कोटा, कोचिंग इंडस्ट्री, और बच्चों की आत्महत्या || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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कोटा, कोचिंग इंडस्ट्री, और बच्चों की आत्महत्या || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: मैं कोटा, राजस्थान से हूँ। मैंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी की है। आचार्य जी, मैं जिस शहर से आती हूँ, वो नीट और जेईई (मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज की प्रवेश परीक्षा) की कोचिंग के लिए मशहूर है, लेकिन पिछले कुछ सालों से आत्महत्या बढ़ती ही जा रही है। सोलह-सत्रह साल के बच्चे ख़ुद की जान ले रहे हैं। मैं जिस जगह रहती हूँ, आसपास कई नामी संस्थान हैं। जब कभी बच्चे गुज़रते दिखाई देते हैं, तो अपने घरवालों को यही कह रहे होते हैं कि हमसे नहीं हो पा रहा है, हमें वापस घर बुला लीजिए। ऐसे में आचार्य जी, आप बच्चों को, अभिभावकों को और कोचिंग में पढ़ाने वाले शिक्षकों को क्या सन्देश देना चाहेंगे?

और साथ में ये भी देखा गया है कि कोचिंग से निकलने के बाद बच्चों में लगातार निराशा सी बनी रहती है। जिनका चयन हो भी गया है, वो इसलिए दुखी होते हैं कि उन्हें मनपसन्द कॉलेज नहीं मिला, और जिन बच्चों का चयन नहीं हो पाता, वो अपनेआप को कम आँकते हैं, भले ही वो कहीं और भी चले जाएँ।

आचार्य प्रशांत: देखो, क्या होता है, आप अगर देखोगे विदेशों में, तो वहाँ पर अब पचासी-नब्बे की तरफ़ जा रही है औसत आयु। इंसान इतना जीता है। लेकिन जो बच्चा पैदा करने की वृत्ति और क्षमता होती है, वो हममें बारह-तेरह साल की उम्र में ही आ जाती है। तो वो जो काल है, वो जीवन के आरम्भिक दिनों में ही है। लोग पच्चीस के होते हैं, अट्ठाइस के होते हैं, वो सन्तान उत्पन्न कर लेते हैं। अब आपको कुछ पता तो है नहीं न! पच्चीस-अट्ठाइस भी मैंने ज़्यादा बोल दिया, थोड़ा जो गाँव-देहात के क्षेत्र होते हैं, वहाँ तो अठारह-बीस में भी हो जाता है।

आपको कुछ पता तो है नहीं, कुछ भी नहीं जानते आप ज़िन्दगी के बारे में। आप ज़िन्दगी के बारे में कुछ जानते तो हैं नहीं, और आपके हाथ में एक खिलौना आ जाता है। आपको कुछ भी नहीं पता न! आपको अपना ही नहीं पता, आपको उस खिलौने का क्या पता! और जो इंसान जितना खाली होता है भीतर से, वो उतनी जल्दी सन्तान पैदा करेगा। और जो इंसान जितना ज़्यादा खाली होता है, वो उतनी ज़्यादा सन्तानें पैदा करेगा। अब इस तरीक़े से सन्तान की पूरी प्रक्रिया चलती है।

आप क्या करोगे, आप ख़ुद को ही नहीं जानते थे, आपको नहीं पता था कि आपकी कौनसी कामना थी, ये कैसे आ गया, और कामना के ही चलते वो बच्चा आ गया है। तो आप अपनी सारी कामनाएँ फिर बच्चे पर भी डालोगे-ही-डालोगे न। बच्चा कामना से ही आया है और बच्चे के माध्यम से अपनी और कामनाएँ भी पूरी करनी हैं। आपको अपने ही जीवन का उद्देश्य नहीं पता, आपको वो बच्चे के जीवन के उद्देश्य का क्या पता! लेकिन अब आप मालिक बन गये हो उस बच्चे के। जानते आप कुछ नहीं हो लेकिन मालिक बन गये हो। बच्चे की आप स्थिति सोचिए!

आप अपनी ही स्थिति सोचिए, जैसे कोई एक लंगूर हो, उसको आपका मालिक बना दिया जाए, आपकी क्या हालत होगी। कोई लंगूर अगर आपका मालिक बन जाए, आपकी क्या हालत होगी? तो दुनिया में जो सबसे सतायी हुई क़ौम है, वो बच्चों की होती है, छोटे बच्चों की। दुनिया भर के सारे लंगूर उनके मालिक बनकर बैठ गये हैं। ठीक है!

