प्रश्नकर्ता: जैसे किसी भी व्यक्ति को अपनी कोई भी बात बताने में मतलब कोई सुन ले बिना जजमेंटल (त्वरित निष्कर्ष करे) हुए, उससे एक शान्ति का अनुभव होता है या एक सुकून महसूस होता है। ये किन कारणों से होता है? या कोई भी व्यक्ति कई बार कुछ ख़ास व्यक्ति सुनाना चाहता है, कई बार किसी को भी सुनाकर उसे एक तसल्ली मिलती है, वो किस कारण से होता है?
आचार्य प्रशांत: वो तसल्ली वास्तव में किसी अन्य को सुनाने मात्र से नहीं मिल रही है। वो तसल्ली जगत पर हमारी आश्रयता का सुबूत है। हमारी जो आमतौर पर सब समस्याएँ होती हैं, उन्हीं का सम्बन्ध जगत से होता है, हमारी कोई ऐसी समस्या तो होगी नहीं जिसमें कोई दूसरा न शामिल हो। अपनी समस्या का विवरण लिखोगे, तो उसमें कोई-न-कोई दूसरा कहीं-न-कहीं आएगा ज़रूर। जैसे— हमारी समस्याएँ दूसरों से आती हैं, उसी तरह से हम जगत पर आश्रित हैं समाधान के लिए भी। तो मन को संबल मिलता है, सहारा मिलता है, किसी ने समझ लिया, किसी ने माने किसी दूसरे ने, जगत के किसी व्यक्ति ने, हमसे बाहर के किसी ने, किसी तक बात पहुँच गयी शायद समाधान आ जाए। समाधान नहीं भी आये तो भी किसी तक बात पहुँच तो गयी।
है, ये उसी वृत्ति की कहानी जिसने हमें सर्वप्रथम समस्याएँ दिलायी थी। समस्याएँ कहाँ से आयी थीं? दूसरों से। सुनाना भी हमें किसको है समस्याओं के बारे में? दूसरों को। तो वृत्ति वही है, पहले वो समस्याएँ इकट्ठा करती है, फिर समाधान तलाशती है, लेकिन अक्सर उसके अलावा कोई चारा भी नहीं होता। क्योंकि हम इतने ही सबल होते कि अपनी समस्याएँ स्वयं सुलझा ही लेते, तो सर्वप्रथम हम उन समस्याओं में पड़े ही क्यों होते।
आदमी जगत को लेकर इतना आसक्त रहता है कि उसे मुक्ति भी जगत के माध्यम से ही चाहिए। जब जगत उसको बहुत परेशान कर देता है, तो वह सहारा भी जगत में ही खोजने निकलता है। दुनिया से ख़ूब पिटकर आये, ख़ूब पिटकर आये, अब किसी का कन्धा तलाश रहे हैं रोने के लिए। यह देख रहे हो, बात एक ही है। अभी कुछ मजबूत कन्धों ने पीटा था, और अब कोई मजबूत कन्धा तलाश रहे हो सर रखकर रोने के लिए। चीज़ वही है, हम द्वैत में जी रहे हैं, हम अपूर्णता में जी रहे हैं, हम लगातार दूसरों की ओर देख रहे हैं, संसार की ओर देख रहे हैं। लेकिन साथ-ही-साथ यह भी बात है कि इसके अलावा कोई चारा भी नहीं।
