प्रश्नकर्ता: जो अद्वैत बोधस्थल में आप लोग बंधनों की बात करते हैं और उनके सॉल्यूशंस (समाधान) की बात करते हैं…
आचार्य प्रशांत: बंधनों की बेटा, बात नहीं करनी पड़ती। बंधन में तो सब हैं ही न! तो जो यथार्थ है उसकी बात होती है। यथार्थ ऐसा नहीं है कि अलग से आकर बात करनी पड़ती है कि आओ तुम बैठो, बंधन की बात करेंगे। वो व्यक्ति बंधन में है ही और वो जो बंधन है वो उसके हर काम में दिखाई दे रहा है। तो बस उस काम की बात हो जाएगी कि ये देखो, ये काम है, ऐसा है, वैसा है, यह है — बस हो गया।
प्र १: तो आचार्य जी, जैसे कल श्वेताश्वतर उपनिषद की रीडिंग (पठान) थी, आज माण्डूक्य की। तो इसमें मुझे भी ऐसी फीलिंग (भावना) आई कि जैसे जो पढ़ रहा हूँ उसको मैं अपनी जो परिस्थिति है उससे ज़्यादा कनेक्ट (जुड़ाव) नहीं कर पाया। मतलब ऐसा लग रहा था कि एकदम दूर की बातें हैं। तो उपनिषद मतलब किसको पढ़ना चाहिए?
आचार्य: जो कोई जाकर के श्वेताश्वतर ऋषि के सामने बैठ सके, इतनी हिम्मत दिखा सके, उसी के लिए है वास्तव में। ऋषि भी तो एक एँट्री बैरियर (प्रवेश अवरोधक) बना करके बैठते थे न! ऐसा थोड़े ही था कि चौराहे पर घूम रहे हैं। प्रवेश परीक्षा देनी होती थी। प्रवेश के मार्ग में उन्होंने खुद ही अवरोध खड़े किए थे। और उनके सामने बैठोगे तो ऐसा नहीं है कि वो तुमको बहुत प्यार से सहलाएँगे; उनके तरीक़े फिर उन्हीं के तरीक़े होते थे। जो इतनी अदम्य लालसा रखता हो कि सब छोड़-छाड़ के जंगल में जाए, उसके बाद ऋषि की — क्या बोलूँ, कह लो — सनक बर्दाश्त कर सके, उसी के लिए है।
वो ऋषि थे, अभी इस समय में गुरजिएफ हुए थे। उनकी अपनी विशेषताएँ थीं — गुरजिएफ। तो वो क्या करते थे? वो कहते थे ऐसे-ऐसे शिविर लगा है। तो जब शिविर वाले सब आ जाते थे तो कहते थे, ‘नहीं नहीं’। उन्हें पता चलता था यहाँ है ही नहीं, ऋषिकेश में है। और लोग परेशान हों, कहें, ‘ये है, वो है, यहाँ आए हैं, वायरस फैला हुआ है, पैसा खर्च किया है, बुकिंग करी हुई है, यहाँ पहुँच गए हैं और ये बोल रहे हैं वहाँ ऋषिकेश में हैं।’ और ये बात कोई याचना के साथ, अपॉलॉजी के साथ नहीं बोली जा रही है कि सॉरी (माफ़ करना), ऋषिकेश जाइए।
‘नहीं, ऋषिकेश में है। जाना हो तो जाओ, नहीं जाना मत जाओ।’ ऋषिकेश पहुँचे तो बोले, ‘नहीं, कहाँ आ गए, बनारस में है, बनारस में।’
तो ऐसे करके जब २० जनों ने अपना नाम लिखाया होता था तो दो पहुँचते थे। और जब दो पहुँचते थे तो वहाँ उनको ये थोड़े ही होता था कि आओ-आओ, तुम ही दोनों तो काबिल निकले। मेरे बेटों, तुमने नाम रोशन कर दिया मेरा अध्यात्म का, आओ आओ। वहाँ ये नहीं होता था। फिर वो दो पहुँच गए हैं तो उनको गालियाँ पड़ती थीं। और ऐसा नहीं है कि वहाँ पहुँच गए हैं तो फिर उनको प्रसाद चखाया जा रहा है, ये है वो है।
