कृष्ण और गीता मज़ाक हैं इनके लिए

Acharya Prashant

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कृष्ण और गीता मज़ाक हैं इनके लिए
आपके पास अपने पूर्वाग्रह होते हैं। आपके पास अपना विचार होता है। फिर गीता आपके हाथ में आती है और आपको पता है कि गीता को सब लोग सम्मान देते हैं। परम्परागत सम्मान मिलता है भई गीता को। तो आप क्या करते हो? आप अपने ही जो पुराने पूर्वाग्रह हैं, उनको सही साबित करने के लिए गीता के श्लोकों का वो अर्थ कर देते हो जो आपके पूर्वाग्रहों से मेल खाता हो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मैं आपको एक साल से सुन रही हूँ। जो पहले मेरे व्यूज़ (विचार) थे, जो चीज़ें मैं सही मानती थी वो गलत साबित होती जाती हैं। तो पहले जो मोटिवेशनल स्पीकर्स (प्रेरक वक्ता) उनकी जो मैं बातें सुना करती थी, वो आज लगती है कि मतलब वो ऐसे ही है और उसमें कोई सच्चाई नहीं है। जैसे नॉर्मली (आमतौर पर) कुछ मोटिवेशनल स्पीकर्स भगवद्गीता का भी यूज़ (उपयोग) करते हैं, अपनी बातें सही बताने के लिए। सो पहले मैं भी जब भगवद्गीता मैंने नहीं पढ़ी थी तब मैं भी उनकी बातों को एक दम सही और उनकी बातें अपनाने के लिए आतुर रहती थी कि यही सच है।

जब मैंने पढ़ी तो मुझे समझ में आया कि वहाँ पर जब बोला जाता है कि जैसे कहा श्री कृष्ण ने, ‘कर्म कर फल की इच्छा मत कर।’ तो जो वहाँ पर पहले मैंने सुना था तब उसका अर्थ अलग निकलता था कि जो भी आप कर रहे हो उसे कंटिन्यू (ज़ारी) करते रहिए। ये मत देखिए कि आप क्या काम कर रहे हो; लेकिन जब समझा आपसे मैंने तब ये अर्थ निकला उसका कि आप पहले ये देखिए कि आप काम क्या कर रहे हो? फिर उसको लगातार उस कर्म को करते रहिए। मेरा सवाल है कि इस तरीके की बहुत सारी भ्रांतियाँ हैं जो आलरेडी (पहले से) फैली हुई हैं। और लोग उसे फॉलो (पीछा) कर रहे हैं। उस चीज़ से कैसे बचा जाये ?

आचार्य प्रशांत: जैसे आप बचीं। आप दवाई से पूछ रहे हैं कि रोग कैसे दूर होगा? दवाई क्या बोलेगी, मुझे उठा लो, मुझे खा लो। मैं और क्या उत्तर दे सकता हूँ। वैसे आपने अभी भी जो अर्थ बताया, वो अर्थ है नहीं। गीता में पहली बात तो कहीं लिखा नहीं है कि कर्म कर और फल की चिंता मत कर। ऐसा कोई श्लोक नहीं है।

कर्म को लेकर के कृष्ण कह रहे हैं, अपने लिए कर्म मत कर। अपने लिए मत कर। अपनी कामनाओं के लिए मत कर। अपनी कामनाओं के लिए नहीं करें तो किसके लिए करें? तो जब ये प्रश्न आता है, किसके लिए करें, तो कृष्ण कह देते हैं मेरे लिए करो। अब कृष्ण कोई व्यक्ति तो हैं नहीं कि किसी व्यक्ति के लिए करना है। कृष्ण के लिए कर्म करने का मतलब ही यही है बस के अपने स्वार्थ, अपने संकीर्ण लाभ के लिए काम नहीं करना है। इसी को सही काम, इसी को निष्काम, इसी को ऊँचा काम कहते हैं।

और जब आप निष्काम होकर कर्मरथ होते हो तो फल की चिंता अपने आप होती ही नहीं है। फिर ये नहीं बोलना पड़ता, फल की चिंता मत कर। वो कहेगा, है किसको? आप उसको कह रहे हो फल की चिंता मत कर। बोल रहे हैं, चिंता वो न करे जिसको चिंता होती हो, हमें कोई चिंता है ही नहीं।

