कृष्ण की त्रिगुणी माया ही कर्ता || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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कृष्ण की त्रिगुणी माया ही कर्ता || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते ।।३.२७।।

वास्तविकता ये है कि यथार्थ में प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न शरीर और इन्द्रियों के द्वारा ही संसार के सब काम होते हैं। लेकिन अंधकार से अंधा मनुष्य सोचता है ‘मैंने किया’।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक २७

आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं किया, प्रकृति के तीन गुण कर रहे हैं। अहंकार इसीलिए झूठ है क्योंकि कल्पना है, एक अनावश्यक कल्पना है। जो कुछ गुणों द्वारा प्राकृतिक रूप से हो रहा होता है, वो उसका श्रेय लेकर के उसका कर्ता बन बैठता है। और कर्ता बन बैठता है तो सज़ा ये मिलती है कि भोक्ता भी बनना पड़ता है। तुम कहोगे तुमने किया, तो भुगतने के समय भी तुम्हें ही याद किया जाएगा, ‘आ जाओ तुम ही ने तो किया था न, अब भुगतो भी तुम ही फिर।‘

समस्त सांख्ययोग, बल्कि पूरा वेदान्त इस श्लोक में समा जाता है, इसके अलावा कुछ नहीं है। जो कुछ हो रहा है, जो कुछ भी प्रतीत होता है, जो कुछ भी है, वो सब प्रकृति मात्र है। उसमें अहम् जैसा कुछ नहीं, 'मैं' मत बोलो, वो है बस, है। तुम उसमें कहीं नहीं हो। तुम उस पूरी व्यवस्था में एक अनावश्यक कल्पना मात्र हो, अनावश्यक और स्वयं को ही दुखदायी।

जो कुछ भी है वो करने वाला वास्तव में शरीर है और संसार है। लेकिन तुम उसका व्यर्थ ही कर्तृत्व धारण करे रहते हो। ‘मैंने साँस ली’, तुमने क्या ली! तुम नहीं भी लो तो साँस तो चलती रहेगी। ‘मुझे भूख लगी है’, तुम्हें क्या लगी है! भीतर प्रक्रिया चल रही है, उससे भूख उठ आयी है; ‘मुझे भूख लगी है, मुझे भूख लगी है।‘ ‘मेरा कद इतना है’, उसमें तुमने क्या करा है? ‘मैं हूँ’, उसमें भी तुमने क्या करा है? ‘मैं हूँ, मेरी हस्ती है’, उसमें भी तुमने क्या करा है? तुम 'मैं' क्यों बोल रहे हो? 'मैं' किसी ऐसी चीज़ के साथ जोड़ो न जिसमें तुम्हारा कुछ हो; तुम्हारी हस्ती में तुम्हारा क्या है? जो कुछ हो रहा है वो प्रकृति मात्र है, तुम कहाँ बीच में घुस आए?

‘नहीं, पर मैंने विचार किया न!’

वो मस्तिष्क की क्रिया है ठीक वैसे जैसे पेट की क्रिया है भूख लगने की, वैसे ही मस्तिष्क की क्रिया है। तुम क्यों कह रहे हो ‘मैंने विचार किया’? वो विचार तुमने किया नहीं, विचार अपनेआप हो जाता है, फिर तुम नाहक पीछे से आकर कह देते हो, ‘मैंने किया, मैंने किया।‘

ऐसे चलती ट्रेन में कोई बच्चा हो, वो सीट को धक्का मार रहा हो, और कहे ‘बड़ी मेहनत लग रही है इसको चलाने में, मैंने किया।‘ जवान हो जाते हो, प्रेम हो जाता है, ‘मैंने प्यार किया।‘ तुमने क्या किया? तुम कर रहे थे तो पाँच साल की उम्र में काहे नहीं किया? न पाँच की उम्र में होगा न पिचानवें की उम्र में होगा, पच्चीस का होते ही हो जाता है। हो गया है, तुमने किया थोड़े ही है। फिर तुम कहने लग जाते हो, ‘नहीं, मैंने किया, मेरा ऐसा है वैसा है।‘ तुमने कुछ नहीं किया उसमें।

