरह के ज्ञान से तुम्हारी ज़िन्दगी भर जाएगी।
और इतना ही नहीं, कुछ मूर्ख आएँगे जो तुमको ज्ञानी बोलना भी शुरू कर देंगे। क्योंकि तुम्हारे पास ये चवन्नी-अठन्नी वाला ज्ञान खूब बढ़ जाएगा। चवन्नी-अठन्नी वाला ज्ञान किस तरह का? बहुत लगभग उस तरह का जैसा वो कौन बनेगा करोड़पति वगैरह में आता है। उसके दस-बीस प्रतिशत प्रश्न ही ऐसे होंगे, जहाँ जो ज्ञान है वो किसी स्तर का है। अन्यथा जो बाकी पूछा जाता तो ट्रीविया है। वो आपको पता होना क्यों चाहिए?
बहुत दिनों से आ रहा है, दस-बीस साल से आ रहा है। पहले कभी घर पर चलता था, मैं उसको देखता था, तो मैं इन्तज़ार करता था कि कोई तो वहाँ सामने वाली कुर्सी पर, उसे हॉटसीट बोलते थे, ऐसा आये जो कभी इन महाशय को बोले कि ये जो तुमने सवाल पूछा है, मुझे इसका जवाब पता क्यों हो? प्रश्न ये नहीं है कि मुझे उत्तर पता है कि नहीं। प्रश्न ये है कि ये प्रश्न क्यों है? प्रश्न ये है कि तुम्हारे पास कोई बेहतर प्रश्न क्यों नहीं है? इस प्रश्न को हक ही नहीं है अस्तित्व में होने का। ये सवाल होना नहीं चाहिए।
पर तुम एक तो ये घटिया सवाल पूछ रहे हो। उसके बाद तुम कह रहे हो कि लाइफलाइन और ब्लड लाइन और फ़ैमिली लाइन सब चला दो अपनी। मुझे ये क्यों पता हो, बताओ तो? और अगर मुझे ये पता है तो निश्चित रूप से मैं बहुत बेगैरत आदमी हूँ। कोई भी ढँग के आदमी को ये बातें पता होंगी ही नहीं जो तुम पूछ रहे हो।
आप ऋषि अष्टावक्र को वहाँ बैठा देते, एक रुपया नहीं पाते वहाँ से वो। पहले ही सवाल में बाहर हो जाते। अब तुम उनसे पूछोगे, सुनील शेट्टी की आज तक सबसे कामयाब फ़िल्म कौनसी है। हरी चूड़ियाँ, लाल गुलाब, पीला रुमाल, या सफ़ेद बनियान? अभी चार आपने पिक्चरों के नाम बता दिये हैं। वहाँ सामने बैठ गये हैं वशिष्ट बैठ गये, विश्वामित्र बैठ गये, अष्टावक्र बैठ गये। वो बेचारे क्या बताएँगे? तुम पूछ रहे हो ये कौन है? क्या पूछ रहे हो? तो बोलेंगे, अच्छा ठीक है। अब वो कर लीजिए, क्या होता था दोस्त को मिलाते थे?
श्रोता: फ़ोन अ फ्रेंड।
आचार्य प्रशांत: तो वो फ़ोन मिलाएँगे किसको? वो फ़ोन भी मिला रहे हैं, वो फ़ोन भी मिलाएँगे किसी अपने जैसे को। तो उद्दालक ऋषि को फ़ोन मिलाकर पूछ रहे हैं कि ये कोई सुनील सेट्टी नाम के कर्मयोगी हुए हैं। ये पिक्चरें करा करते हैं काला बनियान, लाल गुलाब। उद्दालक ऋषि कहेंगे, ये तो महाज्ञान हमें भी नहीं है। और लानत है उनपर जिनको ये ज्ञान हो। ये ज्ञान होना ही क्यों चाहिए?
समझ में आ रही है बात?
ऋषि अष्टावक्र कह रहे हैं, ‘ज्ञान से मुक्त हो जाओ।’ बहुत कम ही ऐसा है तुम्हारी जानकारी में जो जानने लायक है, बाकी सब सिर्फ़ सिर का बोझ है। उसको भुला दो, मत याद रखो। निर्वेद हो जाओ।
समझ में आ रही है बात?
