प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मेरा मन गुरु के प्रति बड़ी तीव्रता के साथ आकर्षित होता जा रहा है। मैं जब घर पर विडियो देखती हूँ तो लगता है आपके सामने होना चाहिए, ऑफ़िस में भी जब काम करती हूँ तो यही विचार आता है; लेकिन यहाँ पर जो चल रहा है, उससे काफ़ी डर भी लगता है। आचार्य जी, गुरु का हमेशा, प्रतिपल सान्निध्य चाहना, मन की दुर्बलता है या श्रद्धा और समर्पण?
आचार्य प्रशांत: वो इसपर निर्भर करता है कि गुरु शब्द से आपका आशय क्या है। किनका है (प्रश्न)?
गुरु का अर्थ न प्राप्ति होता है, न व्यक्ति होता है; गुरु का अर्थ मुक्ति होता है। न तो अपने लिए कुछ पाना है, प्राप्ति; न कोई व्यक्ति है गुरु। गुरु का अर्थ है, स्वयं से मुक्ति। न प्राप्ति, न व्यक्ति; बस मुक्ति।
तो अगर आप कह रही हैं कि गुरु अर्थात मुक्ति के प्रति वास्तव में आपका आकर्षण बढ़ता जा रहा है तो इससे शुभ तो और कुछ हो ही नहीं सकता!
पर शर्त कड़ी है, मुक्ति की ओर ही आकर्षण होना चाहिए, प्राप्ति या व्यक्ति की ओर नहीं।
बहुत सावधान रहिएगा, ये न हो कि गुरु को भी आप किसी छवि में या धारणा या कल्पना या सिद्धान्त में बाँध लें! जब कोई छवि इत्यादि बन जाती है गुरु की तो आदमी उसको फिर साकार करना चाहता है, पाना चाहता है। वो बहुत दुख का कारण बन जाता है।
और जब गुरु कोई व्यक्ति हो जाता है, तब तो अनर्थ, पूछो ही मत! अनर्थ है और अपमान है।
गुरु, जिसका वास्तविक अर्थ शुद्ध और मात्र शुद्ध सत्य होता है, उसको नीचे खींचकर आपने अपने व्यक्तित्व को बचाने के लिए उसे भी व्यक्ति ही बना दिया। अब तो जो ठेस लगेगी और ठोकर लगेगी और जो पीड़ाएँ होंगी, उनकी कोई सीमा ही नहीं। व्यक्ति समझते हो न? शरीर। जब मैं कह रहा हूँ, ‘गुरु व्यक्ति नहीं, प्राप्ति नहीं, मुक्ति मात्र है।’ तो मैं वास्तव में क्या कह रहा हूँ समझना।
व्यक्ति माने? शरीर। प्राप्ति माने? सिद्धान्त और छवि अर्थात मन—सब छवियाँ कहाँ होती हैं? मन में—और मुक्ति माने? आत्मा मात्र।
जब मैं कह रहा हूँ, व्यक्ति नहीं है गुरु; तो मैं कह रहा हूँ, शरीर नहीं है। जब मैं कह रहा हूँ, प्राप्ति नहीं है गुरु; तो मैं कह रहा हूँ, मन नहीं है गुरु। जब कह रहा हूँ, मुक्ति मात्र है गुरु; तो कह रहा हूँ, आत्मा मात्र है गुरु।
लेकिन हमारे लिए बड़ा मुश्किल हो जाता है, गुरु को मुक्ति मात्र देखना क्योंकि हम स्वयं मन और तन से बँधे हुए लोग हैं। जो तन से बहुत बँधा हुआ है, वो गुरु को भी किस रूप में देखेगा? तन के ही रूप में देखेगा, अर्थात् वो गुरु को व्यक्ति समझेगा। बार-बार कहेगा, ‘ये व्यक्ति ही तो है, ये भी तो एक इन्सान है, ये भी तो एक शरीर है।’
और ग़लत तो नहीं कह रहा क्योंकि शरीर तो है। बात ये है कि क्या सिर्फ़ शरीर है; शरीर तो मुर्दे का भी होता है, शरीर तो विक्षिप्त का भी होता है, शरीर तो पशु का भी होता है, शरीर तो अनाड़ी-अज्ञानी का भी होता है, तो क्या सिर्फ़ शरीर ही दिखाई दे रहा है तुम्हें?