बैठा होता था, कहता था, ‘हाँ बताओ काहे को आ गए?’ बोलते थे, ‘हम आध्यात्मिक लोग हैं। हमने पूरा जीवन सात्विकता में बिताया है। हमने कभी कोई ग़लत काम नहीं किया। सब कुछ कर लिया है। ९९ सीढ़ियाँ पार कर ली हैं अब बस मुक्ति बाकी है।’ वो बोलते हैं, ‘अच्छा, अच्छा तो तुम बहुत साफ़ रहे हो, बिलकुल पाक जीवन बिताया है?’ बोलते हैं, ‘बिलकुल शुद्ध सात्विक शुचिता से परिपूर्ण।’ कहता है, ‘लाओ रे वोडका। और तुम आज पूरी रात पियोगे।’ बोला, ‘जी छोड़िए। हमने प्याज-लहसुन नहीं सूँघी कभी।’ ‘नहीं-नहीं तुम ये पियोगे, रात भर यही पियो।’ और वो पिलाए जा रहा, पिलाए जा रहा। पिलाया नहीं कि उनके भीतर जो हवसी बैठा होता था वो कूद के फिर बाहर आता था। और वो बाहर आए नहीं कि पटाक से फिर गुरजिएफ एक लगाए। बोले ‘पी और।‘
एक है जो बोल रहा है, नहीं, मैं तो बिलकुल अपनेआप को जीत चुका हूँ, मुझे कभी क्रोध नहीं आता। उसको पहला चांटा पड़ा और वो गाली बकने लग गया। बोले, ‘ये देखो, इनको क्रोध नहीं आता था कभी’। एक है जो बोल रहा है — मैं तो पूरा ब्रह्मचारी हूँ। उसने पहली बोतल अंदर करी नहीं कि वो बिलकुल हवसी साँड बन गया। क्या है, कहाँ है, कैसा है? तो ये सब।
अब मैं नहीं कह रहा हूँ कि उपनिषद् के ऋषि भी यही करते होंगे। लेकिन कम-से-कम वो वैसे तो बिलकुल भी नहीं थे जैसी आप उनकी कल्पना करते हैं, जैसी आपने उनकी छवियाँ और चित्र बना लिए हैं। भाई, जैसे हम हैं हम तो उसी हिसाब से छवि बना लेते हैं न? और हम बड़े अच्छे ही होते तो हमें उपनिषदों की ज़रूरत क्यों पड़ती। हम भ्रमित, हैं इसीलिए हमने जो उपनिषदों की और उनके ऋषियों की छवियाँ बनाई हैं वो भी भ्रामक हैं।
तो आप ऐसे मत मानिए कि ऐसा है, वैसा है। सच्चाई इतनी सीधी चीज़ होती है, इतनी सीधी कि हमें तो टेढ़ी ही लगेगी। तो हमारे देखे सच्चाई एकदम टेढ़ी होगी क्योंकि हम टेढ़े हैं न। टेढ़ा सीधे को देखेगा तो बोलेगा कि ये चीज़ टेढ़ी है। टेढ़ा टेढ़े को देखेगा तो बोलेगा, ये सिधाई है।
ये सब जो श्लोक आपके सामने हैं ये ऐसे ही नहीं आ जाते। ये श्लोक समझ लीजिए ऐसे हैं जैसे कभी गन्ने का रस निकालने की मशीन देखी है? ये रस हैं। इसके लिए जीवन को गन्ना बना देना पड़ता है। एक बार अंदर गया, फिर वो क्या करता है गन्ने वाला? वो उसको लेता है और दोहरा कर देता है और फिर अंदर डालता है। और कई बार तो फिर एक बार और। तो वो जो फिर रस की आख़िरी बूँद होती है न, वो पहली वाली भी नहीं, वो जो आख़िरी बूँद निकलती है एकदम निचोड़ गन्ने का, वो उपनिषद होती है। वो फिर कह लीजिए कि रस है, चाहे तो कह लीजिए रक्त है।
जो अपनी ज़िंदगी को इतना ज़्यादा घिसने को तैयार हो जाता है वो फिर उपनिषद की एक बूँद पाता है। तो यहाँ तो हमारे सामने बहुत व्यवस्थित तरीक़े से उपनिषद के श्लोक आ गए। हमको लगता है ऐसे ही कोई बैठा होगा और ‘हाँ भाई लिखो पहली बात… दूसरा लिखना ज़रा।’ ऐसे नहीं होता है। कई शताब्दियों में ये रचे गए हैं। बीस-बीस चालीस-चालीस साल बीतने पर एक श्लोक निकल के आता होगा। किसी ने बीस साल जीवन की धूल फाँकी तब एक श्लोक उससे उद्भूत हुआ। बहुत ऊँची कीमत अदा करनी पड़ती है। हमें तो ऐसे छपा-छपाया मिल गया, हमको लगता है हाँ ठीक है भाई, हो गया।
