आचार्य प्रशांत: (प्रश्न पढ़ते हुए) सुरभि माथुर हैं, जयपुर से। कह रहीं हैं, “मैं इंसल्ट को ले कर बहुत सेंसिटिव हूँ, कहीं मेरी इंसल्ट हो जाती है तो बहुत दिनों तक कचोटती है। इंसल्ट करने वाले को माफ़ नहीं कर पाती, ये मुझे अच्छा नहीं लगता।“
सुरभि, शायद तुम्हारी उम्मीद ये होगी कि मैं कहूँगा कि “इंसल्ट , मान-अपमान, ये सब क्या याद रखना, छोटी बातें हैं, इनसे आगे बढ़ो! और जो होशियार, वाइज़ , आध्यात्मिक, स्पिरिचुअल मन होता है वो मान-अपमान वगैरह का ज़्यादा खयाल करता ही नहीं।“ नहीं, मैं तुमसे ऐसा कुछ भी नहीं कहूँगा। जब तक तुम ऐसे नहीं हो गए कि तुम्हारे लिए मान या अपमान बिल्कुल ही ओछी, इर्रेलेवेंट , अप्रासंगिक बातें हो जाएँ, तब तक अपमान निःसंदेह कचोटना चाहिए।
कौन हैं जिन्हें अपमान न लगे तो भी कोई बात नहीं? या तो हो कोई बिल्कुल मुक्त — कृष्ण जैसा, बुद्ध जैसा— वो अपमान के पार हैं; हालाँकि जो सहज प्रतिक्रिया होती है वो वो भी देते हैं। या फिर कौन होते हैं ऐसे जिन्हें अपमान नहीं लगता? पत्थर और पशु। एक पत्थर को तुम कितनी भी लातें मारते रहो, उसको कुछ बुरा नहीं लगना, उसके आत्म-सम्मान पर आँच नहीं आ जानी है।
इसी तरीके से, जानवरों को भी तुम लात मार दो, पत्थर मार दो, वो शरीर की रक्षा के लिए तुमसे थोड़ी देर के लिए दूर हो जाते हैं। उनको बुरा लगता भी है तो इसलिए कि उनके शरीर पर चोट आ गई, पर उनके भीतर ऐसी गौरव की कोई भावना नहीं होती, उनके भीतर कोई ऐसी चेतना ही नहीं होती अपने प्रति, कि उस पर चोट आए; चोट आती भी है तो उनके शरीर पर आती है, चेतना पर नहीं आती। तुम उसको दोबारा, पशु को रोटी दिखा दो, वो लौट कर के तुम्हारे पास आ जाएगा, वो ये नहीं कहेगा कि “तुमने थोड़ी देर पहले मुझे अपशब्द कहे थे या गंदी नज़र से देखा था, तो इसलिए मैं तुम्हारे पास अब दोबारा लौट कर नहीं आऊँगा।“
तो अपमान के प्रति बिल्कुल ही निरपेक्ष हो जाने का अधिकार, मैंने कहा, या तो कृष्णों-बुद्धों को है, या पशुओं-पत्थरों को है। तुम्हारी स्थिति में जो लोग हों, उन्हें तो अपमान का अनुभव करना चाहिए। क्यों अनुभव करना चाहिए? ध्यान से समझो! हमारी जो संभावना है वो बहुत बड़ी है, संभावना के तौर पर हम विराट हैं, अनंत हैं, तुम्हारी भाषा में कहूँ तो पोटेंशियली हम इनफ़ाइनाइट हैं। तो जिसकी संभावना इतनी हो, अगर वो छोटा जीवन बिता रहा हो, तो ये बात उसे कचोटनी तो चाहिए ही न? ये बात अपने-आप में अपमान है। कोई आ कर के तुमको कड़वे बोल, गंदे बोल न भी बोले, तो भी ज़िंदगी ही तुम्हारा अपमान, तुम्हारी इंसल्ट कर रही है न? अगर तुम अपनी ज़िंदगी को उस स्तर पर नहीं जी रही जिस स्तर पर जीने की तुम अधिकारी हो, जिस स्तर पर जीने की तुम्हारी ऊँची-से-ऊँची संभावना है, ये बात अपने-आप में ही अपमान की है, कोई चाहे तुमसे आ कर के ये कहे चाहे न कहे।
