कृष्ण हर प्रगति के मूल में हैं || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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कृष्ण हर प्रगति के मूल में हैं || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

आचार्य प्रशांत: निष्कामकर्म योग, जिसका प्रतीक यज्ञ है। समझा रहे हैं कृष्ण, अर्जुन को। तीसरा अध्याय है, चौबीसवें श्लोक पर हम आ चुके हैं।

निष्काम कर्मयोग का सबसे बड़ा, सबसे सशक्त प्रतीक कृष्ण स्वयं को बताकर के प्रस्तुत करते हैं अर्जुन के सामने। कहते हैं कि 'मुझे देखो!' मुझे माने किसको? ब्रह्म को। ‘मुझे देखो, मुझे क्या मिलना है यहाँ कुछ करके? पर मुझसे ही इस जगत का सारा कारोबार चल रहा है। यही तो निष्काम कर्मयोग है न, सब हो रहा है जिसमें मुझे कुछ नहीं मिलना। और जब मैं अकर्म में नहीं उतर रहा अर्जुन! तो तुम्हें कैसे अधिकार है कर्म को ठुकरा देने का? कर्म तो करना ही पड़ेगा, बस उसमें अपने लिए कुछ मत रखो।’

‘दुनिया में जो बड़े-से-बड़ा कर्म हो सकता है अर्जुन, वो तो मैं कर ही रहा हूँ। दुनिया के सारे कर्मों से बड़ा जो कर्म हो सकता है, वो तो मैं कर ही रहा हूँ। कौनसा कर्म है? प्रकृति को गतिशील रखने का; वो तो मैं कर ही रहा हूँ न। जब मैं पीछे नहीं हटता अर्जुन, तो तुम आज युद्ध से कैसे पीछे हट सकते हो?’

आप में से जो लोग गीता श्रृंखला से जुड़े हुए हैं, उन्हें याद होगा कि हमनें बड़े विस्तार में समझा था इस बात को कि ‘कृष्ण प्रकृति को चला रहे हैं’, इस बात का अर्थ क्या है। संक्षेप में दोहरा देते हैं: प्रकृति माने दृश्य-दृष्टा का द्वैत।

ठीक?

जब आप कहते हैं 'प्रकृति है', तो एक पेड़ होना चाहिए और एक आपको होना चाहिए, तभी प्रकृति है। ठीक? नहीं तो कोई नहीं कहेगा कि प्रकृति है। पेड़ नहीं है, तो कहने के लिए कुछ नहीं बचेगा। आप नहीं हैं, तो कहने वाला कोई नहीं बचेगा।

तो प्रकृति माने ये द्वैत, जिसमें चेतना है, चेतना का विषय है। तो कृष्ण का क्या आशय है कहने से कि मैं चला रहा हूँ प्रकृति को? ये द्वैत चल ही इसलिए रहा है क्योंकि देखने वाले को पूर्णता की, अंत की तलाश है। उसी पूर्णता, उसी अंत को 'कृष्ण' कहकर संबोधित करते हैं। तो इस आशय में कृष्ण पूरी प्रकृति को चला रहे हैं।

कुछ नहीं चल रहा होता अगर पूर्णता होती। जो कुछ चल रहा है, किसके लिए चल रहा है? कौन कहता है चल रहा है? आप ही तो कहते हैं न? आप ही तो समस्त गति के भोक्ता हैं। आपके अलावा सारे परिवर्तन का अनुभव किसको होता है? आप ही तो हैं। जो कुछ हो रहा है, आपके लिए हो रहा है। और आपको ये सारा परिवर्तन अनुभूत क्यों होता है? क्योंकि आपको परिवर्तन की आकांक्षा है।

आप जैसे हैं, वो आपके लिए ठीक नहीं है, इसीलिए आँखें एक दृश्य से दूसरे दृश्य तक भटकती रहती हैं। कोई एक अंतिम दृश्य ऐसा मिलता नहीं है जिस पर आप रुक सकें। इसीलिए आँखों को इधर से उधर भागना पड़ता है, जीवन को इधर से उधर भागना पड़ता है, टाँगों को इधर से उधर भागना पड़ता है, विचारों को भागना पड़ता है। ये सबकुछ जो भाग रहा है, कृष्ण के लिए भाग रहा है।