और ये भी मत सोचिए कि बीस-चालीस साल वो नदी किनारे बैठ के तपस्या कर रहा है तब ये श्लोक निकला है। नहीं, तपस्या उसके जीवन के अनुभवों का एक हिस्सा हो सकती है — वो जो नदी किनारे वाली तपस्या होती है — पर सिर्फ़ नदी किनारे तपस्या करने से उपनिषद का जन्म नहीं होने वाला। समूचे जीवन का बलिदान देना होता है, जीवन के हर रंग को जानना-समझना होता है। जीवन के बिलकुल यथार्थ में उतरना पड़ता है तब उपनिषद उठता है, बहुत दुःख झेलने पड़ते हैं। आप नहीं कल्पना कर सकते कि ऋषि कितना रोए होंगे। कितनी चोटों से गुज़रता है एक ऋषि एक श्लोक के लिए, ये हमारी कल्पना के बाहर की बात है।
जिनमें हौसला हो, तैयारी हो उतनी चोटें झेलने की, उनके लिए हैं उपनिषद। पर फिर आनंद भी अतीव है। वैसा आनंद आम-आदमी को कहाँ मिलने का? चोट के बाद नहीं है आनंद। चोट में है आनंद। लेन-देन का नहीं है कि बैंक में आज पैसा जमा कराओगे तो कल उसपर ब्याज मिलेगा। चोट में ही आनंद है, उसी आनंद का नाम उपनिषद है।
शुरू में थोड़ा सा दुखता है, फिर मज़ा आने लगता है — झेल के तो देखिए।
“पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।“
दर्द के बिना कोई उपनिषद नहीं। अहम और आत्मा के बीच में दर्द का ही सागर है। दर्द का ही फासला है, दर्द से ही यात्रा है और दर्द ही सहारा है — दर्द ही तरीक़ा है।
प्र १: आपने बोला, मेरे को कुछ ऐसी ही फीलिंग आ रही थी पढ़ते हुए भी उपनिषदों को कि मतलब एकदम नर्सरी का भी बच्चा नहीं हूँ और मतलब पता नहीं, बारहवीं का पढ़ रहा हूँ। तो जिसको कनेक्ट नहीं हो पाता हो अपने जीवन की चीजों से या खुद ही टेढ़ा बहुत ज़्यादा हो तो वो क्या पढ़ना शुरू करे? मतलब बहुत सारे जैसे ग्रन्थों के नाम पता हैं पर कुछ ये समझ में नहीं आता कि शुरू कहाँ से करूँ?
आचार्य: वीडियोज़ ही देख लो न।
प्र १: वो तो देखता हूँ; काफ़ी टाइम से देख रहा हूँ।
आचार्य: तो वही देखते रहो तुम, वही देखते रहो।
एक तिहाई वीडियो तो किसी-न-किसी ग्रंथ पर ही हैं। धीरे-धीरे समझने लगोगे, फिर वो स्थिति भी आ जाएगी कि स्वयं ही उठाकर के पढ़ने लग गए।
प्र २: नमस्कार आचार्य जी। अभी जब सब उपनिषदों की बात हो रही है, वेदांत की बात हो रही है तो वैन आई एम लिसिनिंग टू ऑल दीज़ थिंग्स (जब मैं सुनती हूँ इन सब चीजों को), मतलब देयर इज़ लॉट ऑफ डिसकंफर्ट इन माय बॉडी एँड इट इज़ वैरी पेनफुल (मेरे शरीर में बहुत तक़लीफ़ हो रही है और बहुत दर्द हो रहा है)। पर मेरे को बहुत चीज़ें समझ नहीं आ रही हैं कि ये सब चीज़ें मैं सुन रही हूँ तो इससे मुझे असल ज़िंदगी में क्या लाभ मिलेगा। और फिर आपने अभी ये कहा कि हमें अपनेआप को मिटाना होता है। अहम को ख़त्म करना होता है तब हम आत्मा तक पहुँचते हैं और जब हम आत्मा तक पहुँचते हैं तब हमें ब्रह्म का रियलाइज़ेशन (प्राप्ति) होता है। तो ये सब चीज़ें हम क्यों करें? मतलब व्हॉट विल वी अल्टीमेटली गेट आउट ऑफ डूइंग ऑल दीज़ थिंग्स (इन सब चीजों को करने से आख़िर में हमें क्या मिलेगा)?