अब बाईस-चौबीस साल का एक लड़का है और उससे भी दो-चार साल कम की एक लड़की है, वो मालिक-मालकिन बनकर बैठ गये हैं बच्चे के। उन्हें अपने ही जीवन का उद्देश्य नहीं पता, उन्हें अपना ही कुछ नहीं पता — मैं कौन हूँ, मैं काहे के लिए हूँ, मुझे क्या करना है, ज़िन्दगी में किधर को जाना चाहिए — कुछ नहीं जानते। लेकिन वो बच्चे के भाग्य-विधाता बन जाते हैं, भविष्य-निर्धाता बन जाते हैं।

अब तो ये होने लग गया है शायद कि बच्चों को पाँचवीं क्लास से आईआईटी जेईई वगैरह की कोचिंग कराने लग गये हैं। क्यों? क्योंकि नहीं पता ज़िन्दगी किसलिए है। तो अपने चारों ओर देखते हैं, कहते हैं, ’अच्छा ठीक है, पैसा आ जाए तो ऐसा लगता है कि ज़िन्दगी में कुछ बढ़िया हो गया।’ पैसा कैसे आएगा? ‘वो कोचिंग , वो जब एंट्रेंस एग्ज़ाम (प्रवेश परीक्षा) क्लियर (उत्तीर्ण) हो जाता है तो उसके लिए होगा।’ उनके हिसाब से डिग्रियाँ सब होती ही इसीलिए हैं कि पैसा आ जाए।

तो वो बच्चे को फिर लगा देते हैं कि तू जल्दी-से-जल्दी ये एंट्रेंस क्लियर कर, और उसके बाद तेरी नौकरी लगेगी, उससे पैसा आ जाएगा। उद्देश्य ये थोड़े ही है कि वो जाकर कहीं पढ़ेगा, मान लो आईआईटी में पढ़ेगा, तो वहाँ उसे बहुत अच्छी शिक्षा मिलेगी जिससे वो बहुत बेहतरीन, ज्ञानी इंजीनियर बनेगा। ये कौन चाहता है? वो तो ये है कि जल्दी से इसका प्लेसमेंट (नौकरी लगना) हो जाए, और मोटे वाले पैकेज (वार्षिक वेतन) पर बढ़िया पैसा घर आने लग जाएगा।

तो उसके लिए भेजा जाता है कोटा जैसी जगहों पर। और वहाँ पर एक नहीं अब दस-हज़ार ऐसे बच्चे पहुँच गये, और वो सब-के-सब अपनी और माँ-बाप की अपेक्षाओं के मारे हुए हैं। और वो एक-दूसरे को देख रहे हैं तो वो एक इको चैम्बर जैसा बन जाता है, और बाहरवाला कोई है नहीं उन्हें कुछ बताने को। बाहरवाला कोई उन्हें कुछ बताना भी चाहे तो न माँ-बाप इजाज़त देंगे और न उनके जो वहाँ कोचिंग वाले टीचर्स हैं वो इजाज़त देंगे। वो सब बच्चे एक-दूसरे को देख रहे हैं और सब एक ही बीमारी से ग्रस्त हैं। तो वो जो बीमारी है वो सबमें और गहरा जाती है। अब ये एक-दूसरे को बस देख ही नहीं रहे, एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा भी कर रहे हैं। और जब प्रतिस्पर्धा होगी तो ज़ाहिर सी बात है उसमें कोई-न-कोई सबसे पीछे भी छूटेगा। और जो सबसे पीछे छूटते हैं फिर उन पर दवाब, तनाव इतना बनता है कि वो आत्महत्या जैसा क़दम भी उठा लेते हैं।

कुल मिलाकर के ये पूरी त्रासदी जीवन के प्रति घोर अज्ञान की है। हम कुछ नहीं जानते कि बच्चा क्या है और ज़िन्दगी किसलिए है। एकदम अन्धेरे में, पागलपन में, कुल अज्ञान में हम बच्चा पैदा कर देते हैं और उसी अज्ञान में हम उसकी परवरिश भी कर डालते हैं।

समझ रहे हैं?

फिर उस पूरी प्रक्रिया में बीच-बीच में कुछ विस्फोट होते हैं, हिला देने वाली घटनाएँ होती हैं, हमें पता चलता है कि कोई बच्चा जाकर के वहाँ पर आत्महत्या कर आया। और ऐसे ही एक-दो नहीं, कई घटनाएँ हो रही हैं अब बहुत दुखद।

कहीं मैं पढ़ रहा था कि ऐसी घटनाओं से बचने के लिए एक बहुत ही शातिर तरीक़ा खोजा गया है, एकदम अद्भुत। तरीक़ा ये खोजा गया था कि बच्चे पंखे से लटक रहे थे, तो उन्होंने कहा, ‘हम पंखों में स्प्रिंग लगा देंगे, कि कोई लटकेगा तो पंखा ही नीचे आ जाएगा।’ ये तो हम समस्या का समाधान करते हैं। ये हमारी समझ है जीवन के प्रति, कि बच्चा पंखे से लटक रहा है तो पंखा ऐसा कर दो कि उस पर कोई चीज़ लटके तो पंखा नीचे को खिंच जाए, तो फिर आत्महत्या हो ही नहीं सकती। ये कुल हमने अपना बड़ा बुद्धिमत्ता से भरा हुआ उपाय निकाला है।

समझ में आ रही है ये बात?