तो देखो, अपमान के मौके तो हमारे लिए वरदान भी हो सकते हैं, अपमान हमारा दोस्त भी हो सकता है, अगर वो हमें हमारी ज़िंदगी के यथार्थ से परिचित कराता है। आप एक छोटा जीवन जी रहे हो, और कोई ऐसी घटना घटी या किसी ने ऐसा कुछ कह दिया, कर दिया जिसकी वजह से आपने अपमानित अनुभव करा, तो ये मौका तो खुद को देख कर, बात को समझ कर बेहतर बनने का भी हो सकता है न? जो आपका अपमान कर रहा है वो आपका दोस्त ही हो गया, या वो स्थिति जिसमें आपका अपमान हुआ है, वो स्थिति आपके लिए लाभप्रद हो गई।
तो अगर किसी स्थिति में आपका अपमान हुआ, बात बुरी लग रही है, तो वजह खोजो न! पूछो अपने-आप से, कि “मैं क्यों इतनी छोटी, या अशक्त, दुर्बल हूँ, ताकत बिना हूँ, कि कोई आ कर के मुझे मेरी नज़रों में ही नीचा अनुभव करा गया?” जैसे ही वजह दिखाई पड़े, कि “ये वजह थी। कमज़ोरी मेरे भीतर थी, खोट मेरी थी, जिसकी वजह से दूसरे को मौका मिल गया कुछ ऐसा कर देने का, कह देने का कि मैं अपमानित अनुभव करूँ,” तो तुरंत अपनी खोट को हटाओ। अपनी खोट को हटाओ ही नहीं, मुस्कुरा कर के उस व्यक्ति का या उस स्थिति का शुक्रिया भी अदा करो, कि “तुम आते ही नहीं तो मुझे पता ही नहीं चलता कि मैं भीतर से इतनी कमज़ोर हूँ, मैं अपने भीतर इस तरह की बीमारी या अशक्तता छुपाए बैठी हूँ।“ और एक बार पता चल गया, एक बार अपमान हो गया, फिर कमर कस लो कि दोबारा नहीं होने देना है। जिस चीज़ को ले कर के एक बार सर झुकाना पड़ा, खरी-खोटी सुननी पड़ी, वो चीज़ अपने साथ दोबारा होने नहीं देनी है।
और वजह ज़रूर होगी, बिना वजह तुम्हें किसी की बात कचोटेगी नहीं, ये बात अच्छे से समझ लो सुरभि! ऐसा नहीं है कि दूसरे ने इतना तीखा बाण मार दिया कि तुमको चुभ गया, ना! तुम्हारे ही भीतर कहीं कोई खोट थी जिसके कारण दूसरे की बात इतनी बुरी लगी। अगर तुम जानते ही हो कि दूसरा जो बात कह रहा है वो बिल्कुल व्यर्थ है, झूठी है, बेमतलब है, तो तुम्हें उसकी बात चुभेगी ही नहीं। किसी की बात अगर तुम्हें चुभ गई है तो उस बात में कहीं कुछ-न-कुछ सच्चाई ज़रूर है। और अगर दूसरा तुम्हें सच्ची बात बोल रहा है, भले ही कड़वे तरीके से, तो तुम उसकी बात की सच्चाई का इस्तेमाल करो न! तुम कहो कि “अच्छा हुआ मुझे पता चल गया, अच्छा हुआ तूने आ कर मेरे सामने आईना रख दिया, और आईना भी तूने वहाँ रखा जहाँ मेरी हस्ती में गंदगी थी, कमज़ोरी थी, ठीक वो चीज़ तूने मुझे प्रदर्शित कर दी। अब मैं उसको सुधारूँगी, अब मैं बेहतर हो कर दिखाऊँगी।“
तो अपमान तुम्हारा दोस्त हो सकता है अगर तुम कारण तलाश लो। अगर तुम कहती हो कि “कारण तो कोई है नहीं, मुझे तो बस यूँ ही बुरा लग जाता है,” जैसे तुमने अपने सवाल में लिखा है कि “मैं बड़ी सेंसिटिव हूँ।“ नहीं ऐसा नहीं होता है। कारण अगर तुम्हें दिख नहीं रहा है तो कारण खोजो, कारण मिलेगा ज़रूर, बिना कारण के कोई अपमानित अनुभव नहीं करता। कोई-न-कोई भीतर जगह होती है कमज़ोर, जहाँ बाहर वाला कोई चोट कर जाता है।
बात समझ रही हो?
