प्रश्नकर्ता: विद्यार्थी ही हूँ, या शिष्य हो गया हूँ?
आचार्य प्रशांत: विद्यार्थी से शायद इनका तात्पर्य है ज्ञानार्थी, जो ज्ञान का इच्छुक हो और शिष्य से इनका अर्थ है शायद वो जो समर्पित हो गया हो।
तो पूछ रहे हैं कि “आचार्य जी, मैं अभी विद्यार्थी, ज्ञानार्थी ही हूँ, या समर्पित शिष्य हूँ, ये कैसे पता लगे?”
ये ऐसे पता लगे कि अगर मैं इस सवाल का जवाब न दूँ, और तुम्हें बुरा लग जाए, तो तुम ज्ञानार्थी हो और अगर मैं जवाब न दूँ, और तुम कहो कि जवाब नहीं दिया तो अच्छा ही किया होगा, तो तुम शिष्य हो।
प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। ‘गुरु’ शब्द भारी-सा लगता है, एक दूरी-सी बनी रहती है। क्या गुरु सखा भी हो सकता है?
आचार्य: हो तो सब कुछ सकता है, पर तुम उसे सखा बनाकर करोगे क्या? जब हम सखा बनाते हैं तो ये थोड़े ही करते हैं कि सखा अगर आठवीं मंज़िल पर है तो आठवीं मंज़िल पर चढ़ जाएँ। जब हम सखा बनाते हैं तो हम कहते हैं कि “सुन, भाई, मैं पहली मंज़िल पर हूँ, तू नीचे आ जा।”
एक आदमी और उसका नौकर ट्रेन से जा रहे थे। मालिक का टिकट था पहले दर्जे का और नौकर का टिकट था तीसरे दर्जे का। तो मालिक ने नौकर से कहा कि “देख, भाई, दूरी अच्छी नहीं। हम एक साथ यात्रा करेंगे।” नौकर तत्काल बोला, “अरे नहीं, मालिक। आप तीसरे दर्जे में कहाँ चलेंगे?”
हम सब वैसे ही हैं, हमें ये ख़याल भी नहीं आता कि हम उठ सकते हैं और मालिक से साथ पहले दर्जे में यात्रा कर सकते हैं। मालिक अगर कह भी दे कि “हम आ रहे हैं तुम्हारे पास”, तो तुरंत हमें ख़्याल यही आता है कि हम तो वहीं रहेंगे जहाँ हम हैं, हमारी जगह नहीं हिलने वाली, हम अपनी जगह नहीं बदलने वाले; मालिक को अगर हमारी संगत चाहिए हो तो मालिक अपना दर्जा नीचे करके, उतरकर आए हमारे साथ, हम ऊपर नहीं चढ़ेंगे।
गुरु को सखा तो बना लोगे, पर फिर वो तुम्हारे किसी काम का नहीं रह जाएगा। तुम उसकी पीठ पर धौल मारोगे और कहोगे, "चल यार! आजा, आज तुझे अपनी पसंदीदा जगह पर ले चलता हूँ।" हो गया, बस बात ख़त्म। क्या करोगे? न वो तुम्हें कुछ सिखा सकता है, न कुछ बता सकता है। कौन है यहाँ, भाई, जो अपने सखा से सीखता हो?
और तुम किसी से भी सीख लो, अगर तुम्हारा सखा तुम्हें कुछ सिखाना शुरू कर दे तो देखा है कि कितनी चिढ़ उठती है? तुरंत बोलते हो, “ज्ञान मत दे! और कुछ कर ले। गाली दे ले, ज्ञान मत दे।” दोस्त की गाली मंज़ूर होती है, दोस्त से ज्ञान लेना बहुत बुरा लगता है।
जितने तुम्हारे सखा हैं—और सबसे बड़े सखा तो तुम्हारे पति-पत्नी होते हैं—कोई पति अपनी पत्नी को कुछ पढ़ाकर दिखा दे और कोई पत्नी अपने पति को कोई ढंग की बात बताकर दिखा दे। हाँ, घटिया हरकतें एक-दूसरे के साथ कर लेंगे, तब कोई दिक़्क़त नहीं है।
सखा धर्म ही यही है – भाई, हम भी गिरेंगे, तुम्हें भी गिराएँगे। तुमने कब देखा कि दो दोस्त साथ बैठ करके उपनिषद् पढ़ रहे हैं? दोस्त का तो मतलब ही यही है कि साथ बैठकर जाम छलकाएँगे।
दोस्त कौन? जो साथ बैठकर जाम छलकाए। जिस दिन तुमने दोस्त को दिखा दिए उपनिषद्, उस दिन ऐसी तोहमत मिलेगी कि कहीं के नहीं रहोगे।
एक देवी जी आयीं थीं। उन्हें बड़ा कष्ट था। मैंने कहा, "क्या?"