इस अर्थ में कृष्ण कह रहे हैं कि ‘मैं समस्त प्रकृति को गतिशील रखता हूँ, अर्जुन! और उसमें मिलना मुझे कुछ नहीं है क्योंकि मैं तो पूर्ण हूँ। जो पूर्ण है उसे अब और क्या पाना है! तो मुझे कुछ पाना नहीं है, फिर भी मैं पूरे अस्तित्व को कर्मशील रख रहा हूँ; तुम पीछे मत हटो।’

उसी श्रृंखला में आगे कृष्ण कहते हैं कि ‘अगर मैं रुक जाऊँ तो क्या होगा?’ चौबीसवें श्लोक में:

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् । सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ।।३.२४।।

यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सारे लोक नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ, मैं वर्णसंकर का कर्ता बनूँ और प्रजाओं के ध्वंस का कारण बनूँ।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय-३, श्लोक-२४

सावधानी से समझना पड़ेगा कि कृष्ण क्या कह रहे हैं। ‘वर्ण’ शब्द से कृष्ण का क्या आशय है? वर्ण शब्द जब गीता में आता है तो क्या अर्थ होता है उसका? वर्ण का अर्थ जाति नहीं है। वर्ण का सम्बन्ध जन्म से नहीं है; वर्ण का सम्बन्ध चेतना से है; कम-से-कम आदर्श रूप में।

समाज में वो प्रयुक्त किस तौर पर होता था? समाज ने उसका इस्तेमाल कैसे करना शुरू कर दिया? वो बिलकुल अलग बात है। वो समाज की बात है, समाज की बुद्धि की बात है, समाज की पशुता की बात है, मनुष्य मात्र में निहित जन्मगत अज्ञानता की बात है। पर वर्ण का वेदान्त में अर्थ 'चेतना' से है।

पहली बात तो वेदान्त में वर्ण शब्द के लिए भी कोई स्थान नहीं है। आप अगर विशुद्ध वेदान्त में जाएँगे जैसे अष्टावक्र गीता हो गई या निरालंब या सर्वसार उपनिषद् हो गए, वो तो वर्ण की भी बात नहीं करते और वर्ण जैसी भी किसी चीज़ को ऋभु गीता साफ़-साफ़ इंकार करती है। पर यहाँ भगवद्गीता में वर्ण शब्द आ रहा है तो समझना आवश्यक है।

वेदान्त का सम्बन्ध चेतना से है, तो वेदान्त यदि कभी भी विभाजन करके देखेगा भी, तो वो विभाजन सिर्फ़-और-सिर्फ़ किसका हो सकता है? चेतना का ही हो सकता है। ऊँचा वर्ण वो जिसकी चेतना ऊँची है। इसी बात को कबीर साहब ने कहा है:

"सोई ब्राह्मण जो ब्रह्म विचारे।"

ब्राह्मण कौन? जो ब्रह्म के विचार में हो, वो ब्राह्मण। फिर उससे नीचे तल, नीचे तल, उससे नीचे के तल। तो चेतना से ही सम्बन्ध है वर्ण का, और कुछ नहीं।

तो कृष्ण कह रहे हैं, ‘मैं अगर काम न करूँ’, मैं अगर काम न करूँ माने? माने जो दृष्टा है, उसमें अगर ऊपर उठने की इच्छा न रहे, तो कृष्ण कह रहे हैं, ‘संकर पैदा हो जाएँगे, वर्णसंकर’।

इस बात का आशय क्या है, समझिएगा!

ऊपर उठने का तरीका क्या होता है? चेतना को ऊपर उठाने का? हम बार-बार क्या बोलते हैं? सही संगति। सही संगति किसकी होती है? जो आपसे ऊपर का है, जिसका आप हाथ थामें तो आपको भी ऊपर की तरफ़ खींच ले। ठीक?