निष्कामना का क्या मतलब होता है? निष्काम होने का अर्थ होता है निश्चिंत हो जाना। जो कामना से मुक्त है, वो चिंता से भी तो मुक्त है। चिंता इसी बात की रहती है न कि कामना पूरी होगी कि नहीं होगी। तो जो निष्काम हो गया वो निश्चिंत भी तो हो गया। उसके बाद उसे सीख थोड़ी देनी पड़ेगी कि फल की चिंता मत कर। वो कहेगा अगर मैं फल की चिंता कर ही रहा होता तो वो काम उठाता ही नहीं जो अभी उठाया है।

अगर आपने सही काम उठा लिया तो फल की चिंता आएगी ही नहीं। सही काम की पहचान ही यही है कि वो काम इतना प्यारा होता है कि उसको उठाने के बाद उसके अंजाम की चिंता करने की फ़ुरसत नहीं बचती। तो कृष्ण ये कहीं नहीं कहते हैं कि कर्म कर फल की चिंता मत कर। कृष्ण बस ये कहते हैं सही कर्म कर बस। सही कर्म ही निष्कामता है। और सही काम करने का एक पुरस्कार, ये मिलता है कि परिणाम की, अंजाम की, भविष्य की चिंता से मुक्त हो जाते हो।

वास्तव में आपने सही काम उठाया है या नहीं। ये आप इसी बात से जाँच सकते हो कि आपको भविष्य कितना याद आ रहा है। आप बार-बार कितनी गणना कर रहे हो कि इस काम से मुझे मिलेगा क्या?

अगर आपको बार-बार ये सोचना पड़ रहा है कि इस काम से मुझे क्या मिलेगा तो आपने काम गलत उठाया है। सही काम वो है जो बस सही है। वो इसलिए नहीं सही है कि सही अंजाम देगा। वो इसलिए सही है क्योंकि वो बस सही है।

अंजाम चाहे जो हो, अंजाम की सोचने कि बात ही नहीं है। फ़िक्र ही नहीं है, फ़ुरसत ही नहीं है, ध्यान ही नहीं है, खयाल ही नहीं आता। काम सही है, अंजाम, अंजाम तो सोचा नहीं। तो सोचो, मन नहीं कर रहा अंजाम वगैरह सोचने का काम, अच्छा है काम, करने दो न। ये है निष्काम कर्म। नासमझों ने उसको बना दिया, ‘कर्म कर फल की चिंता मत कर।’ क्या बना दिया? वैसे ही अधिकांश श्लोकों के विकृत अर्थ किए गये हैं।

गीता आप जो समझते हैं उससे बहुत-बहुत भिन्न है। गीता के सन्देश बहुत अलग है। गीता आप तक जिस रूप में लायी गयी है वो बिलकुल अर्थ का अनर्थ करके लायी गयी है। इसीलिए तो आप पाते हैं कि नास्तिक लोग फिर भी जीवन में ठीक रहते हैं आगे बढ़ जाते हैं, धार्मिक आदमी बिलकुल गड्ढ़े में गिरता है। इन्ही वजहों से तो गिरता है।

अब धार्मिक आदमी को गीता दे दी गयी है, वो गीता में जो अर्थ और व्याख्या है वो बिलकुल उलटी-पुल्टी है। तो धार्मिक आदमी एकदम गिर जाता है नीचे। और इन सब गड्ढ़ों से बल्कि जो नास्तिक व्यक्ति है वो बच जाता है। क्योंकि उसनें गीता कभी पढ़ी ही नहीं। जब पढ़ी नहीं गीता तो गीता के जो अनर्गल अर्थ हैं उनसे भी बच गया वो। चाहे गीता हो, चाहे संतवाणी हों, चाहे उपनिषदों के श्लोक हों सबका ऐसा बेहूदा अर्थ है कि आप बिलकुल माथा पीट लें कि ये किसने करा है और क्यों करा है? नासमझ था या बेईमान। ये क्या करा है?

जब ग्रन्थों के असली अर्थ खुलने लगते हैं। तो जो आनन्द आता है, वो अतुल्य है। मज़ा आ जाएगा बिलकुल। ये जो आप छठी क्लास (कक्षा) में दोहे पढ़ते थे न, उनके बहुत गहरे अर्थ हैं। उनके वो अर्थ नहीं हैं जो आपको आपकी छठी के हिन्दी टीचर ने बता दिये।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥

ये जो बड़ा शब्द है इसमें समझिए कि ये संतों के पास से आ रहा है। जब संत के पास से शब्द आये बड़ा तो उसका अलग अर्थ होता है। छाया शब्द जब संत के पास से आये तो उसका अलग अर्थ होता है। उसका वो अर्थ नहीं है वो जो छठी के बच्चे पढ़ रहे थे कि अच्छा ये बता दिया तो आप सोचते हैं कि हमें तो मतलब पता है।