जो संसार की ओर देख ही रहा है, जिसकी सब समस्याएँ संसार से ही आ रही है, या तो कोई ऐसा जादू हो कि वो यकायक संसार से सम्बन्ध ही अपना विच्छेद कर ले। और अगर वो जादू नहीं घटित हो सकता, अगर उसकी दुनिया में लोग-ही-लोग हैं, वस्तुएँ-ही-वस्तुएँ हैं, अगर संसार ही उसका सत्य है, तो फिर उसे संसार में ही समाधान तलाशना भी पड़ेगा। संसार में ही वाक़ई उसे कोई ऐसा कन्धा तलाशना पड़ेगा जो उसके आँसुओं को सहारा दे दे। सही कन्धा तलाशना बस। ये न हो कि गये थे कान्धे पर सर रखकर रोने, हो कुछ और गया। मज़ाक़ की बात नहीं है, मुस्कराओ नहीं।
हम जिनके पास अपना ग़म ग़लत करने जाते हैं, वो बहुत-बहुत बड़े ग़म का कारण बन जाते हैं। जिसके पास तुम बार-बार जाते हो न कि अरे! ये बुरा, वो बुरा, दुनिया बुरी, और तुम्हें बताए देते है कि ये बुरा, और ये बुरा, और ये बुरा। एगनी आंट (सुझाव स्तंभकार) सुना है? एगनी आंट अंग्रेज़ी में चलता है, मुहावरा। एक मौसी जी हैं, वो एगनी आंट कहलाती हैं, उनके पास सब जाते ही हैं ये बताने कि देखो, मौसी दुनिया कितनी बुरी है, और दुनिया हमें कितनी तकलीफ़ दे रही है, और हम रोना चाहते हैं। हम सबकी ज़िन्दगी में एगनी आंट्स होती हैं, इनसे सावधान रहना। ये आंट्स बड़ी एगनी (व्यथा) का कारण बनती हैं।
जब दर्द हो तो इस तरह की मौसियों के पास नहीं, या तो एकान्त के पास जाओ या ग्रन्थों के पास जाओ, या कोई साथी हो, मित्र हो, गुरु हो उसके पास जाओ। ऐसे के पास तो जाओ ही मत, जो तुम्हारी शिकायतों के साथ सहानुभूति व्यक्त करे। तुम्हारे पास संसार को लेकर शिकायतें भरी हुई हैं, और तुम किसी ऐसे के पास पहुँच गये जो कहे, ‘नहीं, बिलकुल ठीक कह रहे हो, ये वर्मा तो है ही कमीना।‘ कोई ताज्जूब की बात नहीं कि आज इसने तुम्हें भी धोखा दे दिया।‘
जो तुम्हारी शिकायतों की आग को और हवा दे, ऐसों से बचना।
अगर तुम्हारे जीवन में ऐसा कोई है, जिसके पास तुम जाते ही दुखी होकर के हो, वो व्यक्ति ठीक नहीं हो सकता। क्योंकि उसका और तुम्हारा सम्बन्ध, आनन्द का सम्बन्ध है ही नहीं, तुम उसके पास जाते ही सिर्फ़ दुख में हो।
पर ऐसे लोग हमें अच्छे बहुत लगते हैं, लगते हैं न? जो हमारी शिकायतों में शरीक हो सकें, तुम्हारे शब्दों में जिनसे हम अपने दिल का हाल बता सकें। अरे! हमारे दिल में और होता क्या है; सत्य-स्वर्ग, वेद-पुराण तो होते नहीं हमारे दिल में। जब हम कहते हैं, ‘मुझे अपने दिल का हाल बताना है’, तो और क्या बताते हैं हम? यही तो बताते हैं; ‘फ़लाना मेरे मोज़े चुराकर भाग गया।‘ और किसी के दिल की गहराइयों में क्या रखा है, बताओ? हम दिल-दिल तो बहुत करते हैं, पर दिल में और है क्या? 'सुबह से टूथपेस्ट (दन्तमंजन) नहीं मिल रहा', 'गाड़ी पर कौआ बीट कर गया।