बस यही अध्यात्म है – जान लेना कि जिन कामों के साथ स्वयं को जोड़े बैठे हो, वो सब बेहोशी के काम थे। वो हो रहे थे बस; किए नहीं थे। जैसे कोई नींद में चल रहा हो।

कोई नींद में चलकर कहीं चला जाए, और उसकी वजह से कोई दुर्घटना हो जाए तो उसको तो कानून भी सज़ा नहीं देता। कानून भी मानता है कि इसने नहीं किया, ये कर्ता नहीं है; हो गया। वैसे ही पागल आदमी को भी कानून सज़ा नहीं देता है। कहता है, ‘ये तो पागल है, इसको क्या सज़ा दें? इसने किया नहीं, हो गया।‘

कृष्ण समझा रहे हैं एक-एक गतिविधि जो जीवन में हो रही है, वो की नहीं है, हो गई है। हमारी हालत किसी सोते हुए व्यक्ति जैसी है या पागल जैसी है या पशु जैसी है या बालक जैसी है। यही सब हैं जो अध्यात्म में उदाहरण उपयुक्त होते हैं – पागल, पशु, सुप्त और शिशु। ये चारों वो होते हैं जो करते नहीं, इनसे हो जाता है। छोटा बच्चा होता है, वो बिस्तर गीला कर देता है। आप उसको थप्पड़ थोड़े ही मारते हो, उस छः महीने वाले को। उसने किया थोड़े ही, हो गया। बात ये है कि वो छः महीने की अवस्था जीवन भर चलती है। आप जो कुछ भी करते हैं, वो करते नहीं हैं, वो हो जाता है।

अध्यात्म कहता है, ‘ये जान लो, बस ये जान लो।‘

तो उससे क्या होगा? उससे कोई और पैदा होगा, वो जानने के फलस्वरूप ही पैदा होता है, उसी को बोध या होश कहते हैं। क्योंकि बेहोशी को जानने के लिए कोई तो होश में होगा न? अगर कोई निश्चयपूर्वक सत्यता से कह पा रहा है कि सब सो रहे हैं, तो इसका अर्थ है कि कोई एक तो जगा हुआ है। ठीक? नहीं तो कौन जानता कि सब सो रहे हैं? आपके भी जानने का प्रमाण यही होगा कि जब आप निश्चयपूर्वक कह पाएँगे, ‘मैं सो रहा हूँ।‘

और जिस दिन तक आपको नहीं दिख रहा कि आप लगातार एक गहरी बेहोशी में हैं, तब तक आप बेहोश ही हैं; क्योंकि बेहोश को कहाँ पता कि वो बेहोश है। जागने का प्रमाण ये होगा कि आपको प्रतिक्षण दिखने लगेगा कि ‘मैं बेहोश हूँ, मैं बेहोश हूँ, मैं बेहोश हूँ।‘ अब जागरण की प्रक्रिया चल रही है, क्योंकि आपको दिख रहा है आप कितने बेहोश हो। और जिसको नहीं दिख रहा कि वो बेहोश है, उसकी बेहोशी गहरी है बहुत।

इसीलिए जागरण दुखदायी होता है। जो बेहोश है उसको नहीं पता चलता कि वो बेहोश है; जो जगने लगता है उसको प्रतिपल दिखने लगता है कि वो बेहोश है, तो दुख होता है। जागरण दुखदायी होता है, इसीलिए लोग जब थोड़ा-बहुत जगने भी लगते हैं तो कई बार वो जान-बूझकर के सो जाते हैं, क्योंकि जगो तो बड़ी दुखदायी चीज़ें दिखने लग जाती हैं।

दिखने लग जाता है कि आज तक पूरी ज़िंदगी जी ही नहीं है। स्लीप वॉकिंग (नींद में चलना) करी है, बस ऐसे ही कहीं पहुँच गए, कुछ हो गया, गिर गए, उठ गए, बंध गए, चल दिए।

(श्लोक दोबारा पढ़ते हुए) प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न शरीर और इन्द्रियों के द्वारा समस्त कर्म होते हैं, लेकिन अहंकार से अंधा व्यक्ति कहता है, ‘मैंने किया, मैं कर्ता हूँ।‘