बोलीं, "ये पतिदेव में देहभाव बहुत है, बिलकुल भौतिकतावादी हैं, मटीरियलिस्ट हैं। पूरी दुनिया को वो ऐसे देखते हैं जैसे पदार्थ हो। आत्मा का उन्हें कुछ पता नहीं, देह मात्र दिखती है। मुझे नोचे-खसोटे रहते हैं, जीने नहीं देते। बड़ा दुःख है मुझे, बड़ा दुःख है।"
मैंने कहा, “ठीक, पति देव को ले आओ।”
पति देव आए, उनको रस आ गया। महीने, दो महीने, चार महीने, छः महीने वो बार-बार सत्रों में आएँ, फाउंडेशन (संस्था) के जो कार्यक्रम हों, उनमें भाग लें। छः महीने बाद देवी जी आयीं बिलकुल छाती पीटते हुए। मैंने कहा, “अब क्या हो गया?”
बोलीं, "पहले तो फिर भी ठीक था, मुझे देह की तरह देखते थे, पर अब तो जो बुरी-से-बुरी हालत हो सकती है, वो हो गई है।"
मैंने कहा, "क्या हो गया है?"
बोलीं, "अब तो मुझे देखते ही नहीं, मुझमें रस ही नहीं लेते।"
मैंने कहा, "तो क्या करना है?"
बोलीं, "उन्हें पहले ही जैसा बना दीजिए। अब जब देखो तब वो ख़ुद भी गीता पकड़े रहते हैं, और मैं भी जाती हूँ और कहती हूँ कि थोड़ा तो उन्हें लुभा दूँ, कुछ तो पुराने दिन याद दिला दूँ, तो मेरे भी हाथ में गीता पकड़ा देते हैं। ये नहीं ठीक है, वो पहले वाला ही ठीक था।"
बनाना है गुरु को सखा?
बहुत आवश्यक है कि गुरु से एक दूरी बनाकर रखो। तुम्हें किसी भी तरह अगर ये लग गया कि वो तुम्हारे ही तल का है, तुम्हारे कान बंद हो जाएँगे, तुम सुन नहीं पाओगे, और अहंकार लगातार यही चाहता रहता है। गुरु को बेअसर करने का, निस्तेज करने का इससे सफल तरीका नहीं है – उसके दोस्त बन जाओ या उसके रिश्तेदार बन जाओ।
जीसस ने कहा है कि पूरी दुनिया किसी पैगम्बर से सीख लेगी, उसको पहचान लेगी, पर उसके गाँव वाले उससे कुछ नहीं सीख सकते, क्योंकि वो उसके निकट आ गए। अगर तुम्हें गुरु को परास्त ही करना हो तो उसके निकट आ जाओ, और अगर परास्त ही न करना हो, उसको बंधक बना लेना हो, तो उसके रिश्तेदार बन जाओ।
माया यही खेल खेलती है। जब वो देखती है कि और किसी तरीके से गुरु को हरा नहीं पा रही तो वो गुरु का सामीप्य माँगती है, वो गुरु की प्रेमिका बन जाती है। कहती है, “आप इतने अच्छे हैं, मुझे आपसे प्रेम हो गया है। क्या मैं आपके साथ रह सकती हूँ?” फिर वो रहेगी साथ में और चढ़ बैठेगी। अब गुरुजी की गुरुआई धरी रह गई। जो तुम्हारे साथ रहती हो लगातार, उसका कौन गुरु हो सकता है? तो दूरी बनाकर रखो। अपने लाभ के लिए, अपनी कुशलता के लिए दूरी बनाकर रखो।
यह समझना अच्छे से — पहले पहल जब यहाँ आओगे तो गुरु को हराने के लिए माया कहेगी, “भागो!” ये वो पहली बाधा है जो माया प्रस्तुत करेगी, वो बोलेगी, “भागो।” मान लो तुमने ये बाधा पार कर ली, तुम भागे नहीं, तुम टिक गए, तो छः महीने बाद माया बोलेगी, “गले लग जाओ।” और माया की ये चाल पहले वाली चाल से ज़्यादा ख़तरनाक चाल है।
जो भाग गए, वो तो हो सकता है कि बच जाएँ, वो तो हो सकता है कि कभी लौटकर आएँ और फिर उनका कल्याण हो जाए, तर जाएँ, पर जो गले लग गया, उसका खेल ख़त्म हो गया।
न भागना, न गले ही लग जाना। इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि गले लगाने में मुझे कोई आपत्ति है, आओ, अभी गले लग जाओ। बोलो, क्या खेलना है? बास्केटबॉल, क्रिकेट? मैं भी खेलने के लिए बहुत उत्सुक हूँ। पर तुम्हारे ही भले के लिए कह रहा हूँ। तुम्हारी समस्या बनेगी कि तुम कहोगे कि, “जिसके साथ हम खेल लिये, अब उसको भगवान का दर्जा कैसे दें?” तुम्हारे लिए ही दिक़्क़त हो जानी है।