‘ अच्छा, मुस्करा रहे हो! ये बातें हल्की लग रही है, चलो बहुत गम्भीर बातें कर लेते हैं; 'फ़लाना मेरी बीवी चुरा ले गया!‘ वो कौए की बीट से ज़्यादा गम्भीर मसला है क्या? वाक़ई? यही सब तो बातें हमारे दिल में भरी रहती है न, यही सब बातें तो तुम कहते हो कि आपको क्या मालूम इस क़ब्रिस्तान में क्या-क्या गर्क़ है।
और क्या होता है? यह तो होता नहीं कि विष्णुपुराण में क्या लिखा है, ये राज़ दबाये घूम रहे हो क्या सीने में। क्या वाक़ई ब्रह्म और आत्म एक हैं? क्या यह जिज्ञासा तुम्हारे सीने को जकड़े हुए है? हमारे सीने में और क्या होता है, यही सब तो। ७०- ८० प्रतिशत तो कामुकता, आदमी-औरत के लफड़े, इन्हीं को हम कहते हैं कि दिल-दिल। अन्धेरी रातों में दर्दभरे गीत सुनते हैं। और ये दिल का हाल तुम किसी पर ज़ाहिर करो और वह तुम्हारे साथ बड़ी सहानुभूति दिखाये, तो वो तुम्हारा हितैशी हुआ क्या, बोलो? ये अंगड-बंगड चीज़ें दिल में लिए घूम रहे हो, और किसी के पास जाकर यह सब प्रकट करो, और वो कहे, ‘बेचारा बंटू।‘ पर हमें ऐसे ही लोग चाहिए।
कुछ लोग तो ऐसे होते हैं कि उनको देखकर कई लोग रोना शुरू कर देते हैं, दिल का हाल प्रकट कर देते हैं न। वो वैसे न रो रहे हों, मन की बात मन में बैठी हुई हो, वो सामने आया नहीं, द्वार पर दिखा नहीं कि पीछे से ही रोना शुरू कर दिया। अनुभव हुआ होगा सबको। कोई व्यक्ति है वो थोड़ा तनाव में है; या कोई बात है, पर ठीक है, चल रहा है अपना, और वे दिखायी दी मौसी, मौसी दूर से दिखी और ये फट पड़े बिलकुल भै! रो रहे हैं, ऐसी मौसियों से बचना।
जब तुम कहते हो, ‘दिल का हाल बाँटना है,’ तो दिल का आन्नद तो बाँटने की बात नहीं कर रहे हो न 'नवीन(प्रश्नकर्ता)।‘ नहीं कर रहे हो न? दिल का कचरा ही, खोल देने की बात कर रहे हो। तुम दिल का कचरा खोलो और किसी को रस आ जाए, तो वो मक्खी-मच्छर, कीड़ा-मकौड़ा ही होगा, वही इंतज़ार करते हैं कि कचरा कब खुलेगा घर का। और इस फ़न में कई लोग पेशेवर उस्ताद होते हैं, उनका काम ही यही होता है, उन्हें पता है किसी के मन में सेंध कैसे लगानी है, उसके ज़ख्मों पर उंगली रख दो। किसी के मन में सेंध लगानी हो तो उससे चर्चा ही उसके दुःख-दर्द की, ग़म की करो, ‘अरे! दिवाली है आज, आपके पति ने आपको कुछ नहीं दिया?’ बहुत जल्दी मित्रता बन जाएगी, तुरन्त। यह मिली कोई जिसने तुरन्त मेरे दिल का हाल पढ़ लिया।