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।३.२८।।

लेकिन अर्जुन! जो तत्वज्ञ होते हैं, जो जानते हैं, वो कहते हैं कि सत, रज, तम – इन्हीं गुणों से उत्पन्न इंद्रियाँ, इन्हीं गुणों से उत्पन्न रूप-रस आदि में बरत रही हैं, और ये जानकर वो फिर आसक्त भी नहीं होते और ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा अभिमान भी नहीं करते।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक २८

तत्त्वज्ञ आदमी की निशानी ये है कि वो परायी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेता। ज़मीन की भाषा में कहें तो वो दूसरे के फटे में टाँग नहीं अड़ाता। कहता है, ‘प्रकृति का काम है, चल रहा है, मैं इसमें काहे के लिए ज़िम्मेदारी उठाऊँ? मैंने थोड़े ही किया है। प्रकृति का काम है, चल रहा है चलता रहे; मैं क्यों बोलूँ मैंने करा? न मैंने करा, न मेरी ज़िम्मेदारी है। न मैं कर्ता बनूँगा, न भोक्ता बनूँगा।‘ न वो श्रेय लेता है न ग्लानि। न लाभ लेता है न हानि।

कर्तृत्व में हमें लाभ दिखता है न? इसीलिए किए का फल भी भोगते हैं फिर उसमें हानि मिलती है। वो प्रकृति से परे हो जाता है, कहता है, ‘पराई चीज़ है, मुझे नहीं छूना। चल रहा है चलने दो।‘ तो फिर वो करता क्या है? उसकी अब सारी चेष्टा बस बंधन काटने की होती है, क्योंकि जन्म तो प्रकृति से बंधे हुए ही हुआ है न?

तो ये बात थोड़ी-सी आपको विरोधाभासी लगेगी, इसको समझ लीजिएगा।

एक ओर तो ये है कि सारी गतिविधि प्रकृति में हो रही है, उससे अलग हो जाना है। दूसरी ओर हम ये भी कहते हैं कि जीवन में सघन गतिविधि होनी चाहिए। फिर वो गतिविधि क्यों होनी चाहिए?

दो तरह की गतियाँ होती हैं, दोनों का अंतर समझेंगे। एक गति जैसे अब यह है (चलते हुए स्वयंसेवक की ओर इशारा करते हुए), ये क्या गति है? ये भीतर से भीतर को जा रहीं हैं, ये प्रकृति के भीतर की गति है। ये भीतर से भीतर को जा रहीं हैं। आम-आदमी जीवन भर यही गति करता रहता है, भीतर से भीतर को। क्योंकि वो प्रकृति को ही 'मैं' समझ लेता है।

ज्ञानी दूसरे तरह की गति करता है, वो भीतर से बाहर को गति करता है। अब गति दूसरी भी वैसी ही लगेगी, पाँव से ही चला जा रहा है, जगह बदल रही है। लेकिन (भीतर से भीतर की गति) ये कितनी भी कर लें, उम्र भर रहेंगी इसके भीतर ही। और जो दूसरा व्यक्ति है वो गति ऐसी करता है कि कुछ समय में बाहर निकल जाता है। तो जब मैं कहता हूँ कि घोर गति करो, तो मैं किस गति की बात कर रहा हूँ? ऐसी गति करो जो तुम्हारे बंधन तोड़ दे, जो तुम्हें इस क़ैद से बाहर निकाल दे।

और राजसिक लोग भी ज़बरदस्त गति करते हैं, जीवनभर लगकर मेहनत से काम करते हैं। सिखाते भी हैं ‘डट कर काम करो।‘ वो कौनसी गति बता रहे हैं? वो कह रहे हैं, ‘यहाँ भीतर ही गोल-गोल घूमते रहो, यहीं पर ही गति करते रहो और सोचते रहो कि किसी सीट के नीचे हीरे-मोती मिल जाएँगे, ढूँढते रहो, जीवन भर लगे रहो।'

समझ में आ रही है बात?