और ये बच्चे जाकर अगर नदी में कूदने लगेंगे तो ये कहेंगे, ‘नदी पर बाँध बना दो। पानी ही नहीं रहेगा तो डूबेंगे कैसे?’ और बच्चे फिर जब पानी नहीं रहेगा तो नदी के पत्थरों पर कूदने लगेंगे तो कहेंगे कि इस पर गद्दे बिछा दो। लेकिन जो मूल कारण है उसको न हम जानना चाहते हैं न दूर करना चाहते हैं, क्योंकि जो मूल कारण है अगर उसको हमने सम्बोधित किया तो हमें अपनी पूरी ज़िन्दगी को ही बदलना पड़ेगा।

ये हमारी पूरी अर्थव्यवस्था, ये प्रकृति-पर्यावरण से हमारा सम्बन्ध, ये परिवार की हमारी व्यवस्था, ये जो हम बाहर जाकर रोज़गार, अपना दफ़्तर जाते हैं, ये जितनी भी चीज़ें हैं हमारी, हमारे धार्मिक आदर्श, हमारी मान्यताएँ, हमें सब बदलने पड़ेंगे अगर आत्मज्ञान हो गया तो। अगर हम थोड़ा भी अपनेआप को बेहतर जानने लग गये तो न हम वहाँ नौकरी कर पाएँगे जहाँ हम करते हैं, न हमारे परिवार में जो हमारे रिश्ते हैं वो रिश्ते चल पाएँगे, न जिस तरह हम प्रकृति पर भयानक अत्याचार कर रहे हैं वो अत्याचार आगे बढ़ पाएगा। न जैसे हमारा खान-पान चल रहा है वो खान-पान वैसे चलेगा। न हम जो पहनते हैं वो पहनेंगे। न हम जो कहते हैं वो कहेंगे। सब बदल जाएगा। पूरी राजनीति बदल जाएगी, देश बदल जाएगा, अर्थव्यवस्था बदलेगी। सब बदलने लग जाएगा। जब वो सब बदलेगा तो हमारे स्वार्थों पर चोट पड़ेगी।

ऐसा नहीं है कि जैसा चल रहा है, उसमें कोई हमको बहुत लाभ है। लाभ नहीं है, पर जैसा चल रहा है उसकी आदत पड़ गयी है। उस आदत से हमारा स्वार्थ जुड़ गया है। हमको लगता है जैसा भी चल रहा है उससे हमें कुछ तो मिल रहा है न। तो जब उसके टूटने की बात आती है तो हम एकदम सिहर जाते हैं। हमें लगता है ये सब नहीं रहेगा तो हाय! हमारा क्या होगा। और वही जो हमारी सिहरन है, वही जो हमारा डर है, अब वही हमारी ज़िद है कि हमें नासमझ का नासमझ ही बने रहना है, उसका खामियाज़ा फिर हमारे बच्चे उठा रहे हैं।

आत्महत्याएँ देख रहे हैं, और आत्महत्याएँ तो चलो मीडिया में आ जाती हैं तो सनसनी हो जाती है। जहाँ आत्महत्या नहीं भी हो रही है वहाँ कितना अवसाद है, कितने तनाव से गुज़र रहे हैं वो। और ये तो तनाव बस उनका देखा है जो अभी कोचिंग फैक्ट्री में मौजूद हैं, जो उस कोचिंग फैक्ट्री से असफल होकर निकले, उनका क्या होता होगा, विचार करिए। जो वहाँ से निकले और अपने पसन्द के कॉलेज की जगह कहीं और चले गये, वो जीवन भर अपने मन पर कैसी चोट लेकर जीते होंगे, उनका विचार करिए।

और ये सबकुछ क्यों हो रहा है? क्योंकि हम नहीं जानते कि ज़िन्दगी का उद्देश्य क्या है। जब आप नहीं जानते न ज़िन्दगी का क्या उद्देश्य है, तो ज़िन्दगी का कुल एक उद्देश्य बचता है, पैसा। पैसा तो बहुत सस्ता विकल्प है ज़िन्दगी के असली मतलब से बचने के लिए। ज़िन्दगी से बचना है तो ज़िन्दगी समर्पित कर दो पैसा कमाने को। ज़िन्दगी से बिलकुल बचे हुए, अनछुए निकल जाओगे, कोई चोट नहीं लगेगी। जैसे कि पूरी एक प्रश्नोत्तरी हो — स्वयं को जाना, जीवन को जाना, मन को जाना, अहम् को जाना, ये समझते हो, वो समझते हो — और उस प्रश्नोत्तरी के अन्त में लिखा हो, ‘अगर इन प्रश्नों में से किसी का भी उत्तर नहीं दे पा रहे हो, तो ये रहा तुम्हारे लिए विकल्प, चलो! पैसा कमाओ।‘ कुछ नहीं कर सकते तो पैसा कमाओ।