और यही तुम जाकर देवी जी से कहो कि 'दिवाली है, चलिए रामचरित मानस का पाठ करते हैं, चलिए राम के वृत्त को समझते है।‘ देवीजी कहेंगी; ‘मिठाई खाइए, थोड़ा मेरा सिरदर्द है, मैं आराम करना चाहूँगी।‘ और चर्चा छेड़ दो कि वो सामने वाली कमला को तो, उसके हसबैंड (पति) हार लेकर आये हैं, आपके पतिदेव आपके लिए नाक की कील तक नहीं लाये।‘ तो तत्काल मित्रता हो जाएगी। ये मक्खी और कचरे की मित्रता है, इससे बचो। और बड़ी गहरी मित्रता बैठती है, कचरे और मक्खी की।
ऐसे लोगों से, मैं कह रहा हूँ सावधान रहना, जो तुम्हारी बकवास में, जो तुम्हारी दूषित कहानीयों में भागीदार बनते हैं, अपना कान दे देते हैं सुनने के लिए। और सावधान कर रहा हूँ, ऐसे लोग अच्छे बहुत लगेंगे, सुहाते बहुत है, क्योंकि तुम चाहते ही हो कि इस वक़्त कोई मिले, जो थोड़ी सहानुभूति दे दे, रोने को कन्धा दे दे, और ऐसे लोग मिल भी जाते हैं, इनसे बचना।
और दूसरी ओर जिसके सामने तुम अपना दुःख-दर्द प्रकट करो, और वह तुम से कोई सहानुभूति न दिखाये, तो उसे तुम कह देते हो; 'निर्मम है, निर्दयी है, असंवेदनशील है, मनुष्यता नहीं है इसमें। हम इसे बता रहे हैं अभी कि चूहा हमारा पजामा कुतर गया और यह हमें सांत्वना तक नहीं दे रहा। हृदय-विदारक कांड सुनाया हमने, ‘चूहा आया, पजामा कुतरा और नाड़ा चुराकर ले गया।‘ ये कांड हमने हिमालय को सुनाया होता तो उसकी सारी बर्फ़ पिघल जाती! ऐसा रो पड़ता वो। हमने पृथ्वी को सुनाया होता तो भूचाल आ जाता! पर इनको अभी बताया हमने, ‘चूहा हमारा पजामा कुतर गया,’ ज़लज़ला आ गया, तीनों लोग काँप उठे, और उनके माथे पर शिकन भी नहीं पड़ रही— दुष्ट, दुरात्मा, निर्मम-निर्दयी दफ़ा हो जा।
बुरा लग रहा है न, जब मैं हमारे गम्भीर-गम्भीर मसलों को चूहे और नाड़े की संज्ञा दे रहा हूँ। कह रहें हैं, बताइए। कौनसा गम्भीर मसला ‘नवीन?’ ये जो ख़ाक उड़ रही है हवाओं में, ये कभी अपनी नज़रों में बड़ा गम्भीर मसला थी। बड़े-बड़े महलों में जो रहते थे, उनकी क़ब्रों को कुत्ते खोद रहे होते हैं। ये औकात है हमारे गम्भीर मसलों की। सबसे गम्भीर मसला तो जीवन ही है न, अभी मर जाओ तो तुम्हारी देह को लोग कहेंगे वहाँ मिट्टी रखी है, मिट्टी। ये हैसियत है हमारी गम्भीरता की। ये भी नहीं कहेंगे वहाँ ‘नवीन’ रखा है, क्या कहेंगे? मिट्टी रखी है वहाँ मिट्टी। और जबतक साँस चल रही है तब तक बड़े गम्भीर हो; अरे! दर्द-ए-दिल दर्द-ए-जिगर। ऐसा चेहरा बना के घूम रहे हो जैसे तुम्हारे लिए ख़ासतौर पर गुरुत्वाकर्षण तीन गुना हो, कन्धे भी नीचे को ख़िचे जा रहे हैं, गाल भी नीचे को खिंचे जा रहे हैं, बाक़ी सामान की तुम जानो!