कृष्ण कह रहे हैं कि ‘ऊपर वाले का हाथ इसलिए थामते हो न क्योंकि मुझे पाना है तुम्हें? तुम मुझे पाना चाहते हो इसीलिए तो फिर जो चेतना के तल पर तुमसे ऊपर है, उसका हाथ थामते हो। अगर मैं न रहूँ, माने मुझे पाने की कोई आकांक्षा ही शेष न रहे, तो फिर तो तुम किसी का भी हाथ थाम लोगे, और उससे फिर जो पैदा होगा वो वर्णसंकर है। वो कोई ग़लत ही व्यक्ति है, जो पैदा हो गया।‘

इससे आपको चेतना के विषय में भी ज्ञान मिल रहा है और जीवन में संगति-साथी कैसे चुनने हैं, इसके बारे में भी ज्ञान मिल रहा है। और इससे आपको ये भी पता चल रहा है कि वर्णसंकर होने का वास्तविक अर्थ क्या है।

आपने किसी ऐसे को चुन लिया है जो चेतना में आपसे नीचे का है, तो आपकी जो संतान पैदा होगी उसको ही वर्णसंकर कहा जाता है। किसी ऐसे को मत चुन लेना जो निचले तल का है।

तो आप कहेंगे, 'फिर आप जिस ऊँचे को चुनोगे, उसकी तुलना में तो आप नीचे के हुए, तो भी वर्णसंकर ही पैदा होगा?' नहीं, यहाँ बात में थोड़ी सूक्ष्मता है। ऐसे को चुनो जिसकी संगत में तुम तो ऊपर उठ जाओ लेकिन तुम्हारी संगत में वो नीचे न गिर पड़े।

और यदि तुम पाओ कि तुम चेतना में इतनी ऊँचाई पर पहुँच गए हो कि अपने से ऊपर का कोई मिल ही नहीं रहा, तो अपने से नीचे वालों का हाथ थाम सकते हो। पर जब नीचे वाले का हाथ थामो तो करुणा में थामना, और इस सावधानी के साथ थामना कि हाथ पकड़ोगे तो वो ऊपर उठेगा, तुम नीचे नहीं फिसल जाओगे।

यदि विनम्रता हो और साफ़ दिखाई दे कि अभी तुम्हें ही उठने की ज़रूरत है, तो कोई अपने से ऊपर वाला ही खोज लेना। और जो तुमसे ऊपर वाला हो, वो ऐसा हो कि तुम्हें तो ऊपर खींच ले, और ख़ुद धड़ाम से नीचे न आ जाए। और यदि अपने से ऊपर का न कोई उपलब्ध होता हो और करुणा प्रधान हो तुम्हारा चित्त, तो नीचे वाले का हाथ थाम लेना लेकिन सावधान रहना क्योंकि नीचे वाले की वृत्ति ये होती है कि वो स्वयं तो ऊपर आएगा नहीं, तुम्हें नीचे खींच लेगा।

तो वर्णसंकर कौन हुआ?

दो चेतनाओं का कुछ इस प्रकार का मिलन जिसमें निचली चेतना हावी हो गई, उससे जो औलाद पैदा होगी वो वर्णसंकर कहलाएगी।

दो ऐसे व्यक्तियों का मिलन हो गया जिसमें जो निचले तल का व्यक्ति था, वो हावी हो बैठा। निचले व्यक्ति ने ऊपर वाले को ही नीचे खींच लिया। ऊपर वाला भी ऊपर का नहीं बचा, नीचे वाले का राज हो गया पूरा; अब इस मिलन से जो संतान पैदा होगी वो वर्णसंकर कहलाती है।

कृष्ण कह रहे हैं, 'अगर मैं ऊपर से बुलाऊँ नहीं, तो दुनिया में सब वर्णसंकर ही पैदा होंगे', क्योंकि इंसान कृष्ण के अभाव में तो पशु-मात्र है न? पशुता ही नीचे को ज़्यादा खींचती है। पशुता पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की तरह है, वो सतत है, वो लगातार आपको खींच ही रहा है।