तो आप इसमें संशय में मत पड़ जाइएगा क्योंकि वेदान्त अगति भी बहुत सिखाता है – विश्राम, स्थिरता, अचलता। क्योंकि आत्मा अचल है न, हिलती-डुलती नहीं, तो वेदान्त कहता है कि आपकी उच्चतम स्थिति वो है जिसमें आप निश्चल हो जाएँ। तो आप कहेंगे, ‘वेदान्त तो कहता है निश्चल हो जाओ, पर ये तो बार-बार कह रहे थे कि लड़ो, घोर गति करो, संघर्ष करो; ये तो विरोधाभास हो गया न?’

नहीं, ये विरोधाभास नहीं है। आप जब तक भीतर हैं तो आपको गति करनी पड़ेगी। अचलता कब मिलेगी? जब बाहर पहुँच जाएँगे। बाहर पहुँचने से पहले ही आपने कह दिया कि वेदान्त कहता है 'निश्चल हो जाओ' तो आप कहाँ निश्चल हो जाएँगे? अंदर ही। ये गड़बड़ हो जाएगी न, इसी को तमसा कहते हैं, कि ग़लत जगह पर बैठ गए हैं और बिलकुल आसन मारकर डट गए।

पहली ग़लती है ये कि ग़लत जगह पर बैठ गए, इसके अंदर बैठना नहीं था।

‘रहना नहीं देस बिराना है।‘

ये बेगाना देश है, इसके भीतर बैठना ही नहीं था। पहले तो बैठ गए और बैठने के बाद कह रहे हैं, 'हम तो आत्मा हैं, हम तो यहीं पर अचल रहेंगे।' आत्मा की अचलता उनके लिए है जो आत्मस्थ हो गए हैं, बाकियों को तो सघन गति का जीवन जीना चाहिए; वही जो अर्जुन को सिखा रहे हैं कि अर्जुन युद्ध करो। अर्जुन को थोड़े ही कह रहे हैं अचल हो जाओ। ‘अचल हो जाते हैं हम-तुम दोनों और जंगल चलते हैं। वहीं बैठ जाएँगे, क्या करेंगे युद्ध वगैरह करके? ये तो सब प्रकृति के गुण हैं न।‘

अर्जुन यही बात पकड़कर के कृष्ण से कह सकते हैं कि 'ये सब जो लड़ाई-झगड़ा हो रहा है, ये सब भी तो प्रकृति के गुण हैं, उसमें मुझे क्यों लड़ने को बोल रहे हो फिर? इस पराये झंझट में मैं क्यों पड़ूँ?' तुम्हें पड़ना होगा।

जो फँस गया है, वो कल्पना मात्र से संतुष्ट नहीं हो सकता मुक्ति की। चूँकि वो फँस गया है, भले ही उसका फँसना स्वयं उसकी अपनी दृष्टि मात्र में हो, लेकिन फिर भी उसे तो यही लग रहा है न कि वो फँस गया है, दुख तो पा ही रहा है। जो फँस गया है उसे तो संघर्ष करके भिड़ना होगा, तार काटने होंगे, बाहर आना होगा।

बात आ रही है समझ में?

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मुझे ये पूछना था कि अभी आपने जो दो श्लोक हमें समझाए तो क्या किसी मनुष्य का किसी भी समय पर निर्णय लेना और निर्णय न लेना भी प्रकृति के उन तीन गुणों का ही फल है?

आचार्य: आप जिसको अपना निर्णय बोलते हैं, सामान्यतया वो प्राकृतिक होता है। आप बस बोल देते हैं कि मैंने चुना या मैंने करा या मैंने चाहा; वो काम प्रकृति के गुण करा रहे होते हैं। प्रकृति के गुण माने क्या? आपके लिए देह। देह, मन, इंद्रियाँ – वो आपके थोड़े ही हैं। वो अपनेआप हो रहा है, आपको लगता है आपने किया; आपने नहीं किया।

आपको मालूम है, विज्ञान यहाँ तक पहुँच चुका है कि आप जब छोटे होते हैं सिर्फ़ तभी आपके ऊपर प्रयोग करके और आपका जो जेनेटिक मैटेरियल (अनुवांशिक सामग्री) है, उसका विश्लेषण करके ये तक बताया जा सकता है कि आप जब बड़े होओगे तो आप तत्काल किस तरह के स्त्री या पुरुष के प्रेम में फँस जाओगे, किस तरह की आजीविका आपको पसंद आएगी। ये सब पंद्रह साल पहले ही बताया जा सकता है।