अहंकार है न अपने दुख को बड़ी गम्भीरता से लेना, है न। हम बड़े महत्वपूर्ण हैं तो हमारे दुख भी तो बड़े महत्वपूर्ण हैं। कैसे-कैसे तो आपने महत्वपूर्ण प्रश्न लिख के भेजे हैं सुभानल्लाह! नहीं, पूछ लीजिएगा, कहीं संकोच में बुरा मान जाएँ। जिसको देखो उसके लिए उसी की कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है, सब गम्भीरता से ओतप्रोत। अभी ये (एक श्रोता की ओर इशारा करते हैं) मुस्करा रहे हैं, दो दिन पहले ये भी गहन गम्भीर घूम रहे थे। छोटे बच्चे लड़ रहे होते हैं, तो खींझते हो। गुड्डी कह रही है, ‘गुड्डू मेरी चिज्जू ले गया,’ गुड्डी बोली, ‘गुड्डू मेरी चिज्जू ले गया,’ तुम कहते हो, ‘यार ये इस बात पर मुद्दा बना रहे हैं, ये कोई बात है, ले तू दूसरी चिज्जू ले ले।‘ और हमारा हाल कुछ अलग है? 'गुड्डी की चिज्जू गुड्डू ले गया', ये हमारे जीवन की कहानी है। और गुड्डी खड़ी (रोने का इशारा करते हैं) ढोल बजा रही है। 'नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए, बाकी जो बचा काले चोर ले गये।‘
परमात्मा को छोड़ दो, प्रकृति भी हमारी शक्लें देखकर हैरान रहती है, कहती है, ‘ऐसा तो नहीं पैदा करा था, ये कलाकारी तुमने की कैसे? पैदा तो तुम्हें ठीक-ही-ठाक किया था, ऐसे कैसे हो गये?’ ऐसे ही हो गये। 'और इस दिल में क्या रखा है, तेरा ही दर्द छुपा रखा है,' जिसको देखो उसी के पास दर्द का समन्दर है।
पहाड़ हैं, चिड़िया हैं, कल वापस लौट रहे थे, आधी रात के बाद, रास्ते में इतने खरगोश मिले की पूछो मत, और गाड़ी के आगे आकर खड़े हो जायें। पेड़ हैं, पक्षी हैं, सड़क पर कुत्ते भी हैं, इतना दर्द कहीं दिखाई देता है जितना इंसान के चेहरे पर है? कहीं दिखाई देता है? जानवर मर भी रहा होता है, कट भी रहा होता है, तो भी इंसान से बेहतर हालत में होता है। और वो किसी दूसरे जानवर के पास जाए कि मौसी दर्द बहुत है, तो दूसरा जानवर उसे ज़रा भी घास नहीं डालेगा, कहेगा, 'चल हट, मस्त मौसम है, बारिश हो रही है, चरने दे।‘
क्या दर्द है? कहाँ दर्द है? एक दर्द होना चाहिए आदमी को, आदमी होने का दर्द, वो दर्द हमें पता चलता नहीं, उसको वियोग कहते है। अधपकी चेतना का दर्द, अजनमें, आधे जनमें होने का दर्द, वो दर्द हमें नहीं पता चलता, बाक़ी सब दर्द हमको हैं। मुक्त होने के लिए पैदा हुए थे, बन्धृंबन्धें जिये जा रहे हैं, ये एक दर्द होना चाहिए बस, वो दर्द नहीं है, बाक़ी सब है।
अन्दर की बात बताऊँ, दूध वाला पानी मिला रहा है आजकल। 'घोर समस्या!’ हम ऐसे उथले हैं कि हमारे सुख तो सुख, दुखों में भी गहराई नहीं है, हमारे दर्द भी सच्चे नहीं है। ये सुनने में थोड़ा विचित्र लगेगा पर रोता हुआ कोई व्यक्ति ऐसा नहीं होता, जिसे पाँच मिनट में हँसाया न जा सकता हो, हमारे आँसुओं में भी कोई सातत्य नहीं होता। जिन्होंने ये बात जान ली, अब वो दुनिया को, और दुनिया वालों के दुख को गम्भीरता से कैसे लें, बोलो? कोई रो रहा है, हाय-हाय!, हाय-हाय-हाय! ५ लाख का नुकसान हो गया, उसे १० लाख