और ये कितनी विचित्र बात है कि वो विकल्प जो उनके लिए है जो कुछ भी और नहीं कर सकते, हमने उस विकल्प को सबसे सम्मानित बना दिया है। जबकि होना ये चाहिए था कि जिस आदमी को आप पैसे के पीछे भागता देखें, आप कहें, ‘ये एकदम ही बहुत सबसे घटिया आदमी है।’ क्योंकि ये कुछ और नहीं कर पाया इसीलिए पैसा कमा रहा है। ये कुछ बेहतर कर सकता तो पैसा क्यों कमा रहा होता। ये कुछ भी अगर बेहतर कर सकता होता, सृजनात्मक कर रहा होता, तो ये पैसे के पीछे क्यों भाग रहा होता। तो ये इंसानों में बेचारा सबसे दुखी इंसान है। ये ज़िन्दगी में कुछ सार्थक नहीं कर पाया तो अन्त में इसने हारकर पैसा कमाना शुरू कर दिया। हमारी दृष्टि होनी ये चाहिए।

लेकिन हमारी दृष्टि उल्टी हो गयी है। जो पैसा कमाता है, हम उसको बड़ा सम्मान दे देते हैं। हम कहते हैं, ‘देखो! पैसा कमाया।‘ और अगर कोई जीवन में कुछ सार्थक कर भी रहा है पर पैसा नहीं कमा रहा, तो वो हमारी नज़र में हेय हो जाता है।

समझ में आ रही है बात?

आप थोड़ा सा भी अगर ज़िन्दगी के तरफ़ आँखें खोलेंगे, तो आपको समझ में आएगा कि ज़िन्दगी में न जाने कितनी सम्भावनाएँ हैं और न जाने कितनी चीज़ें जानने को, समझने को आप पैदा हुए हो। वो सबकुछ छोड़कर के आप कहते हो कि नहीं, मुझे तो बता दो पैकेज कितना है, सीटीसी। तो ये आपने बहुत ही घाटे का सौदा कर लिया।

इतना ही नहीं, अभी जैसे बोल रहा हूँ मैं, तो बहुतों को तो ये कुतर्क उछल रहा होगा, ‘तो क्या पैसे न कमाएँ?‘ आपने एक बाइनरी बना रखी है, आप कहते हो, ‘एक काम होता है जो अच्छा होता है और एक काम होता है जिसमें पैसा मिलता है। और उस बाइनरी में मामला एक्सक्लूसिव है बिलकुल, कि जो अच्छा काम होगा उसमें पैसा नहीं मिलेगा और अगर कहीं पैसा मिल रहा है, तो वो घटिया काम करके ही मिलेगा। ये हमने बना रखा है मन में एक मॉडल। ये बहुत बेकार मॉडल है और बहुत कुटिलता से भरा हुआ मॉडल है।

आपको क्यों लग रहा है कि अगर आप अच्छा काम करोगे जीवन में तो उसमें से आपको जीवन की साधारण आवश्यकताएँ पूरे करने लायक़ भी पैसा नहीं मिलेगा? आपको ऐसा क्यों लगता है? और यही बात हम अपने बच्चों पर डाल देते हैं। हम कहते हैं — अगर तुमने फ़लाना एंट्रेंस नहीं क्लियर किया, अगर तुम इंजीनियर , डॉक्टर या एक-आध दो चीज़ें और होती हैं, ये सब नहीं बने तो तुम भूखों मर जाओगे।

क्यों भूखों मर जाएगा भाई!

आपको ऐसा क्यों लगता है कि ढंग का काम करके मस्त रोज़ी-रोटी नहीं चल सकती? ये धारणा आपने क्यों बना ली है? इसलिए बना ली है ताकि आप ढंग का काम करने से बच सको।

आपके मन में ये बात कहाँ से आ गयी कि जीवन में सफल होने के लिए बिकना ज़रूरी है? मैं कहीं भी जाकर के बोलता हूँ, मैंने बहुत बार इस पर बोला है किताबों में, वीडियो में कि ऊँचे-से-ऊँचा काम चुनो और उसमें डूब जाओ। ये बात मैं बहुत-बहुत बार बोलता हूँ। तो उसके जवाब में लोगों की टिप्पणी आती है, ‘ऊँचे-से-ऊँचा काम तो कर लेंगे, पैसा आप देंगे क्या?’ ‘काम तो कर लेंगे ऊँचे-से-ऊँचा, पैसा आप देंगे क्या?’ इस टिप्पणी के पीछे उनका अज़म्प्शन , मान्यता क्या है? कि ऊँचे काम में पैसा मिलेगा ही नहीं।

वाह बेटा वाह! माने तुमने जगत को क्या बना दिया! तुमने कहा, ‘दुनिया में जो घटिया काम है उसी में पैसा मिलता है और बढ़िया काम करोगे तो उसका इतना भी मूल्य नहीं कि उस काम के लिए तुम्हें कोई पैसा दे देगा।‘ ये तुम्हें क्यों लग रहा है ऐसा? कहीं-न-कहीं इसके पीछे हमारी धार्मिक धारणाएँ भी उत्तरदायी हैं। हमने मान लिया है कि स्वर्ग जैसी कोई चीज़ तो मरने के बाद ही मिलती है। मैं बताता हूँ स्वर्ग क्या होता है। स्वर्ग होता है ज़िन्दगी में सबसे बेहतरीन काम उठाना, और उसी बेहतरीन काम से अपनी रोज़ी-रोटी भी चलाना। ये होता है स्वर्ग।