अब बताओ, नौकरी का चयन आपने करा? साथी का चयन आपने करा? वो तो हुआ, और वो पहले से ही निश्चित बैठा हुआ था। आपके देह में वो पहले से ही तय बैठा हुआ था। पर जब होता है तो आपको लगता है कि ‘मैंने किया’। नहीं, आपने करा नहीं है, वो सब जानी-पहचानी बात है कि ऐसा ही होना है। उसमें कुछ भी स्वतंत्र नहीं है, उसमें आपकी मुक्त इच्छा कहीं भी नहीं है। लेकिन मुक्त इच्छा हो सकती है, उसी को जागृत करने के लिए अध्यात्म है।

प्र: एक प्रश्न और है कि अभी जो आप भीतर से भीतर की गति और बाहर से बाहर की गति समझा रहे थे, वो मुझे अच्छे से नहीं समझ में आया।

आचार्य: बंधनों में बने रहो तो भी मेहनत करनी पड़ती है। जैसे जेल में एक क़ैदी हो, उसको वहाँ क्या मज़े कराते हैं? जेल में अगर पड़े हो, तो भी क्या करनी पड़ती है? बहुत गति करनी पड़ती है, जो भी वहाँ पर काम कराते हैं। तो मेहनत तो वहाँ पर भी कराते हैं, ऐसा तो नहीं कि वहाँ पर छोड़ देते हैं कि जाओ सोओ। और फिर एक मेहनत हो सकती है जेल तोड़कर भागने की।

अध्यात्म कहता है मेहनत तो कर ही रहे हो। ऐसा तो नहीं है कि अगर साहस नहीं दिखा रहे मुक्त होने का तो जेल के भीतर बड़ा आराम पा रहे हो। ज़िंदगी तो ख़राब कर ही रहे हो जेल के भीतर भी। तो क्यों न साहस दिखाकर के मेहनत कर लो और दीवार तोड़ दो, कि सुरंग खोद लो, जो भी करना है कर लो, निकल जाओ बाहर एक बार? और जो भी काम देखो, तुम ये करोगे मुक्ति के लिए, जेल वालों की नज़र में तो अपराध ही होगा, या नहीं होगा? मुक्ति का जो भी तुम काम करोगे, वो जेल वालों की नज़र में तो गुनाह ही होगा। तो उसका तुम अगर ये कहोगे कि दुनिया बुरा मानती है, समाज कहता है पाप कर दिया, तो मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। तुम्हारे पास समझदारी हो तो ख़ुद समझ जाओ, मैं कुछ नहीं कर सकता।

एक गाना है, बड़ा मस्त गाना है। वो यही है, जेल से भागने का।

‘कौन किसी को रोक सका, सय्याद तो एक दीवाना है तोड़ के पिंजरा एक न एक दिन, पंछी को उड़ जाना है।‘

उसमें सारा काम ही यही चल रहा है, जेल से भागने की तैयारी चल रही है। और जब वो निकलता है तो कहते हैं,

‘निकला शेर हाँके से बरसो राम धड़ाके से।’

कहते हैं जब वो निकलने वाला होता है, आवाज़ कर रहा होता है तो उसकी मदद करने के लिए जैसे बारीश भी होने लगती है कि आवाज़ न पता चले। फिर भी जब वो भागता है तो देख ही लेते हैं कि भाग रहा है, उसको गोली-वोली मारते हैं, पर वो भाग जाता है किसी तरीके से। मेरे ख़्याल से कालिया फ़िल्म का है, अमिताभ बच्चन पर इसका पिक्चराइजेशन (चलचित्रण) है। गाना मस्त है। सुनना है?

(आचार्य जी हॉल में स्क्रीन पर गाना चलवाते हैं)

ये है आपके प्रश्न का उत्तर कि प्रकृति के भीतर गति करना और प्रकृति से छूटने के लिए गति करना, इनमें अंतर क्या है। वो अंतर है, देखो अब।

समझ में आया?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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