का चेक दिखा दो, कहाँ गये आँसू? १० लाख में नहीं मान रहा? २० का दिखा दो। और सुनने में विचित्र लगेगा शायद, विरोध और इनकार करना चाहोगे, पर कोई रो रहा है; हाय-हाय!, हाय-हाय! पत्नी मर गयी। उसको तत्काल किसी सौंदर्य-लक्ष्मी के दर्शन करा दो कि ये आपसे विवाह करने को तैयार हैं इसी वक़्त, आँसू थम जाएँगे। नहीं थम रहे आँसू? और खूबसूरत, और ज़्यादा उत्तेजक कामिनी ले आओ, आँसू थम जाएँगे। अभी भी नहीं थम रहे? और कोई ले आओ जो और ज़्यादा उत्तेजक हो, और ज़्यादा मनोरंजक हो, और ज्यादा मनभावन हो, आँसू थम जाएँगे। क्योंकि खेल तो पदार्थ का ही है न। आँसुओं में भी कहाँ सच्चाई है। कैसे उन्हें गम्भीरता से ले रहे हो। क्यों उन्हें इतना महत्व दे रहे हो कि किसी के सामने प्रकट भी करना है। पर अगर ज़रूरत लगे ही प्रकट करने की, तो मैंने कहा, ‘किसी ऐसे के सामने प्रकट करना, जो तुम्हारे आँसुओं को बहुत महत्व न दे, जो तुम्हारे आँसुओं को सच्चा न ठहरा दे।‘
जो दुख को सच्चा मान रहा है, याद रखना, वो फिर सुख को भी सच्चा मानेगा। जिसे दुख बहुत बुरा लग रहा है, वो फिर सुख की और प्रसन्नता की ओर दौड़ेगा। और सुख और प्रसन्नता अपनेआप में बहुत बड़ा बन्धन है। जितने लोग दुखवादी हैं, वो वास्तव में हैं पदार्थवादी ही। जो बार-बार कहे, बार-बार कहे कि बड़ा दुख है, बड़ा दुख है, वो वास्तव में यही कह रहा है कि संसार से सुख चाहिए था वो नहीं मिल रहा है।
आध्यात्मिक मन यह नहीं कहता कि संसार से सुख चाहिए था, उसे जब दुख होता है तो वो दुख और सुख दोनों को त्यागता है, एकसाथ। वो दुख से भाग कर सुख की ओर नहीं जाता, वो दुख और सुख दोनों का ओछापन एकसाथ देखता है, और दोनों से आगे बढ़ता है।
दुख सबको आते हैं, पर ये दो तरह के प्रतिकार होते हैं दुख के, उनका अन्तर समझ लीजिएगा। साधारण संसारी क्या प्रतिक्रिया देता है दुख को? दुख आया तो सुख की ओर भागेगा, दुख का निरोध करेगा सुख की ओर बढ़कर। और जो समझदार है, वो वास्तव में दुख से मुक्त ही होना चाहता है, वो कहता है, ‘ये दुख और सुख दोनों खेल इसी जगत के हैं, इसमें लिप्त रहूँगा तो ये दोनों ही मिलेंगे। और वो दोनों एक ही वस्तु के नाम हैं, मैं इन दोनों को ही महत्व नहीं दे सकता। रखा क्या है।
जब दुनिया में ही कुछ नहीं रखा, तो दुनिया से मिले दुख में क्या रखा हो सकता है। जब दुनिया में ही कुछ नहीं रखा, तो दुनिया से मिले सुख में क्या रखा हो सकता है। दुख और सुख होते तो दोनों दुनिया से ही सम्बन्धित है न, जिसने दुनिया के ही यथार्थ को जान लिया वो दुनिया से मिले सुख को कैसे बड़ा वज़न देगा। वो दुनिया से मिले सुख-दुख दोनों को ही कैसे वज़न देगा।
कोई चीज़ दो पैसे की है पता चल गयी, लगता था दो करोड़ की है, निकली— दो पैसे की। वो मिल गयी, कितना सुख आया? कितना सुख आया? वो छिन गयी, कितना दुख आया? तो सुख और दुख अगर तुम्हें बहुत भारी अनुभव हो रहे हैं, इसका मतलब वो चीज़ अभी तुम्हे दो करोड़ की ही लग रही है; वो चीज़ दो करोड़ की है ही नहीं।