और निर्वेद हो गये जब, तो अव्रती हो जाओगे। अव्रती माने? कामना मुक्त। आपके सारे व्रत बस कामना के समानार्थी होते हैं और कुछ नहीं। कोई व्रत बता दो जिसमें कामना न हो।
व्रत माने प्रतिज्ञा, शपथ, संकल्प। कोई व्रत बता दो जिसमें अव्रती हो। उसको आप निराग्रही भी कह सकते हो। निराग्रही हो जाओ। आग्रह जो रहता है न, चाहिए ही। आग्रह से मुक्त हो जाओ। कामना का हठ थोड़ा टूटे। जिन चीज़ों को लेकर पहले ये धारणा हो रही हो कि ये चीज़ नहीं होगी ज़िन्दगी में तो जी नहीं पाएँगे। उस चीज़ की ओर ऐसे देखो और कहो कि कभी मरता था इस पर, ऐसा क्या? कुछ भी नहीं। अव्रती हो गये। अव्रती हो गये, निराग्रही हो गये। उसी निराग्रह को सत्याग्रह भी बोल सकते हो। दोनों एक बात है।
शुद्ध तरीका नेति-नेति का है— निराग्रह। सत्याग्रह बोलो तो ऐसा लगता है से सत्य कोई सिद्धान्त है। तुम जानते हो और उसके पक्ष में आग्रह कर रहे हो। वहाँ गड़बड़ हो सकती है, तो निराग्रह। क्या आग्रह है? नहीं, कुछ नहीं। और जो निराग्रही हो गया, वो समबुद्धि हो जाता है, वो स्थितप्रज्ञ हो जाता है। क्योंकि कुछ चाहिए नहीं। तो जो जैसा है चलेगा, सब चलेगा। समभाव में स्थित हो गया अब वो। आग्रह था ही नहीं। खाने बैठ गये आग्रह नहीं है। जो मिला, “कोई दिन लाडू, कोई दिन खाजा।” निराग्रही हैं। “कोई दिन फाकम-फाका जी।” फाके भी हो गये, तो भी कोई बात नहीं, क्या हो गया, कुछ नहीं होगा। मैं निराग्रही हूँ, मैं अव्रती हूँ।
आम आदमी व्रत से मतलब ये समझता है खास तौर पर नौ दुर्गा आ रही हैं कि व्रत माने न खाना। अध्यात्म में व्रत का मतलब होता है खूब खाना। क्योंकि व्रत माने कामना। और कामना क्या करती है? खाती है, बहुत सारा खाती है। तो अव्रति होने का मतलब है खाने के प्रति उतना आग्रह नहीं रहा, उतना हठ नहीं रहा।
जानकारी जितनी बढ़ाते हो, खाने को उतना लपलपाते हो। घर में भूख कम लगती है, रेस्तरां में बहुत ज़ोर की लगती है। क्योंकि वहाँ इतनी बड़ी ज्ञान की किताब दे दी जाती है, जिसका नाम होता है मेन्यू। वो ज्ञान ही तो है, और क्या है? घर में कौन तुम्हें मेन्यू दिखाकर के पूछ रहा है। बैठ जाओ और जो फेंककर के मारे उसको लील लो, तो भूख भी कम लगती है। खिचड़ी बनी तो खिचड़ी, रोटी बनी तो रोटी। रोटी तरोई बनी है, चुपचाप ठूस लो। न ज्ञान है, न व्रत है। बस।
वहाँ जाकर के देखा है कैसे बुलाते हो वेटर को, ‘ज़रा यहाँ आना।’ और चचा (संस्था के एक वरिष्ठ सदस्य) जैसे कोई हो तो वेटर से सन्तुष्ट नहीं होते। कॉल द शेफ। वो बेचारे को वहाँ से तवे पर खड़ा हुआ था। छुड़वा-उड़वाकर के पानी डालकर के आता है इनके (पास)। ये जो है इसमें और क्या-क्या डाल सकते हो। चचा, ये बात अपनी रसोई में भी पूछ लिया करो। तब तो वो जो सड़ा हुआ डब्बा आता, उसको खोलते आँख बन्द करते हो। वो ऐसे उठाकर अन्दर लेते हो। और वहाँ जाकर के एक नवाब हो जाते हैं। शेफ से नीचे बात ही नहीं करते।
क्यों? ज्ञान है न। ज्ञान बढ़ गया। ये भी हो सकता है, वो भी हो सकता है। (वस्तुओं की ओर इशारा करते हुए) वहाँ पर चने का कुछ होगा, तो कहेंगे, ‘चने का जो एवरेज डायमीटर है, पहले वो बताओ। स्पेसिफिक ग्रैविटी बताओ, पानी में तैरता है कि डूबता है, सब पूरा बताओ। उसके बाद हम बताएँगे उसको कितनी डेंसिटी की ग्रेवी में डालना है। कई होटल बन्द हो गये इनके चक्कर में। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।