लेकिन हमें तो धर्म ने बता दिया है कि स्वर्ग जीते-जी तो हो ही नहीं सकता। वेदान्त इसलिए अलग है न। वेदान्त कहता है, 'जीते-जी हो सकता है।' और जीवन मुक्ति की अगर कोई व्यावहारिक परिभाषा होगी तो यही है, जीवन मुक्ति का अर्थ है ‘मैं बहुत ऊँचा, बहुत सुन्दर काम कर रहा हूँ और उस काम के मुझे पैसे भी मिल रहे हैं।’ हाँ, हो सकता है करोड़ों न मिल रहे हों; नहीं चाहिए करोड़ों। करोड़ चाहिए भी क्यों! करोड़ों आ जाए तो एक आफ़त और आ जाती है, सोचना पड़ता है कि करना क्या है इसका। पर इतना मज़े में मिल रहा है कि मेरा काम चलता है, मेरी सेहत अच्छी है, मैं खाता हूँ, मैं खेलता हूँ, मैं जीता हूँ, मैं पढ़ता हूँ, मैं मस्त हूँ। यही स्वर्ग है, यही जीवन मुक्ति है, इसके अलावा कुछ नहीं।’

जीवन की बहुत सारी अपनी विपन्नताएँ और अपनी विफलताएँ हम छुपाना चाहते हैं पैसे के पीछे। ज़िन्दगी खोखली है तो उसमें क्या भर दो? नोटों की गड्डी। इससे क्या हो जाएगा? क्या हो जाएगा? फ़िलॉसफ़ी (दर्शन शास्त्र) के कोर्सेज़ (पाठ्यक्रम) में एडमिशन (नामांकन) लेने वाले नहीं मिल रहे, आर्ट्स (कला) में नहीं मिल रहे, फ़ाइन आर्ट्स में नहीं — भारत में कम-से-कम — साहित्य में नहीं मिल रहे, संस्कृत में नहीं मिल रहे। सबको क्या बनना है?

प्र: इंजीनियर।

आचार्य: उसमें भी कम्प्यूटर इंजीनियर बनना है ख़ासतौर पर। और वो भी क्यों, बहुत प्रेम आ गया है कम्प्यूटर पर? कुछ नहीं! ले-देकर बात इतनी है, तीन-चार कम्पनियाँ हैं, वो बहुत सारी हायरिंग (नियुक्ति) कर लेती हैं। और वो भी एक बुलबुला जैसा था, वो अब फूट चुका है। न जाने कितने तो इंजीनियरिंग कॉलेज भारतभर में बन्द हो गये।

न आपको, जो पढ़ रहे हो उससे प्यार, पढ़ने के बाद आप जहाँ नौकरी करने जा रहे हो, न आपको उस काम से प्यार, ये प्रेमहीन जीवन आप जी कैसे लेते हो? लेकिन ये जो कोचिंग की पूरी व्यवस्था है, ये आपको एक लवलेस लाइफ़ (प्रेमहीन जीवन) के लिए बिलकुल तैयार कर देती है — लवलेस लाइफ़! कि प्रेम तो नहीं है पर करे जा रहे हैं, जिये जा रहे हैं, ठीक वैसे जैसे प्रेम तो नहीं है पर एंट्रेंस की तैयारी किये जा रहे हैं। ’नॉट दैट आई लव पीसीएम ऑर व्हाटेवर’ , जिन भी चीज़ों की तैयारियाँ होती हैं, कुछ नहीं, प्रेम-व्रेम कुछ नहीं है।

आज पता चल जाए कि ये सब पढ़कर के नौकरी नहीं लगती है तो तुरन्त लात मारकर भाग जाएँगे। ठीक वैसे जैसे सब कॉलेजों ने खोल दिये थे सीएस डिपार्टमेंट और आईटी डिपार्टमेंट्स। वो सब बन्द हो गये क्योंकि उनमें नौकरी लगनी बन्द हो गयी। वैसे ही जितने लोग कोचिंग करने गये हैं, अभी आ जाए सामने कि भई, अब इंजीनियरिंग करके नौकरी नहीं लगती तो ये सब भाग जाएँगे, कौनसा इनको प्यार है जो पढ़ रहे है उससे!