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए। औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ॥

इसका वो अर्थ नहीं है जो आपको बता दिया गया है। और ये बहुत साधारण है, ये तो गीता कि संस्कृत भी नहीं है। ये तो साधारण आम भाषा है। लेकिन इसका भी हमें अर्थ गलत बता दिया गया है। और उल्टा बताया गया बिलकुल। क्या बोला जा रहा था, क्या समझा दिया। फिर जो समझा दिया गया वही हमारा संस्कार बन जाता है। हम उसी पर चलने लगते हैं और फिर ज़िन्दगी जब फिर ठोकरें देती है तो हम कहते हैं, गलत क्या हो गया? हम तो वही कर रहें हैं जो संतों ने समझाया था। नहीं, ये जो संतों ने समझाया था आपको उसका उल्टा अर्थ दिया गया है। इसलिए ज़िन्दगी आपको ठोकर दे रही है।

एक अगर जागरूक समाज होगा न, तो उसमें सबको ये अधिकार ही नहीं होगा कि धर्म ग्रन्थ को छू लें। अब कॉर्पोरेट प्रोडक्टिविटी (कॉर्पोरेट उत्पादकता) बढ़ाने के लिए अगर वहाँ गीता का सेशन (सत्र) किया जा रहा है तो इस बात पर जेल होनी चाहिए सीधे।

गीता के केन्द्र में बैठी हुई है निष्कामता। कि हमें कोई लाभ नहीं चाहिए, इसी को निष्कमता कहते हैं। और सेशंस होते हैं कॉर्पोरेट्स में, हायर मैनेजरियल इफ़ेक्ट्नेस थ्रू गीता ज्ञान (गीता ज्ञान के माध्यम से उच्च प्रबन्धकीय प्रभावशीलता)। और लोग करा रहें है ये और धड़ल्ले से ये कारोबार चल रहा है। ये चीज़ सिर्फ़ रुकनी ही नहीं चाहिए, ये चीज़ मैं कह रहा हूँ सज़ा की हकदार है। जो ऊँची-से-ऊँची चीज़ थी आपने उसपर भी अपने गन्दे हाथ रख दिये। आपने अपनी लोभी वृत्ति की आग में गीता को भी झोंक दिया।

मोटिवेशन का मतलब समझते हो क्या होता है? मोटिव , मोटिव माने क्या होता है? लक्ष्य कि ये करो तो वो मिलेगा, इसको मोटिव कहते हैं। फ़लाना काम कर लो तो आगे कुछ मिल जाएगा। और गीता कह रही है आगे देखना नहीं है। तो कोई मोटिवेशनल स्पीकर गीता पर हाथ रख कैसे सकता है। एफ़.आई.आर करो। मोटिव का अर्थ ही होता है भविष्य में कुछ मिल जाएगा। और गीता कह रही है भविष्य की ओर देखना ही नहीं है।

तो मोटिवेशन का और गीता का क्या तालुक है? गीता कह रही है तुम्हारा एकमात्र मोटिवेशन होना चाहिए तुम्हारे काम की शुद्धता, वही मोटिवेशन है। अभी देख रहा था, सवाल ही पूछा गया था। ऋषिकेश में था जनवरी-फ़रवरी की बात है। तो वहाँ पर गीता का श्लोक है जिसमें कृष्ण जो स्थितप्रज्ञ है उसके बारे में बोल रहे हैं। तो उसमे कह रहे हैं वो कि ‘वो सहज कर्म करता है, वो सहज कर्म करता है।’

तो एक बड़े भारी गुरुजी हैं उन्होंने गीता पर एक कमेंटरी (भाष्य) लिख दी है। उन्होंने उसका अर्थ दे रखा था सहज कर्म का मतलब होता है साँस लेना, ख़ाना-पीना ये सब चलना-फिरना ये सब सहज कर्म होते हैं। ये वो लोग हैं जिन्हें वेदान्त का ‘व’ नहीं पता।

वेदान्त में सहजता का अर्थ होता है, ‘आत्मा’। तो सहज कर्म वो है जो आत्मा से आ रहा हो। सहज कर्म वो नहीं है जो प्रकृति से आ रहा है। ये चलना-फिरना ये सब कहाँ से आता है? साँस लेना प्रकृति से आ रहा है। ये वो लोग हैं जिन्हें मूल अंतर नहीं पता प्रकृति और आत्मा में। और ये गीता पर भाष्य लिखकर बैठे हुए हैं।

समझ में आ रही है बात?