सिर्फ़ शरीर ही दिखाई दे रहा है तुम्हें तो बहुत कम हैसियत की चीज़ दिखाई दे रही है तुम्हें। तुम्हें जो दिखाई दे रहा है, वो ऐसा नहीं कि तुम्हें ग़लत दिखाई दे रहा है। शरीर है, पर क्या सिर्फ़ शरीर है?
कि जैसे कोई मिठाई के डिब्बे में क्या देखे? डिब्बा। ग़लत नहीं देखा, डिब्बा तो है; पर क्या सिर्फ़ डिब्बा है? गुरु को शरीर देखना ऐसे ही है कि जैसे कोई मिठाई के डिब्बे चबाता हो और फिर डिब्बे को गाली देता हो कि मीठा बिलकुल नहीं है। बात समझ में आ रही है?
और जो मन से बहुत ज़्यादा संयुक्त लोग होते हैं, वो गुरु को देखते हैं एक प्राप्ति की तरह। वो कहते हैं, ‘इनके विचार वगैरह सीख लो इनसे, इनकी बातें पकड़ लो, प्राप्त कर लो इनसे कुछ।’ गुरु क्या है उनकी नज़रों में? ज्ञान प्राप्त करने का माध्यम। कह रहें हैं, ‘यहाँ आये हैं, इनसे कुछ ज्ञान वगैरह ले लेते हैं, कुछ अर्जित करके जाएँगे यहाँ से; बाहर बताएँगे कि ये सब सीखकर आये हैं, तीन दिन का शिविर था, समय भी लगाया है, पैसा भी लगाया है, देखो! ये देखो, पूरी नोटबुक् भर कर लाये हैं, इतनी बातें सीखीं।’
ये सब मनवादी लोग हैं, इन्हें मन से आगे की किसी सत्ता का पता ही नहीं, ये अपने खोपड़े में जीते हैं। तो फिर ये गुरु को भी ऐसे ही समझेंगे कि गुरु कौन है? फ़लाने सिद्धान्तों का वाहक। ये बार-बार कहेंगे, ‘गुरुदेव, आपके विचारों से हम बहुत प्रभावित हैं।’ या ऐसे कहेंगे कि हमारे गुरुजी फ़लानी विचारधारा पर चलते हैं। और फिर एक इनसे आगे के खिलाड़ी होते हैं, जो कहते हैं, ‘यार! तन-मन बनकर बहुत देख लिया, बड़ी आफ़त है, इन्हीं से तो मुक्ति चाहिए।’ फिर वो गुरु के सामने आते हैं, मुक्ति की ख़ातिर। न उन्हें तन की अभीप्सा, न मन की आकांक्षा; वो कुछ पाने नहीं आते; वो कहते हैं, ‘जो कुछ शरीर के झोपड़े और ऊपर वाले खोपड़े में भरा हुआ है, उससे निजात चाहिए। त्राहिमाम! मुक्ति दो, मुक्ति!’
इन्हें कुछ लाभ होगा। ये न तो शरीर का सौदा करने आये हैं, न मन की किताब भरने आये हैं; ये अपना बोझ हल्का करने आये हैं। ये वो सब छोड़ने आये हैं, जो ये व्यर्थ ही ढो रहे थे। इन्हें लाभ होगा।
तो जब आप कह रही हैं कि गुरु का सान्निध्य चाहिए तो पहले स्पष्ट हो लीजिए कि इन तलों में से किस तल पर गुरु का सान्निध्य चाहिए।
ये चेतावनी मैंने पहले ही दे दी है कि अगर तन के तल पर या मन के तल पर चाहिए तो लाभ तो कुछ नहीं ही होगा, दुख आप अपने लिए पैदा कर लेंगी।
हाँ, तीसरे तल की साधक हैं अगर आप, फिर तो बहुत ही अच्छा है। जो कुछ भी कूड़ा-कचरा है जीवन का, गुरु को लक्ष्य और माध्यम बनाकर के उसको फेंकती चलिए; जीवन हल्का भी होता जाएगा और साफ़ भी, इसी का नाम अध्यात्म है।