हवाएँ बहतीं हैं, एक पेड़ पर लगे हुए हैं न जाने कितने पत्ते, उसमें से कुछ पत्ते टूट कर के उड़ जाते हैं, हवाओं को दोष दें क्या? बाकी पत्ते क्यों नहीं टूट गए? ज़रूर उन पत्तों में, शाखों में, डालों में, पेड़ों में कमज़ोरी होगी जो हवाओं के सामने टूट जाते हैं, गिर जाते हैं, हम उनकी बात क्यों न करें, हवाओं को दोष देने से क्या होगा? हवाएँ तो बाहरी हैं, हमारा उन पर कोई बस नहीं, वो आज बह रहीं हैं, वो कल फिर बहेंगी, परसों फिर बहेंगी। हवाओं की शिकायत करने से क्या होगा, अपने-आप को देखो न, अपने-आप को ऐसा बना लो कि “हवा कैसी भी बहे, हम टूटेंगे नहीं। हममें ताकत है, हममें पीलापन, दुर्बलता नहीं आ गई।“ बात समझ में आ रही है?
इसी तरीके से, तुमने लिखा है कि “मैं इन्सल्ट करने वाले को माफ़ नहीं कर पाती, ये बात मुझे अच्छी नहीं लगती।“ तो जो तुम्हारा अपमान कर रहा हो उसके प्रति नज़रिया क्या रखना है, ज़रा गौर से समझना! जो तुम्हारा अपमान कर रहा हो, उसको अपना दोस्त मानना, अगर उसने अपमान किया ही इसलिए है ताकि तुम जग जाओ, उठ बैठो, सचेत हो जाओ। ऐसे अपमान करने वाले को तो मुँह-माँगा दाम दे कर के अपने पास ले कर के आना।
संतों ने कहा है न, अगर तुमने पढ़ा हो दोहा- "निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।" ऐसे निंदक को तो अपने पास ले आओ जो तुम्हारे दोष निकाल ही इसलिए रहा है ताकि तुम बेहतर हो सको। वो दोष इसलिए नहीं निकाल रहा कि तुम्हें दुःख देने में उसे खुशी मिलती है, वो तुम्हारे दोष इसलिए निकाल रहा है ताकि वो तुम्हारी गंदगी हटवा सके, तुम्हें निर्मल कर सके, तुम्हें बढ़िया, बेहतर कर सके; ज़िन्दगी में जो तुम्हारी ऊँची संभावना है, तुम्हें उसके काबिल बना सके। तो ऐसा कोई व्यक्ति अगर तुम्हारी आलोचना करता है, या अपमान भी कर देता है, तो उसको आदर ही देना, उसको अपना दोस्त ही मानना।
दूसरी श्रेणी के अपमान करने वाले वो होते हैं जो तुम्हारा अपमान कर रहे हैं तुम्हें चोट देने के लिए। इनके प्रति क्या नज़रिया होना चाहिए सुरभि? इनको माफ़ कर देना चाहिए, इनके प्रति उदासीन हो जाना चाहिए; इनको न अच्छा मानना चाहिए, न बुरा मानना चाहिए। कारण बताए देता हूँ। इनको बुरा इसलिए नहीं मान सकते क्योंकि इन्होंने जो कुछ भी किया उससे हो तो तुम्हारा फ़ायदा ही गया। इन्होंने तुम्हारी खोट प्रदर्शित कर दी न, ये बात तुम्हारे फ़ायदे की हो गई, तो इनको बुरा कैसे मान लें? लेकिन इनकी नीयत तुम्हें चोट पहुँचाने की ही थी। ये तुम्हारी भलाई, तुम्हारी बेहतरी नहीं चाहते थे, ये चाहते ये थे कि तुम्हें दुःख लगे, तो तुम इनको अच्छा भी नहीं मान सकते। तो कुल मिला कर के इनको कुछ भी मत मानो, इनके प्रति बस उदासीन हो जाओ। तुम इनसे कहो कि “तूने अपनी ओर से तो कोशिश यही की थी कि मुझे बुरा लग जाए, चोट लग जाए, लेकिन फिर भी तूने जो किया उससे हो तो मेरा फ़ायदा ही गया। तो मैं तुझे बुरा नहीं कहूँगी, मैं तेरे प्रति कोई द्वेष या बदले की भावना नहीं रखूँगी। जा छोड़ दिया तुझे! तेरे बारे में मुझे कुछ सोचना ही नहीं, कुल मिला-जुला कर के तुझसे तो मेरा लाभ ही हो गया।“