आचार्य: अल्टीमेटली (आख़िर में) कुछ नहीं मिलना है। अभी समस्या है, अभी उसको हटाना है।
प्र २: तो मेरे को अभी ये सब बातें सुनने में बहुत तक़लीफ़ हो रही है। मेरे को समझ में नहीं आ रहा है…
आचार्य: तक़लीफ़ हो नहीं रही है, जो तक़लीफ़ है ही वो सामने आ रही है। और वो ही जो तक़लीफ़ है उसी को तो मिटाना है।
उपनिषद किनके लिए हैं? जिन्हें उपनिषदों से तक़लीफ़ होती है — बस यही समझ लो। जिस दिन तुम्हें उपनिषदों से तक़लीफ़ होनी बंद हो गई उस दिन तुम्हें उपनिषदों की ज़रूरत भी नहीं रही।
प्र २: मतलब जो ऋषि हुए थे उन लोगों ने ये लिखे किस लिए थे? मतलब वो लोगों को क्या बताना चाहते थे कि ये उपनिषद के श्लोक आप लोग पढ़ेंगे तो आपको ये….
आचार्य: वो कहते थे, जो जीव पैदा हुआ है वो बड़े दुःख से गुज़रता है। उस दुःख से मैं गुज़रा हूँ, उस दुःख से मैं तुझे भी गुज़रते हुए देख रहा हूँ। मैं नहीं चाहता तू उतने दुःख से गुज़रे। इसलिए तुझे दो बातें बता रहा हूँ जिनका नाम है उपनिषद।
प्र २: तो ये जो दो उपनिषद हैं श्वेताश्वतर उपनिषद और आज का जो है माण्डूक्य, बस यही सार है — मतलब उसका पूरा निचोड़ है इन सब श्लोकों में?
आचार्य: हर उपनिषद अपनेआप में सम्पूर्ण है लेकिन हर शिष्य अपनेआप में अपूर्ण है। तो अलग-अलग शिष्यों के लिए फिर अलग-अलग उपनिषद ज़्यादा उपयुक्त होते हैं। अगर आप समझ सकें तो जो संक्षिप्त से संक्षिप्त उपनिषद है, वो भी अपनेआप में पूरा है। उसका हर श्लोक अपनेआप में पूरा है। ॐ ही अपनेआप में पूरा है। लेकिन हम ऐसे होते नहीं न कि हम छोटी सी बात से ही सब कुछ समझ जाएँ। तो फिर इसलिए अलग-अलग तरीकों से बताया गया है। निरालंब उपनिषद में एक तरीक़े से बताएँगे, छांदोग्य उपनिषद में दूसरे तरीक़े से बताएँगे, भगवद्गीता में तीसरे तरीक़े से बताएँगे।
प्र २: तो कितने उपनिषद् हैं कुल?
आचार्य: बहुत सारे। आप शुरुआत तो करिए। वैसे तो दो सौ से ऊपर हैं।
प्र २: अच्छा।
आचार्य: जो श्रुति में मान्य उपनिषद हैं वो १०८ हैं। प्रमुख उपनिषद ११ माने जाते हैं। लेकिन आप कहीं से भी शुरू करिए — खैर ये मैं ग़लत बोल रहा हूँ कहीं से भी शुरू करिए — आप सही उपनिषद से शुरू करिए जो आपको समझ में आ सके, जो आपको समझाया जा सके।
प्र २: अच्छा इससे अलग एक सवाल है। जैसे हम ‘अ ऊ म’ के बारे में बात कर रहे थे। ‘अ’ जाग्रत अवस्था है, ‘ऊ’ स्वप्न अवस्था है और ‘म’ सम्पूर्ण नींद की अवस्था है जिसमें हमें कोई स्वप्न नहीं आते और वो पुरे मौन की अवस्था होती है। मतलब जब इंसान बीमार होकर वो मरने से पहले जब वो कोमा में चला जाता है तो वो क्या अवस्था होती है? मतलब जब इंसान कोमा में होता है तो बाहर के लोगों को तो लगता है कि ये किसी भी चीज़ से रिस्पॉन्ड (जवाब देना) नहीं कर रहा है। उसको दर्द दो तो नहीं रिस्पॉन्ड कर रहा, उसको आवाज़ लगाओ तो नहीं रिस्पॉन्ड कर रहा। तो वो होता क्या है?