वैसे ही कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं अपना नियत कर्म करो। उसका आप गीता पर जितनी टीकाएँ हैं, भाष्य वगैरह आप उठाएँगे तो उसमें अर्थ दिया गया है कि नियत कर्म का मतलब होता है, जो कर्म तुम्हें समाज ने दे दिये हैं अपने सामाजिक दायित्व वगैरह।

नियत कर्म का अर्थ है, वो कर्म जो आपको आपकी नियति तक पहुँचा दे। नियति माने कृष्ण, नियति माने जो अन्तिम है, जिसके आगे कुछ नहीं। तो नीयत कर्म का अर्थ ये नहीं है कि जिसको समाज ने निर्धारित कर दिया है उसको नीयत कर्म बोलते हैं। लेकिन आप लगातार यही पाएँगे। एकदम उल्टा अर्थ। नियत कर्म होता है मुक्तकर्म। और टीकाकार बता रहे हैं कि नियत कर्म का अर्थ है कि जिस पर समाज ने बन्दिशें लगा दी हैं। वो कर्म जिसको समाज ने बेड़ियों में बाँध दिया है उसको नियत कर्म कहते हैं।

तो लोग फिर यही तो करते आये हैं। भारत की इसीलिए तो इतनी दुर्दशा हुई है। यहाँ सब लोग सोच रहे हैं कि नियत कर्म का मतलब होता है वो कर्म जो कि परम्परा से, प्रथा से, प्रचलन में है। उसको ही तो नियत कर्म कहते हैं। फिर उसमें जातिवाद भी आ जाता है। कि लोहार का नियत कर्म क्या है? लोहा। सोनार का? सोना। कुम्हार का? मिट्टी। वो फिर सोचते हैं यही तो है नियत कर्म कि जो चला आ रहा है वो नियत है। नहीं।

नियत कर्म होता है वो जो तुम्हें कृष्ण तक ले जाये। जो तुम्हारे बन्धनों को काटे वो नियत कर्म है। पर ये बात कहीं भी लिखी मिलेगी नहीं। वो बस, वो पता नहीं क्या चल रखा है उन्होंने अर्थ के नाम पर। गीता को सामाजिक एक डॉक्यूमेंट (दस्तावेज़) बना दिया है।

पता है क्या चल रहा है? ऐसा होता है। आपके पास अपने पूर्वाग्रह होते हैं। आपके पास अपना विचार होता है। फिर गीता आपके हाथ में आती है और आपको पता है कि गीता को सब लोग सम्मान देते हैं। परम्परागत सम्मान मिलता है भई गीता को। तो आप क्या करते हो? आप अपने ही जो पुराने पूर्वाग्रह हैं, उनको सही साबित करने के लिए गीता के श्लोकों का वो अर्थ कर देते हो जो आपके पूर्वाग्रहों से मेल खाता हो।

समझे बात को?

आप वास्तव में जान रहे हो क्या कर रहे हो? आप अपने अहंकार को गीता के ऊपर रख रहे हो। आप कह रहे हो मैं गीता का अर्थ तोड़ दूँगा ताकि गीता का वो अर्थ हो जाये जो मेरे अहंकार से मेल खाता हो। ये सबने करा है। उन्हें कृष्ण नहीं प्यारे हैं। वो कृष्ण को ऊपर नहीं रख रहे। वो कृष्ण से भी ऊपर किसको रख रहे हैं? अपने अहंकार को। ऐसों को आप ज्ञानी बोलेंगे, संत बोलेंगे या दुराचारी?

और धर्म दुराचारियों के हाथ चला जा चुका है। कई जगहों पर तो सीधे-सीधे संस्कृत का गलत अनुवाद कर देते हैं वो। आप भौंचक्के रह जाएँगे आप कहेंगे जो शब्द लिख दिया है श्लोक में तो कहीं है ही नहीं। और श्लोक में जो शब्द है उसको बिलकुल खा गये, छुपा दिया। क्यों छुपा दिया? क्योंकि वो इनकी मान्यताओं से मेल नहीं खा रहा था। तो श्लोक ही पलटकर रख दिया पूरा और आम जनता को संस्कृत आती नहीं।