प्यार नहीं है तब भी पढ़ रहे हो। अभी दो-तीन साल कोचिंग में पढ़ोगे, फिर चार साल अगर इंजीनियरिंग करने गये तो चार साल वहाँ पढ़ोगे, और उसके बाद ज़िन्दगीभर वो काम करोगे जिससे प्यार नहीं है। तो ये काहे की ट्रेनिंग मिली है? मैं कह रहा हूँ, ‘ये लवलेस लाइफ़ की ही तो ट्रेनिंग मिल रही है, और क्या हो रहा है!' कुछ हैं बेचारे जो वहाँ आत्महत्या से चले गये, जो आत्महत्या से नहीं भी गये हैं उनका जीवन ऐसे ही रहेगा जैसे मरे हुए ही हैं — शुष्क, खाली, रूखा, प्राणहीन।

पर ये हमारी ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास ड्रीम (भारतीय मध्यम वर्गीय परिवारों का ऊँचा सपना) है — ‘लड़का कोटा जाएगा, कोटा से आईआईटी जाएगा, आईआईटी से गूगल जाएगा फिर अमेरिका में बस जाएगा।’

'फिर क्या करेगा?'

‘नहीं, हो गया।’

'नहीं-नहीं, बताओ न, फिर क्या करेगा?'

श्रोतागण: शादी।

आचार्य: यहाँ हमारे ज्ञानियों ने हमसे कहा, “अमरपुर ले चलो सजना।” ये कह रहे हैं, ‘अमरीका ले चलो सजना!’ अमरीका ही अमरपुर है इनका!

अब दस-हज़ार में से किसी एक के साथ ऐसा हो भी जाता है। अब जो एक के साथ हो जाता है, वो फिर आप देखते नहीं हैं कि कितने अश्लील तरीक़े से आता है अख़बारों में, वेबसाइट पर? किसी का नाम आ जाए, कुछ भी उसका नाम है, चिन्टू शाह, 'सेटस् अ न्यू हिस्टोरीकल रिकॉर्ड बाई क्रैकिंग अ थ्री-प्वाइंट-फ़ाइव करोड़ रूपीज पैकैज। ये कौनसी भाषा है बदतमीज़? ‘चिन्टू शाह सेटस् अ न्यू रिकॉर्ड , क्या था? जैवेलिन थ्रो चल रहा है ये कि कौन कितनी दूर फेंककर मारेगा डॉलर? ‘बाई क्रैकिंग अ पैकैज' , ये क्रैकिंग अ पैकैज क्या होता है? दौड़ लगी थी कि जाकर के पैकेज उठाकर लाना है बाज़ार से?

पर इसी भाषा में छपता है न, 'चिन्टू शाह सेटस् अ न्यू नेशनल रिकॉर्ड, हिस्टॉरिकल नेशनल रिकॉर्ड, बाई क्रैकिंग अ पैकेज ऑफ़, ओवरसीज पैकेज ऑफ़, थ्री-प्वाइन्ट-फ़ाइव सीआर विथ व्हाटेवर'?

ऐसे कुछ नहीं तो पचास चिन्टू शाहों को मैं जानता हूँ। और अगर पचास को जानता हूँ तो उसमें से पाँच तो ऐसे ही हैं जो मेरे ही पास आते हैं अपनी मेंटल हैल्थ (मानसिक स्वास्थ्य) का समाधान माँगने।

(श्रोतागण हँसते हैं)

मैं छोटे बच्चों के बारे में सोचता हूँ न, मुझे सिहरन हो जाती है, ख़ौफ़ से भर जाता हूँ। दो महामूरख बाईस-पच्चीस साल के, और उनको मिल गया ये एक नाज़ुक ख़िलौना, और वो इसके साथ हर तरह के अत्याचार कर रहे हैं। जिनको अभी मुँह धोने की तमीज़ नहीं, उनको मालिक बना दिया गया है कि तुम इस बच्चे के मालिक हो। और बच्चे को बोला जा रहा है कि तुम इन मालिकों की सारी आज्ञाओं का पालन करो, और बच्चा बड़ा भी हो जाए तो भी उसको यही बोला जा रहा कि माँ-बाप परमेश्वर होते हैं। तू भी बन जा जल्दी से बाप, परमेश्वर बनने का शॉर्टकट।

मैं पूछा करता था कॉलेज में, ऐसे ही बैठे होते थे वो सब जब बात होती थी। मैं पूछता था, ‘तुम्हारी उम्र क्या है? तो अपनी उम्र बतायें, कोई बीस, कोई बाईस। यही सब उम्र होती है वहाँ पर सेकेंड ईयर , फोर्थ ईयर बीटेक में। तो कोई बैठा है, मैं उससे बोलता था कि बताना अपने बगल वाले की बुद्धि कितनी है, उसमें मैच्युरिटी कितनी है?

तो हँसने लगे, बोले, ‘ये डम्ब (बुद्धिहीन) है।'

मैंने कहा, ‘यही अगर एक साल बाद बाप बन जाए, और बन सकता है न बाप?'

बोले, 'हाँ, बिलकुल बन सकता है।'

'ये एक साल बाद बाप बन जाए तो परमेश्वर हो जाएगा ये?' अगर ये आज डम्ब है तो एक साल बाद परमेश्वर हो जाएगा?'

तो इसका भी कुतर्क आता है, कहते हैं, 'नहीं, हो जाता है। माँ बनते ही भीतर एक रसायन का फव्वारा निकलता है, और जो वो रसायन है वो तुरन्त आपको देवी बना देता है माँ बनते ही। आप अगर मूरख हो तो मूरख नहीं रह जाते, माँ बनते ही।'

कैसे हो जाएगा ये, कैसे, कैसे होता है? ये महान चमत्कार कैसे होता है?