न जानना है, न माँगना है। माँगना बहुत स्थूल होता है न। तो माँगने से तो हम फिर भी बचने का प्रयास करते हैं। स्थूल बात है। ऐसे हाथ फैलाकर के खड़ा होना पड़ता है माँगने के लिए। लेकिन हम समझ ही नहीं पाते कि माँगने की शुरुआत जानने के साथ हो गयी थी। जान गये हो न, तो माँगने से बच नहीं पाओगे। माँगने से अगर बचना है, तो जानने से भी बच लेना।
जानना सूक्ष्म होता है, माँगना स्थूल होता है। और माँगना चूँकि दिख जाता है तो बुरा लगता है। सन्तों ने भी वही बोला, तो हमें लगता है माँगने। “माँगन मरण समान है।” अगर आप समझ सकते, तो कबीर साहब ने कहा होता? “जानन मरण समान है।” मत जानो। ऐसी बातें जानो ही मत, जो तुम्हें जानने से कुछ लेना-देना ही नहीं। क्यों जान रहे हो? जानोगे तो माँगना पड़ेगा। फिर नहीं रोक पाओगे अपनेआप को। व्यर्थ की बात हमें जाननी ही नहीं है।
जिस बात से मुक्ति की दिशा में कदम न बढ़ता हो, वो बात ज़हर समान है, वो ज्ञान मुझे होना नहीं चाहिए। व्यर्थ बात भीतर गयी, तो ऐसा जैसे ज़हर भीतर गया। भीतर जाने ही नहीं चाहिए बात। व्यर्थ-व्यर्थ की बातें क्यों पता हो? जो अभी ज्ञान है, वो तुरन्त आगे क्या बनेगा? कामना बनेगा। ज़िन्दगी खा जाएगा, पता ही न हो तो अच्छा है। नहीं पता होना चाहिए।
यहाँ पर सिस्टम्स है। वहाँ पर किसी ने अपना कुछ सोशल मीडिया इन्स्टाग्राम लॉगिन छोड़ दिया है। तुम पीछे से वहाँ जाकर के उसकी तफ़तीश करने लग गये। मज़ा आता है न, किसी का पता चल गया। देखा क्या कर रहा है, क्या है, किससे बात करता है, डीएम किसका आया है, क्या लाइक करा, क्या कौनसा सब्स्क्राइब कर रखा है।
ये तो तुमने अपनी और ऐसी खुराफ़ात करी है, कह रहे हो नॉटी, नॉटी। नॉटी नहीं है ज़िन्दगी तबाह होने वाली है अब तुम्हारी। कुछ तुम्हें अब ऐसा ज़रूर पता लगेगा, जो तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा। न जाने अब कौनसी चीज़ की शुरुआत होने वाली है। और तुम्हारे हाथ में नहीं होगा फिर उस शुरुआत को कहीं पर रोक पाना। जानो ही मत न, जानो ही मत।
इसीलिए दो पक्ष रहे हैं अध्यात्म के क्षेत्र में, भारत में भी और यूनान में भी। एक रहा है जिन्होंने कहा है कि नैतिकता की कोई ज़रूरत नहीं है। यदि ज्ञान है तो नीति चाहिए नहीं। ज्ञान स्वयं ही नीति का निर्धारण कर देगा। लेकिन एक दूसरा पक्ष भी रहा है। जिन्होंने कहा है कि एथिक्स के बिना स्प्रिचुएलिटी सम्भव नहीं है। जिन्होंने कहा है कि नैतिक हुए बिना आध्यात्मिक नहीं हो पाओगे। और जो दूसरा पक्ष है इसकी बात को आप पूरी तरह खारिज नहीं कर सकते।
वो कह रहे है कि अध्यात्म ठीक है, तुम जान गये। लेकिन फिर भी जीवन में कुछ मर्यादाएँ होनी चाहिए, जिन का कभी उल्लँघन न हो। ये मत कहो कि कोई मर्यादा नहीं है, हमारी चेतना ही निर्धारित करेगी कि क्या ठीक क्या नहीं हम। बोले, तुम्हारी चेतना जब तक इतनी पूर्ण और परफेक्ट होगी, तब तक तुम कहीं के नहीं बचे होगे। ये बिलकुल ठीक है कि जीवन में सही-गलत का निर्धारण किसको करना चाहिए? आपकी चेतना को। पर अगर एकदम सही और एकदम उचित निर्धारण होना है, तो चेतना को भी कैसा होना चाहिए?