उठने के लिए श्रम करना पड़ता है, गिरने के लिए कोई श्रम नहीं करना पड़ता। कृष्ण कह रहे हैं, ‘उठाने वाली शक्ति मेरी है, मैं अगर नहीं उठाऊँ, तो सब धड़ाधड़ गिरेंगे। सब वर्णसंकर ही हो जाने हैं, क्योंकि सब गिरी हुई चेतना के हो जाएँगे। दो व्यक्तियों का जब मिलन होगा तो उसमें जो ज़्यादा दुष्ट और पाशविक होगा, वही हावी हो जाएगा अगर मैं न होऊँ।’

सद्बुद्धि और दुर्बुद्धि अगर आपस में मिलेंगे तो दुर्बुद्धि ही हावी हो जाएगा। सद्बुद्धि वाला तभी जीत पाता है जब उसे कृष्ण का सहारा होता है। अन्यथा प्रकृति का नियम तो यह है कि जो निचली चीज़ है वही जीतेगी। त्याग और मोह में जब भी संघर्ष होगा, मोह जीत जाएगा। त्याग सिर्फ़ तब जीतता है जब कृष्ण साथ हों आपके, या आप कृष्ण के साथ हों; ये ज़्यादा बेहतर है कहना।

दो व्यक्ति आपस में मिलें, एक का नाम है मोह और एक का नाम है त्याग। इनका मिलन हो गया, जीतेगा कौन? मोह जीत जाएगा। अगर मोह जीत गया है तो इस मिलन से जो संतान पैदा होगी उसको कहते हैं वर्णसंकर। उसको बड़ा बुरा माना गया है। और मोह और त्याग में जीतने की ज़्यादा संभावना हमेशा मोह की ही है। त्याग सिर्फ़ तब जीत सकता है जब कृष्ण मौजूद हों, कृष्ण की उपस्तिथि हो; उससे मोह टूटता है और त्याग को बल मिलता है।

कृष्ण कह रहे हैं, ‘अगर वो न हो जो तुमको हर समय बुला रहा है, तो ये पृथ्वी जीने लायक नहीं बचेगी, ये घटिया किस्म की नस्लों से भर जाएगी। सब वर्णसंकर ही हो जाने हैं।‘ वर्ण माने चेतना की ऊँचाई। सब अपने-अपने वर्ण से नीचे आ जाएँगे। जो जिस भी तल पर है, उससे नीचे ही आ जाएगा। जबकि जीवन का उद्देश्य है लगातार उठते रहना। उठने की जगह सब गिर रहे होंगे।

‘तो अर्जुन देखो, मैं कितना बड़ा काम कर रहा हूँ! मेरे ही होने का परिणाम है कि इंसान लगातार तरक्की करना चाहता है। कोई भी व्यक्ति कहीं भी अगर उठने की इच्छा रख रहा है, तो वो मेरी वजह से है अर्जुन। नहीं तो गिरना ही बहुत आकर्षक है। पशु हो जाओ, गिर जाओ, खाओ-पीओ, पड़े रहो नशे में, क्या बुराई है? उसी में ज़्यादा आकर्षण है।’

‘ये तो मैं हूँ, जिसकी वजह से इंसान पशु नहीं हो रहा। इंसान अलग-अलग तरीकों से उठने की कोशिश करता है। कोई पैसे के माध्यम से उठना चाहता है, कोई कला के माध्यम से उठना चाहता है, कोई यात्रा करके उठना चाहता है, कोई ज्ञान से उठना चाहता है। तरीके-तरीके से हर व्यक्ति जीवन में उठने की कोशिश करता है। कोई पशु कभी उठने की कोशिश करता है? नहीं। क्योंकि पशु को कृष्ण से कोई लेना-देना नहीं। मनुष्यों को मुझसे लेना-देना है, इसीलिए वो जीवन में प्रगति चाहते हैं, उत्थान चाहते हैं।’