जो मूरख है, वो बच्चा पैदा कर देगा तो 'मूरख बाप' कहलाएगा। पहले सिर्फ़ मूरख थे, अब मूरख बाप हो। या पहले सिर्फ़ मूरख थी, अब वो मूरख माँ है। तो माँ बन सकती हो, वो तुम्हारे नाम में जुड़ गया, लेकिन जो मूरख था तुम्हारे साथ जुड़ा हुआ वो हट थोड़े ही गया? मूरख तो पहले भी थे, मूरख तो अभी भी हो। और ये दोनों मूरख उसके सिर पर चढ़कर बैठ जाते हैं और उसको कोटा छोड़ आते हैं। बोलते हैं, 'यहाँ तू हमारे सपने साकार करेगा।'

क्या सपने साकार करेगा? रहना तुम्हें यहीं है, अपने देसी तरीक़े तुम्हें छोड़ने नहीं। तुम बात-बात में बोलते हो कि अपनी महान संस्कृति से हटना नहीं है। तो क्या करोगे, डाॅलर लेकर तरोई ख़रीदने जाओगे? करना तो तुम्हें वही सबकुछ है जो तुम करते हो, तो वो छोटू की काहे के लिए जान ले रहे हो कि डॉलर कमाकर ला? पूछ तो रहा हूँ, डॉलर से क्या करोगे?

गये वहाँ सब्ज़ियों के बाज़ार में, 'आज एक पसेरी भिण्डी ख़रीदी है।'

बोले, ‘कितने की मिली?’

तो बता रहे हैं, ‘ढाई डॉलर!’

इतना सुनने में ऐसा लग रहा है, 'वाह!'

मुझे डॉलरों से कोई समस्या नहीं है, मैं बस ये कहना चाहता हूँ कि ढंग का काम करके भी एक अच्छा, सीधा-सादा जीवन बिताया जा सकता है। हो सकता है उसमें करोड़ों न कमाये जाएँ, लेकिन करोड़ कमाना एक अच्छे जीवन के लिए ज़रूरी भी नहीं है।

प्र: धन्यवाद, आचार्य जी।

(स्वयंसेवक भजन गाते हुए)

सुरति करो मेरे साइयाँ, हम हैं भव जल माही। आपे ही बह जाएँगे, जो नहीं पकड़ो बाँही।।

ते दिन गये अकारथ ही, संगत भई न संग। प्रेम बिना पशु जीव ना, भक्ति बिना भगवन्त।।

~ कबीर साहब

आचार्य: तो मनुष्य और पशु में जो ये अन्तर है, वही पारिभाषिक है। मनुष्य वो है जो प्रेम पर जीता है, और पशु वो है जो प्रकृति पर जीता है। आप एक काम कर रहे हो, अपनी जॉब , उस जॉब में अगर प्रेम नहीं है, सिर्फ़ सीटीसी है, तो आप जानवर हो। आप एक हैविली पेड (भारी वेतन वाले) जानवर हो सकते हो, लेकिन हो तो जानवर ही न। घूम रहा है ओरंगुटान। बोल रहे हैं, ‘इसका साठ लाख का पैकैज है।’ मुँह तो उसका ओरंगुटान जैसा ही है न, तो क्या हुआ? पैकैज लेकर केले खाएगा और क्या करेगा!

प्रेम कोई ऐसी नहीं चीज़ होती कि आदमी और औरत के बीच में हो। बड़े-से-बड़ा प्रेम तो वो है जो आपका आपके काम से होता है। और जब काम से नहीं प्रेम है — कोटा में क्या काम से प्रेम करना सिखाते हैं? नहीं, वहाँ तो कहते हैं कि ये तरीक़ा लगा लो, ऐसे ट्रिक लगा लो जल्दी से, रैंक ज़्यादा अच्छी आ जाएगी — और जब प्रेम नहीं होता तो जीवन जीने लायक़ भी नहीं रह जाता न? जब जीवन जीने लायक़ नहीं रह जाता तो फिर इंसान का दिल कहता है कि जीवन ख़त्म ही कर डालो। तो फिर हमें आत्महत्या जैसी दुखद घटना देखने को मिलती है।

जा घट प्रीत न प्रेम रस, पुनि रसना नहीं राम। ते नर इस संसार में, उपजि भये बेकाम।। ~ कबीर साहब

अगर आपके पास प्रीत नहीं है, प्रेम नहीं है तो आप इस संसार में व्यर्थ ही पैदा हुए हो। अब दिन में दस घंटे, बारह-पन्द्रह घंटे तो आप काम में होते हो और काम से प्यार नहीं है तो काम ही फिर आत्महत्या जैसा है। झेल रहे हो पन्द्रह घंटे कि क्या है, क्यों है, क्या कर रहे हैं! बस दो चीज़ें याद हैं — इतवार कब आएगा, और सैलरी कब आएगी। जिसे हम आम इम्प्लॉई बोलते हैं, उसके लिए जॉब में दो ही चीज़ें खुशी की होती हैं, एक सैलरी और दूसरा हॉली डे। वो पूरे साल नौकरी करता ही है इन्हीं दो चीज़ों के लिए। इन्हीं दो दिनों का उसे इन्तज़ार रहता है — एक सैलरी डे और एक हॉली डे। ये आत्महत्या नहीं है तो क्या है?