तो पहली कोटि के लोग जो तुम्हारा अपमान कर रहे हैं तुम्हें सच्चाई दिखाने के लिए ही, मैंने कहा, उनको मानो दोस्त। दूसरी तरह के लोग जो तुम्हारा अपमान कर रहे हैं तुम्हें नीचा दिखाने के लिए, मैंने कहा, न उनको दोस्त मानो, न उनको दुश्मन मानो, उनसे फ़ायदा ले लो, सीख ले लो, और आगे बढ़ जाओ। एक तीसरी कोटि के लोग भी होते हैं सुरभि, जिनसे बहुत-बहुत सावधान रहना है, ये हैं दुश्मन तुम्हारे। कान खोल कर सुनो ये कौन-से लोग हैं। ये वो लोग हैं जो तुम्हारा अपमान तब भी नहीं करते जब तुम अपमान के लायक हो। ये तुम्हें झूठे सपनों में रखते हैं, ये तुम्हें हकीकत से कभी रूबरू होने नहीं देते। जहाँ पर तुमने बहुत ही कमज़ोर हरकत करी है, बल्कि कभी-कभी तो घिनौना काम किया है, ये वहाँ पर भी तुम्हारे सामने तुम्हारी सच्चाई, तुम्हारा यथार्थ कभी ला कर नहीं रखते, ये आईना तुम्हें दिखाएँगे ही नहीं। क्यों नहीं दिखाएँगे ये आईना तुम्हें? क्योंकि अगर तुम इनसे खफ़ा हो गई तो इनके स्वार्थों पर आँच आती है। इनसे बच कर रहना है।
खेद की बात ये है कि यही वो लोग हैं जो हमें सबसे प्यारे होते हैं। कोई पूछता है आपसे कि “आपका दोस्त कौन है,” आप कहते हैं, “वो जो मेरे घटिया कामों में भी मेरे बगल में खड़ा है।“ नहीं, नहीं, नहीं! जो तुम्हारा हितैषी होगा, जो तुम्हारा वास्तविक दोस्त होगा, वो घटिया काम में तुम्हारे बगल में नहीं खड़ा होगा, वो तुम्हारा सबसे बड़ा निंदक, सबसे बड़ा आलोचक होगा। और जो तुम्हें अच्छा बोलता रहे, बढ़िया बोलता रहे, तुम्हें मान-सम्मान ही देता रहे, तब भी जब तुम अधिकारी हो कि कोई तुम्हें साफ़-साफ़, कड़वी बात बोल दे, तुम्हारे सामने हकीकत उघाड़ कर रख दे, उसको तुम अपना दुश्मन मानना। ये मुश्किल पड़ेगा तुमको। बात समझ में आ रही है?
और अगर ऐसों को तुमने अपना दुश्मन मानना शुरू कर दिया, और अगर जो तुम्हारा वास्तविक दोस्त है, वैसों की ही तुमने संगत शुरू कर दी, उनके साथ रहना शुरू कर दिया, तो ये जो तुमने समस्या लिख कर के भेजी है, ये समस्या तुरन्त दूर हो जाएगी। उसके बाद मान को, सम्मान को, अपमान को देखने का तुम्हारा नज़रिया बिल्कुल ही बदल जाएगा। तुम फिर ये नहीं देख रही होगी कि “उसने मेरे साथ क्या कर दिया,” फिर तुम्हारी नज़र बस ये होगी कि “मेरे साथ जो कुछ भी हुआ है उसका इस्तेमाल कर के मैं बेहतर कैसे हो जाऊँ?” अब तुम्हारी नज़र दूसरे पर नहीं है, अब तुम्हारी नज़र अपनी बेहतरी, अपनी तरक्की पर है। और जिसकी नज़र लगातार अपनी बेहतरी पर होने लग गई, वो ज़िन्दगी में बहुत आगे जाता है।
तो बस यही मेरा संदेश है।