इसीलिए बार-बार कहता हूँ कि गुरु के व्यक्तिगत जीवन में रुचि मत रखो। रमण महर्षि समझाते थे दस दफ़े कि गुरु को व्यक्ति मानना ही नहीं। एक बार तुमने उसे इंसान की तरह देख लिया, अब तुम्हें कोई नहीं बचा सकता, क्योंकि इंसान तो तुम भी हो और तुम अपने-आपको कितनी इज़्ज़त देते हो? जब तुम इंसान हो और अपने-आपको इज़्ज़त नहीं देते, तो दूसरे किसी इंसान को कितनी इज़्ज़त दे लोगे? और जिसको तुम इज़्ज़त नहीं देते, उसको तुम सुन नहीं पाओगे।
इसीलिए मेरा सखा तो खरगोशों को ही रहने दो, उन्हें कुछ सीखना नहीं है। मैं उनके साथ खेल लेता हूँ, वो भी ख़ुश, मैं भी ख़ुश। इंसानों के साथ खेलना इंसानों को भारी पड़ जाता है।
प्र३: श्रीकृष्ण ने क्या सोचकर अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी जिससे कि अर्जुन समझ पाए कृष्ण को? और अर्जुन ने कहाँ पर जाकर समझा कि कृष्ण ईश्वर हैं? वो तो सखा ही समझ रहे थे उन्हें।
आचार्य: कृष्ण अगर अर्जुन की नज़र में वही होते जो युधिष्ठिर या दुर्योधन की नज़र में थे, तो अर्जुन कृष्ण से वो सवाल नहीं करता जो अर्जुन ने किये। गीता शुरू होती है अर्जुन के ऊहापोह से, अर्जुन के अंतर्द्वंद से; और फिर अर्जुन उस अंतर्द्वंद से पीड़ित होकर कृष्ण से पूछता है।
जब आपके सामने गहरे-से-गहरा धर्मसंकट हो और फिर आप पूछें, तो इसका अर्थ है कि आप समझ रहे हैं कि जिससे पूछा जा रहा है, वो आपको मुक्ति दिला सकता है। अर्जुन अकेला था जिसने कहा कि, "कृष्ण, रथ को वहाँ ले चलो जहाँ से मैं दोनों सेनाओं को देख सकूँ", अर्जुन अकेला था जिसने अपनी काँपती हुई टाँगों की बात करी कृष्ण से और अर्जुन अकेला था जो नहीं जानता था कि उसे क्या करना है।
वो कह रहा था, “मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा, सामने सब मेरे कुलजन खड़े हैं और मेरे बुज़ुर्ग खड़े हैं। उन्हें मारूँ या ना मारूँ? राज्य की ख़ातिर अपने ही परिवार का नाश करूँ?”
अर्जुन के सामने दुविधा बड़ी-से-बड़ी थी। जब दुविधा बड़ी-से-बड़ी होती है, तब आप जिसके पास जाते हैं, वो आपकी नज़रों में बड़े-से-बड़ा होता है। जब आप जान जाते हो कि आपको कैंसर है, तो किसी नीम हकीम के पास जाते हो क्या? अर्जुन की दुविधा बड़ी थी और फिर वो कृष्ण के सामने खड़ा है क्योंकि कृष्ण अर्जुन की नज़र में इतने बड़े हैं कि उसकी बड़ी दुविधा का उपचार कर सकते हैं।
तो दो बातें चाहिए। सबसे पहले तो जब आप अपने-आपको किसी धर्म संकट में पाएँ, स्वीकार करें कि आप नहीं जानते कि अब क्या करना है और दूसरी बात — आपमें इतनी श्रद्धा हो कि आप अपने से अलग, अपने अहंकार से अलग किसी की सुन पाएँ, उसके सामने झुक पाएँ। इन दोनों शर्तों का एक साथ पूरा होना ज़रा विरल होता है। आपको न सिर्फ़ ये मानना है कि आपको नहीं पता, आपको ये भी मानना है कि आपसे हटकर कोई है जिसे पता है।
हम यदि ये मान भी लेते हैं कि हमें नहीं पता, तो हम कहते हैं कि अगर हमें नहीं पता तो किसी को भी नहीं पता होगा। अर्जुन सर्वप्रथम तो मान रहा है कि उसे नहीं पता और फिर ये भी कह रहा है कि, "मुझे भले ही न पता हो, पर इन्हें पता होगा।" अर्जुन इसलिए अलग है, अद्वितीय है। वो अद्वितीय है तो फिर कृष्ण की अनुकंपा बरसती है, अर्जुन को दिव्य चक्षु भी मिलते हैं, गीता भी मिलती है।