आचार्य: उसको आप सुषुप्ति का ही एक और सघन संस्करण मानिए। सुषुप्ति में इतना तो होता है न कि एक बार उठाने पर नहीं उठा तो चार बार उठाओ तो उठ ही जाएगा, कोमा में चार बार उठाने पर भी नहीं उठता। तो वो और उसको आप गहरी ही सुषुप्ति मान लीजिए।
प्र: क्या वह बाहरी दुनिया को परसीव (समझ) रहा है?
आचार्य: परसीव कर रहा होता तो आप झंझोड़ते तो कुछ तो प्रतिक्रिया आती न! अभी तो आप उसको सुई भी चुभो दें तो उसे कुछ पता नहीं चलता। चेतना की तीन ही अवस्थाएँ नहीं होतीं, चेतना की एक चौथी अवस्था भी होती है — उसको मृत्यु कहते हैं। मृत्यु भी चेतना की ही एक अवस्था है। इसीलिए जो ‘म’ के पार निकल गया, वो मृत्यु के पार भी निकल जाता है। जो चेतना की हर अवस्था के पार निकल गया वो फिर मृत्यु के पार निकल जाता है; ऐसा उपनिषद कहते हैं न? उसकी वजह यही है। जिसको हम मौत बोलते हैं वो भी चेतना की ही एक अवस्था है। है वो चेतना के ही तल पर।
भई, दस नंबर के सवाल पर किसी की कॉपी में लिखा गया आठ, किसी को मिले छ:, किसी को मिले पाँच, किसी को मिला शून्य। ये शून्य भी एक अंक ही तो है न? है तो वो आठ छ: और पाँच के ही आयाम में न! तो वैसे ही मृत्यु है जब आपकी चेतना शून्य हो जाती है। लेकिन है वो चेतना के ही आयाम में। शून्य हो गई, पर है। चेतना ही तो शून्य हुई है।
आप ये थोड़े ही बोलेंगे कि मार्क्स (अंक) नहीं आए। आप क्या बोलेंगे? मार्क्स ज़ीरो आए। माने आए तो हैं पर कितने हैं? शून्य हैं। आप ये थोड़े ही करेंगे कि उसके खाने में कुछ नहीं लिखेंगे। क्या आप कुछ नहीं लिखते? नहीं कुछ नहीं तो नहीं लिखते, आप क्या लिखते हैं? ज़ीरो लिखते हैं न? तो जो ‘अ ऊ और म’ में अटका रहेगा उसे मृत्यु में भी अटकना पड़ेगा।
ये जो हमने कहा था ना ये चक्कर चलता रहता है — ‘अ ऊ म, अ ऊ म, अ ऊ म।’ इस चक्कर के दो परिणाम हो सकते हैं। एक तो ये कि ये ‘अ ऊ म’ मौन की तरफ़ निकल जाए और एक ये कि ये ‘अ ऊ और म’ मृत्यु की तरफ़ निकल जाए। अब ये आपको देखना है कि ये आपका ‘अ ऊ म’ का चक्कर मृत्यु की तरफ़ निकलेगा या मौन की तरफ़ निकलेगा। मृत्यु की तरफ़ निकलेगा तो अभी वो चेतना की एक अवस्था में फँसा हुआ है; माने चक्कर अभी चल ही रहा है, आप बाहर नहीं निकले। मौन की तरफ़ निकल जाएगा तो बाहर निकल गए। हम जैसी ज़िंदगी जीते हैं उसमें ‘अ ऊ और म' सिर्फ़ मृत्यु की तरफ़ निकलते हैं। अध्यात्म कहता है ये ‘अ ऊ म’ को मौन या मुक्ति की तरफ़ निकलने दो।