हाँ, उत्थान अगर अज्ञान के साथ हो रहा है तो फिर उत्थान का कुछ उल्टा-पुल्टा अर्थ हो जाता है। फिर तो कोई उत्थान का यही अर्थ समझ लेता है कि बहुत सारा पैसा भर लो या बड़ी सत्ता इक्ट्ठी कर लो। लेकिन जो सबसे निकृष्ट तरीके से भी जीवन में उठना चाह रहा है, वो वास्तव में पाना कृष्ण को ही चाह रहा है; बस उसको ये पता नहीं है कि इस तरीके से कृष्ण मिलते नहीं। इच्छा उसकी भी यही है कि उठूँ। इस उठने का मतलब ही है कि आपके भीतर भी कृष्ण की अभीप्सा है।

हर व्यक्ति बेहतर होना चाहता है न? हर आदमी बदलाव चाहता है न ज़िंदगी में? आप भी यहाँ किसी बदलाव के लिए ही आए हैं। वास्तव में आप यहाँ कृष्ण के लिए आए हैं। अंतर बस ये है कि सप्ताहांत पर आप कृष्ण को पाने के लिए यहाँ आए हैं, और कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो कृष्ण को पाने के लिए वीकेंड पर कोई और हरकत करेंगे; चाहिए दोनों को कृष्ण ही। बस एक ज्ञान मार्ग से पाना चाहता है और दूसरा मद मार्ग से, अज्ञान मार्ग से।

ये श्लोक कृष्ण से आ रहे हैं तो कृष्ण के संदर्भ में जो सबसे साधारण शब्द हो सकता था अर्जुन की मदद के लिए, उन शब्दों में ये वर्णित है। लेकिन कृष्ण के स्तर पर जो सबसे साधारण बात भी है, वो आम-आदमी के लिए जटिल हो जाती है। कृष्णों ने और ऋषियों ने बहुत कोशिश करी है कि अपने सूत्र सरल-से-सरल और स्पष्ट-से-स्पष्ट रखे जाएँ। लेकिन वो बेचारे क्या करें, हमारी बुद्धि इतनी छोटी है कि सरल-से-सरल बात भी हमारे लिए भारी हो जाती है। तो इसीलिए इन सूत्रों को इतना समझाना पड़ता है। न समझाया जाए तो इनका अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

गीता पर इतनी टीकाएँ हैं, इतने सारे भाष्य हैं। और बहुत खेद की बात है ये कि उनमें से अधिकांश ऐसे ही हैं जिन्होंने अर्थ का अनर्थ करा है। अब वर्णसंकर वाली बात है यहाँ पर, इसको आप पाएँगे कि अधिकांश भाष्य यही बताते हैं कि एक जाति के लोग दूसरी जाति से समागम करने लगेंगे तो वर्णसंकर पैदा हो जाएगा। वो बात ही नहीं की जा रही है यहाँ पर।

इसी तरीके से यज्ञ का वास्तविक अर्थ क्या है? वो ज़्यादातर लोगों को यही लगा है कि यज्ञ से अर्थ वही है – कर्मकाण्ड। कर्मकाण्ड की बात कृष्ण कर ही नहीं रहे हैं। गीता तो एक तरह से कर्मकाण्ड के विरुद्ध कृष्ण का विद्रोह है। यज्ञ का सूक्ष्म अर्थ बता रहे हैं कृष्ण।

‘तो अगर मैं कर्म न करूँ तो ये पूरी पृथ्वी नष्ट हो जाए, मैं इन प्रजाओं के विनाश का कारण बनूँ। तो मैं नहीं रुक रहा अर्जुन, तुम क्यों रुकोगे? रुकना मत! जो तुम्हारा धर्मोचित कर्तव्य है, उसमें लगे रहो अर्जुन! जीतोगे-हारोगे, जिओगे-मरोगे, छोड़ दो ये सब बातें!’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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