न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा | न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम् || २, १२ ||
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ही ऐसा है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १२
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कृष्ण की भाँति क्या हम सब भी ये महसूस कर सकेंगे कि हम भी अस्तित्व में पहले भी थे और बाद में भी होंगे?
आचार्य प्रशांत: आप श्रीकृष्ण हैं तो महसूस कर सकेंगे और अगर आप श्रीकृष्ण नहीं हैं तो नहीं कर पाएँगे। श्रीकृष्ण का बोध तो श्रीकृष्ण जैसे ही किसी को होगा न? जो उनको समझ में आ रहा है, जो उनको अनुभव हो रहा है, वो तो उनके जैसे ही किसी को अनुभव होगा। तो आप भी उनके जैसे हो जाएँ, जो उनको दिख रहा है, आपको भी दिखेगा।
जब भी दिखाई दे कि शास्त्रों की बात, सूत्रों की बात, गुरुओं की बात समझ में नहीं आ रही है तो दोष अपनी समझ को मत दीजिएगा; अपनी हस्ती को, अपनी अस्मिता को, अपने पूरे वज़ूद को दीजिएगा। वो श्लोक, वो वाक्य या वो व्यक्ति आपको समझ में इसलिए नहीं आ रहा है क्योंकि आपके जीवन और उसके जीवन में बहुत दूरी है। वो किसी और केंद्र से संचालित हो रहा है, किसी और आयाम का है; आपका केंद्र ही दूसरा है, आपका कोई और आयाम है।
तो इसीलिए उसकी बात, उसका आग्रह या उसका जीवन कुछ युक्ति संगत नहीं मालूम पड़ता; कुछ विसंगति दिखती है, कुछ अतार्किक लगता है; दो और दो चार होता नहीं दिखता। वो दो और दो चार होगा ही तभी जब उसके जैसे हो जाएँगे।
वास्तव में महापुरुषों के कथनों को समझने का कोई तरीका ही नहीं है, विधि कोई है ही नहीं—वही हो जाना पड़ता है जिसने वो बात बोली थी। बात समझने के लिए वही हो जाना पड़ता है जिसने वो बात बोली थी; तभी वो बात पल्ले पड़ेगी। अगर आप वो हैं नहीं जिसने वो बात बोली है और फ़िर भी आपका दावा है कि, "मैं तो समझता हूँ", तो झटका खाने के लिए तैयार रहें; कुछ समझते नहीं हैं। गीता के श्लोकों का अर्थ कर लेने से वो श्लोक समझ में नहीं आ गए।
जब जीवन में कृष्णत्व आए, तब कृष्ण की बात समझ में आएगी।
कृष्ण जैसे हो जाएँगे फ़िर श्लोक सहज हो जाएँगे। फ़िर श्लोक पढ़ेंगे, कहेंगे, "हाँ, ठीक।” वो पराई या अनजानी या दूर की लगेगी ही नहीं, आप कहेंगे, “मेरी ही बात है, मैं तो जानता हूँ।” जब तक वो बात आपकी नहीं हुई, तब तक समझ में कैसे आ गई, भाई?
इससे आप यह भी समझ गए होंगे कि अध्यात्म में समझाने की प्रक्रिया वास्तव में होती क्या है। जब गुरु शिष्य को समझा रहा है या जब कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं तो घटना क्या घट रही है वास्तव में? घटना यह घट रही है कि अर्जुन को कृष्ण अपने जैसा बना रहे हैं; समझा नहीं रहे हैं। वो अर्जुन को अपने में समाहित किए ले रहे हैं। वो अर्जुन को पी रहे हैं। अर्जुन मिट रहा है। जैसे-जैसे अर्जुन मिटता जाता है, वैसे-वैसे अर्जुन समझता जाता है—यही समझने की प्रक्रिया है। गुरु और शिष्य के मध्य हमेशा यही घटती है।
शिष्य जितना मिटेगा, उतना समझेगा।
मिटा नहीं है, अपनी ही अकड़ में दूर खड़ा है, उसे अपनी हस्ती अभी प्यारी है, उसे अपनी व्यक्तिगत सत्ता बरकरार रखनी है, तो उसे कुछ समझ में आ भी नहीं रहा होगा।
तो ले-देकर हर ग्रन्थ का और हर गुरु का उपदेश मात्र इतना होता है: 'मेरे जैसे हो जाओ'। बाकी सब बातें तो बहाना हैं। अब बातचीत करनी है तो कुछ मुद्दा होना चाहिए न? तो मुद्दे खड़े करे जाते हैं, कभी किसी विषय पर बात होती है, कभी किसी विषय पर बात होती है।
गीता में अट्ठारह मुद्दे खड़े करे गए एक-के-बाद एक, लेकिन वो सब मुद्दे बहाना हैं। चल क्या रहा है? अर्जुन के विगलन की, बड़े मौलिक परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है चुपचाप—ऊपर-ऊपर बातें चल रही हैं, नीचे-नीचे विगलन चल रहा है—अर्जुन को मिटाया जा रहा है। बातचीत सब सतही है।
शिष्य बातूनी होता है न बहुत, तो उसको रिझाने के लिए ज़रूरी होता है। शिष्य को लगा रहता है, ढाँढस रहता है, सांत्वना रहती है कि बातचीत ही तो चल रही है। वो बातचीत ऊपर-ऊपर चलती है, नीचे-नीचे कुछ और चल रहा है। शिष्य का बातों को लेकर इतना आग्रह ना रहता तो गुरु ऊपर-ऊपर बातचीत ना करता।