वहाँ गोवा में थे तो पूरा हफ़्ता पूरी शान्ति बनी रहे, कुछ नहीं है। मेरी तो आदत अब तीस साल पहले छूट गयी है दिन गिनने की, तो पता ही नहीं होता कि इतवार कौनसा है, सोमवार कौनसा है। सब दिन एक बराबर होते हैं। अचानक से बीच-बीच में किसी दिन देखें तो, ‘ये क्या हो गया!’ बस भर-भरकर आ रहे हैं, पैराशूट से नीचे गिर रहे हैं।

(श्रोतागण हँसते हैं)

फिर पता चला कि लॉन्ग वीकेंड (लम्बा सप्ताहान्त) है। जैसे जेल से रिहा हुए क़ैदी, वैसे भागे हैं। भयानक भाग रहे हैं एकदम! और जिन दिनों ये आये हैं उन दिनों होटलों के दाम तीन गुना हो गये, रेंस्तरा वाले अलग मेन्यू बनाकर रखते थे इनकी शक्ल देखकर, ‘ये आये हैं, अब दूसरा वाला निकालो।’ उसमें सब चीज़ें दुगुनी क़ीमत पर। कहीं बैठने की जगह न मिले, कुछ न हो। ये इनका हॉली डे है। बड़ी मुश्किल से भागकर आते हैं, या तो शुक्रवार की रात, या शनिचर की सुबह और रविवार की रात को फिर भागकर वापिस पहुँच जाते हैं। ये इनकी वैकेशन है।

और सब-के-सब एक साथ आते हैं। तो माने जिनका मुँह तुम वहाँ देख रहे थे, उन्हीं का मुँह तुम यहाँ भी देख रहे हो। तो तुम गोवा कहाँ आये? तुम तो दिल्ली को ही लेकर पहुँच गये वहाँ पर, सब एक से! और इसको ही हम क्या बोलते हैं? हमारी आइडियल कॉर्पोरेट लाइफ़! इसके लिए हम बच्चों पर दुनिया भर का दबाव बनाते हैं। सिर्फ़ इसलिए कि ले-देकर उनको एक मिडिल क्लास , अपर मिडिल क्लास जीवन मिल जाए। इसके लिए उनकी ज़िन्दगी तबाह कर देते हैं पूरी।

आप अगर शोध करोगे कि कोटा वगैरह से निकलने वाला एक आम इंजीनियर क्या पा लेता है, तो क्या पाओगे? यही तो पाओगे कि एक साधारण सी मिडिल , अपर मिडिल क्लास लाइफ़स्टाइल और क्या? लेकिन उसके लिए तुमने उसको कहीं का नहीं छोड़ा।

एक साधारण सी नौकरी मिलती है, इंजीनियर कोई ऐसा थोड़े ही होता है कि वो हीरे-मोती में खेल रहा है। एक साधारण सी ज़िन्दगी, साधारण इंजीनियर। साधारण ज़िन्दगी, टू बीएचके, थ्री बीएचके। इधर निकल जाओ एक्सप्रेस वे की तरफ़ या नोएडा की तरफ़ के इलाक़े में, तो वहाँ पर आपको पर्चा लेकर सड़क पर ही रोक रहे होते हैं, ‘ले लो, ले लो, ले लो।’ कौनसे इसमें हीरे-मोती जड़े हैं इस ज़िन्दगी में कि इसके लिए हम बिके जा रहे हैं, मरे जा रहे हैं?

कुछ नहीं, भीड़ के साथ चलना है। जहाँ सबका घर है वहीं हमें भी घर लेना है, अकेले नहीं रह सकते। भले जहाँ सबका घर है वहाँ घर लेने में तीन गुना ज़्यादा पैसे देने पड़ें। तीन गुना ही नहीं होता, छः गुने, दस गुने ज़्यादा देने पड़ें तो भी दे देंगे। क्यों? क्योंकि भीतर एक खोखलापन है न, ख़ुद को जानते नहीं, ज़िन्दगी को जानते नहीं तो बड़ी इंसिक्योरिटी (असुरक्षा) लगती है। और जब वो इंसिक्योरिटी , वो डर, वो असुरक्षा लगती है तो भीड़ का साथ चाहिए होता है। सब लोग जहाँ हैं, हम भी वहीं रहेंगे, हम भी वहीं रहेंगे। भले ही उसके लिए पैसे बहुत देने पड़ें। भले ही जो जॉब कर रहे हो, उसका सारा-का-सारा पैसा मकान की ईएमआई में ही निकल जाए!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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