श्रोता: ऊँचा।
आचार्य प्रशांत: एकदम ऊँचा। और चेतना अभी उतनी ऊँची तो है नहीं। पर तुम कह रहे हो मैं चलूँगा अपनी चेतना पर। तो फिर तुम सही गलत का निर्धारण भी तो उल्टा-पुल्टा ही करोगे न। तो एक बहुत प्रबल पक्ष रहा है जिन्होंने कहा है कि अध्यात्म से भी पहले एथिक्स आते हैं, उनका पालन ज़रूरी है। एथिक्स को वही छोड़े जो एकदम मुक्त ही हो गया हो। सिर्फ़ उसी को अब नीति नहीं चाहिए। बाकियों को तो नीति चाहिए। बाकी ये नहीं कह सकते कि अच्छा-बुरा कुछ नहीं होता, ये सब मन का खेल है।
न-न-न अच्छा-बुरा होता है। और कुछ वर्जनाएँ रखो, कुछ सही-गलत की बात रखो, कुछ नियम, कुछ अनुशासन ऐसे होने चाहिए जिनको कभी न तोड़ो। जिनमें से एक अनुशासन ये भी है कि ज्ञान? कोई वजह होती है न कि गुसड़खानों में दरवाज़े होते हैं, स्नान घर हैं, उसमें दरवाज़ा क्यों होता है? भई! कोई नहा रहा है तो वहाँ पर आवाज़ तो आयी रही होती है, पानी की छप-छप वगैरह। तो आवाज़ आ रही है तो जो लोग हैं नहीं देखेंगे। पर ऐसा होगा नहीं, ऐसा होगा नहीं, लोग देखेंगे और एक बार वो ज्ञान आ गया, तो कामना तत्काल उठेगी। वो जो दरवाज़ा है वो एक फिलॉसफिकल स्टेटमेंट (दार्शनिक कथन) है, एथिक्स इज़ नीडेड (नैतिकता की ज़रूरत है)
होगा कोई अमरपुर मुक्त पुरुषों का देश, जहाँ पर आपको स्नान घर में दरवाज़े नहीं चाहिए होंगे। वहाँ लोग ऐसे होंगे की वो जान जाएँगे, कोई नहा रहा है तो खुद ही नहीं वहाँ जाएँगे। और अगर जाएँगे देख भी लेंगे तो उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। हो सकता है कि कोई नहा रहा है सामने बैठे कोई मूँगफली खाते हुए बात कर रहा है उससे। वहाँ ऐसा हो सकता है। पर हमारे साथ ऐसा नहीं हो सकता न। यहाँ कोई नहा रहा है, आप उसके सामने खासतौर पर विपरीत लिंग का है, नहा रहा है आप सामने बैठ गये, तो कामना का वेग आएगा-ही-आएगा।
समझ में आ रही है बात?
कुछ बातों का ज्ञान न हो तो ही अच्छा है। हमें नहीं चाहिए ज्ञान, हम जानना ही नहीं चाहते। हमें नहीं जानना। कौन नहा रहा है, कितना नहा रहा है, कैसे नहा रहा है इस सूचना से मेरा कुछ हित होना है? मैं आत्मज्ञानी बनूँगा? जब उस सूचना से मेरा कुछ हित होना नहीं, तो मैं उत्सुकता क्यों दिखाऊँ? क्यों दिखाऊँ।
समझ में आ रही है बात?
नहीं जानना। और जो चीज़ जानने लायक है, प्राण देकर भी जानकर रहूँगा। कौनसी चीज़ जानने लायक है? ये (आत्मज्ञान) ये जानने लायक। बाहर का भी कौन सा ज्ञान? मैं वरीयता पर जानना चाहूँगा, जिसको जानने से इसको (अहम् को) जानने में सहायता मिलती है। अविद्या वही भली जिससे विद्या फलित होती हो। नहीं तो, फिर से बोल रहा हूँ, दुनिया की जानकारी मन की सड़ी हुई ज़मीन पर फर्टिलाइजर का काम करती है। एक तो पहले ही वहाँ वृत्तियाँ तैयार बैठी हैं। ऊपर से तुमने उसमें लाकर के उर्वरक डाल दिया। अब ऐसा उसमें विचारों की एकदम ही खतरनाक कटीले, ज़हरीले विचारों की ऐसी फसल तैयार होगी न, तुम्हें खा जाएगी। और तुम्हें समझ में नहीं आया कि दिन-रात खयाल क्यों आता है? ये खयाल रुक क्यों नहीं रहा है। सरल रहो, भोले रहो।
बहुत सारे प्रश्नों के जवाब में बेहिचक, बिना किसी लज्जा के कह दो, नहीं पता। कोई कुछ पूछे क्या बोलो, ‘नहीं पता।’ मैं उम्मीद कर रहा हूँ कि इस बात को आप कुतर्क की तरह नहीं इस्तेमाल करोगे। कि कल को मैं ही पूछूँ, हाँ भाई! आज कितना किया? नहीं पता। ये सब नहीं।
समझ में आ रही है बात ये?
“ज्ञान में निर्वेद, कर्म में अव्रती।” ठीक है।
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