उदाहरण के लिए आप अगर जातिवाद को मानते हो और ज़्यादातर जो गुरु-वुरु लोग हैं वो जातिवाद में पूरा विश्वास रखते हैं, आज भी। तो आप गीता के बहुत सारे श्लोकों का ऐसा अर्थ करोगे जैसे कृष्ण भी जाति को समर्थन दे रहे हों। आप अगर इस तरह की व्यवस्था में यकीन रखते हो कि जिसको जो काम बात दिया वो करता जाये। यही जीने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है। तो आप गीता के श्लोकों का भी ऐसा अर्थ करोगे जैसे कृष्ण भी यही बात बोल रहे हों। जबकि कृष्ण ने इससे बिलकुल उल्टी बात बोली है। और जहाँ पर अर्थ गूढ़ है वहाँ का तो कहना ही क्या। जहाँ पर अर्थ एकदम ही गूढ़ है वहाँ तो फिर जो कल्पनाएँ दौड़ाई गयी हैं, कुछ भी लिख देते हैं।

असल में होता ये है न कि गीता ऐसा लगता है कि दो लोगों के बीच की बातचीत है। एक व्यक्ति है कृष्ण, एक व्यक्ति है अर्जुन और ये बात कर रहे हैं। तो उसी हिसाब से अर्थ लिख देते हैं। अब अगर उपनिषदों का आपने गहरा पाठ नहीं करा है तो आप नहीं समझोगे कि ये जो वार्तालाप है। ये आत्मा और मन के बीच हो रहा है। कृष्ण और अर्जुन प्रतीक हैं।

कृष्ण प्रतीक हैं आत्मा के, अर्जुन प्रतीक हैं मन के। मन उलझा हुआ है। आत्मा करुणावश उसे सुलझाने की कोशिश कर रही है अलग-अलग तरीकों से। तब आप जानोगे कि वास्तव में बात कही क्या जा रही है। नहीं तो आपको लगेगा कि ऐसे ही कुछ अपना बोल रहे हैं मतलब, वही बात तो बोल रहे हैं जो सबको पता है। जो सामाजिक तौर पर मान्य है वैसी ही बात तो बोल रहें हैं। गीता फिर हमारी तमाम कुरीतियाँ का, पूर्वाग्रहों का, व्यर्थ की मान्यताओं का एक सहारा बन जाती है। आप कहने लग जाते हो ये बात तो गीता में भी लिखी है न।

अगर वेदान्त में आपकी जड़ें नहीं हैं। तो आत्मा क्या है? ये आपको नहीं पता होगा। फिर आपको नहीं दिखाई देता कि कृष्ण वहाँ पर आत्मा और जीवात्मा में कितना भेद कर रहे हैं गीता में। आपको लगता है आत्मा ही तो जीवात्मा है और व्याख्याकारों ने कर भी यही दिया है। जहाँ आत्मा लिखा है उसको उन्होंने लिखा है इसका मतलब जीवात्मा है।

कर्म का सिद्धान्त हर कोई कर्मा,कर्मा,कर्मा कर रहा है। इट वाज़ माय कर्मा, इट वाज़ योर कर्मा। दिस कर्मा, दैट कर्मा। कर्म का सिद्धान्त क्या है? किसी को नहीं पता। एकदम नहीं पता। पर कर्मा,कर्मा करे जा रहे हैं। कर्मयोग पढ़ने से मतलब नहीं है और अगर पढ़ भी लिया है तो उल्टी-पुल्टी व्याख्याएँ पढ़ ली हैं। गीता को सबूत बना लिया है कि जाति प्रथा ठीक है। आत्मा इधर से उधर भटकती है ये बात ठीक है। तुम आज दुखी इसलिए हो क्योंकि पिछले जन्म में तुम कुत्ते थे और तुमने बिल्ली को मार दिया था। ऐसी कोई बात है।

आज कोई तथाकथित निचली जाति में इसलिए पैदा हुया है क्योंकि पिछले जन्म का पापी है। ये बात ठीक है इन सब बातों को साबित करने के लिए गीता का सहारा लिया जाता है। जबकि गीता विशुद्ध ज्ञानयोग है। पहले, दूसरे, तीसरे अध्याय में देखें तो अर्जुन कर्मकाण्डी होना चाह रहे हैं और कृष्ण पूरे ज़ोर से कर्मकांड को तोड़ रहे हैं। और बार-बार बोल रहे हैं, मेरा ज्ञान उसकी समझ में नहीं आता जिसकी बुद्धि को वैदिक कर्मकांड ने भ्रष्ट कर दिया है। ये कृष्ण के वचन हैं। लेकिन ये सब बातें छुपा दी जाती हैं। ये सीधा श्लोक लिखा होगा लेकिन उसका अर्थ कुछ और कर दिया जाएगा। अर्थ भी नहीं, अनुवाद ही गलत कर दिया जाएगा। अनुवाद, ट्रांसलेशन ही गलत कर देंगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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